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श्री देवेन्द्र सरी-विरचित 'षडशीति'-अपरनामक कर्मग्रन्थ भाग-चार
(आचार्य सम्राट पूज्य श्री १००८ श्री आनन्द ऋषि जी महाराज
की ७५वीं दीक्षा जयन्ती पर प्रकाशित)
विवचक
पं० सुखलाल जी संघवी भूतपूर्व प्रोफेसर-बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी
प्रकाशक:श्री बर्द्धमान स्थानकवासी जैन धामिक शिक्षा समिति,
बडोत (मेरठ) २५० ६११
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प्रकाशकीय प्रस्तुत क्रर्मग्रन्थ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुये हमें परम हर्ष का बनुमब हो रहा है क्योंकि काफी लम्बे समय से यह कर्मग्रन्थ माता जिस के भ्याख्याकार श्रद्देय श्री प. थो सुखलाल जी संघवी हैं, उपलब्ध नहीं हो रही थी इस कमी को पूरी करने के लिये हमारी संस्था ने कर्मनथ के सम्पूर्ण ६ ही भागों को प्रकाशित करने का निश्चय किया। तवउपरान्त अनेक सहयोगी बंधुओं के सहयोग से इस गुरूत्तर कार्य को पूर्ण भी किया ताकि कर्म सिद्धान्तों के ज्ञान पिपासुओं की तृप्ति हो सके ।
प्रस्तुत बौथा फर्मग्रन्थ जो तीसरे कर्म ग्रन्थ को पढ़ने के पश्चात पढ़ना अनिवार्य हो जाता है और इसके पढ़ने के पश्चात पंचसंग्रह व कम्मपयरी आदि ग्रन्थों को समझना सरल हो जाता है इसके प्रकाशन के लिये हम श्री वर्षमान जैन पोलीवलीनक,बड़ौत के पदाधिकारी व सदस्यों को हार्दिक प्रधाई देते हैं जिन्होंने परम श्रद्देय आचार्य सम्राट पूज्य गुरुदेव श्रीश्री१००८ श्री आनन्द ऋषि जी महाराज की ८८वीं जन्म जयन्ती के पावन अवसर पर इस पुस्तक का सम्पूर्ण व्यय अपने ऊपर लेकर प्रकाशित कराया और अपनी श्रद्धा आचार्य देव के प्रति प्रस्तुत करी।
इस चौथे कर्मनाथ के प्रकाशन में भी थी वकील चन्द जी जन कोषाध्यक्ष की प्रेरणा मुख्य कारण है । उन्होने इस अन्य को छपवाने व प्रकाशन कराने में भी अथक परिश्रम कर धर्म भावना का परिचय दिया है।
काफी समय पश्चात प्रकाशन होने व भूल सहित्य के उपलब्ध न होने के कारण मुद्रण में अशुद्धिया रहना सम्भव है इसके लिए क्षमा प्रार्थी है आगामी संस्करण हेतु बेटियों के सुधार एवं सुक्षाव सदैव आमन्त्रित है।
धन्यवाद सहित विनीत : फैलाश चन्द अन
अध्यक्ष श्री बद्धमान स्था० जैन धामिक शिक्षा समिति
बड़ौत (मेरठ) 25061
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विषय |
नाम
संगति
प्रस्तावना का विषयक्रम ।
4
+
PRA
*****
प्राचीन और नवीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ
चौथा कर्मग्रम्य और आगम पंचसंग्रह तथा गोम्मटसार
विषय-प्रवेश
विशेष स्वरूप
गुणस्थानका दर्शनान्तर के साथ जनदर्शनका साम्य
THA
योग सम्बन्धी विचार
योगके मेव और उनका आधार
......
●
—1I
417
योग उपाय और गुणस्थानों में योगावसार
पूर्व सेवा आदि शब्दों की व्याख्या योगजन्य विभूतियाँ
गुणस्थान जैसा बौद्ध शास्त्रगत विचार
...
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1+1
+
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4417
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पुल ।
१
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3
४
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१०
શ્
४५
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५२
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विषयानुक्रमणिका ।
विषय । मङ्गल और विषय जीवस्यान आदि विषयों को व्याख्या'.. विषयों का कम अभिमान [१] जीवस्थान-अधिकार'.. जीवस्थान जीवस्थानों में गुणस्थान जीवस्थानों में योग जोषस्थानों में उपयोग ... जीवस्थानों में लेण्या-बन्ध आदि प्रथमाधिकार के परिशिष्ट परिशिष्ट "क" परिशिष्ट "न" परिशिष्ट "" परिशिष्ट "" परिशिष्ट "" परिशिष्ट "" [२] मार्गणास्थान-अधिकार मागंगाके मूल मेद ... मार्गणाओं को व्याल्या ... मार्गगास्थानके अषान्तर मेर
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विषय
गतिमागंगा के भेखों का स्वरूप गंगा के मेवों का स्वरूप
कश्यमार्गणा के मेवों का स्वरूप योगमार्गणा के मेवों का स्वरूप स्वरूप
गंगा के मेवों का कषायमार्गणा के मेवों का स्वरूप
जानमार्गणा के मेवों का स्वरूप संयममात्र वनमार्गणा के मेवों का स्वरूप श्यामार्गेणा के मेवों का स्वरूप मध्यस्य मार्गणा के मेवों का स्वरूप सम्पदमार्गणा के मेवों का स्वरूप
मार्गणा के मेवों का स्वरूप
मार्गणाओं में जोवस्थान
बहारसागंणा के मेवों का स्वरूप
सागरों में गुणस्थान मार्गगाओं में योग मनोयोग के मेवों का स्वरूप
:
वचनयोग के मेवों का स्वरूप काययोग के मेवों का स्वरूप मार्गनाओं में योग का विचार
मार्गणाओं में उपयोग मार्गणात्रों में लेहपा
---
मार्गणाओं का अल्प- बहुत्व गतिमार्गणा का अल्प-त्य
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विषय
पृष्ठ
इम्निय और काय-मार्गणा का अल्प महत्व योग और बेव-मार्गणा का अल्प पहत्व कषान, शान संयम और दर्शन-मार्गणा का अल्प पहत्व
लेषया आदि पांच मार्गणाओं का अल्प-महत्व द्वितीयाधिकार के परिशिष्ट
परिशिष्ट "ज" ... परिशिष्ट "स" ... परिशिष्ट "" ... परिशिष्ट "" परिशिष्ट "" परिशिष्ट " परिशिष्ट " परिशिष्ट "" परिशिष्ट "व" ...
परिशिष्ट "" ... [ ३ ] गुणस्यान के अधिकार ...
गुणस्थानों में जोवस्थान गुणस्थानों में योग गुणस्थानों में उपयोग सिद्धान्त के कुछ मन्तव्य "" गुणस्थानों में लेषा तथा बन्ध-हेतु
___... १७२ बन्ष-हेतुओं के उत्तर भेव तथा गुणस्थानों में मूल बम्ब-हेतु १७५ एक सौ बीस प्रकृतियों के यथा संभव मूल बन्ध-हेतु .'' १७९
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( ४ )
विषय
पृष्ठ
२०६
२००
गनमा उ तुओं क साना तथा विशेष वर्णन ... ...
१८१ गुपस्थानों में बन्ध ... गुणस्थानों में सत्ता तथा उवय गुणस्थानों में उदीरणा .. गुण स्थानों में अल्प बहुत्व ... छह माव और उनके मेव कर्म के और धर्मास्तिकाय आदि अजीव प्रथ्यों के भाव २०४ गणस्थानों में मल माय ... संख्या का विचार
२०८ संख्या के मेव-प्रमेव संख्या के तीन मेवों का स्वरूप
... २०१६ पस्यों के नाम तया प्रमाण ...
