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पवित्र स्थान है जितना देवमन्दिर; क्योंकि कला की आराधना मन को आलोड़ित न करके शान्ति देनेवाली है। आज के इस सन्तोष समारम्भ के समय मेरे ही द्वास शिक्षित कुमार बिट्टियण्णा अपनी नृत्य-वैखरी का प्रदर्शन करेगा।"
उस दिन स्त्री-वेष धारण कर बिट्टियण्णा ने लोगों का मन मोह लिया था वही आज शिवताण्ड:: ले हर भिरा है, या : १५
दिर संचालित करने की भंगिमा में नृत्तावसान के समय उसने हाथ के डमरू को निनादित किया। पट्टमहादेवी शान्तलदेवी ने पदविन्यास के साथ गाकर उसमें सहयोग दिया
"नृतावसाने नटराज-राजो ननाद ढक्का नवपंचवारम्।
उद्धर्तुकामस्सनकादि-सिद्धान् एतद्विमर्श शिवसूत्र-जालम् ॥" इन दोनों के सम्मिलन ने उपस्थित-जनों में एक नवीन चेतना उत्पन्न कर दी। सभी सभासद एक कल्पित साम्राज्य में मानो विलीन हो गये।
कुमार बिट्टियण्णा सबकी प्रशंसा का पात्र बना। समारम्भ के अन्त में शान्तलदेवी ने पोय्सल-लांछन का विवरण देते हुए उसके महत्त्व के विषय में प्रभावशाली भाषण दिया। सभा की समाप्ति के पहले इस लांछन को उत्कीर्ण करनेवाले शिल्पी का सम्मान किया गया। इस सन्दर्भ में उसने इस लांछन के उत्कीर्ण करने का सुयोग देने पर पट्टमहादेवी और उदयादित्य तथा अपने जैसे अनेक शिल्पियों को आश्रय देनेवारले सन्निधान के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की और इस लांछन को बनाने को स्मृति के उपलक्ष्य में अपने को 'शिल्पी पोय्सलाचार्य के उपनाम से अभिहित करने का अपना इरादा व्यक्त किया। इसके लिए आशीर्वाद देकर सम्मति देने की सन्निधान से प्रार्थना भी की।
उसकी अभिलाषा उचित लगी। सारी सभा ने हर्षोदगार के साथ तालियाँ बजायीं। पोय्सलेश्वर बिट्टिदेव ने घोषित किया, "पोयसल जनता से स्वीकृत यह शिल्पनाम 'शाश्वत हो।"
इसी शुभ अवसर पर इस आनर्तशाला में संगीत, साहित्य, नृत्य-इन विषयों का पाठन-कार्य भी शुरू हुआ। यादवपुरी के स्त्रीसमुदाय के लिए ही शाला शुरू की गयी थी। राजकुमारी हरियलदेवी भी जो सबसे छोटी उम्र की छात्रा थी, इसमें सम्मिलित हुई थी। पर्याप्त संख्या में छात्राएँ सम्मिलित हुई। अध्ययन का दिन छोड़कर, मध्याह्न के बाद एक प्रहर तक इसका पाठ चलता था।
किसी तरह के उलट-फेर के बिना शान्ति से एक महीना बीत गया। इसके बाद एक दिन शाम को, पाठ-प्रवचन के समाप्त होने के बाद, उपाहार करती हुई हरियलदेवी ने कै कर दी। उसके सारे अंग पसीने से तरबतर हो गये। वह अमनस्क
पमहादेवी शान्तला : भाग तोन :: 9