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मन को दुःख हुआ होगा। समय आने पर यह जान जाएगी कि ऐसा सोचना गलत है। केवल गलत ही नहीं, वह ईर्ष्या का भी प्रतीक है---यह भी उन्हें समझा देना होगा। सगी बहनों की तरह एक-दूसरी की पूरक शक्ति बनकर बढ़नेवाली इनमें इस तरह के विचार अंकुरित हों तो अच्छा नहीं होगा।"
यों दो दिन बीत गये। अगले दिन खबर मिली कि सेना कल यादवपुरी पहुँच रही है। साथ ही यह भी समाचार मिला कि सन्निधान वेलापुरी की ओर चल पड़े, बाकी लोग इधर आएंगे। यह समाचार सुनाने के बहाने शान्तलदेवो ने राजलदेवी को अपने शयन-कक्ष में बुलवाकर बताया, "राजकुमारी राजलदेवीजी! उस दिन जो बात मैंने कही उसे सुनकर आप परेशान हुई होंगी। मेरे मन में ऐसे भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं है। सन्निधान के साथ बम्मलदेवी की उपस्थिति स्फूर्तिदायक होगी ही-जब मैंने यह बात कही तो इसका यह अर्थ नहीं था क राजलदेवी की उपस्थिति स्फूर्तिदायक नहीं। बम्मलदेवी को चढ़ाकर आपको नीचा दिखाने की भावना मेरे मन में कभी नहीं आयी। मेरी बात केवल सहज अर्थ में ही ग्रहण की जानी चाहिए थी। बम्मलदेवी ऊँची और आप निचली ऐसा समझकर व्यर्थ ही दुःखी हुई। ऐसी भावना का उत्पन्न होना ही बुरा है। आज आप दोनों सगी बहनों से भी बढ़कर रह रही हैं। आपको तो यह विशेष सन्तोष की बात होनी चाहिए। यह सहोदरी भावना स्थायी हो यही मेरी आकांक्षा है, यह मुझे बहुत ही प्रिय है। इसमें ऊँच-नीच को स्थान ही नहीं मिलना चाहिए। इन दो दिनों में आपने इस दिशा में सोचा होगा।"
"मुझमें ऐसी भावना आयी ही नहीं।" "तो वह आँसू...? किसी पश्चात्ताप की तो वह बात थी नहीं?"
"उस समय कहने का साहस नहीं हुआ। दुःख हुआ, सच है। इसका कारण बम्मलदेवी को ऊपर बढ़ाना नहीं । आपकी बातों में ऐसा भाव तक नहीं झलका। हाँ, उसके पीछे कोई छिपी बात अवश्य स्पन्दित हो रही है-ऐसा मुझे लगा था। आप सन्निधान की हृदयेश्वरी हैं। यह बात सारी दुनिया जानती है। आप भी जानती हैं कि सन्निधान के हृदय में आपके लिए अग्रिम स्थान है। आपके हृदय से यदि यह बात निकले कि बम्पलदेवी की उपस्थिति स्फूर्तिदायक होगी तो इस व्यंग्य का कोई अभिप्राय होगा! बम्मलदेवी आपके सुख के लिए बाधा बन रही है, मौका आने पर सन्निधान के मन को अपनी ओर खींच लेगी। और फिर सन्निधान उधर आकर्षित हो जाएं तो...आदि विचारों के बिना ऐसी बात आपके मुंह से भला कैसे निकलदी? एक बात मैं स्पष्ट कर दें। आप और सन्निधान ने हमें आश्रय दिया. हमें व्यक्तित्व दिया। हमारा स्तर ऊपर उठाया-इसके लिए हम आपके आजीवन ऋणो हैं। यह ऋण हम अच्छी बनकर चुकाएंगी. 7 कि आपके सुख को छीनकर।
पमहादनशान्तला : भाग तीन :. है?