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बनता जा रहा है। इनमें तलकाडु की ओर से चोलो...
राजघराने में दुःख तो रहा, सच है । वह एक अनिवार्य दुःख रहा। परन्तु ऐसी हालत के रहते हुए भी राष्ट्र का कार्य रुक कैसे सकता है? अपनी शक्ति को बढ़ाते रहने के लिए आवश्यक सभी प्रकार के कार्यक्रम चलाते रहने का खुला आदेश था। प्रधान गंगराज उस काम को विधिवत् देखते भी रहे। उस साल पर्याप्त वर्षा होने से अच्छी पैदावार हुई थी। राज्य में समृद्धि विराज रही थी। लोग सुख से जीवन यापन कर रहे थे। हाल ही में सम्पन्न विजयोत्सव के कारण सथा गाँव-गाँव में उसका काफी प्रभाव पड़ने से वहाँ के युवकों में उत्साह भी भरा हुआ था। इधर रायण और अनन्तपाल के नेतृत्व में अश्वदल का शिक्षपा भी व्यापक रूप से चलने लगा था।
मंधि दण्डनाथ ने इस बीच में सन्निधान को सलाह दी कि कुछेक प्रमुख शिविरों का सन्दर्शन कर आएँ तो अच्छा हो। पट्टमहादेवी ने स्वीकार ही नहीं किया बल्कि इसके लिए खुद भी साथ चलने की सूचना दी। सन्निधान की यात्रा नियोजित रीति से आरम्भ हुई। राजमहल में माचिकब्बे, बम्मलदेवी और सजलदेवी रह गर्यो।
हेगड़े मारसिंगय्या ने सन्निधान के साथ चलने की इच्छा प्रकट की, तो शान्तलदेवी ने कहा, "आपको इच्छा तो उचित ही है। परन्तु, मंचि दण्डनाथ हमारे साथ रहेंगे, यहाँ राजकुमारियाँ किसकी रक्षा में रहेंगी? माँ उनके साथ रहेंगी और आप उनकी देखरेख करते रहें-यह उचित होगा। इसी में गाम्भीर्य है।"
लाचार होकर हेग्गड़े को यादवपुरी में ही रहना पड़ा।
कुमार बिट्टिगा की अभिलाषा साथ जाने की थी। उसने उदयादित्य से सलाह माँगी कि पट्टमहादेवी से पूछे या नहीं। उदयादित्य ने कहा, "जिसे उचित समझेंगी उसे स्वयं पट्टमहादेवी जी ही सूचित करेंगी। जब सूचित नहीं किया तो चुप रहना चाहिए। पूछने पर हेग्गड़ेजी को जैसे युक्ति-संगत बात कहकर चुप करा दिया वैसा ही कुछ कहकर चुप करा देंगी। इसलिए कुछ मत कहो। सन्निधान की इस यात्रा में कोई खास बात होगी।" यों कह उदयादित्य ने उसे चुप करा दिया था।
चाहे कोई जाय या न जाय, सन्निधान यात्रा पर निकलें तो मायण-चट्टला को तो साथ रहना ही होगा। अब की बार रेविमय्या को भी साथ ले गये। उसकी उम्र ज्यादा हो गयी थी, उसे अधिक थकावट न हो इसका ध्यान शान्तलदेवी ने बराबर रखा।
सभी शिक्षण शिविरों को देखने के बाद शान्तलदेवी ने कहा, "मेरी एक अर्ज है। निवेदन करूँ ?"
"हुक्म हो।' बिट्टिदेव बोले।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 53