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भी चल पडती हो। यह स्थिति अच्छी नहीं। तुम्हारे अपने बच्चों का योग्य मार्गदर्शन कौन करेगा? कुछ सोचो तो, अम्माजी। तुम्हारी बुद्धि को यह क्या हो गया?" यों बहुत चित्ताग्रस्त हो बोली शान्तलदेवी की माँ।
"अगर बम्मलदेवी से पाणिग्रहण हो जाय तो मेरी एक समस्या हल हो जाएगी, इसलिए मैंने यह काम किया है। युद्धोत्साह उनमें मुझसे अधिक है। उनको धमनियों में राजवंश का रक्त ही तो प्रवाहित हो रहा है।"
"फिर भी चालुक्यों को क्रुद्ध होने के लिए मौका देना बुद्धिमानी है?"
"यह क्या माँ; अप्पाजी का मन इतना दुर्बल हो गया है ? शायद शारीरिक दुर्बलता ने उनसे ऐसी बात कहलायो होगी। सभी के समक्ष मन्त्रणा-सभा में कल विचार-विमर्श होगा और निर्णय लिया जाएगा। राष्ट्रनायकों के निर्णय के सामने हमें सिर झुकाना ही होगा।" यों कहकर शान्तलदेवी ने उस बात को वहीं समाप्त कर दिया।
अगले दिन की माया त में इस विदय पर सुल्तानपुरमा चर्चा होने की खबर मंचि दण्डनाथ को मालूम थी। बम्मलदेवी और राजलदेवी को भी मालूम था। उनको भी वहाँ उपस्थित रहना था।
मन्त्रणा-सभा में प्रथम बोलनेवाले मंचि दण्डनाथ थे। उन्होंने बताया कि किस तरह इन बेटियों की जिम्मेदारी उनपर पड़ी और कैसे उन्हें अपने बच्चों की तरह पाला-पोसा। आश्रय प्राप्त कर यहाँ आने के बाद किस तरह यह निर्णय किया कि अपने जीवन को सन्निधान को चरणसेवा के लिए धरोहर बनाना चाहिए। किस तरह यहाँ के राज-दम्पती का भव्य चित्र दिलों पर अंकित हो गया और फिर इन कन्याओं ने सन्निधान की चरण-सेविका बने रहने की इच्छा क्यों की। यह अभिलाषा सफल न होने पर भी इस राष्ट्र की प्रगति के हो लिए अपना समग्र जीवन समर्पित कर देने का उन्होंने निर्णय किया है। इन सारी बातों को अच्छी तरह समझाकर विनती की कि इन कन्या-रस्मों से पाणिग्रहण कर इन्हें कन्यापन से मुक्त करें। वास्तव में उनकी सारी बातें राजवंश की रीति-नीति के अनुरूप नहीं, कहा जा सकता है। और ये सारी बातें शायद उन सब उपस्थितों को मालूम ही थीं।
इस विषय से सीधा सम्बन्ध होने के कारण राजमहल ने मन्त्रणा-सभा के सूत्रधार का कार्य गंगराज को ही सौंपा था। उन्होंने कहा, "नैतिकरूप से इस विषय पर सभी लोग अपनी राय दे सकेंगे। किसी की भी राय को निर्णय नहीं माना जाएगा। अगर राय भिन्न हो और यह भिन्नता अधिक रही तो फिर यह सोचना होगा कि एकमत सम्भव है या नहीं। और तब बहुमत के आधार पर निर्णय किया जाएगा। भिन्न मत व्यक्त करने पर वैक्तिकरूप से उसकी अर्थव्याप्ति वहीं तक सीमित होनी चाहिए। अन्यार्थ कल्पना नहीं की जानी चाहिए। बहुत पहले एक
02 : भट्टमहादेवी शान्तल! : भा। तीन