________________
कर्मग्रन्थ भाव चार
9
·
(क) पहले तीन गुणस्थानों में अज्ञान माननेवाले औरपहले दोगुणस्थानों में अज्ञान मानने वाले दोनों प्रकार के कार्मग्रन्थिक विद्वान अवधिज्ञान से अवधिदर्शन को अलग मानते हैं, पर विभङ्गशान से नहीं, वे कहते है किविशेष अवधि उपयोग से सामान्य अवधि उपयोग भिन्न है; इसलिये जिस प्रकार अवधि-उपयोग वाले सम्यक्त्वी में अवधिज्ञान और अवधिदर्शन, दोनों अलग-अलग हैं, इसी प्रकार अवधिउपयोग वाले अज्ञानी में श्री विभङ्गज्ञान और अवधिदर्शन, ये दोनों वस्तुतः भिन्न हैं सही, तथापि विभङ्गज्ञान और अवधिदर्शन, इन दोनों के पारस्परिक भेद की अविवक्षामात्र है। भेद विवक्षित न रखने का सवच दोनों का सादयमात्र है । अर्थात् जैसे विमङ्गज्ञान विषय का यथार्थ निश्चय नहीं कर सकता, वैसे ही अवधिदर्शन सामान्यरूप होनेके कारण विषय का निश्चय नहीं कर सकता ।
इस अभेदविवक्षा के कारण पहले मत के अनुसार चौथे आदि नो गुणस्थानों में और दूसरे मत के अनुसार तीसरे आदि इस गुणस्थानों में अवधिदर्शन समझना चाहिये ।
(ख) सैद्धान्तिक विद्वान विभङ्गज्ञान और अवधिदर्शन, दोनों के भेद की विवक्षा करते हैं, अभेद की नहीं । इसी कारण वे विभङ्गशानों में अनि मानते है । उनके मत से केवल पहले गुणस्थान में विभङ्गज्ञान का संभव है, दूसरे आदि में नहीं । इसलिये वे दूसरे आदि ग्यारह गुण-स्थानों में अवधिज्ञान के साथ और पहले गुणस्थान में, विभङ्गज्ञान के साथ अवधिदर्शन का साहचर्य मानकर पहले बारह गुणस्थानों में अवधिदर्शन मानते हैं। अवधिज्ञानी के और विभङ्गशानी के दर्शन में निराकारता अंश समान ही है। इसलिये विभङ्गशानी के दर्शन की 'विभङ्गदर्शन' ऐसी अलग संज्ञा न रखकर 'अवधिदर्शन' ही संज्ञा रखी है ।
1
P
सारांश, करमेधिक पक्ष, विभङ्गकान और अवधिदर्शन इन दोनों के भेद की त्रिवक्षा नहीं करता और सैद्धान्तिक पक्ष करता है ।
— लोकप्रकाश सर्ग ३, श्लोक १०५७ से आगे । इस मतभेदका उल्लेख विशेषणवती ग्रन्थ में श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने किया है, जिस की सूचना प्रज्ञापना- पद १८, वृत्ति पु. ( कलकत्ता ) ५६६पर है।
=0
.