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कल रात को जब सो गयी, मिरीक उसकी गर ध्यान है । सभी घोड़ी देर पहले महामातृश्री के विश्रामगृह के प्रांगण में जोर से चिल्ला उठी। वह तो महारानीजी थीं जिन्होंने देख लिया।"
उन्होंने जो कुछ बीता सो सब कह सुनाया।
"डर का क्या कारण? सदा अपनी आँखों के सामने किसी-न-किसी को देखा करती थी। अब उठते ही कोई न दिखने के कारण शायद डर गयी होगी।" पण्डितजी ने कहा।
__"तो क्या सारा दिन वह सोती ही रही? कल रात सोने के बाद अभी उसे देख सकी।"
"कोई नौकरानी नहीं थी देख-भाल करने को?" "ऐसा नहीं लगता कि किसी ने देख-भाल की है।" "ये भी कैसे लोग हैं?"
"हाय. सब दिङ्मूढ़-से हो गये थे पण्डितजी, भोजन करने सब साथ ही बैठे थे, कप-से-कम तब भी किसी का बच्चों की ओर ध्यान नहीं गया न? जन्म देनेवाली मुझे ही ध्यान न रहा, तब उनको ही भला-बुरा क्यों कहें?"
"नौकरों के होने के कारण उधर ध्यान न गया हो। शायद इसीलिए यह कहावत अनी–खुद करे सो अच्छा, गैर करे सो खैर नहीं।"
"बिना कारण उन्हें बुरा-भला नहीं कहना चाहिए। हरियला से छोटे दोनों बच्चों की देख-भाल तो की ही है न?"
"बच्ची ने जब डर की बात कही तो उसने कुछ बताया कि डर क्यों लगा?"
"दरवाजे के पास से इतना लम्बा काला-सा फैला हुआ था।" यह कह रही थी।
"उस जगह को देख सकते हैं?"
"आइए।" पालदेवी उन्हें साथ ले गयीं। महामातश्री के शयनकक्ष से प्रांगण में रोशनी पूरी फैली थी। बच्ची जहाँ खड़ी-खड़ी चिल्ला पड़ी थी, उस जगह को दिखाया।
"तब आप क्या कर रही थीं?" "अन्दर दीप के पास बैठी थी।" "शायद आपकी छाया दरवाजे से बाहर फैली हो सकती है।"
"सो तो मालूम नहीं। आप यहाँ खड़े होकर देखें। मैं तब जहाँ बैठी थी वहाँ जाकर बैठती हूँ।" कहकर जा बैठी।
बच्ची ने जो कहा वह सच था। महारानीजी की ही छाया वहाँ फैली थी। "ठीक है, मालूम हो गया। बच्ची के भय का मैं निवारण कर दूँगा। चिन्ता
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 7