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इसलिए दुःख के समय में भी हमें संयम से रहना चाहिए। देवी, तुम हमारे लिए वाचस्पति के समान हो। मन्त्रदेवता की तरह हो।"
__बिष्टिदेव की इन बातों को सुनकर शान्तलदेवी के चेहरे पर एक तृप्ति की रेखा खिंच गयी।
चम्मच दासब्वे के साथ आयो : दासब्य जी दूध ले आयी थी उसे बिट्टिदेव ने पो लिया। खाली पात्र लेकर वह चली गयी।
"जक्की का क्या समाचार है?" "कुछ नहीं, वह चुपचाप पड़ी है।"
"देखिए, राजकुमारी सो रही-सी लग रही है। इतने दिनों तक वह पूरी आँख मूंदकर सोयी ही नहीं। अब पूरी पलक मुंपकर सो रही है। आचार्यजी ने जो चूर्ण दिया-उससे ऐसा लगता है कि वह अच्छी हो जाएगी। इसलिए राजकाज परिशीलन करने के लिए अब सन्निधान जा सकते हैं। अनुमति देंगे तो मैं भी कुछ आराम कर लूँगी। अभी तक आराम की याद ही नहीं रही। अब उसकी इच्छा हो रही है।"
बिदिदेव ने राजकुमारी की ओर झुककर देखा। उन्हें भी कुछ शान्ति मिली होगी। "राजकुमारी के जागते ही कहला भेजो। हम कर्मागार में या कोषागार में, या फिर पाठशाला के कक्ष में रहेंगे।" कहकर बिट्टिदेव वहाँ से चले गये।
"चेन्नव्ये, तुम्हारे साथ रहने के लिए किसी को भेजे देती हूँ। राजकुमारी जाग जाए तो, मैं सो भी क्यों न रही हूँ, मुझे जगाकर लिवा ले आना। समझी?"
उसने सिर हिलाकर बता दिया-"समझी।" शान्तलदेवी विश्रान्ति के लिए चली गयीं।
सूर्योदय हुए आधा प्रहर भी नहीं बीता था। जगदल सोमनाथ पण्डित के द्वार पर राजमहल की पालकियाँ पहुँच गयीं । बोकण अन्दर गया। पण्डितजो अपना पूजा-पाठ समाप्त कर बाहर आये ही थे कि बोकण उपस्थित । उसे देखते ही पण्डितजी के मन में जक्की को स्थिति पर चिन्ता व्याप गयी। उन्होंने जो चिकित्सा की थी उससे उनका समाधान हो गया था। इसके अलावा बीच में एक बार उसे देख भी आये थे। घबराने को कोई जरूरत नहीं थी।
तो इस बोकण के आने का कारण?...शायद कुछ और हो!
पण्डितजी के दिमाग में तरह-तरह की शंकाएँ उत्पन्न हो गयीं। फिर भी बोकण से पूछा, "इतनी जल्दी आ गये?"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 137