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गाथा ३४-३६ ] क्षपणासार
[ ३३ उससे असंख्यातगुणा वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध होता है । यहां विशुद्धता होने से तीनीयकर्मोमें भी वेदनीयकर्मसे नीचे अप्रशस्त तीन घातियाकर्मोका असंख्यात गुणा घटते हए स्थितिबन्ध हो जाता है।
तेत्तियमेत्ते बंधे समतीदे वीसियाण हेढा दु ।
तीसियघादितियानो असंखगुणहीणया होति ॥३४॥४२५॥
अर्थः--इसी उपयुक्तकमसे संख्यातहजार स्थितिवन्ध व्यतीत होनेपर पूर्वस्थितिबन्धसे अन्यप्रकार स्थितिबन्ध होता है तब मोहनीयकर्मका सबसे स्तोक, उसने तीन घातियाकर्मोका असख्यातगुणा, उससे नाम व गोत्रकर्मका असत्यातगुणा और उससे साधिक वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध होता है । यहां विशुद्धताके बलसे वीसीय (नामगोत्र) कर्मोके नीचे अतिअप्रशस्त तीन घातियाकर्मोका असख्यात गुणा घटते हुए स्थितिबन्ध होता है।
*तक्काले वेदणियं णामागोदादु साहियं होदि ।
इदि मोहतीसवीसियवेदणियाणं कमो बंधे ॥३५॥४२८||
अर्थः-उस (विशुद्धतावश अप्रशस्त तीन घातियाकर्मोका असंख्यात गुणा घरते हुए स्थितिबन्धके) कालमे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध नाम व गोनके स्थितिबन्यो साधिक है अर्थात् नाम व गोत्रके स्थितिवन्धसे आधाप्रमाण अधिक (१३ गुणा), क्योंकि वीसीयकर्मोके स्थितिबन्धसे तीसीयकर्मोका स्थितिवन्ध डेढगुणा राशिका विभोगे सिद्ध होता है । इसप्रकार मोहनीय, तीसीय, वीसीय और वेदनीयकर्मका मममें दम सोही क्रमकरण जानना । नाम और गोत्रकर्मसे वेदनीयका डेढगुणा स्थितिवन्धर पाने अल्पबहुत्व होना ही क्रमकरण कहलाता है ।
अथानन्तर स्थितिसत्त्वापसरणका कथन करते हैं:
बंधे मोहादिकमे संजादे तेत्तियेहिं बंधेहिं । ठिदिसंतमसरिणसमं मोहादिकमंतहा संते ॥३६११२७॥
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१. जयघवल मूल पृष्ठ १६६०-६१।। २. यह गापा ल० सार गा० २३६ के समान है। पवन ०६ १८:५३;
७४८ सूत्र १४१ से १४८ तक। ३. पवन मून०१६ ४. यह गावा ल० सा० गाथा २६७ के समान है। पवन दु० ६ १३५३ ।