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और यादवपुरी में एक ही दिन सम्पन्न करेंगे। डाकरस से सलाह करके निश्चय करें। जो जहाँ हो वहीं उत्सव सम्पन्न कराएँ।"
"जो आज्ञा।" व्यवस्था के अनुसार सेना रवाना हुई।
रास्ते में मंचि दण्डनाथ ने बम्पलदेवी से पूछा, "हमें सीधे न जाने देकर यादवपुरी जाने का आदेश सन्निधान ने क्यों दिया?" उसने कुछ जवाब नहीं दिया। इतना ही कहा कि वह नहीं जानती।
"तुमने अपने भविष्य के बारे में बातचीत की?"
"परिणाम क्या रहा?"
"कुछ कह नहीं सकती। अपने निश्चय को सन्निधान तक पहुंचा दिया है। अधिक जोर देना अच्छा नहीं। प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा वहीं से करें। यही उचित है।"
बात वहीं रुक गयी। यात्रा आगे बढ़ी। उधर सन्निधान वेलापुरी पहले ही पहुँच गये। इधर चार दिन बाद बम्मलदेवी वगैरह यादवपुरी जा पहुंचे।
दोनों जगह सेना का अच्छा स्वागत हुआ। पूर्व नियोजित रीति से तीनों जगह विजयोत्सव मनाया गया।
बाद में, एक-दो दिनों में ही बिट्टिदेव डाकरस और हेगड़े दम्पती के साथ यादवपुरी की ओर रवाना हुए। साथ में गंगराज और माचण दण्डनाथ को भी ले गये।
उधर राजलदेवी के यादवपुरी पहुंचने के बाद बातों-बातों में शान्तलदेवी ने कहा, "आप लोगों पर पानी राजलदेवी और बमलदेवी पर चालुक्यों की तरफ से कुछ बुरी-बुरी खबरें फैल रही हैं।"
तुरन्त बलिपुरवाला समग्र चित्र उनकी आँखों के सामने गुजर गया।
"वह मुख ही कितना बुरा है जो ऐसी बात निकालता है, चाहे जो कह देता है। उसके लिए आपको दुःखी नहीं होना चाहिए। पहले ऐसी ही एक घटना चालुक्य 'नारों के ही बारे में बलिपुर में घटी थी। इस बात का ज्ञान होते हुए भी ऐसा नीच कार्य वे कर रहे हैं तो समझना चाहिए वे कितनी हीन मनोवृत्ति के हैं। सन्निधान को आने दें। जल्दी निर्णय कर लेंगे।" शान्तलदेवी ने तसल्ली दी। और फिर दासब्ये और बृतुगा को पास बैठाकर उस पुरानी कहानी को विस्तार से कह सुनाया।
"वह सब कितनी असह्य बातें हैं ! जब मुझे याद आती हैं कि मैंने भी उसमें भाग लिया था तो आज भी मुझे अपने पर बहुत गुस्सा आता है। एक शीलवती स्त्री के विषय में इस तरह अण्टसण्ट बातें करनेवाली जीभ में कीड़े पढ़ेंगे" गुस्से से पागल होकर बूतुगा ने कहा।
"वह कुछ भी रहे; इसके फलस्वरूप तुम्हास भाग्य खुल गया था न?"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 87