... २१० पल्मों के भरने आदि की विधि
... २१२ सर्षप-परिपूर्ण पल्यों का उपयोग
२१७ असंख्यात और अनन्त का स्वरूप
२१८ असंख्यात तथा अनन्त के मेवो के विषय में कार्मग्नम्पिक मत सतीयाधिकार के परिशिष्ट ...
परिशिष्ट "प" -- परिशिष्ट “फ"
परिशिष्ट "" परिशिष्ट नं. १ परिशिष्ट न०२ परिशिष्ट नं. ३
२४०
२२१
२२७
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चौथा कर्मग्रन्थ मल ।
SANSARSHAN
मिजिणं जिसमग्गण, गुणठाणुवओगजोगले साओ। चंधप्पबहभावे, संखिज्जाई किमबि बुच्छं ॥१॥ इह सुहमखायरेगि, दिबितिचउअसंनिसंनिचिदी। अपजत्ता पज्जत्ता, कमेण च उदस जियद्वाणा
॥२॥ बायरअसंनिविगले, अपज्जि पढमबिय संनि अपजतं । अजयजुअ संनि पज्जे, सत्वगुणा मिच्छ सेसेसु ३३॥ अपजत्तछक्कि कम्मुर, लमोसजोगा अपज्जसंनीसु । ते सविउवमीस एसु तणुपज्जेसु उरलमन्ने
॥४॥ सध्वे संनि पजत्ते, उरलं सुहमे सभासु तं चउसु । बायरि सविउस्विदुर्ग, पजस निसु बार उवओगा ॥५॥ पजचरिविअसंनिसु, दर्दस द अनाण बससु चक्खुविणा सनिअपज्जे मणना,-णचनखुकेवलदुगविहगा
॥६॥ संनिदुमे द्रलेसअप,-ज्जबायरे पढम घर ति सेसेसु । सप्तट्ट बन्धुदीर ए, संतुक्या अट्ठ तेरससु ॥ ७ ॥ ससट्टछछेगबंधा, संतुदया सत्तअवत्तारि । सत्सदृछपंचद्गं, उदीरणा संनिपज्जप्ते
ነl गइइंगिए य काये, जोए ए फसायनाणेसु । संज़मवंसकलेसा,-भवसम्मे सनिआहारे
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२
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॥१०॥
।। १२ ।
।। १३ ।।
सुरनरतिरिनिरयगई, इगबियतियचउपणिवि क्काया । भुजलजलणानिलवण, तसा य मणवपणत गुजरेगा dr नरिनिपुं सा, कसाय कोहमयमायलोम त्ति । मद्दमुयच हिमण केवल - विहंगमइसुअअनाथ सागारा सामाइछेक्सरिहर, रसुहायवेसजयजया । अचक्ओही. केवलदंसण अणागारा किण्हा नीला काऊ, तेऊ पम्हा या सुक्क मन्दियरा । वेगखइगुवसममि -च्हमीससासाण संनियरे आहारेयर मेया, सुरनरयविभगमइसुओ हिदुगे । सम्मत्तति पहा, सुक्कास झोस सगिं तमसं अपज्जजु,-- नरे सबायरअपज्ज टेकए । थावर इगिदि पदमा चड बार असन्ति दुबिगले दस चरम तसे अजया, हारगतिरितशुकसा यदुअनाणे | पतिले नाभवियर, - अचलुनपुमिच्छि सचे वि पजनी केवलयुग, - संजयमणनाणवेसमण मोसे । पण चरनपज्ज वयणे, तिय छ व पज्जियर चक्खूमि ॥ १७ ॥ श्रीनरणिदि चरमा, व अणहारे बु स ंनि छ अपजा । ते सहुमअप विणा, सासणि इसो गुणे वुच्छं एतिर उ सुरनरए, नरसंनियणिविभव्वतसि सच्चे । इगविगल भूदगवणे, दुदु एवं गइतसअभव्वे ॥ १६ ॥ देवतिकाय नम दस, लोभेषज अजय बुति अनाति ।
।।१५।३।
॥१६॥
||१८||
बारस अचक्खु 'इक्लुसु पढया अहवाई चरम पर ॥२०॥
कर्मग्रन्थ माग चार
——
॥११॥
॥ १४॥
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कर्मग्रन्थ भाग चार
॥२५३॥
मणनागि सग जयाई, समयछे चउ दुन्नि परिहारे । केवलगि यो चरमा जयाह नव मद सुओहिदुगे ॥२१॥ अड उवरुमि च बेथगि, खइए इक्कार मिच्छतिरंग देते । सुमेथ सठाणं तेर- जोग आहार सुक्काए ।। २२ । अनि पढमदुगं, पढमतिलेसासु छ च्च दुसु सत्त । पढमंतिदुगअजया, अण्हारे मग्गणासु गुजा सच्चयरलीसअस, -च्चमोसपण वह विउध्वियाहारा । उरलं मीसा कम्मण, इम जोगा कम्मममहारे नरइणिदितसतणु - अचवलुनरनपुक साय संदुममे । संनिछलेसाहारगः - भवमहसुओहिदुगे सन्वे तिरित्थि अजयसारण - अनाग उबलम अभव्वमिन्द्रेसु । तेराहारडुगुणा, ते उरलदुगूण सुरनरए कम्बावरि ने सविजविदुग पंच इगिणे । छ असंति चरमवइजुय, ते विजयद्गुण चउ विगले कम्मुरलमोसविणु मण, - वइसमइयछे यच क्खु मणनाणे | उरलगकम्मादमं- तिममणवइ केवलदुर्गमि मणइरला परिहा, रिसुहुमि नबते उमीसि सविब्वा । देसेस बिउविदुगा, कम्मुरलमीस अहलाए ॥२॥ सिजनाण नाण गण व उ. दंसण बार जियलक्णुवओगा । विणु मणनाणकेवल, नव सुरतिरिनिरयअजएसु तसजोयसुक्का-हारनरपण दिसंनिभवि स | नयणेधरपणलेसा, कसाइ दस केवलदुगुणा
॥२६॥
॥२७॥
।। २८ ।।
॥३०॥
॥२३॥
।।२४।।
॥३१॥
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कर्मग्रन्थ भाग चार
रविअसंनि दुअना, पदंसण इगिबितियावरि अचक्स् । तिअनाण दंसणदुर्ग, अनातिमअभवि मदुगं ६.२२ केवलयुगे नियदुगं, नव तिअनाण विणू खइय अहलाये । दंसणनाणतिगं बे-सि मीति अन्नाणमीसं तं मणनाणचववज्जा, अणहारि तिनि दंसण च 'चडनाणसं जोबस, - भवेय ओहिद य दो तेर तेर बारस, मणे कमा अट्ठ दृ च च दु पण तिति काये, जियगुणजोगोत्र ओगन्ने छसु लेसासु सठाणं, एगिदिअसंनिभुदगवणेसु । पउमा चउरो तिम्नि उ. नारयगिलग्गिपवणेसु अहायहम केवल - दुगि सुक्का छाबि सेसठाणेसु 1 नरनिरयदेव तिरिया, धोवा तु असंखणंतगुणा पणचतिदुगिदि योवा तिन्निहिया अनगुणा । तस थोव असंखगी, भूजलानिल अहिय वण णंता मणवयणकाय जोगा, योषा असंखगुण अनंतगुणा । पुरिसा थोवा इत्थो संखगुणावगुण कोवा माणी कोहो माई, लोही अहिय मगनाणिणो यदा । ओहि असखा मसुय. अहियसम असख विभंगा केवलिणो पंतगुणा, महसुयअन्त्राणि पंतगुण सुल्ला । सुहुमा थोया परिहार संख अलाय संखगुणा छेयसमईय संखा देस अवगुण अंतगुण अजया धोबअसंखदता ओहियण केवल अचफ्लू
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॥३८॥
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।। ३४ ।।
।। ३५ ।।
॥३६॥
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कर्मप्रभ्व भाग नार्
