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शान्तलदेवी ने शयन कक्ष में प्रवेश किया। उनके साथ ही नागिदेवपणा और नवागन्तुक व्यक्ति दोनों ने प्रवेश किया ।
राजकुमारी ऊपर की ओर टिमटिमाती आँखों से देख, लेटी लेटी कुछ बड़बड़ा रही थी। महाराज भी उसी बिस्तर पर बैठे हुए थे ।
शान्तलदेवी पलंग के पास जाकर महाराज से बोली, "नागिदेबण्णा दर्शनाकांक्षी होकर आये हैं।" और फिर इन लोगों से कहा, "बैठिए।" और खुद जाकर उसी पलंग पर बैठ गयी।
मन्त्री नागिदेखणा और वह नवागत व्यक्ति दोनों एक-एक आसन पर बैठ
गये।
नागदेवण्णा ने झुककर प्रणाम किया और कहा, "सन्निधान से निवेदन हैं, ये तमिलनाडु से आये हैं। विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त को माननेवाले, महामहिम आचार्यश्रेष्ठ श्री - श्री रामानुजाचार्य के प्रिय शिष्य हैं। आपका शुभनाम एम्बार हैं। "
उसने हाथ जोड़कर विनीतभाव से प्रणाम किया। बिट्टिदेव ने भी प्रति नमस्कार
किया।
मन्त्री ने बात को आगे बढ़ाया। कहा, "ये आचार्य के सगोत्री हैं। चोलराज प्रथम कुलोत्तुंग अर्थात् द्वितीय राजराजेन्द्र चोल शिवजी के परम भक्त हैं; श्री श्री आचार्य विष्णु के उपासक हैं। श्रीवैष्णवाग्रणी हैं। इस कारण से श्री श्री आचार्य अपनी तपस्या में सिद्धि प्राप्त करने के लिए स्थान की खोज में पर मत सहिष्णु पोय्सल राज्य में पधारे हैं। अब यहाँ इन्हें आश्रय की आवश्यकता है। इसके लिए उन्होंने इन्हें सन्निधान का दर्शन कर निवेदन करने के लिए भेजा है। इस सन्दर्भ में मैं एक प्रार्थना सन्निधान से करना चाहता हूँ। श्री श्री आचार्य अपनी इस ढलती उम्र में पैदल ही नीलाद्रि को पारकर उस रास्ते से श्रीरंग से यहाँ तक पधारे हैं। उनके इस साहस से ही सनिधान ने उनकी इस आत्मशक्ति और सामर्थ्य को जान लिया होगा ।"
बिट्टिदेव कुछ नहीं बोले। वे क्या सोच रहे थे सो परमात्मा ही जाने । शान्तलदेवी ने एक बार उनकी ओर देखा। बाद में पूछा, " साठ पार कर चुके हैं ?" प्रश्न सहज था ।
"साठ! उनकी आयु अब सौ के आसपास की है।" बीच में एम्बार बोल उठा । उसके कहने में एक गर्व का भाव छलक पड़ा था।
नागदेवणा ने कुछ असमाधान से उसकी ओर देखा। वह अपनी गलती को जानने की आशा से सशंक होकर मन्त्री की ओर देखने लगा ।
परिस्थितिवश आये इस तनाव को कुछ ढीला करने के खयाल से शान्तलदेवी ने कहा, "वे जो निवेदन करना चाहें सो सन्निधान से करें । राजकुमारी अस्वस्थ हैं। जो कहना हो जल्दी कहें। अभी तो सन्निधान राजकुमारी की
116 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग तोन