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दण्डनाथ बैठ गये। दोनों राजकुमारियाँ शान्तलदेवी के बायें आसनों पर जा बैठी।
रेविमय्या किवाड़ बन्द कर अन्दर ही किवाड़ के पास खड़ा हो गया।
थोड़ी देर तक मौन छाया रहा। मंचिअरस सोच रहे थे कि बात का आरम्भ करें तो कैसे?
शान्तलदेवी ने ही पूछा, “जब दण्डनाथजी ने बातचीत करनी चाही तो मैंने कहा था न, इन बातों के बारे में यादवपुरी जाने के बाद विचार करेंगे, यहाँ नहीं।"
"हाँ," मंचि दण्डनाथ ने सिर हिलाकर सूचित किया।
"उस समय आपने कहा था, यहीं बात-चीत कर लें तो अच्छा है, यही हम चाहते हैं। साथ-साथ एक और बात भी कही थी। देर करने पर सन्निधान अन्यथा समझेंगे। है न?"
"वास्तव में मुझे बेलुगोल में ही कह देना चाहिए था। इन बच्चों का बहाना करके मैं खिसक गया था। गलती मेरी है। सन्निधान और पट्टमहादेवी मुझे क्षमा करें। परन्तु यों करने में मेरा कोई बुरा उद्देश्य नहीं था। मेरी कनपटी बँधे घोड़े की तरह सीधी दृष्टि है। अगल-बगल देखना मेरी स्थिति में साध्य नहीं। मैं इसके लिए कोई सफाई भी नहीं दे सकता कि ऐसा क्यों है। उस दिन बाहुबली स्वामी से मैंने जो प्रार्थना की वह एक-न-एक तरह से यहाँ उपस्थित सभी से सम्बन्धित विषय है, रेविमय्या को छोड़कर। इन बातों से सम्बन्ध न रखनेवाले इस एक व्यक्ति को साक्षी के रूप में यहाँ उपस्थित रहने देना दूरदर्शिता का लक्षण है। मेरी विनती, मेरी गोद में पली इन दो बेटियों की आन्तरिक इच्छा का प्रतीक है। मैं केवल उस इच्छा का सूचक मात्र हूँ। चूँकि इन बेटियों के भविष्य निर्वहण का दायित्व मुझ पर है अत: मुझे यह आवश्यक हो गया है। इस बात पर विचार करने की ओर मैंने प्रयत्न ही नहीं किया कि यह मेरी विनती सही है या गलत। मुझे यही लगा कि शायद गलत नहीं हो सकती है, सो भी आरती देते समय पुजारीजी की विनती करने की प्रेरणा देने के कारण; मैंने यही विनती भगवान बाहुबली से की। इसमें जो सन्दिग्धताएँ हैं उनसे मैं भी परिचित हूँ, ये बेटियाँ भी परिचित हैं। सम्बन्धित सभी लोग स्वीकार कर लें, तभी मेरी विनती सार्थकता पा सकती है, अन्यथा नहीं। बात को और विस्तृत करने की जरूरत नहीं। इसलिए सीधा निवेदन कर दूंगा। गलत हो तो बता दें, यही पर्याप्त है। जो भी कहें उसे हम प्रसाद मानकर स्वीकार कर लेंगे। ये दोनों राजकुमारियाँ अनाथ हैं। माँ के स्नेह और वात्सल्य से वंचित हैं। एक तरह से मेरे पास स्वतन्त्र रूप से पली-बढ़ी हैं। इन दोनों की एक जैसी ही अभिलाषा है। एक ही अभिलाषा होने पर भी उसमें सन्दिग्धता के होने की कल्पना भी उनके मन में नहीं है। मैंने ही स्वयं इस विषय पर स्पष्ट रूप से इन दोनों से
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 71