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"तो बुलवाऊँ ? "पट्टमहादेवी की इच्छा के अनुसार ही हो। कह दिया न?" शान्तलदेवो ने घण्टी बजायी। रेविमथ्या अन्दर आया।
"रेविमय्या, सन्निधान ने सन्दर्शन के लिए स्वीकृति दे दी है। जाकर मंचि दण्डनाथ से कहो। यह सन्दर्शन एकान्त में होगा। तुमको भी उपस्थित रहना होगा। इसलिए बाहर किसी ठिकाने के आदमी को पहरे पर तैनात रखोगे।"
"जो आज्ञा।" कहकर रेविमय्या चला गया।
बिट्टिदेव को बात समझ में आ गयी थी। कई-एक बार पूर्वनियोजित न होने पर भी बम्पलदेवी के प्रति जो आकर्षण उत्पन्न हुआ, वह भूले न थे। इन वाक्यों की गहराई को न समझ सके-ऐसी असमर्थता तो नहीं थी। जो भी हो, शान्तलदेवी के प्रति उनकी निष्ठा अडिग है, रहेगी; चाहे कुछ भी क्यों न हो जाय। वह शान्तलदेवी को अपने किसी भी काम से दुःखी नहीं बनाना चाहते थे। इसलिए मौन हो गुजरी हुई बातों को वह मन-ही-मन दुहराते रहे। माला पहनाने की बात से लेकर दो बार प्राणरक्षा करने के अवसरों पर जो नया अनुभव उन्हें हुआ था वह सब उनके मानसपटल पर एक-एक कर गुजरता गया। वास्तव में सभी तरह के आकर्षणों के वश में न आकर वे आत्मविश्वास पर निर्भर रह सकने की स्थिति तक भी पहुँच चुके थे। सच तो यह है कि उन्हें शान्तलदेवी ही एक समस्या-सी बन गयी थी। 'मेरे उस क्षणिक व्यवहार को शान्तलदेवी कई प्रसंगों में पहचान भी गयी थी। फिर भी उसने उसका विरोध क्यों नहीं किया? उसका विरोध ही मेरे लिए रक्षा-कवच है न? वह इस विषय में इतनी लापरवाह है?'-यही सवाल उनके मन को सालता रहा। यह सवाल उनकी अनुपस्थिति में उठता तो अच्छा था—यही उनका अन्तरंग कह रहा था। परन्त अब इस बात का सबके सामने स्वयं प्रकट होने का प्रसंग आ गया है। इस विषय में देवी इतनी दिलचस्पी क्यों ले रही हैं ? यादवपुरी में भी जब यह काम किया जा सकता था तो यहीं करने पर जोर क्यों दिया? बिट्टिदेव के अन्तर में यही सारी बातें हलचल मचा रही थीं, कहीं ओर-छोर नहीं मिल रहा था। सेमल की रुई की तरह हवा में ऊपर-नीचे मँडराते रहे उनके विचार । । इतने में घण्टी की आवाज हुई।
आगन्तुकों का स्वागत करने गम्भीर मुद्रा से राजदम्पती दूर-दूर के आसनों पर जा विराजे। परदा हटाकर रेविमय्या अन्दर आया और बोला, "मंचिअरस जी और राजकुमारियों पधार रही हैं।"
गम्भीर मुद्रा में बिट्टिदेव ने आदेश दिया, "अन्दर बुला लाओ।"
मंचि दण्डनाथ, अम्मलदेवी, राजलदेवी-अन्दर आये। उनके बैठने के लिए आसन तैयार थे। रेविमथ्या की सूचना के अनुसार सन्निधान के दायें आसनों पर मचि
70 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन