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जो भी प्रार्थना करते हैं, वह सब लौकिक विषय ही तो हैं। मुझे इस संसार से मुक्त करो, आशाओं को दूर करो-ऐसी माँग पेश कर प्रार्थना कौन करेगा?"
"पट्टमहादेवीजी का कथन सत्य है। जिसे करने में हम असमर्थ होते हैं और आत्म-विश्वास खो बैठते हैं तब क्षेत्रवासी पर विश्वास रखने लगते हैं। जब अभिलषित रोति से हमारे अधिकांश काज सफल होने लगते हैं तो क्षेत्र का महत्त्व बढ़ने लग जाता है। सिरजनहार परमात्मा इस विश्व का सृजन करता है और चाहता है कि यह सृष्टि कर्म नियोजित रीति से चलती रहे। इस तरह नियोजन करनेवाला यह सिरजनहार किन-किन रूपों में प्रकट होकर अपनी ही सृष्टि की मदद करने आता है. यह वही जाने। इसलिए उन पर भरोसा रखनेवाले माँगें नहीं तो करें ही क्या?"
"आत्म-विश्वास को दृढ़ रखना चाहिए। आत्मविश्वास रखनेवाले अपने मन में कुछ भी छिपाकर नहीं रखते।"
"फिर भी प्रकट करने पर दूसरों को दुःख हो सकने की कल्पना मन में हो जाए तो प्रकट करना कहाँ तक अच्छा होगा?"
"तो यही कहना पड़ेगा कि यहाँ स्वार्थ का फल दूसरों के लिए दुःखदायक है; यही न हुआ?"
'ऐसा प्रसंग हो तो क्या करना चाहिए, नी मेरेना के संघर्ष काम है।"
"दूसरों को दुःखी बनाकर स्वार्थ की साधना करना उचित नहीं, यह आप समझते हैं न?"
"समझता हूँ: इसीलिए इस सन्दिग्ध अवस्था से पार करने के लिए भगवान् से प्रार्थना की है।"
"आप कुछ भी कहें, बात प्रकट किये बिना इस सन्दिग्धता का निवारण नहीं होगा।"
मंचिअरस ने कुछ कहा नहीं।
तब तक रेविमय्या अपनी ध्यानावस्था से जाग गया था। सन्दिग्धता की बात उसके कान में भी पड़ी थी। थोड़ी दूर बैठी चट्टला के पास आया और पूछा कि बात क्या है। उसने उसके कान में कुछ फुसफुसाया। वैसे भी वह पूरी जानकारी तो रखता ही था। यह सन्दिग्धता क्या है वह तुरंत समझ गया। उसने पूरी आजादी के साथ कहा। वैसे ऐसी आजादी उसने नहीं ली थी। वह बोला, "मैंने सन्निधान के सामने कभी कुछ कहा ही नहीं।"
"क्यों, प्रभु के रहते बहुत-सी बातें नहीं कहते रहते थे उनके सामने?"
"तब सन्निधान बालक ही थे। सिंहासन पर विराजने के पश्चात् हम केवल आज्ञापालक मात्र हैं फिर भी अब इस सन्दिग्धता का निवारण होना अच्छा है।
58 :: पट्टमहादेवो शान्तला : भाग तीन