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के साथ आये हों, तो कुछ विशेष कारण होगा," यो बिट्टिदेव से कहकर नौकरानी की ओर मुड़कर कहा, "सान्तध्ये! सुनते हैं कि वे आचार्य हैं। इसलिए राजघराने के गौरव के अनुरूप उन्हें आदर के साथ अन्तःपुर में लिवा लाना होगा। राजमहल की रीति-नीति के अनुसार अयं-पाद्य और फल-ताम्बूल आदि जल्दी तैयार करवाओ। अन्य तैयारियाँ भी जल्दी होवें। हम स्वयं आकर उनकी अगवानी करेंगे।"
सान्तच्या प्रणाम कर चली गयी।
"यह क्या तुम्हारी रोति है ? हमें तो कुछ समझ में नहीं आता। हमारे इस दुःख के समय ये सब बला क्यों? ऐसे प्रसंग में भी हमें अपने में नहीं रहने देंगे? कहला भेजी कि 'आज नहीं होगा' तो क्या हो जाता? दुनिया बह जाती? इधर इस दासी की मूछा, उधर सुबह-सुबह वह शिष्य, और अब यह गुरु | थोड़ा आश्रय मिलने पर राज्य को ही निगलने को तैयार। कैसे लोग हैं? यह सब क्या किस्सा है?"
"छिः छिः : सन्निधान को ऐसा नहीं सोचना चाहिए। इस तरह परेशान भी नहीं होना चाहिए। हमें इसमें क्या खोना है? खुजुर्ग स्वयं यहाँ पधारे हैं। हमारा दुःख हमारे लिए। हमें दुःख है तो लोक-रीति को छोड़ दें? हम ही अगर परम्परागत रीतियों को छोड़ बैंठे तो प्रजा किसका अनुकरण करेगी? हर सत्कर्म में पुण्य मंचित होता है। आज मैंने संकल्प कर लिया है कि मेरा जो भी पुण्यसंचय है वह राजकुमारी के लिए रक्षा-कवच बने। सन्निधान यदि वहाँ न जा सकें तो सन्निधान की तरफ से मैं ही जाकर उनका स्वागत कर सकूँगी।"
"तुम्हारी इच्छा का भी विरोध? तुम जो कहती हो सो ठीक है, सत्य है। हमारा सारा संचित पुण्य राजकुमारी के लिए रक्षा कवच बने। आचार्यजी के स्वागत करने के लिए हम भी तुम्हारे साथ चलेंगे।"
पोचिकव्वे सभी आवश्यक सामग्री से सजाकर एक बड़ा परात ले आयी। दासचे भी दूसरा सजा परात लेकर यहाँ आ पहुंची।
शान्तलदेवी ने पूछा, "सान्तब्वे कहाँ है?"
"सन्निधान की आज्ञा सुनाकर, अपने दूसरे काम पर जाने की सूचना देकर वह चली गयी।" पोचिकव्ये ने कहा।
"ठीक है। चलो।"
परात लेकर दासियाँ आगे बढ़ी। राजदम्पती गम्भीर हो उनके पीछे-पीछे चलने लगे।
आधा पी चुकने के बाद शेष दुध वहीं पात्र में ही रह गया।
अन्तःपुर के सामने के बरामदे में मन्त्री सुरिगेय नागिदेवण्णा श्री श्री रामानुज आचार्य के साथ बैठे हुए थे।
126 :: पमहादेवी शासला : भाग तीन