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कर्मग्रन्थ भाग चार दानशुल्कध्यानहय प्राप्तः केवलावाप्ति क्रमेण मुक्तिप्राप्तिरिति न दोषः,अपयनमन्तरेणापि भावतः पूर्ववित्वसं भवात्, इति विभाथ्यते. तदा निग्रन्थीनाप्रमेव विसयसंमचे दोषाभाया !
-शास्त्रवा० ४२६ । - मह नियम नहीं है कि गुरु-मुख से शाब्दिक-आध्ययन बिना किये अर्थशान न हो । अनेक लोग ऐसे देखे जाते हैं, जो किसी से बिना पने ही मनन चिन्तन द्वारा अपने अभीष्ट विषयका गहरा ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं।
___ अब रहा शाब्दिक-अध्ययनका निषेध, सो इसपर अनेक तर्क-वितर्क उत्पन्न होते हैं। यषा-जिसमें अर्थ-ज्ञानकी योग्यता मान ली जाय, उसको सिर्फ शाब्दिक-अध्ययनके लिये अयोग्य बतलाना क्या संगत है? शब्द, अर्थशानका साधनमात्र है। तप, भावना आदि अन्य साधनोंसे जो अर्थ-ज्ञान संपादन कर सकता है, वह उस ज्ञान को शब्द द्वारा संपादन करने के लिय अयोग्य है, यह कहना कहांतक संगत है? शारिदका अध्ययन के निषेत्रनिता तुच्छत्व अभिमान आदि जो मानसिक-दोष दिखाये जाते हैं, वे क्या पुरुष नानिमें नहीं होते? यदि विशिष्ट पुरुषों में उक्त दोषों का अभाव होने के कारण पुरुष सामान्यकेलिये शाब्दिक-अध्ययनका निषेध नहीं किया है तो क्या पुरुष तुल्य विशिष्ट स्त्रियोंका संभव नहीं है? यदि असंभव होता तो स्त्रीमोक्षका वर्णन क्यों किया आता? शामिदक-अध्ययन के लिये जो शारीरिक-दोषींकी संभावना की गयी है, वह भी क्या सब स्त्रियों को लागू पड़ती है? यदि कुछ स्त्रियों को लाग् पड़ती है तो क्या कुछ पुरुषों में भी शारीरिक-अशुद्धिकी संभावना नहीं है। ऐसी दशामें पुरुषजातिको छोड़ स्त्रीजाति के लिये शाब्दिकअध्ययनका निषेध मिस अभिप्रायसे किया है? इन तकोंके सम्बन्धमें संक्षेपमें इतना ही कहना है कि मानसिक या शारीरिक-दोष दिखाकर शाब्दिकअध्ययनका जो निषेष दिया गया है. यह प्रयिक जान पड़ता है, अपति विशिष्ट स्त्रियों के लिये अध्ययनका निषेध नहीं है। इसके समर्थन में यह कहा जा सकता है कि जब विशिष्ट स्त्रियां, ष्टि-वादका अर्थ-जान, दीतरागमाव, केवलज्ञान और मोक्ष तक पाने में समर्थ हो सकती हैं, तो फिर उनमें मानसिवदोषोंकी संभावना ही क्या है? तथा वद्ध अप्रमत्त और परमपवित्र आचारवाली स्त्रियों में शारीरिक अशुद्धि कैसे बतलायी जा सकती है। जिनको दृष्टिवादके अध्ययन के लिये योग्य समझा जाता है. वे पुरुष भी, जैसे:स्थूलभद्र, दुबंलिका पुष्यमित्र आदि नुम्छत्व; स्मृति-दोष आदि कारणों से रष्टिवादकी रक्षा न कर सके।