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के काम पर जब आयी तब स्वस्थ थी न? उसी स्वस्थ स्थिति में तुमको घर लौटना हो तो वैद्यजी के कहे अनुसार हम और तुम सबको चलना चाहिए। पों इन लोगों को कष्ट देने का परिणाम अच्छा न होगा; समझी?" शान्तलदेवी ने कहा।
जक्की ने स्वीकृति सूचक सिर हिलाया। दूसरा चारा न था। उसने समझा था कि पट्टमहादेवीजी गुस्से में हैं। उनकी आवाज भी कुछ ऐसी ही गरम थी।
"ठीक, अब बताओ, वहाँ मूञ्छित हो जाने का क्या कारण था? या कब्ज की कोई शिकायत है तुमको?"
जक्की को कोई जवाब न सूझा । महारानी की ओर देखकर फिर नीचे की ओर देखने लगी।
"तुम्हें पहले भी कभी मूर्छा आयो थी?" शान्तलदेवी ने फिर सवाल किया।
"नहीं।" "तो आज क्या हुआ?" "आज...आज..." होठ चाटते हुए शान्तलदेवी की ओर देखने लगी।
"डरो मत, क्या हुआ, सच-सच कहो।"शान्तलदेवी की आवाज कुछ नरमसी लगी।
"अन्तःपुर के नियम के अनुसार मैं द्वार पर थी। महासन्निधान सिर झुकाये जल्दी-जल्दी आ रहे थे।" फिर उसका गला सेंध गया। उगाल निगली। पट्टमहादेवी की ओर देखने लगी।
"कहो, कहो!" __ "रनिवास के नियमानुसार जैसे ही मैंने घण्टी बजायी, तब तक महासन्निधान... हाँ...एकदम पास ही पहुँच गये। मैं... मैं...घण्टी बजाकर हाथ तक नहीं निकाल सकी थी कि महासन्निधान एकदम खड़े हो गये। सिर उठाया। लाल-लाल आँखों से मुझे सिर से पैर तक देखा मानो वे मुझे जलाकर खाक कर देना चाहते हो। मैंने ऐसी क्रूर दृष्टि कभी देखी न थी। मैंने समझा कि मैंने कोई भयंकर अपराध किया है। मेरा सारा बदन थरथर काँपने लगा। आँखों में अंधेरा छा गया। बाद में...बाद में जब मैं सचेत हुई तो देखा कि मैं आपके विश्राम-कक्ष में पलंग पर, मैं एक दासी...पड़ी हूँ। मैं और कुछ नहीं जानती। मैं घर जाना चाहती हैं। यहाँ. .इस पलंग पर मझे सोना नहीं चाहिए। मैं इस पर लेट नहीं सकती...लेट नहीं सकती।" यों बड़बड़ाती हुई जवकी उठ खड़ी हुई।
"जक्की, चुपचाप पड़ी रहो।" शान्तलदेवी की आवाज़ कठोर थी। जक्की डर गयी, फिर वैसी ही चुपचाप लेट गयी। उसकी छाती की
124 :: पट्टपाहादेवी शान्तला : भाग तीन