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आते ही बिट्टिदेव ने राजकुमारी को अपने अंक में उठा लिया और सबके समक्ष आचार्यजी के पास जाने के लिए आगे बढ़े। पट्टमहादेवी शान्तलदेवी ने उनका अनुसरण किया। बच्ची को बिट्टिदेव ने आचार्यजी के सामने उतारा और हाथ जोड़कर प्रणाम किया, फिर कहा, "बेटी. श्री श्री के चरणों में प्रणाम करो।"
राजकुमारी ने पिता की बात पर ध्यान न देकर, चकित नेत्रों से अपलक आचार्यश्री को देखा। कुछ क्षणों तक देखती ही रही।
आचार्यजी ने अपना वरद हस्त आगे बढ़ाते हुए मुस्कुराकर कहा, "आ बेटी, आ! मैं कौन हूँ जानती हो?"
राजकुमारी मन्त्रमुग्ध की तरह आगे बढ़ी। उसने स्वयं भी उनकी ओर हाध बढ़ाये। हंसते हुए आचार्य को देखती रही। उसे कुछ सूझा। कुछ कहने के लिए उसने मुंह भी खोला।
इतने में आचार्य ने राजकुमारी का हाथ अपने हाथ में ले, यास खींच लिया। और पूछा, "मैं कौन हूँ? तुम जनती हो?"
दुबारा वही सवाल करने पर वहाँ उपस्थित लोगों को कुछ विचित्र-सा लगा। राजकुमारी ने कहा, "हाँ, जानती हूँ।"
"तो बताओ, देखें, मैं कौन हूँ?" कहते हुए आचार्य बच्ची के सिर पर हाथ फेरने लगे।
"मेरा गला घोंटने के लिए जो दो व्यक्ति आये थे, उनको भगानेवाले आप ही थे न?" राजकुमारी ने कहा। राजकुमारी की बात सुनकर आचार्यजी को आश्चर्य हुआ।
"तब तो तुमको मालूम नहीं कि मैं कौन हूँ।" आचार्य बोले। __ "आह ह हा! आप ही थे। यहाँ आपकी तरह कोई तिलक नहीं लगाता। आप ही! मुझे सब मालूम है।" राजकुमारी के स्वर में दृढ़ता थी।
आचार्य ने एम्बार की ओर इशारा करके कहा, "इन्होंने भी तो तिलक लगाया है।"
"वे नहीं! आनेवाले तो आप ही थे। जब आये तब वृद्ध लगते थे अब जवान !'' राजकुमारी की बात में किसी तरह की शंका के लिए अवकाश नहीं रहा।
यह सुनकर आचार्यजी कुछ सोचने लगे।
सब लोग चकित होकर इस सम्भाषण को सुन रहे थे। किसी को इस रहस्य की बात नहीं सूझी। स्वयं आचार्यजो भी राजकुमारी की इस बात को समझ नहीं सके
शान्तलदेवी तब तक पौन ही यह सब सुन रही थीं। उन्होंने श्री श्री जी से निवेदन किया. "मेरी एक विनती है। राजकुमारी की बातों का सारांश क्या है-सो
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 135