Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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लिये विकासगामी आत्मा को तीन बार अल-प्रयोग करना पड़ता है। जिनमें दूसरी बार किया जाने वाला बल-प्रयोग ही, जिसके द्वारा राग-Jष की अत्यन्त तीव्रतारूप प्रन्थि भेजी जाती है, प्रधान होता है । जिस प्रकार उक्त तीनों दलों में से अलवान् दूसरे अङ्गरक्षक दल के जोस लिये जाने पर कि सजा का परामय सहज होता है. इसी प्रकार राग-द्वेष की अतितीव्रता को मिटा देने पर दर्शनमोह पर जयनाम करना सहज है। दर्शनमोह को जीता और पहले गुणस्थान की समाप्ति हुई।
ऐसा होते ही विकासमामी आत्मा स्वरूप का दर्शन कर लेता है अर्थात् उसको अब तक जो परखप में स्वरुप की भ्रास्ति थी, वह दूर हो जाती है । अत एव उसके प्रयत्न की गति उल्टी न होकर सीधी हो जाती है। अर्थात् वह विवेकी बन कर कर्तव्यअकर्तव्य का वास्तविक विभाग कर लेता है । इस दशा को जनशास्त्र में 'अन्तरात्म भाव" कहते हैं। क्योंकि इस स्थिति को प्राप्त करके विकासमामो आस्मा अपने अन्दर वर्तमान सूक्ष्म और सहज शुद्ध परमात्म-भाव को देखने लगता है, अर्थात अन्तरात्मभाव, यह आत्म-मन्दिर का गर्भद्वार है, जिसमें प्रविष्ट होकर उस मम्बिर में वर्तमान परमात्म-भावरूप निश्चय वेबका दर्शन किया जाता है।
यह दशा विकासक्रम को चतुर्थो भूमिका किंवा चतुर्थ गुणस्थान है, जिसे पाकर आरमा पहले पहल आध्यात्मिक शान्ति का अनुभव करता है । इस भूमिका में आध्यात्मिक दृष्टि यथार्थ ( आस्मस्वरुपोन्मुख ) होने के कारण विपर्यास-रहित होती है । जि को जनशास्त्र में सम्यग्रष्टि किम्वा सम्यक्त्व * कहा है।
जिनोक्तादविपर्यस्ता, सम्यग्दृष्टिनिगद्यते । सम्यक्त्वशालिनां सा स्पा,-तमंत्र जायसङ्गिनाम् ।।५९६॥"
--होकप्रकाश, सर्ग ३ ।