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बार जब प्रभु के सिंहासनारोहण की बात चली थी, तब इसी तरह को मन्त्रणासभा सम्पन्न हुई थी। तब विषय-भिन्नता के कारण बात व्यक्तिवैषम्य की सीमा तक पहुँच चुकी थी। बहुत समय तक उसको कड़आहट सबके मन में रही। ध्यान रखना होगा कि अब ऐसी स्थिति न हो। यहाँ जो निर्णय लिया जाएगा उसका सन्तोष के साथ स्वागत सभी को करना होगा।" इतना सूचित कर सबसे प्रार्थना की कि अपनी-अपनी राय दें।
तुरन्त किसी ने कुछ नहीं कहा। शायद लोग इस बात की प्रतीक्षा में थे कि चर्चा आरम्भ हो तो कुछ कहा जाए।
शान्तलदेवी ने ही बात उठायो, "मेरी एक विनती है। यह बहुत गहराई से सोचने-समझने का विषय है। उसमें भी यह सुकुमारी कन्याओं के भविष्य से सम्बन्धित है। भिन्न मत देना हो तो गम्भीरता से सोच विचार न बने।"
"सन्निधान की इच्छा हो तो इसके लिए समालोचना की आवश्यकता ही क्या है। वह हमारे लिए मान्य है।" सुरिगे नागिदेवण्णा ने कहा।
"यदि इतना ही होता तो इस सभा को बुलाने की जरूरत ही क्या थी? आपके सन्निधान आपकी राय जाने बिना स्वेच्छा से व्यवहार करना उचित नहीं समझते। अलावा इसके सन्निधान को आपकी सलाह पर असीम विश्वास है। सभा जिसे सही मानेगी सन्निधान के लिए भी वही सही होगा, ऐसा सन्निधान का अभिमत है।" बिट्टिदेव ने उत्तर दिया।
"प्रथम तो विचारणीय यह है कि सन्निधान की इच्छा न हो और सभा ने निर्णय कर लिया तो क्या वह ठीक होगा?" पुनीसमय्या ने प्रश्न किया।
गंगराज मुस्कुरा उठे। बोले, "पुनीसमय्याजी के इस प्रश्न के लिए यहाँ अवकाश ही नहीं है। इस विषय में सन्निधान और पट्टमहादेवीजी की इच्छा न होती तो इस सभा का आयोजन ही नहीं होता।"
"हाँ तो, मुझे तो ये सूझा ही नहीं? तलवार चला दें तो किसका सिर धड़ से अलग हो सकता है-यही सोचनेवाले मुझे यह बात सूझी ही नहीं।"
"सन्निधान चाहते होंगे, पट्टमहादेवी भी मान सकती हैं। परन्तु यह विवाह हो तो राष्ट्र के हित की दृष्टि से कोई अड़चन तो नहीं होगी इस बात पर विचार करना हमारा कर्तव्य है। राष्ट्रहित पर आँच आने की बात हो तो यही निर्णय करेंगे कि यह विवाह न हो। यदि बाधा न हो तो निर्णय सन्निधान और पट्टमहादेवी पर छोड़ देंगे। इसलिए यह विषय राष्ट्र की दृष्टि से विचारणीय है। मैं अपनी तरफ से यदि कुछ कहूँ तो उसका अन्यथा अर्थ भी लगाया जा सकता है. क्योंकि मेरी बेटी आज पट्टमहादेवी है। फिर भी मैं अपने मन को भावना को छिपाकर चुप बैठे नहीं रह सकता। मंचि अरसजी चालुक्यों के अधीन रहे। इधर यहाँ आकर
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :- 93