पाणुपु दिवसा. थोवा दो संख णंत दो अहिया । अभवियर थोयता, सासण थोबोयसम संखा ॥४३॥ मीसा संखा वेग, असंखगुण खइथमिच्छ वु अनंता । संनियर योष णंसा - णहार थोवेधर असंखा ॥ ४४ ॥ सम्बजियठाण मिछे. सग सालणि पण अपजस भिद्गं । संभे सनी बुद्धिहो सेसेसु संनिपज्जत्तो ।। ४५ ।। मिच्छबुगअजइ जोगा - हारदुगुणा अपुन्यपणगे उ । मनव जनिमीति
+
॥४॥
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साहारयुग यमते ते विउवाहारमीस वि इयरे । कम्मुरलदुगंताइम, मणवयण सयोगि न अजोगी ॥४७॥ तिअनाणबुवं साइम वुगे अजइ देसि नाणवंसतिगं । से मीसि मोसा समणा, जयाइ केवल अंतदुगे ॥ ४८ ॥ सासणभावे नाणं विजवगाहारगे उरलमिस्सं । नेहा हिगयं सुयमयं पि
विसासाणो
४६
छ सय तेउलिगं इगि सुसुक्का अयोगि अहलेसा । बंधस्स मिच्छ अविरह कसायजोगति च ज हेऊ ॥५०॥
अभियमभिगहिया, मिनिबसिय हांस इयमणाभोगं । पणमिच्छ बार अविर, मणकरणानिय मुद्दकियवहो ॥ ५१ ॥ नव सोल कसाया पन र जोग इय उत्तरा उ सगबधा । seaण तिगुणेसु चतिदुपजओ बंधो चचमिच्छुमिच्छअविर, पडवइया सायसोलपणतीसा
जोग विणु पिया - हारगजिनवज्जसेसाओ
।। ५२ ।।
।
॥ ५३॥
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कर्मग्रन्य भाग चार
पणपन्न पन्ना लियहि-अयत्त गुणवत्तछचउगवीसा। सोलस कस नव नम्र सतहेणा न उ अओगिमि ॥५४।। पणपन्न मिच्छि हारग-दुगूण सासाणि पन्नमिच्छ विणा। मिस्सबुगकंमअविणु, तिचत्त मीसे अह छचत्ता ॥५५॥ संमिस्सकम अजए, अविर कम्मर लमीबिकसाये। मुत्तु गुणवत्त वेसे, छवीस साहार पमत्त ॥५६॥ अविरइइगारतकता, यत्रज्ज अपमत्ति मीसदुगरहिया । एउयोस अपुरखे पुण, दुवोस अवितध्वियाहारा ॥७॥ अछहास सोल आयरि सुहमे दस बेयसंजलणति विणा । खोणुवसति अलोभा, सजोगि पुध्युत्त सगजोगा ५८॥ अपरमतता सत्त-दु.मीसअप्पुरधबायरा सत्त । बंधइ छस्सुहमो ए, गमुरिमा बंधगाजोगी ॥५॥ आसुहमं संतुदये, अट्ठ वि मोह विणु सत्त खोणमि । घउ चरिमदुग अट्ठ उ, संते उपसंति सत्त दर ॥६॥ उइरंति पमत्तता, सग? मोस? वेयआज विणा। छग अपमत्ताइ तओ, छ पंच सुहुमो पणुवसंतो ॥१॥ पण वो खीण दु जोगी,-णुवीर गु अजोगि योव उवसंता। संखगण खोण सुहुमा,-नियट्टिअप्पुब्ध सम अहिया ॥२॥ जोगिअपमसइयरे, संखगुणा देससासणामोसा। अविरय अजोगिमिच्छा. असंखयउरो दुवे पंता ॥३॥ जवसमखयमीसोवय, परिणामा दुभवट्ठारगवोसा । तिय भेय सनिवाइय संमं चरणं पढमभावे ॥६४॥
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कर्मग्रभ्य भाग बार
॥ ६५ ॥
।। ६६ ।।
बोए केवलजुयलं, संभं दाणाइलद्धि पण चरणं । तए सेसुवओगा, पण लद्धी सम्मविरइदुगं अप्राणमसिद्धत्ता, संजम लेसा कसायइवेया । मिच्छं तुरिए भव्वा, भव्यत्तजियत्त परिणामे 3 चउगई सोग, परिणामुदएहिं चउ सखइएहिं । उवसमजुहि वा चऊ. केवलि परिणामुदयखइए । ६७ ।। खयपरिणामे सिद्धा नराण पणजोगुवसमसेढीए । इय पर संनिवाइय, भेया वोसं असंभविणो मोहेब समो मीसो चजघासु अनुकम्मसु च धम्माइपारिणामिय, भावे बंधा उदइए वि
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॥ ६८ ॥
सेसा ।
।। ६६ ।।
।। ७० ।।
॥ ७१ ॥
संमाइचउलु तिग चउ, भावा च पणुव साम वसते । चउ खोणापुव तिमि, सेसगुणट्ठाणगमजिए संखिज्जेगमसंखं परित्तजुत्तनिपयज्यं तिविहं । एवमतं पि लिहा, जहन्नमज्जुवकसा सध्ये लहसंविज्यं बुच्चिय अक्ष परं मज्झिम जर गुरुभं । जंबूद्दोपमरणय, चपल्लपरूवणाइ इमं पल्लाणवद्वियसला, -ग पडिसलामा महासला मक्खा । जोयणसहसो गाढा, सवेइयंता सहिभरिया ता दोनुददिसु इविक कसरिसवं खिविय निट्टए पढमे । पढमं व तन्तं चिय पुणे भरिय तंनि तह खोणे ॥ ७४ ॥ खिप्पर सलागपल्ले, -गु सरिसवो इव सलागलवणेणं । पुना बोयो य तओ, पुठि पिद तमि उद्धरिए । ७५ ।।
।। ७२ ।।
॥ ७३ ॥
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कर्मग्रन्य भाग चार
खोणे सलाग तइए. एवं पढहि बोययं भरसु । लेहि तस्यं तेहि य, तुरियं जा किर फुडा उरो ॥७६। पढमतिपल्लुद्धरिया, दीवुदही पल्लचउसरिसवा य । सव्यो वि एगरासी, हवूणो परमसं खिज्ज ॥७७ ।। रूबजुयं तु परित्ता, संखं लहु अस्स रासि अग्भासे । जुत्तासखिज्ज लहु, आलियासमयपरिणामं ॥७८ ।। मितिचउपंचमगुणणं, कमा समासस समय उसत्ता । णता ते स्वजया, मज्क्षा रूषण गुरु पच्छा ॥७९॥ इय सुतत्तं अन्ने, बगिर्यामवकसि चउत्थयमसंकं । होह असंखासंख लहु स्वयं तु तं भजन ॥५०॥ हबूणमाइम गुरु, तियग्गिउ तं इमे वस छखेवे । लोगाकासपएसा, धम्माधम्मेगजियदेसा
॥८१ ।। हिजबंधावसाया, अणुभागा जोगछेयपलिभागा । दुह य समाण समया, पत्तेयनिगोयए खिवसु ॥१२॥ पुणरवि तमि तिवग्गिय, परितणंत लहु तस्सरामीणं । अग्भा से लहू जुत्ता, णतं अभवजियपमाणं ॥३॥ सम्बग्गे पुण जायई, गंताणंत लहु तं व तिषलुत्तो । बग्गसु तह विनतहो, इणंतखेवे खिवसु छ इमे ॥ ८४ ॥ सिद्धा निगोयजीया. वणस्सई कालपुग्गला चेव ।। सवमलोगनहं पुण, तिवरिगडं केवलदुगंमि ॥५॥ खिसे गंताणंतं. हवेइ जिलु तु वयहरइ मज्झ । इप सुहमरथवियारो, लिहिओ देविवसूरीहि ॥८६॥
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प्रस्तावना |
नाम ।
प्रस्तुत प्रकरण की चौथा कर्मप्रन्य' यह नाम प्रसिद्ध है, किन्तु इसका असली नाम षडशीतिक है । यह 'चौया फर्मग्रन्थ' इसलिये कहा गया है कि छह कर्मग्रन्थों में इसका नम्बर चौथा है। और 'षडशीतिक' नाम इसलिये नियत है कि इसमें मूल गाथाएँ छियास हैं । इसके fear इस प्रकरण को सुकमा बिचार भी कहते हैं, सो इसलिये कि प्रथकार ने ग्रन्थ के अन्त में "सुहमस्थ वियारों" शब्दका उल्लेख किया है । इस प्रकार वेखने से यह स्पष्ट ही मालूम होता है कि प्रस्तुत प्रकरण के उक्त तीनों नाम अभ्वर्य - सार्थक हैं ।
