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"कौन हैं ?" कहती हुई शान्तलदेवी ने सिर उठाया।
उनके पीछे जो दासियाँ आयी थीं वे कुछ दूर सरककर खड़ी हो गयी थीं । निकट आने का साहस ही नहीं रह गया था उनमें।
उन्हें देखकर शान्तलदेवी ने कहा, "रुद्रव्ये, पोचिकव्ये! तुम दोनों इस जक्की को उठा लो और मेरे शयनगृह में ले जाकर लिटाओ। किसी नौकर को भेजकर तुरन्त राजमहल के वैद्य को बुलवाओ।"
दोनों दासियाँ मूच्छित जक्की को उठाकर अन्तःपुर की ओर ले चलीं। शान्तलदेवी उनके पीछे-पीछे चलने लगीं। बिट्टिदेव और कुमार बल्लाल -- दोनों उन्हीं का अनुसरण करने लगे ।
दासियाँ जक्की को उठाकर रानी शान्तलदेवी के शयनागार में पहुँचीं। वहाँ के एक भद्रास्तरण पर उसे लिटानेवाली ही थीं कि शान्तलदेवी ने कहा, "अरी ! तुम्हारी अक्ल मारी गयी ? वहाँ नहीं पलंग पर लिटाओ।"
नौकरानियों की यह मालूम नहीं था कि एक दासी को पट्टमहारानी के पलंग पर लिटाना होगा। जक्की को पलंग पर लिटा दिया गया।
शान्तलदेवी ने कहा, "रुद्रव्वे, तुम पंखा करो। पोचिकव्वे, तुम वैद्यजी को बुलवाने की व्यवस्था करो और उनके आते हो मुझे खबर दो ।"
आशा के अनुसार पोचिको अपने काम पर चली गयी।
फिर रुद्रच्छे से कहा, "वैद्य के आने से पहले जक्की अगर होश में आ जाए तो आकर मुझे खबर दो। उसे इस जगह से उठने न देना।" फिर वहाँ से राजकुमारी के शयनकक्ष की ओर चली गयीं ।
बिट्टिदेव शान्तलदेवी के पीछे आ रहे थे, राजकुमारी के शयनकक्ष के द्वार पर पहुँचे ही थे कि इतने में बच्ची की माबाज सुन अन्दर घुस गये। कुमार बल्लाल भी पिता के पीछे-पीछे अन्दर चला गया।
शान्तलदेवी जब अन्दर आय तब विद्विदेव पलंग पर बच्ची का हाथ अपने हाथ में लेकर उसका मुख देखते बैठे थे। बच्ची अर्ध-सुप्तावस्था में एक बार चिल्लाकर फिर वैसे ही लेट गयी थी। आँखें उसकी अधखुली थीं।
शान्तलदेवी भी पलंग पर जा बैठीं। बगल के एक आसन पर कुमार बल्लाल बैठ गये थे । प्रेम से उसकी पीठ सहलाती हुई उन्होंने ऊपर की ओर देखा।
बाद में उस पंखा करनेवाली दासी से कहा, "चन्नव्वे! कुमार बिट्टिग का गुरुजी के घर से लौटने का समय हो आया है। अप्पाजी का भोजन भी शायद अभी नहीं हुआ। इन्हें ले जाकर भोजन करवाओ और इनके विश्राम की व्यवस्था करो। छोटे बिट्टि और विनय का भोजन हो गया होगा न ?"
108 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन