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के बाद उसी वर्ष युद्ध करने गये थे तो मुझे क्यों नहीं जाना चाहिए?" यह कह उसने सबका मुँह बन्द करा दिया। 'आप नहीं ले जाएँगे तो पट्टमहादेवी ने जो तलवार दी है उसे लौटा दूंगा'-कहकर उसने जिद की, इसलिए मैं भी साथ
आया हूँ। अब सन्निधान आ पहुँचे हैं अच्छा हुआ। आगे बढ़ने न देकर निगरानी रख सकते हैं।"
आगे बात नहीं बढ़ी। पोयसलों की सेना की गतिविधियों से अपरिचित आलुपों को कलस प्रान्त के सीमा-प्रदेश में पोयसल सेना के हो सकने का अनुमान था। इसलिए अपनी आधी सेना को उधर भेज, शेष आधी सेना को कोट्टिगेहार की ओर पहाड़ियों पर से पोय्सलों पर हमला करने की उन्होंने सोची थी। परन्तु उनका यह अनुमान गलत साबित हुआ। इससे आलुपों की आधी सेना थोड़े ही समय में अपनी आहुति देकर पीछे हट गयी। पोय्सलों के शरणागत होने के अलावा कोई दूसरा चारा ही नहीं था। हार मानकर, कर-खिराज देना स्वीकार कर वे पोसलों के सामने झुक गये।
इस अवसर पर बिट्टिदेव और बम्मलदेवी को खुलकर बातचीत करने का मौका . मिला। शान्तलदेवी का मन विशाल है, उनके सामने निस्संकोच कुछ भी कह सकते हैं-यह बात दोनों ने अच्छी तरह समझ ली थी। फिर भी बात करने में संकोच की भावना महसूस हो रही थी। खासकर बिट्टिदेव के मन में संकोच के साथ अपराध भाव भी था। इस मौके का फायदा उठाकर उन्होंने एक-एक कर अपने और शान्तला के बीच सम्पर्क कैसे हुआ और फिर कैसे उसका विकास होने लगा। बाल्यकाल की निष्कल्मष भावनाएँ प्रेम में परिवर्तित होकर कैसे सुदृढ़ हुई, गलतफहमी में पड़कर दण्डनायिका ने क्या-क्या कार्रवाई की और कैसा काण्ड मच गया, आदि सभी बातों को विस्तार से बताकर उन्होंने अपने दाम्पत्य जीवन का सारा परिचय बम्मलदेवी को दिया। कटक्न पहाड़ी पर की घटना, शिवगंगा में कैसा लगा और रेबिमय्या ने क्या चाहा, बलिपुर में इस प्रेम की बेल में कैसे नये-नये कोंपल निकले और अपने जन्मदिन के सन्दर्भ में कैसे दोनों में तलवार चलाने की स्पर्धा चली, देवी से हारने की स्थिति कैसे उत्पन्न हुई, इसके फलस्वरूप माता जी को क्या वचन देना पड़ा आदि-आदि सभी बातें भी बिट्टिदेव ने बम्मलदेवी को कह सुनायीं। इसके बाद उन्होंने कहा, "देखिए, हमारे समाज ने पुरुष के लिए एक ऊँचा स्थान दिया है । इसलिए मैं महाराज हूँ और वह पट्टमहादेबी, राजा की चरणदासी। वास्तव में हमारे हृदय पर पट्टमहादेवो का सम्पूर्ण अधिकार है। वह चरणदासी नहीं, हृदयेश्वरी है। उसमें किसी दूसरे के लिए स्थान ही नहीं है। हमारे जन्म-जन्मान्तर के पुण्य के फलस्वरूप हमने शान्सला देवी जैसी हृदयेश्वरी को पाया है। सभी बातों में हम उसके अनुवर्ती हैं। उसी का अधिकार है। इतना होने पर भी उसकी विचारधारा
82 :: पट्टमहादेवी शान्तला ; भाग तीन