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इनमें जो खर्चा लग सकता है उतना तो बच ही जाएगा। इसलिए सैनिक मेले का संगठन करना बहुत ही उपयुक्त हैं। तोड़ और चेरों ने अभी-अभी मार खायी है। अब फिलहाल सिर नहीं उठाएँगे। सेना के आकार-प्रकार की बात जानना ही काफी है - वे प्राण लेकर पीछे हट ही जाएँगे। यह अनुभव की बात है।" नागदेव बोले, "इतने बड़े सैनिक प्रदर्शन के लिए आवश्यक विस्तृत स्थान ही कहाँ है ?"
गंगराज ने मेले के बृहत् आकार-प्रकार को समझाते हुए बताया, " मेला यादवपुरी में नहीं, दोरसमुद्र में लगेगा। राजधानी के उत्तर- [-पूर्व के कोने में जो विशाल मैदान है वह समतल है और इसके लिए बहुत ही अच्छी जगह है। मगर सबको ठहराने की व्यवस्था करनी होगी। यह बहुत बड़ा काम है। यह प्रचार की दृष्टि से किया जानेवाला कार्य है; इसलिए देश के कोने-कोने से लोग-बाग और अधिकारी जनों के आने की सम्भावना है।" शान्तलदेवी ने कहा, 'आना ही चाहिए। जो आएँगे, उनमें आत्मविश्वास की भावना जाग्रत होगी। अपने जान-माल के लिए कोई खतरा नहीं सब तरह के संरक्षण की व्यवस्था है। इस बात को समझेंगे। इसके साथ इस बृहदाकार विविधतापूर्ण सेना को देखकर शत्रुओं की छाती फट जाएगी।"
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दशहरे के वक्त इस मेले का आयोजन करने का निर्णय हुआ। समय कम काम अधिक। केवल तीन पखवारे की मोहलत इस मेले के लिए संगठन किस अवसर पर करें - इस बात को लेकर विचार-विनिमय चला। इतने में महाराज की वर्धन्ती का समय निकट आ लगा था इसलिए सोचा गया कि इस मेले का संगठन वर्धन्ती के समय पर ही किया जाए।
शान्तलदेवी ने कहा, " सोसेऊरू में राज्य स्थापना हुए एक शताब्दी बीत गयी इसलिए शताब्दी समारोह मनाना युक्त होगा यही मुझे उचित लगता है।" बिट्टदेव बोले, "एक सदी तक पोय्सल सुरक्षित होकर राज्य कार्य चलाता आया है - यह एक महान् उपलब्धि है। वास्तव में हमारे दादा के रहते इस ( शतमानोत्सव महोत्सव ) को मनाना चाहिए था। शताब्दी के बीतने की यह मीठी स्मृति आनेवाली सदियों के लिए संजीवनी होगी। वही करेंगे।"
गंगराज ने कहा, " एरेयंग प्रभु के सिंहासनारोहण के अवसर पर ही पोय्सल साम्राज्य के शतमानोत्सव को सम्पन्न किया जा सकता था। उस समय यह विचार सूझा ही नहीं। उस समय जो तैयारियाँ की गयी थीं वे सब विफल हुईं. इसलिए, कि प्रभु हमसे बिछुड़ गये। तब से कोई कार्य सूत्र वास्तव में पकड़ में नहीं आया । स्वस्थ मन से बैठकर कुछ सोचने की सहूलियत ही नहीं मिल सकी। देरी हो गयी, फिर भी कोई चिन्ता नहीं। इस उत्सव को मनाने पर राष्ट्र की सुभद्रता की जड़ें अच्छी तरह जमेंगी।"
पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन 61