यद्यपि दबावाली प्रति जो श्रीत् भीमसो माजिक द्वारा निर्णयसागर प्रेस बम्बई से प्रकाशित 'प्रकरण रत्नाकर चतुर्थ भाग' में छपी है, उसमें मूल गाथाओं की संख्या नवासी है किन्तु वह प्रका
·
ar की मूल है। क्योंकि उसमें जो तीन गाथाएँ दूसरे, तीसरे और चौथे नम्बर पर मूल रूप में छपी हैं, ये वस्तुतः मूल रूप नहीं हैं, किन्तु प्रस्तुत प्रकरण की विषय-संग्रह गाथाएँ हैं । अर्थात् इस प्रकरण में मुख्य क्या क्या विषय है और प्रत्येक मुख्य विषय से सम्बन्ध रखने वाले अन्य कितने विषय हैं। इसका प्रदर्शन कराने वाली गायाएं हैं। अतएव प्रत्यकार ने उक्त तीन गाथाएं स्वोपज्ञ टीका में उद्धूत को हैं, मूल रूप से नहीं ली हैं और न उन पर टीका की है।
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-- २
-
संगति
पहले सोन कर्मग्रन्थों के विषयों को संगति स्पष्ट है । अर्थात् पहले । कर्म ग्रन्थ में मूल तथा उत्तर फर्म प्रकृतियों की संख्या और उनका विपाक वर्णन किया गया है। दूसरे कर्मग्रन्थ में प्रत्येक गुणस्थान को लेकर उसमें पथासम्भव बन्ध, उवय, उदीरणा और सत्तागत उत्तर प्रकृतियों की संख्या बतलाई गई है और तीसरे कर्मग्रन्थ में प्रत्येक मार्गशास्थान को लेकर उसमें यथा सम्भव गणस्थानों के विषय में उत्तर कर्मप्रकृतियों का बन्धस्वामित्व वर्णन किया है । तोसरे कर्मप्रन्थ में मार्गणास्थानों में गुणस्थानों को लेकर सन्धस्वामित्व वर्णन किया है सही. फिन्तु मूल में कहीं भी यह विषय स्वतन्त्र रूप से नहीं कहा गया है कि किस किस मार्गणास्थान में कितने कितने और किन-किन गुणस्थानों का सम्भव है।
अतएव चतुर्थ फर्मग्रन्थ में इस विषय का प्रतिपादन किया है और उक्त जिज्ञासा की पूर्ति की गई है । जैसे मार्गणास्थामों में गुण स्थानों की जिज्ञासा होती है, वैसे ही जीवस्थानों में गुणस्थानों को और गुणस्थानों में जीवस्थानों को भी जिज्ञासा होती है। इतना ही नहीं बहिक जीवस्थानों में योग, उपयोग आदि अन्यन्य विषयों को और मागंणास्थानों में जोधस्थान, योग, उपयोग आदि अन्यन्य विषयों की तथा गुणस्थानों में योग, उपयोग आदि अन्यान्य विषयों की मो जिज्ञासा होती है। इन सब जिज्ञासाओं की पूर्ति के लिये चतुर्थ कर्मग्रन्थ को रचना हुई है। इसी से इसमें मुख्यतया जीवस्थाम मार्गगास्थान, और गुणस्थान, ये तीन अधिकार रखे गये हैं । और प्रत्येक अधिकार में क्रमश: आठ, छह वस विषय वणित हैं, जिनका निर्देश पहली गाथा के भावार्थ में पृष्ठ २ पर तया स्फुट नोट में संग्रह गाथाओं के द्वारा किया गया है । इसके सिवाय प्रसंग
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वश इस ग्रन्थ में प्रत्यकार ने भावों का और संख्या का भी विचार किया है ।
यह प्रश्न हो हो नहीं सकता कि तीसरे कर्मप्रम्य को संगति के अनुसार मागंणास्थानों में गुणस्थानों मात्र का प्रतिपादन करना आवश्यक होने पर भी, जैसे अन्य-अन्य विषयों का इस प्रन्थ में अधिक वर्णन किया है, वैसे और भी नये-नये कई विषयों का वर्णन इसो ग्रन्थ में क्यों नहीं किया गया ? क्योंकि किसी भी एक अन्य में सब विषयों का वर्णन असम्भव है । अतएव कितने और फिन विषयोंका किस क्रम से वर्णन करना, यह प्रन्यकार की इच्छा पर निर्भर है। अर्थात् इस बात में प्रत्यकार स्वतन्त्र है। इस विषय में मियोग-पर्य नुयोग करने का किसी को अधिकार नहीं है।
प्राचीन और नवीन चतुथं कर्मग्रन्थ । 'षडशीतिक' यह मुख्य नाम दोनों का समान है, क्योंकि गाथाओं को संस्था दोनों में बराबर छियासो ही है। परन्तु नवीम अन्धकार ने 'सूक्ष्मानं विचार' ऐसा नाम विधा है और प्राचीम को टीका के अन्त में टोकाकार ने उसका नाम 'आगमि वस्तु विचारसार' दिया है । नवीन की तरह प्राचीन में भी मुख्य अधिकार जोषस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान, ये तीन ही हैं । गौण अधिकार मी जैसे नवीन क्रमशः आठ, छह तथा वस हैं, वैसे ही प्राचीन में भी हैं । गाथाओं को संस्था समान होते हुए भी नवीन में यह विशेषता है कि उसमें वर्णन शैली संक्षिप्त करके ग्रन्थकार ने दो और विषय विस्तारपूर्वक वर्णन किये है । पहला विषय भाव' और दूसरा 'संख्या है । इन दोनों का स्वरूप नवीन में सविस्तार है और प्राचीन में बिल्कुल नहीं है । इसके सिवाप प्राचीन और नवीन का विषयसाम्य तथा प्रम-साम्य बराबर है। प्राचीन पर टीका, टिप्पणी,
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डी. भक
विवरण, उद्धार, भाव्य आवाएँ हैं। हां, नदीन पर जैसे गुजराती उसे हैं, से प्राचीन पर नहीं हैं।
इस सम्बन्ध की विशेष जानकारी के लिये अर्थात् प्राचीन और नवोन पर कौन-कौन सी व्याख्या किस-किस भाषा में और किस फिस की बनाई हुई है, इस्याधि जानने के लिये पहले कर्मग्रन्य के आरम्भ में जो कर्मविषयक साहित्य की तालिका जो है, उसे देख लेना चाहिये ।
चौथा कर्मग्रन्थ और आगम, पंचसंग्रह तथा गोम्मटसार ।
