________________
राजदम्पती के आते ही नागिदेवपणा उठ खड़े हुए और झुककर प्रणाम किया। श्री श्री आचार्यजी उठने ही वाले थे कि शान्तलदेवी ने देखा और कहा, " श्री श्री आचार्यजी वैसे ही विराजे रहें।"
बाद में राजदम्पती के लिए ही सज्जित आसनों पर बिट्टिदेव और शान्तलदेवी विराजे।
दासियों ने परात पर के रेशम के आवरण को निकाला। राजदम्पती ने पादोदक देकर यथाविधि उनकी पूजा की।
इतने में सान्तव्ये उनके चलने के लिए मार्ग पर बिछाने का वस्त्र लिवा लाकर तैयार हो गयो थी।
शान्तलदेवी ने इस सिद्धता को देखकर कहा, "श्री श्री आचार्यजी अन्दर पधारने की कृपा करें।" वह उठ खड़ी हुई, जिट्टिदेव और आचार्य दोनों भी उठ खड़े
हुए।
राजमहल साज-सरंजाम करनेवाले कदमबोशी के लिए वस्त्र पसारते चला। परातवाली दासियाँ आगे-आगे चल रही थी। राजदम्पती आचार्य को गौरव और आदर के साथ अन्तःपुर के अन्दर लिवा लाये। नागिदेवण्णा उन सबके पीछे चल रहे थे।
वस्त्र बिछानेवाला विश्राम-कोष्ठ के सामने आगे के बैठकखाने की ओर से आनर्तनशाला की ओर वस्त्र बिछाने लगा। इसे देखकर शान्तलदेवी ने कहा, "नहीं राजकुमारी के शयन कक्ष में आचार्यश्री पधारेंगे।"
वस्त्र विश्रामागार की ओर बिछने लगा।
चकित होकर आचार्य ने शान्तलदेवी की ओर देखा। बिट्टिदेव ने पहले शान्तलदेवी की ओर, फिर मन्त्री की ओर देखा। उनकी दृष्टि में प्रश्न था। वह भी चकित थे।
सभी मान रहे, सबने राजकुमारी के शयन कक्ष में प्रवेश किया।
परातवाली दासियाँ उस कक्ष के द्वार पर ही खड़ी रहीं। इसके बाद वे अन्यत्र चली गयीं।
आचार्य को उचित आसन पर बिठाया गया। ग़जदम्पती भी बैठ गये। नागिदेवण्णा दूरस्थ एक आसन पर जा बैठे। बिट्टिदेव ने शान्तला की ओर देखा।
शान्तलदेवी ने विनीत भाव से निवदेन किया, "आचार्य श्री के श्रीचरण इतनी शीघ्रता से पधारे, सन्निधान इसका कारण जानने के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं। हम सेवक श्रीचरण की सेवा करने को तैयार हैं।"
"आप लोगों के आचरण से हम चकित हैं। हम अब तक दो पीढ़ियाँ देख चुके हैं। अनेक राजे-महाराजे और रानो-महारानियों को देख चुके हैं 1 परन्तु ऐसे इंगितज्ञ, विनयशील, श्रद्धावानों को अब तक नहीं देखा। आप राजा और रानी को
पट्टमहादेनों शान्तला : भाग तीन :: 127