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पाकर पोयसल राज्य और यहाँ की प्रजा धन्य है। आप स्वयं ही आने की बात हम तक पहुंचा चुके थे, फिर भी राजमहल की मर्यादा का उल्लंघन करके असमय में हम आ गये; हमें इसका खेद है। मगर हम आण्डवन के भक्त हैं, उनके सेवक हैं, इसलिए हम कर्तव्यच्युत नहीं हो सकते। अयाचित ही जो सेवा की जाती है वह आण्डवन की विशेष सेवा है; यह हमारा दृढ़ विश्वास है। हमारे शिष्य एम्बार ने राजकुमारी की अस्वस्थता की बात सुनायो। इसी कारण से हम तुरन्त चले आये। आण्डवन की ऐसी विशेष सेवा का अवसर जब हमें यहाँ दिख रहा है तो हम अन्यत्र कैसे बैठे रह सकते हैं? हमारे आतिथेय श्रीमान् ब्रह्मश्री सोमनाथ पण्डितजी आवश्यक कार्य से जल्दी राजमहल चले आये. सो अभी तक लौटे नहीं। और उनकी अनुमति लिये बिना ही हम यहाँ चले आये। आतिथ्य से बिना कहे उनके घर से चले आना सज्जनता का काम नहीं, इस बात को आनते हुए भी कर्तव्य की पुकार सुन हम इधर चले आये। खैर, यह सब रहने दीजिए। यह बताइए कि राजकुमारी को क्या हुआ है?" आचार्यश्री की इन बातों में कुतूहल लक्षित हो रहा था।
शान्तलदेवी ने कहा, "क्या हुआ है, सो किसी को भी पता नहीं। अब तक यहाँ के और इर्द-गिर्द के प्रदेशों के अनेक श्रेष्ठ वैध आये, देखा। उनके प्रयत्न सफल न हो सकने के कारण निराश हो बैठे हैं। कभी-कभी लगता है कि राजकुमारी को बुद्धि-भ्रम हो गया है, और कभी ऐसा लगता है कि राजकुमारो भयंकर रूप से भयभीत हो गयी है। बुखार तो चढ़ा सो उतरा ही नहीं। कभी इस तरह, कभी उस तरह, सही स्थिति का पता ही नहीं लग रहा है। लेटी ही लेटी ठिठक जाती है। इस तरह दिन में दसेक बार ठिठक पड़ती है। अब तो हम अर्हन् पर विश्वास रखकर उन्हीं के भरोसे बैठे हैं।"
"उन पर आस्था रखनेवालों के विश्वास में कभी च्युति नहीं होती, यह हमारे अनुभव से ज्ञात सत्य है। हरि की इच्छा।" कहते हुए चे उठे।
वे सीधे राजकुमारी के पलंग के पास गये। "हे भगवन्! हरि! इस अम्बा की रक्षा करना तुम्हारे ही हाथ है।" कहकर आँखें मूंदकर हाथ जोड़े।
शान्तलदेवी और बिट्टिदेव उठ खड़े हुए। नागिदेवण्णा पहले ही खड़े हो गये थे। आचार्य ध्यानासक्त हो दो-चार क्षण वैसे ही खड़े रहे। आचार्य की इस भव्य मूर्ति को राजदम्पती ने पूर्णरूप से देखा।
आयु सौ के करीब होने पर भी, उनमें एक वीर योद्धा का गाम्भीर्य झलक रहा था। शरीर की कान्ति, चेहरे पर का तेज देखकर राजदम्पती आश्चर्यचकित हो गये। उनकी उस आकृति में एक अनिर्वचनीय आकर्षण दिख रहा था।
बिहिदेव ने भी हाथ जोड़ लिये। आँखें बन्द की। आचार्य का यह कथन
128 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन