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सी ऊपर-नीचे देखने लगी। स्वयं शान्तलदेवी ने उसे शयनागार में ले जाकर लिटाया। राजमहल के वैद्य को बुलावा भेजा गया। बिट्टिदेव को समाचार मालूम हुआ। उटयादित्य, पुनीसमय्या, नागिदेवण्णा, सिंगिमय्या, रेविमय्या-सभी उधर एक साथ आ जुड़े, सबके-सब चिन्तामन्न ।
जल्दी ही सेवक बोकणा सोमनाथ पण्डित को बुला लाया। जाँच करके एक चूरण शहद में मिलाकर चटाया, कै रोकने के लिए। फिर कहा, "समय-समय पर मूत्र-विसर्जन ठीक होता है या नहीं-इस पर ध्यान रखना चाहिए। कुछ मबराने की आवश्यकता नहीं, वात-प्रकोप के कारण वमन हुआ है। शायद आज किसी विशेष कारण से थकावट भी आयी है।"
शान्तलदेवी ने स्वीकार किया, "आज अभ्यास करते समय उसने सबसे ज्यादा नृत्याभ्यास किया। बार-बार गलती होती थी, उसे ठीक करने के लिए बार बार अभ्यास करना पड़ा, इसलिए वह धक गयी होगी।"
"पट्टमहादेवीजी गुस्सा न करें। उम्र के हिसाब से अधिक अभ्यास नहीं करता चाहिए। यह स्वास्थ्य का पहला सूत्र है।"
"मुझे भी इसका ज्ञान है। ऐसा नहीं लगा कि वह थक गयी है। शायद सुबह से ही ठीक नहीं रही। उसने बताया नहीं। किसी ने ध्यान नहीं दिया। अभ्यास के समय पैरों की गति में जो गलती हुई वह थकावट के कारण हैयह उसे नहीं मालूम हुआ। मुझे भी सूझा नहीं। आइन्दा पदगति गलत होने पर उसे स्पर्श कर देखना होगा। मैं ही बिटिया को अधिक थका देने का कारण बनी, इसी का मुझे दुःख है।" शान्तलदेवी ने कहा।
. "यह हम और आपके करने से नहीं होता। होना था सो हुआ। इसके लिए चिन्तित होने की जरूरत नहीं। जल्दी हो सब ठीक हो जाएगा।" यों कहकर पण्डितजी ने दवा दी और बताया कि रात को शहद में नीबू के रस में घोलकर पिलावें। और खुद दूसरे दिन सूर्योदय के पूर्व ही आने की बात कहकर, नब्ज देखकर आगे के चिकित्साक्रम का निश्चय करने की सूचना दे उठ खड़े हुए।
शान्तलदेवी ने कहा, "अच्छा।" पण्डितजी चले गये, बाकी लोग भी यथास्थान चले गये। बिट्टिदेव दिङ्मढ़-से बैठे रहे। उनका हाथ हरियलदेवी के माथे पर था। "सन्निधान को घबड़ाने की जरूरत नहीं। वमन किसे नहीं हो जाता?" "इस राजमहल में हमने इसे देखा नहीं।'' बिट्टिदेव ने कहा।
"न देखा हो, शरीर का यह धर्म है कि जिसे वह न चाहे उसे बाहर निकाल देता है। शरीर के स्नायु हमसे ज्यादा सतर्क रहते हैं। हमारी चेतना के विरुद्ध कोई भी चीज अन्दर जाय तो उसे वह बाहर कर ही देते हैं। वमन हुआ
100 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन