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गुस्सा आ गया था। स्त्रियों की बात को लेकर। अब पट्टमहादेवी को भी उसी तरह का गुस्सा पुरुषों पर आ रहा है?"
"ऐसा सोचें तो गलती किसकी?"
"प्रश्न उत्तर नहीं हो सकता। हमसे क्या असमाधान हुआ है, सो मालूम पड़ने पर ही तो समझाया जा सकता है।"
"अपमार हमें नहीं हुआ है।" "तो असमाधान क्यों?" "ऐसा मैंने कहा कब?"
"मुँह से कहा नहीं, प्रकारान्तर से सुझा दिया।'' बिट्टिदेव के चेहरे पर असमाधान के कारण कुछ शिकन पड़ गये।
"सन्निधान अब आईने के सामने जाकर अपने को देख लें तो पता लग जाएगा कि असमाधान किसे है।" कहती हुई महारानी कुछ मुसकरायी।
"ठोक है, हमें हो असमाधान है। खुशी हुई न: अछा, बात क्या है ?"
"मंचि दण्डनाथ ने एकान्त सन्दर्शन चाहा है। राजकुमारियों के साथ आएंगे। हम दोनों को एक साथ उनसे मिलना होगा, यही वे चाहते हैं।"
"क्या बात है?" बिट्टिदेव के चेहरे पर असमाधान की छाया लुप्त होकर चिन्ता की भावना दीख पड़ी।
"सो मझे क्या मालुम? अभी एक कन्या की बात उठी थी; अब यह भी शायद कन्या की ही बात हो सकती है।"
"हाँ, हाँ; हमें दूसरा तो कोई काम ही नहीं न?' "किसी ने कहा नहीं है ? राजा बनने के बाद आश्रितों की बात नहीं सुनोगे ?" "राजकुमारियों क्यों आएंगी?" "सन्निधान को भय है?" "न, न, जिसने दो बार जान बचायी, उससे भला किस बात का भय?"
"देखो, यह कृतज्ञता का लक्षण है। दो बार प्राणरक्षा करना आज की एकान्त चर्चा का मूल है। उस दिन कटवप्र पहाड़ी पर जिस बात का सिलसिला टूटा था उसी को आज आगे बढ़ाने का विचार है।"
"वह अभी यहाँ नहीं। यादवपुरी जाने के बाद देखा जाएगा।" "तो क्या मैं यही समझू कि सन्निधान विषय से परिचित हैं?" "परिचित होने जैसा विषय है ही क्या? कुछ नहीं।"
"यादवपुरी में हो सकता हो तो यहाँ क्यों नहीं? सन्निधान को डरना नहीं चाहिए। बीज रूप डर की जड़ को जमने नहीं देना चाहिए। उसे उठाकर फेंक दें तो आगे चलकर कोई तकलीफ न होगी।"
68 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन