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सावन की समाप्ति के पूर्व ही राजपरिवार दोरसमुद्र में पहुँच गया। उनके पहुँचने तक काफी काम हो चुका था। उदयादित्य और कुंवर बिट्टियण्णा के उत्साह की सीमा न थी। जहाँ देखो वहाँ वे हाजिर। पोय्सल साम्राज्य के शतमानोत्सव का समाचार राज्य के कोने-कोने तक पहुंच गया था। महाराज के आदेश ने जनता में असीम उत्साह भर दिया था। गाँव-गाँव से संगृहीत धान्य राशि को सुरक्षित रखने के लिए राजधानी में बने भाण्डार-घर काफी न थे। जगह के अभाव के कारण धान भरी गाड़ियों में ही उन्हें रखे रखना पड़ा। उत्सव के समारम्भ में शामिल होने के लिए एकत्रित जन समूह को आहार-सामग्री वितरित करने के लिए बने वितरणागारों को सीधे इन अनाजभरी गाड़ियों को भेज दिया जाने लगा। दोरसमुद्र ने कभी इतनी भारी संख्या में जनस्तोम को नहीं देखा था। दोरसमुद्र का राजमहल शहर के दक्षिण-पश्चिम की ऊँची समतल भूमि पर बना था। उस राजमहल के मंजिल के गोपुर पर खड़े होकर देखने से दूर दूर तक, दृष्टि जहाँ तक पहुँचती, वहाँ तक जनता-जनार्दन!
हस्ति, अश्व, पैदल सेनाएं शहर के बाहरी वृत्त में अलग-अलग, खासकर पूर्व और दक्षिण-पूर्व के कोने में फैली हुई थीं। पूर्व पश्चिम एक कोस, उत्तर-दक्षिण एक कोस इतने विस्तृत क्षेत्र में सेना फैली थी। बाहर से जो लोग आये थे वे अपन बन्धुजनों के घरों में, धर्मशालाओं में तथा इसी अवसर के लिए शहर के उपनगर में नये बने वसति- गृहों में ठहर गये थे। यह कहा जा सकता है कि वेलापुरी के मार्ग में राजधानी से आधा कोस तक के क्षेत्र में तम्बू बने थे। शताब्दी-उत्सव के इस अवसर पर सारा शहर सजधज के साथ जगमगा रहा था। घर-घर साज-सज्जा। यहाँ तक कि रास्ते भी तरह-तरह की कलापूर्ण रंगवल्ली से सज गये थे। ऐसा लग रहा था कि जगन्माता ने ही हँसमुख हो यहाँ दोरसमुद्र का रूप धारण कर लिया
दशहरे का उत्सव यथाक्रम चला। महानवमी के दिन आयुध-पूजा का उत्सव भी विधिवत् मनाया गया। विजया के दिन नगर के अन्दर की दिशा में उत्तर-दक्षिण
और पूर्व-पश्चिम के एक कोस विस्तृत चौकोर मैदान में राज-परिवार के लिए पूर्वाभिमुख बैठने के अनुकूल बने मंच पर बीच में ऊँचे आसमों पर बिट्टिदेव और पट्टमहादेवी विराज रहे थे। उनके दोनों पारों में राजकुमार और राजकुमारी बैठे थे। महाराज की दायीं तरफ उदयादित्य अपनी रानी और कुमार के साथ बैठे थे। शान्तलदेवी की बायीं ओर के आसनों पर प्रधान गंगराज और कुमार बिट्टियण्णा बैठे थे। मन्त्रिगण, दण्डनाथ और अन्य अधिकारीवर्ग के परिवार को स्त्रियों के लिए एक दूसरा मंच बनाया गया था। वहाँ रानी पद्मलदेवी. चामलदेवी और बोप्पदेवी बैठी थीं। शान्तलदेवी इन तीनों को अपनी वेदी पर ही बैठाना चाहती
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 63