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३४ ] क्षपणासार
[ गाथा ३४-३६ अर्थ-मोहादिके क्रम लीये जो क्रमक रणरूप बन्ध हुआ उससे आगे इसीक्रमसे उतने ही सख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर असंजीपञ्चेन्द्रियके समान स्थितिसत्त्व होता है तथा उससे आगे जिसप्रकार मोहादिकसम्बन्धी स्थितिबन्धका व्याख्यान क्रमकरणपर्यन्त किया गया है वैसे ही स्थितिसत्त्वका व्याख्यान अनुक्रमसे जानना ।
विशेषार्थ ~यहा पल्यस्थितिपर्यन्त पल्य का सख्यातवाभागमात्र, उससे दुरापकृष्टिपर्यन्त पल्यका सख्यातबहुभागमात्र, उससे आगे सख्यातहजारवर्ष स्थितिपर्यन्त पल्यका असख्यातबहुभागमात्र आयाम लीये जो स्थितिबन्धापसरण हैं उनके द्वारा स्थितिबन्धघटनेका कथन किया था उसीप्रकार यहा उतने आयामसहित स्थितिकाण्डकोके द्वारा स्थितिसत्त्वका घटना होता है । जिसप्रकार क्रमकरणमे सख्यातहजार स्थितिबन्धका व्यतीत होना कहा था वैसे यहा भी कहते हैं और वही उतने स्थितिकाण्डकोका व्यतीत होना कहेगे, क्योकि स्थितिबन्धापसरणका और स्थितिकाण्डकोत्करणका काल समान है तथा क्रमकरणके प्रकरणमे स्थितिबन्ध कहा था उसके स्थानपर स्थितिसत्त्व कहना तथा अल्पबहुत्व, त्रैराशिकादि विशेषकथन बन्धापसरणवत् ही जानना चाहिए । स्थितिसत्त्वके क्रमका कथन निम्न प्रकार है
'प्रत्येक सख्यातहजारकाण्डक व्यतीत हो जानेपर क्रमसे असंज्ञीपञ्चेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रियके स्थितिबन्धके समान ही कर्मोका स्थितिसत्त्व भी एकहजार, सौ, पचीस व एकसागरप्रमाण होता है तथा सख्यातहजार स्थितिकाण्डक व्यतीत होनेपर वीसीय (नाम-गोत्र) कर्मोंका एकपल्य, तीसीय (ज्ञानावरणादि चार) कर्मोका डेढपल्य और मोहनीयकर्मका दो पल्य स्थितिसत्त्व होता है । इससे आगे पूर्वसत्त्वका सख्यात बहुभागमात्र एककाण्डक होनेसे वीसीयकर्मों का पल्यके सख्यातवेंभागमात्र स्थितिसत्त्व हो जाता है । उस कालमे बीसीयकर्मोंका सबसे स्तोक, वीसीयकर्मोके स्थितिसत्त्वसे तीसीयकर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा और मोहनीयकमको विशेष अधिक है। इस क्रमसे पृथक्त्वस्थितिकाण्डक व्यतीत हो जानेपर तोसोयकर्मोका पल्यमात्र और मोहनीयकर्मका त्रिभाग अधिक पल्यमात्र स्थितिसत्त्व जानना। इसके आगे एककाण्डकके होनेपर तीसीयकर्मोका स्थिति सत्त्व भी- पल्यके सख्यातवेंभागमात्र हो जाता . है तब बोसीयकमोका स्थितिसत्त्व सबसे स्तोक तीसोयकर्मों का उससे सख्यातगुणा और'
१. ज० ५० मूल पृष्ठ १९६१ । क० पा० सुत्त पृष्ठ ७४८.७४६ सूत्र १४६ से १६३ ।