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करनेवाला व्यक्ति है।
"हाँ, क्या कर सकते हैं? पट्टमहादेवीजी का प्रोत्साहन-बल मिलने पर सबकी जिल्ला तेज चलने लगती है।" बिट्टिदेव बोले। उनकी आँखों में कुछ छेड़-छाड़ की भावना दीख रही थी।
"न, २, ऐसा नाही, मा हो. सानिमा गलत समामें 1 छेडखानी करने का इरादा नहीं था।" जल्दी-जल्दी बम्मलदेवी ने कहा।
"वह छेड़खानी करना नहीं है, छेड़-छाड़ की प्रवृत्ति है। है न? एक-एक कर प्रकट में आ रही है।"
"चरणों में समर्पित कर देने के बाद छिपाव-दुराव क्यों ? इस झूलते रहने की हालत से जल्दी मुक्त करने की कृपा करें।"
"वह झुलानेवाले हाथ यादवपुरी में हैं।"
"खाली झुलानेवाले हाथ ही क्यों? उस हाथ को अंगूठे के सहारे पेंग देनेवाले चरण भी हैं, यह मैं जानती हूँ। सन्निधान का विरोध न हो तो।"
"पेंग देनेवाले अंगूठे को मैं रोक सकता हूँ। परन्तु झुलानेवाला हाथ प्रधान
"इतना भरोसा काफी हैं।" कहकर वह उठी और उनके चरण छूकर प्रणाम किया।
"यह क्या?' बिट्टिदेव ने कहा। "यह चरणदासी का प्रथम समर्पण नमन।"
बाद में दोनों थोड़ी देर मौन रहे। इतने में मंचि दपहनाथ के आने की सूचना मिली, दौवारिक से। __यात्रा की तैयारी के होने की भी सूचना प्राप्त हुई। उसके अनुसार उनके साथ जो सेना आयी थी उसके शेष हिस्से को साथ लेकर आसन्दी प्रदेश की ओर जाने की बात बतायी गयी थी। डाकरस की सेना उनके साथ वेलापुरी को और सन्निधान को यादवपुरी के लिए रवाना होने का कार्यक्रम रूपित किया गया था।
"यों करें। आप अपने अधीनस्थ सेना, सिंगिमय्या और हमारे साथ की सेना, उदयादित्य और कुमार ब्रिट्टियण्णा सब सीधे यादवपुरी पहुंचे। हम डाकरस के साथ वेलापुरी जाकर वहाँ से यादवपुरी पहुँचेंगे।"
"हम सीधे यहाँ चले आये, इससे डाकरस दण्डनाथ को कुछ असमाधानसा लगा है। इसलिए हमारा उनके साथ जाना अच्छा होगा।"
"तो विजयोत्सव कहाँ हो?"
"यह भला कौन-सा महायुद्ध है? इसके लिए बड़े धूमधाम का उत्सव नहीं चाहिए। यों निमित्तमात्र के लिए हो। दिन निश्चित होने पर दोरसमुद्र, बेलापुरी
86 :: पट्टपहादेवी शान्तला : भाग तीन