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दोनों राजदम्पती को गौरवपूर्वक प्रणाम कर चले गये।
बिट्टिदेव यह सब देखते बैठे रहे। फिर बोले, "देवी! तुम्हारी तुलना किससे करें? तुम्हारी तुलना तुम ही से करना चाहिए। अन्य किसी से तुलना हो ही नहीं सकतो। सुनते हैं. शंकराचार्यजी ने परकाब-प्रवेश करने की शक्ति पायी थी। उस शक्ति को तुमने भी पा लिया है। वह ब्राह्मण मुंह तक नहीं खोल पाया। उसे जो चाहिए था सो सब तुमने ही कह दिया और उसे "हाँ जी' यें बदल दिया। अच्छा, इस बात को रहने दें: आज के व्यवहार को देखने पर लगता है कि समस्त अधिकार तुम्हारे ही वश में हैं। अब हमें करने के लिए बचा ही रम्या रहा तो हमें इस कार्यभार से निवृति ही है न?'' एकदम बोल गये। उनका मन कुछ कहना ही चाह रहा था, कह दिया। मौन की प्रक्रिया जो समझ सकते हैं उसी को उसका प्राव मालूम पड़ सकता है।
शान्तलदेवी के दिल के किमी कोने पर कुछ ठेस तो लगो, पर उन्होंने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया । बोली, "निवृत्ति नहीं-वित्रान्ति। आतंक भर म- को समझकर मैंने बातचीत की। मुझे किसी भी तरह के अधिकार की आवश्यकता नहीं। सदा आपके हृदय में मेरे लिए वहीं स्थान बना रहे- नरे लिए पर्याप्त है।" शान्तलदेवी ने उत्तर दिया। उनकी ध्वनि में अनुकम्पा थी।
तभी चेन्नव्वे ने आकर कहा, "कुमार घिट्टि और लागेका हो चुका है और वे विश्राम्य करने चल्ने गये हैं। आपके लिए
मानय मोहो चुकी है।"
न चाहने पर भी, शरीर के लिए कुछ तो चाहिए इसलिए भोजन तो यथाविधि हु . दोनों ने हाथ जुठे भर किये। बाद में विद्भिदेव अपने विश्रामगृह में चले गये. शान्तरददेवी की जबरदस्ती के कारण विश्राम करने। शान्तलदेवी राजकुमारों के शयन-कक्ष में गयीं। चेन्नब्बे और पोखिकन्वे दोनों वहीं थीं। चैन्नेव्ये पंखा कर. रही थी। पोचिकन्ये कुछ कसीदा काढ़ रही थीं। उसने सोचा नहीं था कि पट्टमहादेवी इतनी जल्दी भोजन समाप्त करके बिना विश्राम के सीधे यहाँ चली आएँगी इसलिए एक आसन पर बैठकर वह कसीदा काढ़ने लगी थी।
अनिरीक्षित रूप से पट्टमहादेवी के आने पर अपराधिनी की तरह वह उठ खड़ी हुई। उसकी उस घबराहट के कारण कसीदे के सूत का वह गोला उसकी गोंद से खिसककर पट्टमहादेवी के पैरों के पास लुढ़क गया मानी क्षमायाचना कर रहा
118 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन