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रहे थे-"भगवन्! बेटी जल्दी अच्छी हो जाए।''
दोनों ध्यानमान हो ज्यों-के त्यों बैठे रहे मौन, गम्भीर मुद्रा में।
इतने में दासब्वे ने परदा हटाकर अन्दर की ओर झाँका । पट्टमहादेवी का ध्यान उधर आकर्षित नहीं हुआ। धीरे से अन्दर कदम रखा। दरवाजे ही पर रुक गयी। कुछ फायदा नहीं हुआ। चार कदम आगे बढ़ी। तब उसकी छाया पट्टमहादेवी के सामने पड़ी। पट्टमहादेवी ने उधर देखा। हाथ के इशारे से पूछा कि क्या है। दासव्ये ने भी इशारे से बता दिया, "कुछ नहीं, सब यथावत् है।'' पट्टमहादेवी ने इशारे से ही जाने की सूचना दी।
बह स्वर्णपात्र लेकर वापस चली गयी। थाई दरबाद पायक परा 144 अन्दर आयी। वहाँ महाराज की उपस्थिति देख कुछ पीछे हट गयी।
शानादेड ने पूछा, "रजी आने?'' "हाँ" उसने नीचे की ओर सिर हिलाकर सूचित किया। "कहाँ हैं वे? जक्की के पास गये?" "हाँ!" उसने पुनः इशारे से ही सूचित कर दिया।
"पोचिकव्वे! तुम यहाँ पंखा करती रहो।'' यह कहकर शान्तलदेवी स्वयं वहाँ से उठकर बाहर चली गयीं। पोचिकव्वे चुपचाप पट्टमहादेवी की आज्ञा का पालन करने लगी।
इधर बिट्टिदेव का ध्यान भंग हुआ। पहले तो शान्तलदेवी को जाते देखते रहे लेकिन अब उस घण्टी बजानेवाली दासी का ध्यान हो आया। उनके मन में सहज ही यह जानने का कुतूहल जगा कि उसे क्या हो गया था। वे उठ खड़े हुए परन्तु राजमर्यादा ने उन्हें रोक दिया। सोचा कि किसी तरह से मालूम तो हो ही जाएगा, ने फिर वहीं जा बैठे।
पट्टमहादेवी जब अपने शयन-कक्ष में पहुँर्ची तब राजमहल के वैद्य सोमनाथ पण्डित ने अपनी दवा की पेटी खोलकर रखी थी और जक्की की नब्ज की परीक्षा कर रहे थे।
पट्टमहादेवी के अन्दर आते ही वैद्य ने किंचित् सिर झुकाकर प्रणाम किया। पट्टमहादेवी एक आसन पर जा बैठीं और जक्की की ओर देखने लगीं। ___ वैद्य ने नब्ज देखने के बाद, उसकी आँखें खोलकर देखा। मुँह खुलवाने की कोशिश की; नहीं हो सका। नाक के पास हाथ रखकर देखा, फिर धीरेसे एक छोटी लकड़ी लेकर तलुवे पर कुरेदकर देखा तो पैर एकदम सरक गया।
"तब तो कोई भय नहीं।" वैद्य उठे और बोले, "घबराने का कोई कारण नहीं। यह..."
बीच में ही शान्तलदेवी बोल उठी, ''अच्छा, वह सब अभी रहने दीजिए। सारा
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 113