यद्यपि चौथे कर्मग्रन्थ का कोई-कोई (जैसे गुणस्थान आदि) वैदिक तथा योद्ध साहित्य में नामान्तर तथा प्रकारान्तर से वर्णन किया हुआ मिलता है, तथापि उसकी समान कोटिका कोई खास ग्रन्थ उक्त दोनों सम्प्रत्रायों के साहित्य में दृष्टिगोचर नहीं हुआ । जैन साहित्य इवेताम्बर और विवम्बर को सम्प्रदायों में विभक्त वेताम्बर सम्प्रदाय के साहित्य में विशिष्ट विद्वानों की कृति स्वरूप 'मागम' और 'पञ्चसंग्रह' ये प्राचीन ग्रन्थ ऐसे हैं जिनमें कि चौबे कर्मग्रन्थ का सम्पूर्ण विषय पाया जाता है, या यो कहिये कि जिनके आधार पर चौथे कर्म ग्रन्थ की रचना ही की गई है।
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यद्यपि चौथे कर्म ग्रन्थ में और जितने विषय जिस क्रम से वर्णित हैं, वे सब उसी क्रम से किसी एक आगम तथा पञ्चसंग्रह किसी एक भाग में वर्णित नहीं हैं; तथापि भिन्न-भिन्न आगम और प संग्रह के भिन्न-भिन्न भाग में उसके सभी विषय लगभग मिल जाते हैं। चौथे कर्मग्रन्थ का कौन सा विषय किस आगम में और पच संग्रह के किस भाग में आता है । इसकी सूचना प्रस्तुत अनुवाद में
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उस उस विषय के प्रसंग में टिपप्णी के तौर पर यथासम्भव कर दी गई है, जिससे कि प्रस्तुत ग्रन्थ के अभ्यासियों को आगम और पञ्चसंग्रह के कुछ उपयुक्त स्थल मालूम हो तथा मतमेव और विशेषताएँ हात हो,
प्रस्तुत ग्रन्थ के अभ्यासियों के लिये आगम और पञ्चसंग्रह का परिचय करना लाभवायक है; क्योंकि उम ग्रन्थों के गौरव का कारण सिर्फ उनकी प्राचीनता ही नहीं है, बल्कि उनकी विषय-गम्भीरता सथा विषयस्फुटता मी उनके गौरव का कारण है।
'गोम्मटसार यह दिगम्बर सम्प्रदाय का कर्म-विषयक एक प्रतिष्ठिन ग्रन्थ है, जो कि इस समय उपलब्ध है। यद्यपि वह श्वेताम्बरीष आगम तथा पञ्चसंग्रह को अपेक्षा बहुत अर्वाचीन है, फिर भी उसमें विषय-वर्णन, विषय-विभाग और प्रत्येक विषय के लक्षण बहुत स्फुट हैं । गोम्मटसार के 'जीवकाण्ड' और 'कर्मकाण्ड' ये मुरुप बो दिमाग हैं । ची कर्मप्रन्य का विषय जांचकात में हो है
और यह इससे बहुत बड़ा है यद्यपि चौप फर्मवग्य के सब विषय प्रायः जीवकाण्ड में वर्णित हैं, तथापि दोनों की वर्णनशैली बहुत अंशों में मिन्म है।
जीवकान्ड में मुख्य बोस प्ररूषणाएं हैं:-१ गुणस्थान. १ जोध स्थान, १. पर्याप्ति, १ प्राण, १ संज्ञा, १४ मार्गणाएं और १ उपयोग, कुल बीस । प्रत्येक प्ररूपण का उसमें अनुत विस्ता और विश वर्णन है । अनेक स्थलों में चौथे कर्मग्रन्थ के साथ उसका मतभेव भी है। ___इसमें मन्छेह नहीं कि चौथे कर्मग्रन्थ के पाठियों के लिये जीवकाण्ड एक खास देखने को वस्तु है। योंकि इससे अनेक विशेष बातें मालूम हो सकती हैं । कमविषयक अनेक विशेष बातें जैसे श्वेताम्बरीष ग्रन्थों में लक्ष्य हैं, वैसे ही अनेक विशेष वास, विगम्बरोय प्रयों में भी लभ्य हैं । इस कारण दोनों सम्प्रदाय के
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विशेष जिज्ञासुओं को एक दूसरे के समान विषयक ग्रन्थ अवश्य देखने चाहिए। इसी अमित्राय से अनुवाद में उस उस विषय का साम्य और वैषम्य दिखाने के लिये जगह जगह गोम्मटसार के अनेक उपयुक्त स्थल उद्भुत तथा निविष्ट किये हैं ।
विषय-प्रवेश :
जिज्ञासु लोग जब तक किसी भी ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषय का परिचय नहीं कर लेते तब तक उस ग्रन्थ के अध्ययन के लिये प्रवृत्ति नहीं करते । इस नियम के अनुसार प्रस्तुत ग्रन्थ के अध्ययन के निमित्त योग्य अधिकारियों की प्रवृत्ति कराने के लिये यह आवश्यक है कि शुरू में प्रस्तुत ग्रन्थ के विषय का परिचय कराया जाय । इसी को "विषय-प्रवेश" कहते हैं ।
विषय का परिचय सामान्य और विशेष दो प्रकार से कराया जा सकता है।
(क) ग्रन्थ किस तात्पर्य से बनाया गया है। उसका मुख्य विषय व है और वह कितने विभागों में विभाजित है। प्रत्येक विभाग से सम्बन्ध रखने वाले अन्य कितने-कितने और कौन-कौन विषय हैं; इस्पादि वर्णन करके ग्रन्थ के शब्दात्मक कलेवर के साथ विषय-रूप आत्मा के सम्बन्ध का स्पष्टीकरण कर देना अर्थात् ग्रन्थ का प्रधान और गौण विषय क्या-क्या है तथा वह किस-किस कम से वर्णित है, इसका निर्देश कर देना, ग्रह विषय का सामान्य परिचय है ।
(ख) लक्षण द्वारा प्रत्येक विषय का स्वरूप बतलाना यह उसका विशेष परिचय है ।
प्रस्तुत प्रत्थ के विषय का विशेष परिचय तो उस उस विषय का वर्णन-स्थान में ही यथासम्भव मूल में किया विशेचन में करा दिया
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गया है । अतएव इस जगह विषय का सामान्य परिचय कराना ही आवश्यक एवं उपयुक्त है।
प्रस्तुत ग्रन्थ बनाने का तात्पर्य यह है कि सांसारिफ जोवों की मिन्न-भिन्न अवस्थाओं का वर्णन करके यह बसलाया जाय कि अमुकअमुक अवस्यायें औपाधिक, वैभाविक किया कर्म-कृत होने से अस्थायी तथा हेय हैं; और अमुक-अमुक अवस्था स्वाभाविक होने के कारण स्थायी तथा उपाडेय है । इसके सिधा यह भी बतलाना है कि, जीव का स्वमात्र प्राय विकाश करने का है । अतएव वह अपने स्वभाव के अनुसार किस प्रकार विकास करता है और तदद्वारा
औपाधिक अवस्थाओं को त्याग कर किस प्रकार स्वाभाविक शक्तियों का आविर्भाव करता है।
इस उद्देश्य की सिद्धि के लिये प्रस्तुन ग्रन्थ में मुख्यतया पांच निर्णन शिश:
