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"यह कहाँ तक ठीक है कि कोई भगवान् से ऐसी भी मांग करे जिसे माँगना चाहिए नहीं? अपने लिए कोई अनचाही माँग भगवान् से मांगेगा?'' बिट्टिदेव ने फिर से उसी सवाल को दुहराया।
"अपने लिए कुछौंग- ऐ कुक नहीं। मैंने अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए ही माँगा।"
"तो आपकी प्रिय राजकुमारियों के लिए है न?" शान्तलदेवी ने प्रश्न किया।
"उनकी इच्छा पूर्ण करने के लिए प्रार्थना की, या उनके बारे में आपकी जो इच्छा है, वह सफल हो-यह प्रार्थना की?" शान्सलदेवी ने फिर से सवाल किया।
"उनकी इच्छा मैं जानता हूँ। वह अगर सफल हो जाए तो मुझे खुशी है। परन्तु सफल न हो सकनेवाली इच्छा वे रखती हैं।"
"हमसे सम्भव होगा तो हम कोशिश करेंगी। परन्तु पहले यह मालूम तो होना चाहिए कि वह क्या है।" वास्तव में शान्तलदेवी की ध्वनि में उदारता थी, एक उत्साहवर्धक उदारता।
मंचिअरस तुरन्त कुछ न बोले। रेविमय्या जो खड़ा था-उसकी ओर देखा। "जाने दीजिए। कोई जोर-जबरदस्ती नहीं।"
"अभी एकदम कह सकूँ-यह साहस नहीं होता। आगे चलकर देखेंगे। मैं कह सकता हूँ--ऐसा लगने पर मैं स्वयं निवेदन करूंगा। अभी क्षमा करें।" मंदि दण्डनाथ बोले।
"हम आपकी मांग के बीच में पड़कर रुकावट डालेंगी, ऐसा कोई डर है या यह मॉग हमारे लिए जोगी नहीं, ऐसी कोई भावना है?"
"प्रस्तुत विषय दोनों तरह की प्रतिक्रिया के लिए अन्वित हो सकता है। इसलिए अभी रहने दिया जाए!"
"अभी और बाद में क्या फर्क पड़ता है। अब या तब, कभी तो सामना करना ही पड़ेगा न?"
"हाँ, कभी किसी दिन सामना करना ही पड़ेगा। परन्तु अभी मन में प्रशान्त भावना बसी है। अभी उसे आलोड़ित नहीं करना चाहता; इस क्षेत्र के पवित्र वातावरण में मन में अशान्ति उत्पन्न करनेवाले लौकिक विषय का प्रवेश उचित नहीं।"
"लौकिक विषय को प्रश्रय देने ही के कारण क्षेत्र के महत्त्व प्राप्त है। सर्वस्व का त्याग कर देव-मानव बने बाहुबली से भक्त क्या माँगते हैं, जानते हैं? मुझे युद्ध में विजय प्राप्त हो; मेरे सन्तान नहीं, सन्तान की प्राप्ति हो; मैं गरीब हूँ, षन दो विवाह नहीं हुआ, योग्य पति प्राप्त हो; रोगी हूँ, स्वस्थ कर दो। यो हम क्षेत्रों में भगवान् से
पट्टयहादेवी शाशला : भाग तीन :: 57