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"हाँ, बुरा करनेवालों को भी गौरव देनेवाली माताएँ जब होंगी तो भाग्य खुलेगा क्यों नहीं!' एक तरह से खुशी से फूलकर तुगा ने कहा।
"उसका वह ऐसा कौन-सा भाग्य है?" राजलदेवी ने पूछा।
"दासब्वे से उसका विवाह करानेवाली वही पिरियरसी चन्दलदेवीजी थीं जिन्होंने उसी से गालियाँ सुनी थीं!"
"हाँ, तब मेरा विवाह तो हुआ पिरियरसी जी के ही कारण से। अब यह बात क्यों ? अब क्या पट्टमहादेवीजी के कारण कोई शादी होनेवाली है? कौन हैं ऐसे
भाग्यवान् ?"
"इस सबके लिए प्रतीक्षा करनी होगी। छेड़-छेड़कर पूछना ठीक नहीं।" शान्तलदेवी ने कहा।
"जो आज्ञा।" बतुगा चुप हो गया।
पता नहीं बात और किधर मुड़ती कि तभी खबर मिली कि युद्ध में जयमाला हमारी रही। हरकारे के जाने के बाद शान्तलदेवी ने कहा, "बम्मलदेवीजी साथ रहेगी तो सन्निधान को विशेष हर्षोत्साह होगा ही। तब तो विजय हमारी ही होनी चाहिए।"
राजलदेवी को लगा कि शान्तलदेवी की इस बात में कुछ व्यंग्य है। वह तुरन्त कुछ कह न सकी। स्वभाव से ही वह कम बोलनेवाली रही है। चतुराई से बात कहकर अपनी बुद्धिमानी दर्शाने की उसकी आदत नहीं थी। फिर भी बात व्यंग्य भरी मालूम पड़ने पर उसे दुःख हुआ । आँखें भर आर्यो । रोकने की कोशिश की। नहीं हो सका तो बगल की ओर मुंह मोड़ लिया।
इसे देखकर शान्तला ने कहा, "क्यों? क्या हुआ?"
राजलदेवी ने रोकने की कोशिश की पर सफल नहीं हुई। इसके हिचकी बंध गयी। ___ शान्तलदेवी ने उसकी बाँह हिलाकर पछा, "क्या हुआ? एकदम ऐसा क्यों ?"
उसने कुछ नहीं कहा। शान्तलदेवी ने जबरदस्ती राजलदेवी का मुख अपनी तरफ मोड़ने की कोशिश की।
राजलदेवी निवारण करते हुए, ''हमारी ही गलती है, क्षमा करें," वह वहाँ से अपने शयन-कक्ष की ओर चल पड़ी। उसकी आवाज में दुःख था. दर्द था। आँखें गीली हो आयी थीं।
शान्तलदेवी फक पड़ गयीं। उन्हें सूझा नहीं कि राजलदेवी ने आखिर ऐसा क्यों किया। ऐसी विचित्र पीड़ा के लिए, समय ही अच्छा दवा है-यों शान्तलदेवी ने मन-ही-मन सोच लिया। उन्हें उस समय इतना ही सूझा। मैंने कहा, "सन्निधान के साथ बम्मलदेवी के होने पर उन्हें हर्षोल्लास और स्फूर्ति मिलेगी. इससे उसने समझ लिया होगा कि वही श्रेष्ठ, मैं नहीं-यों कल्पना करके उसके
B8:: पट्टमहादेवी शान्तला . 'भाग तीन