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"यह हमारे लिए आन्तरिक मामाल-सा हो या है। हर दर्द को सहना कठिन है।"
"इसीलिए, उसका निवारण कर लेना चाहिए । सन्निधान के सन्तोष में मैं कभी बाधक नहीं बनूँगी। सन्निधान को इतना आश्वासन अपनी तरफ से दूंगी।"
"देवी, तुम कहाँ गड्ढे में ढकेल रही हो पुझे!"
"सन्निधान को ऐसा समझने की जरूरत नहीं। मैंने अपना सर्वस्व सन्निधान के लिए समर्पित किया है। और सन्निधान की वर्धन्ती के दिन बलिपुर में महामात श्रीजी को मैंने वचन दिया है कि मैं कोई ऐसा काम नहीं करूँगी जिससे सन्निधान के मन को दुःख हो। मन-वचन-तन से मैं सन्निधान का सुख और हित ही चाहनेवाली हूँ। इसमें रंच मात्र भी सन्देह न करें।"
"यह सब केवल अस्पष्ट कल्पना ही है। इसे आगे करके युक्तायुक्त विचार न कर निर्णय करने क्यों जाएँ? किसी क्षण कोई आकांक्षा उत्पन्न हो और वह थोड़ी देर झकझोर कर दूर हो सकती है तो उसे छेड़ने से भलाई ही क्या है ! मेरे कहने का यही अभिप्राय है।"
"छेड़ना किसे? यह अगर मात्र कल्पना हो, और यदि वह निराधार हो, उस कल्पना के पीछे चाह न हो, और एक सुदृढ़ भूमिका न हो तो ऐसी भावना उठ ही नहीं सकती। इसलिए विषय का स्पष्टीकरण हो जाना ही अच्छा है। जब वे स्वयं विचार-विनिमय करने का निवेदन कर रहे हैं तब हम पीछे हट जाएँ तो वे क्या समझेंगे?"
"प्रश्न करनेवाली पट्टमहादेवी हैं, हम नहीं।"
"हाँ सो, प्रश्न किया मैंने ही। स्पष्टीकरण भी मुझे चाहिए। विचार स्पष्ट हो जाना चाहिए। इसके लिए सन्निधान का सहयोग चाहिए, इसलिए आयी हूँ। बुलवा भेजें?"
"तुम्हारी इच्छा।" "तो समझें कि सन्निधान का सहयोग नहीं?" "हमने ऐसा तो कहा नहीं।" "तुम्हारी इच्छा-कहने में ही सन्निधान की अनिच्छा ध्वनित होती है।" "तो क्या हमने तुम्हारी इच्छा के अनुसार कभी कुछ किया हो नहीं?"
"ऐसा कहूँ तो मेरे मुँह में कीड़े। शायद किसी भी राज्य के राजा ने अपनी पट्टमहादेवी की बातों को इतना मूल्य नहीं दिया है जितना सन्निधान ने। इसके लिए बड़ी भाग्यशालिनी हूँ।"
"इसमें भी वह भाग्य तुम्हें ही मिले। हमारी पट्टमहादेवी से हार मानने का अर्थ है एक राष्ट्र को जीतना-यह अनुभव से हमने जाना है।"
पट्टमहादेखी शाला : भाग तीन :: 62