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कर्म ग्रन्थ भाग चार (२) - दृष्टिवाद के अध्ययनका निषेध करनेसे शास्त्र कथित कार्य-कारण भावकी मर्यादा भी बाधित हो जाती है । जैसे:-पहले पाच प्राप्त किये बिना केवलज्ञान प्राप्त नहीं होता; पूर्व के ज्ञानके बिना शुल्कध्यानके प्रथम दो पद प्राप्त नहीं होते और 'पूर्व' दृष्टिवादका एक हिस्सा है । यह मर्यादा शास्त्रमें निर्विवाद स्वीकृत है ।
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"शुल्के व पूर्वविदः ।
तत्वार्थ अ० ६, सू० ३६ । इस कारण दृष्टिवादके अध्ययनकी अनधिकारिणी स्त्री को केवलमान की अधिकारिणी मान लेना स्पष्ट विरुद्ध जान पड़ता है ।
दृष्टिवाद के अनाधिकार के कारणोंके विषय में दो पक्ष हैं:
(क) पहला पक्ष, श्रीजिनभद्रमणि क्षमाश्रमण आदिका है। इस पक्ष में स्त्री तुच्छ, अभिमान, इन्द्रिय चाञ्चल्य, मति-मान्य आदि मानसिक दोष दिखाकर उसको दृष्टिवादके अध्ययनका निषेध दिया है। इसके लिये "देखिये, विशे० भा०, ५५२वीं गाथा ।
(ख) दूसरा पक्ष, श्रीभद्रसूरि आदिका है। इस पक्ष में अशुद्धिरूप शारीरिक दोष दिखाकर उसका निषेध किया है। थथा:
कथं द्वादशाङ्गप्रतिषेषः ? तथाविषविप्र तसो दोवात् ।” 'ललितविस्तरा, पु०, '' [नयष्टि से विरोधका परिहार:- ]रष्टिवादके अनधिकारसे स्त्रीको केवलज्ञानके पाने में जो कार्य-कारण- भावका विशेष दीखता है वह वस्तुतः विरोध नहीं है; क्योंकि शास्त्र, स्त्रीमें दृष्टिवादके अर्थ शानकी योग्यता मानता है; निषेध सिर्फ शाब्दिक अध्ययनका है ।
श्रेणिपति तु कामगर्भवद्भावतो भावोऽद्धि एवं ।"
- अतिविस्तरा तथा इसकी श्रीमुनिचन्द्रसूरि-कृत पञ्जिका, पु० १११ । तप भावना आदि जब ज्ञानावरणीयका क्षयोपशम तीव्र हो जाता है, तब स्त्री शाब्दिक अध्ययन के सिवाय ही दृष्टिवादका सम्पूर्ण अर्थ-ज्ञान कर लेती है और शुल्कध्यानके दो पाद पाकर केवलमानको भी पा लेती है"यदि च 'शास्त्रयोगागम्यसामय्यं योगः वसेय माध्दतिसूक्ष्मेण् विशिष्टक्षयोपशमप्रभमप्रभदियोगता पूर्वधरस्यैव बोवातरिकेसद्भावा
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