(१) जीय स्थान, (२) मार्गणास्थान, (३। गुणस्थान, (४) माघ और (५) संख्या।
इनमें से प्रथम मुख्य तीन विषयों के साथ अन्य विषय भी वणित हैं :-जोषस्थान में (1) गुणस्थान, (२ योग (३) उपयोग, (४) लेश्या, (५) बन्ध, (६) उदय, (७) उवीरणा और (८) सत्ता ये आठ विषय वर्णित हैं । मार्गणास्थान में (१) जीवस्थाम {२ गुणस्थान, (३ योग, (४) उपयोग, (५) लेश्या और (६) अल्प-बहुत्व, ये छ: विषय वणित हैं। सया गुणस्थान में (१) जीवस्थान, (२) योग (३) उपयोग, (४) लेश्या, (५) बन्ध-हेतु. (६) बन्ध, (७) उदय, (८) उवीरणा, (९। ससा और (१०) अल्प-बहत्व, ये इस विषय वणित हैं। पिछले दो विषयों का अर्थात भाव और संख्या का वर्णन अन्य
न्य विषय के वर्णन से मिश्रित नहीं है, अर्थात् उन्हें लेकर अन्य कोई विषय वर्णन नहीं किया है।
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इस तरह देखा जाय तो प्रस्तुत प्रज्य के शरदात्मक कलेवर के मुख्य पात्र हिस्से हो जाते हैं।
पहिला हिस्सा दूसरी गाथा से आठषी गाथा तक का है, जिसमें जीवस्थान का मुख्य वर्णन करके उसके सम्बन्धी उक्त आठ विषयों का वर्णन किया गया है। दूसरा हिस्सा नवी गाथा से लेकर चौवालिसी गाथा तक का है, जिसमें मुख्यतया मागंणास्थान को लेकर उसके सम्बन्ध से सः विषयों का घर्णन किया गया है । सीसरा हिस्सा पंतालिसी गाथा से लेकर प्रेसठवीं गाया तक का है, जिसमें मुख्यतया गुणस्थान को लेकर उसके माधय से उक्त बस विषयों का वर्णन किया गया है । चौश हिस्सा चौसठबी गाथा से नेकर सत्सरवी गाया तक का है, जिसमें केवल भावों का वर्णन है । पांचा हिस्सा इकहत्तरवों गापा से लियासोपी गाथा तक को है, जिसमें सिर्फ संख्या का वर्णन है । संख्या के वर्णन के साथ हो ग्रन्थ की समाप्ति होती है।
जीयस्थान आदि उक्त मुल्य तथा गौण विषयों का स्वरूप पहली गाथा के प्राचार्य में लिख दिया गया है। इसलिये फिर से यहाँ लिखने की जरूरत नहीं है। यथापि यह लिख देना आवश्यक है कि प्रस्तुत ग्रन्थ बनाने का उद्देश्य जो ऊपर लिखा गया है, उसकी सिद्धि जीवस्थान आदि उक्त विषयों के वर्णन से किस प्रकार हो सकती है।
जीवस्थान, मार्गणास्थान, गुणस्थान और भाव ये सोसारिक जीवों की विविध अवस्याएं हैं । जीवस्थान के वर्णन से यह मालूम किया जा सकता है कि जीवन रुप चौवह अवस्थाएं जातिसापेन हैं किंवा शारीरिक रचना के विकास या इन्द्रियों को न्यूनाधिक संख्या पर निर्भर हैं। इसी से सब फर्मकृत या यंभाविक होने के कारण अन्त में हेय हैं । मागंणास्थान के बोध से यह विदित हो जाता है कि सभी मार्गणाएं जीव की स्वाभाविक अवस्था-रूप
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नहीं हैं । केवलज्ञान, केवलदर्शन क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिक चारित्र और अनराहारकत्व के सिवाय अन्य सब मार्गणाएँ न्यूनाधिक रूप में अस्वाभाविक हैं । अतएव स्वरूप की पूर्णता के इच्छुक जीवों के लिये अन्त में वे हेय ही हैं। गुण स्थान के परिज्ञान से यह ज्ञात हो जाता है कि गुणस्थान यह आध्यात्मिक उत्क्रान्ति करने वाले आत्मा को उत्तरतर विकास सूचक भूमिकाएँ है। पूर्व-पूर्व भूमिका के समय उत्तरीउत्तर भूमिका उपादेय होने पर भी परिपूर्ण विकास हो अपने से वे सभी भूमिकाएँ आप ही आप छूट जाती हैं। भावों की जानकारी से यह निश्चय हो जाता है कि क्षायिक भावों को छोड़ कर अन्य सघ माय चाहे ये उत्क्रान्ति काल में उपादेय क्यों न हों, पर अन्त में हेय ही हैं। इस प्रकार जीवका स्वाभाविक स्वरूप क्या है और अस्वाभाविक क्या है, इसका विशेष करने के लिए जीवस्थान आदि उक्त विचार जो प्रस्तुत ग्रन्थ में किया गया है. वह आध्यात्मिक विचार के अभ्यासियों के लिए अतीव उपयोगी है ।
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आत्मा
आध्यात्मिक ग्रन्थ दो प्रकार के हैं। एक तो ऐसे हैं जो सिर्फ के 'शुद्ध स्वरूप और दूसरे अशुद्ध तथा मिश्रित स्वरूप का वर्णन करते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ दूसरी कोटि का है। अध्यात्म-विद्या के प्राथमिक और माध्यमिक अभ्यासियों के लिये ऐसे ग्रन्थ विशेष उपयोगी हैं, क्योंकि उन अभ्यासों की हष्टि व्यवहार - परायण होने के कारण ऐसे प्रश्थों के द्वारा हो क्रमशः केवल पारमार्थिक स्वरूप - प्राहिनी बनाई जा सकती है ।
अध्यात्मिक-विद्या के प्रत्येक अभ्यासी को यह स्वाभाविक जिलासा होती है कि आत्मा किस प्रकार और किस क्रम से माध्यात्मिक विकास करता है तथा उसे विकास के समय कैसी-कैसी अवस्था का अनुभव होता है। इस जिज्ञासा की पूर्ति को दृष्टि से देखा जाय तो अन्य विषयों की अपेक्षा गुणस्थान का महत्व अधिक है । इस
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खयाल से इस जगह गुणस्थान का स्वरूप कुछ विस्तार के साथ लिखा जाता है। साथ ही यह भी बतलाया जायगा कि जैन शास्त्र की तरह बंविक तथा बौद्ध शास्त्र में भी आध्यात्मिक विकास का कैसा वर्णन है । यद्यपि ऐसा करने में कुछ विस्तार अवश्य हो जायगा, तथापि नीचे लिखे जाने वाले विचार से जिज्ञासुओं की यदि कुछ भी ज्ञान-वृद्धि तथा रुचि शुद्धि हुई तो यह विचार अनुपयोगी
न समझा जायगा |
गुणस्थान का विशेष स्वरूप |
