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क्षपणासार
[ गाथा ३२-३३ ३२
__ अर्थः--मोहनीयकर्मका पल्यके असंख्यातवेंभागमात्र स्थितिबन्ध होने के काल में नाम व गोत्र का स्थितिबन्ध सबसे स्तोक, उससे असंख्यातगुणा ज्ञानावरणादि चारतीसीयकर्मोका और उससे असख्यात गुणा मोहनीयकर्मका स्थितिवन्ध होता है। इसप्रकारके अल्पबहुत्वसहित सख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर नाम व गोत्रकर्मका स्तोक उससे मोहनीयकर्मका असख्यातगुणा तथा उससे भी असख्यात गुणा ज्ञानावरणादि चार तीसीयकर्मोंका, ऐसे अन्यप्रकार स्थितिबन्ध होता है । यहां विशुद्धताके निमित्तसे तीसीयकर्मोके नीचे अतिप्रशस्त मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेषघातके वशसे असंख्यातगुणा कम हो जाता है।
तेत्तियसेत्ते बंधे समतीदे वीलियाण हेट्टादु । एक्कसराहे मोहे असंखगुणहीणयं होदि ॥३२॥४२३॥
अर्थः--पूर्व गाथोक्त अल्पबहुत्वके क्रमसहित उतने ही संख्यातहजार स्थितिबन्ध होने पर एक ही बार अन्यप्रकारसे स्थितिबन्ध होता है वहां मोह नीयकर्मका सबसे स्तोक, नाम व गोत्रकर्मका असंख्यात गुणा और उससे ज्ञानावरणादि चारों तीसीयकर्मोंका असंख्यातगुणा स्थितिबन्ध होता है । यहां विशुद्धताके बलसे अति अप्रशस्तमोहका स्थितिबन्ध वीसीयकर्मोके नीचे असख्यातगुणा कम हो जाता है ।
"तेत्तियमेत्त बंधे समतीदे वेदणीय हेद्वादु ।
तीसियघादि तियानो असंखगुणहीणया होति ॥३३॥
अर्थः-इसप्रकार उपर्युक्त क्रमसे उतने ही सख्यातहजारस्थितिबन्ध व्यतीत होनेपर अन्य ही प्रकार स्थितिबन्ध होता है । तब मोहनीयकर्मका सबसे स्तोक, उससे नाम व गोत्रका असंख्यातगुणा और उससे तीन घातियाकर्मोका असंख्यातगुणा तथा
१. जयधवल मूल पृ० १६६० । २. यह गाथा ल० सा० गाथा २३४ के समान है । क० पा० सु० पृ० ७४७ सूत्र १३४ से १३६;
धवल पु० ६ पृष्ठ ३५२ । ३ जयधवल मूल पृष्ठ १६६० । ४. यह गाथा लब्धिसार गाथा २३५ के समान है। धवल पु० ६ पृष्ठ ३५३; क. पा० सुत्त पृ०
७४७-४८ सूत्र १३७ से १४० तक ।