________________
भगवान् के सान्निध्य में शास्त्रोक्त विधि से पाणिग्रहण हो-इतना ही पर्याप्त
___ "पाणिग्रहण करने का अब समय आएगा तब इन बातों पर विचार हो जाएगा।"
"जाने दीजिए। एक सवाल और। अनुचित हो तो सन्निधान क्षमा करें। सन्निधान यह बता सकेंगे कि हम सन्निधान की चरणसेविका बनने की योग्यता रखती हैं या नहीं?"
"एक राष्ट्र की राजमहिषी बनने और राजा को हृदयेश्वरी बनने योग्य सब गुणों से आप लोग सम्पन्न हैं, ऐसा हमारा विश्वास है। इसीलिए हमने कहा कि हृदयेश्वर बनने योग्य की खोज करेंगे।"
"हमारे हृदयेश्वर ने तो पहले ही हमारे हृदय पर अधिकार कर लिया है। वहाँ किसी दूसरे को स्थान मिल कैसे सकता है, सन्निधान ही सोचें। स्त्री चरणदासी बन सकती है। पर पुरुष को चरणदास नहीं बनना चाहिए उसे हमेशा हृदयेश्वर ही होकर रहना चाहिए।"
बिट्टिदेव फिर हंस पड़े। "क्यों?"
"यह कैसा मूल्य-मापन है? स्त्री के लिए अलग और पुरुष के लिए अलग व्यवस्था?"
"हृदयेश्वर तेल के समान हैं। हृदयेश्वरी और चरणसेविकाएँ बलनेवाली बाती हैं। एक ही दीपदान का तैल दस बातियों को बलने की स्निग्धता दे सकता है न? इसी तरह हृदयेश्वर सबके हृदयों में रह सकते हैं।"
"एक दीप-दान में एक ही बाती बले तो बहुत समय तक बलता रहेगा। दस बाती बलने लगे तो दीपदान का तैल जल्दी ही खतम हो जाएगा।"
"मगर सभी बातियाँ एक साथ नहीं बलेंगी। सामीप्य सब ओर एक काल में नहीं दिया जा सकेगा। प्रत्येक अलग-अलग प्रकाश देनेवाला दीप है इसलिए सन्निधान के कहे अनुसार दीपदान जल्दी खाली न होगा; क्योंकि एक बाती ही एक बार बलती है।"
"बात करने का ढंग देखने से लगता है कि यह सहवास का दोष है।"
"पट्टमहादेवीजी कहा करती थीं, अपनी सारी वाक्चातुरी का कारण सन्निधान का सहवास है।" बम्मलदेवी ने कह तो दिया लेकिन बाद में महसूस हुआ कि वह परिचय-सीमा लाँघ गयी है।
बिट्टिदेव ने अपनी सूक्ष्म पति से समझ लिया कि उसके अन्तरंग में कुछ तुमुल चल रहा है। यों तो वह बातों में सरसता को, चुहलबाजी को पसन्द
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 85