गुणों (आत्मशक्तियों) के स्थानों को अर्थात् विकास की क्रमिक अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं । जैन शास्त्र में गुणस्थान इस पारिभाषिक शब्द का मतलब आत्मिक शक्तियों के आविर्भाषकोउनके शुद्ध कार्यरूप में परिणत होते रहने को तर समभावापद्म अबस्थाओं से है । आश्मा का वास्तविक स्वरुप शुद्ध चेतना और पूर्णानन्यमय है। पर उसके ऊपर जब तक तीव्र आवरणों के घने बादलों की घटा छाई हो, तब तक उसका असली स्वरूप दिखाई नहीं देता । किन्तु आवरणों के क्रमशः शिथिल या भध्द होते ही उसका असलो स्वरूप प्रकट होता है। जब आवरणों की तीव्रता आवरी हर को हो, तब आत्मा प्राथमिक अवस्था में अविकसित अवस्था में पड़ा रहता है। और जब आवरण बिल्कुल ही नष्ट हो जाते हैं, सब आत्मा चरम अवस्था - शुद्ध स्वरूप की पूर्णता में वर्तमान हो जाता है। जैसे-जैसे आवरणों की तीव्रता कम होती जाती है, वैसे-वंसे आत्मा भी प्राथमिक अवस्था को छोड़कर धीरे धीरे शुद्ध स्वरूप का लाभ करता हुआ चरम अवस्था की ओर प्रस्थान करता है। प्रस्थान के समम इन दो अवस्थाओं के बीच उसे अनेक नीची-ऊंची अय
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स्थानों का अनुभव करना पड़ता है । प्रथम अवस्था को अविकासकी अथवा अधःपतन की पराकाष्ठा और चरम अवस्था को विकासकी अथवा जत्कान्ति की पराकाष्ठा समझना चाहिये इस विकास - कम की मध्यवर्तिनी सब अवस्थाओं को अपेक्षा से जश्च भी कह सकते हैं और नीच भो । अर्थात् मध्यवर्तनी कोई भी अवस्था अपने से ऊपर वाली अवस्था की अपेक्षा नीच और नीचे वाली अवस्था की अपेक्षा उच्च कही जा सकती है। विकास की ओर अग्रसर आश्मा वस्तुतः उक्त प्रकार की संख्यातीत आध्यात्मिक भूमिकाओं का अनुव करता है | पर जैन शास्त्र में संक्षेप में वर्गीकरण करके उनके चौदह विभाग किये हैं, जो "चीवह गुणस्थान" कहलाते हैं।
सब आवरणों में मोह का आवरण प्रधान है। अर्थात् जब तक मोह बलवान् और तीव्र हो, तब तक अन्य समो आवरण बलवान् और तीव्र बने रहते हैं। इसके विपरीत मोह के निर्बल होते ही अन्य आवरणों की वैसी ही वशा हो जाती है। इसलिए आत्मा के विकास करने में मुख्य बाधक मोह की प्रबलता और मुख्य सहायक मोह की निर्मलता समझनी चाहिये। इसी कारण गुणस्थानों कीविकास-म-गत अवस्थाओं की कल्पना मोह-शक्ति की उत्कटता, मभ्वता तथा अभाव पर अवलम्बित है ।
मोह की प्रधान शक्तियों दो हैं। इनमें से पहली शक्ति, आत्मा को दर्शन अर्थात् स्वरूप पररूपका निर्णय किंवा जड़-चेतन का विभाग या विवेक करने नहीं देली; और दूसरी शक्तिरात्मा को विशेष प्राप्त कर लेने पर भी तदनुसार प्रवृत्ति अर्थात् अभ्यास - पर परिणति से छुटकर स्वरूप लाभ नहीं करते देती उपहार में पर-पैर पर यह देशा जाता है कि किसी वस्तु का यथार्थं वर्शन-बोध कर लेने पर हो उस वस्तु को पाने या त्यागने की चेष्टा की जाती है और वह सफल भी होती है। आध्यात्मिक विकास- गामी आत्मा के लिये भी मुख्य वो ही
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कार्य हैं। पहला स्वरूप तथा पररूपका बर्थ दर्शन किंवा भेदज्ञान करना और दूसरा स्वरूप में स्थित होना । इनमें से पहले कार्य को रोकने वाली मोह की शक्ति जैनशास्त्र में "दर्शन- मोह" और दूसरे कार्य को रोकने वाली मोह को शक्ति "चारित्रमोह" कहलाती है । दूसरी शक्ति पहली शक्ति को अनुगामिनी है। अर्थात् पहली शक्ति प्रबल हो, तब तक दूसरो शक्ति कमी निर्बल नहीं होती; और पहली शक्ति के मन्व, भन्दतर और मन्यतम होते ही दूसरी शक्ति भी क्रमश: वैसी ही होने लगती है । अथवा यो कहिये कि एक बार आत्मा स्वरूप-दर्शन कर पाये तो फिर उसे स्वरूप-लाभ करने का मार्ग प्राप्त हो हो जाता है ।
अविकसित किंवा सर्वथा अध:पतित आत्मा की अवस्था प्रथम गुणस्थान है। इसमें मोह की उक्त दोनों शक्तियों के प्रबल होने के कारण आत्मा को आध्यात्मिक स्थिति बिरुकुल गिरी हुई होती है । इस भूमिका के समय आत्मा चाहे आधिभौतिक उत्कर्ष कितना हो वन करने पर उनकी प्रवृत्ति तारिवक लक्ष्य से सर्वथा शून्य होती है । अंने विग्नमत्राला मनुष्य पूर्वको पश्चिम मानकर गति करता है और अपने इष्ट स्थान को नहीं पाताः उसका सारा श्रम एक तरह से वृथा ही जाता है, से प्रथम भूमिका वाला आत्मा पर-रूप को स्वरूर समझ कर उसी को पाने के लिये प्रतिक्षग लालायित रहता है और विपरीत वर्जन या मिना के ८ द्वेष की प्रबल चोटों का शिकार बनकर तात्विक सुख से बचित रहता है। इस भूमिका को जनशास्त्र में "बहिरात्मनाथ" किंवा "मिय्यावर्शन" कहा है। इस भूमिका में जितने आत्मा वर्तमान होते हैं, उन सबों की मी आध्यात्मिक स्थिति एक सो नहीं होतो । अर्थालं सबके ऊपर मोह की सामान्यतः दोनों शक्तियों का आधिपत्य होने पर मी उसमें थोड़ा-बहुत तरन्तम-भाव अवश्य होता है । किसी
कारण रोग
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पर मोह का प्रभाव मातम, किसी पर गाढ़तर और किसी पर उससे मो कम होता है । विकास करना यह प्राय: आत्मा का स्वभाव है। इसलिये जामते या अनजानते, जब उस पर मोह का प्रमाव कम होने लगता है, तब वह कुछ विकास की ओर अग्रसर हो जाता है और तीवतम राग-ष को कुछ मम्च करता मा मोह की प्रथम शक्ति को छिन्न-भिन्न करने योग्य आस्मबल प्रकट कर लेता है । इसी स्थिति को जैन शास्त्र में "प्रन्यि भे"* कहा है।
