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कर्मग्रन्थ भाग बार परिशिष्ट "ढ" । पृष्ठ ८६, पंक्ति २. के 'आहारक' शब पर
केवलजानी के आहार पर विचार ।] तेरहवें गुणस्थान के समय आहारकत्वका अङ्गोकार यहाँके समान दिगम्बरीय ग्रन्थों में हैं। -तत्त्वार्थ- १, सू०८की सर्वार्थसिद्धि । "माहारानुवादेम आहारफेषु मिग्याइष्टिपावनि सयोगकेवल्यन्तानि"
इसी मोम्मटसार-काइदी .:. भोरी गाथा भी इसके लिये देखने योग्य है।
उक्त गणेस्थानमें असातवेदनीयका उदय भी दोनों सम्प्रदायके ग्रन्थों (दुसरा कर्मग्रन्थ, गा० २२: कर्मकाण्ड, गा. २७१)में माना हुआ है । इसो सरह उस समय आहारसंज्ञा न होनेपर मी कार्मणशरीरनामकर्म के उदय से कर्मपुदग्लोंकी तरह औदारिकशरीरनामकर्मक उदय से औदारिक-
पुलों का ग्रहण दिगम्बरीय ग्रन्थ (लब्धिसार मा ६१४)में भी स्वीकृत है । आहारकत्वकी व्याख्या गोम्मटसार में इतनी अधिक स्पष्ट है कि जिससे केवलीद्वारा औदारिक, भाषा और मनोवर्गणा के पुदगल ग्रहण किये जाने के सम्बन्ध में कुछ भी सन्देह नहीं रहता (जीव. गा० ६६३-६६४) । औदारिक पुदगलोंका निरन्तर ग्रहण भी एक प्रकारका आहार है, जो 'लो माहार' कहलाता है। इस आहारके लिये जानेतक शरीरका निर्वाह और इसके अभावमें शरीरका अनि अर्थात योग-प्रवृत्ति पर्यन्त औवारिक पूगलोंका ग्रहण अन्य व्यतिरेकसे सिद्ध है। इस तरह केवलज्ञानीमें आहारकत्व, उसका कारण असातवेदनीयका उदय और औदारिक पुद्गलों का ग्रहण, दोनों सम्प्रदायको समानरूपसे मान्य है। दोनों सम्प्रदाय की यह विचार-ममता इतनी अधिक है कि इसकेसामने कबलाहारका प्रश्न विषारसीलोंकी दृष्टि में आप ही आप हल हो जाता है।
केवलीजानी कवलाहारको ग्रहण नहीं करते, ऐसा माननेवाले भी उनकेद्राग अन्य मूक्ष्म औदारिफ पुग्लोंका ग्रहण किया जाना निर्विवाद मानते ही हैं। जिनके मतमें केवलज्ञानी कवलाहार ग्रहण करते हैं। इसके मत से वह स्थूल औदारिक पुद्ग्लके सिवाय और कुछ भी नहीं हैं । इस प्रकार कवालाहार माननेवाले-न माननेवासे उभयके मन में केबलशानी के द्वारा जिसी-न-किसी प्रकारके औदारिक पुदालों का ग्रहण किया जाना समान है। ऐसी शामें कबलाहार के प्रश्नको विरोध का साबन बनाना अर्थ-हीन है।
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