पन्धि मेव का कार्य अड़ा ही विषम है । रागवेष का तीव्रतम विष्ट प्रन्थि-एक बार शिथिल व छिन्न-भिन्न हो गाय तो फिर पेड़ा पार हो समझिये; क्योंकि इसके बाद मोह को प्रधान शक्ति वर्शभ मोह को शिथिल होमे में देरी नहीं लगती और दर्शनमोह शिथिल हुआ कि बारित्रमोह की शिथिलता का मार्ग आप ही आप खुल जाता है। एक तरफ राग-तुष अपने पूर्ण बल का प्रयोग करते हैं
और दूसरी तरफ विकासोन्मुख आत्मा भी उनके प्रमाव को कम करने के लिए अपने बीर्य-चल का प्रयोग करता है । इस आध्यात्मिक गुरु में थानो मानसिक विकार और आत्मा को प्रतिदिता में कभी एक तो कभी दूसरा जयलाम करता है ! ममेक आश्मा ऐसे
*मांठित्ति सुदुभेओ बवखड़ घण रूढ गूढ गरिन् । जीवस्म कम्म जणिलो घण राग धोस परिणामो ॥ ११९५ ॥ भिन्नाम्मि तम्मिलाभो सम्मत्ताई मोक्ख हेकणं । सोय दुल्लमो परिस्समचित्त विधायाई विहिं ।। ११६६ ॥ सो तत्थ परिस्सम्मई घोर महासमर निगयाइन्छ । विज्जाय सिद्धिकाले जहबा विग्या तहा सोनि ॥ ११९७ ॥
विशेषावश्यक भाष्य ।
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भी होते हैं जो करोब करीब ग्रन्थिभेद करने लायक बल प्रकट करके भी अन्त में राग-द्वेष के तीव्र प्रहारों से आहत होकर व उनसे हार खाकर अपनी मूल स्थिति में आ जाते है और अनेक बार प्रयत्म करने पर भी रागद्वेब पर
नहीं
ऐसे भी होते हैं, जो न तो हार खाकर पीछे गिरते है और न जय लाभ कर पाते हैं, किन्तु वे चिरकाल तक उस आध्यात्मिक युद्ध के मंत्राम में ही पड़े रहते हैं । कोई-कोई आत्मा ऐसा भी होता है जो अपनी शक्ति का यथोचित प्रयोग करके उस आध्यात्मिक युद्ध में रागद्वेष पर जयलाभ कर हो लेता है । किसी भी मानसिक विकार को प्रतिद्वन्द्विता में इन तीनों अवस्थाओं का अर्थात् कभी हार खाकर पोछे गिरने का कभी प्रतिस्पर्धा में डटे रहने का और जयलाम करने का अनुभव हमें अकसर नित्य प्रति हुआ करता है। यही संघर्ष कहलाता है। संघर्ष विकास का कारण है। चाहे विद्या, चाहे बन चाहे कोलि, कोई भी लौकिक वस्तु इष्ट हो, उसको प्राप्त करते समय भी मानक अनेक विघ्न उपस्थित होते हैं और उनको प्रतिद्वन्द्विता में उक्त प्रकार की तीनों अवस्थाओंों का अनुभव प्राय: सबको होता रहता है। कोई विद्यार्थी, कोइ धनार्थों या कोई कोतिकाड.क्षी जब अपने इष्ट के लिये प्रयत्न करता है। तब या तो वह ate में अनेक कठिनाइयों को देखकर प्रयत्न को छोड़ ही देता है या कठिनाइयों को पार कर इष्ट प्राप्ति के मार्ग की और अग्रसर होता है । जो अग्रसर होता है, वह बड़ा बिसूरन बड़ा धनवान् या बड़ा कीर्तिशाली बन जाता है । जो कठिनाइयों से डरकर पीछे भागता है, बहू पामर, अज्ञान, निर्धन या कीतिहीन बना रहता है । और जो न कठिनाइयों को जीत सकता है और न उनसे हार मानकर पीछे भागता है, वह साधारण स्थिति में हो पड़ा रहकर कोई ध्यान खींचने योग्य उत्कर्ष -लाभ नहीं करता |
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इस भाव को समझाने के लिये शास्त्र* में एक यह ष्टान्त दिपा गया है कि तीन प्रवासी कहीं जा रहे थे । बीच में भयानक चोरों को देखते ही तीन मे से एक तो पीछे भाग गया। दूसरा उन छोरों से डर कर नहीं मागा, किन्तु उनके द्वारा पकड़ा गया। सोसरा तो असाधारण बल तथा कौशल से उन चोरों को हराकर आगे बढ़ ही गया । मानसिक विकारों के साथ आध्यात्मिक युद्ध करने में जो जयपराजय होता है, उसका थोड़ा बहुत स्थाल उक्त दृष्टान्त से बा सकता है ।
*
जड़ वा तिनि मणुस्सा, जंतष्टवियहं सहाब गमणं । बेला इक्क मभिया, तुरंति यत्तायदो चोरा ।। १२११ ।।
हृद्छु मध्य तत्थे, ने एगो मग्गओ पsिनियत्ता | वित्तिओ गहिलो तओ मम इक्कंतु पुरंतो । १९१९ ॥ अडवी भवो मणूसा, जीबा कम्मट्टीई यहो दोहो । गंद्रीय मयठाणं रागद्धमा व दो चोरा ।। १२१३ ।। भगो लिई परिवुडकी, गहिओ पुण गठिओ ओ तो । गम्मत्त पुरं एवं जो एज्जातिष्णी करण णि ।। १२१४ ॥ - विशेषावश्यक भाष्य
यथा जनात्रयः केऽपि । माहपुर विपास प्राप्ताः वकचन कान्तारे, स्थानं चौर: भयंकरम् ॥ ६१६ ।। तर दुतं द्रुतं यान्तो, दस्तस्करमम् ।
तद्दष्ट्रा त्वरितं पश्वादेको मीतः पलायितः ॥ ६२ ॥ गृहीतश्चापरस्ताभ्यामन्यत ।
भयस्थानमतिक्रमम्य, पुरं प्राप पराक्रमी ।। ६२१ :
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प्रथम गुणस्थान में रहने वाले विकासमामो ऐसे अनेक आत्म होते हैं, जो रागद्वेष के तीव्रतम वेग को थोड़ा सा दबाये हुए सो हैं, पर मोह को प्रधान शक्ति को अर्थात् दर्शनमोह को शिथिल किये हुए नहीं होते। इसलिये वे यद्यपि अध्यात्मिक लक्ष्य के सर्वथा अनुकूलगामी नहीं होते तो भी उनका बोध व चरित्र अन्य अविकfar आत्माओं की अपेक्षा अच्छा ही होता है । यद्यपि ऐसे आरमाओं की आध्यात्मिक दृष्टि सर्वथा आत्मोन्मुख न होने के कारण वस्तुतः मिया या हो कहलाती है, तथापि वह सष्टि के समीप ले जाने वाली होने के कारण उपादेय मानी गई है* ।
बोध, वीर्य व चारित्र के तरन्तम भाव की अपेक्षा से उस असत् दृष्टि के चार भेद करके मिथ्या दृष्टि गुणस्थान की अन्तिम अवस्था
दृष्टान्तोपनयश्चात्र जना जीवा भवोऽयी ।
पत्याः कर्मस्थितिर्ग्रन्थि देशस्तित्वह भयास्पदम् ॥ ९२२ ॥
रागद्वेषी तस्करी द्वौ तद्भीतो बतिस्तु सः ।
ग्रन्थि प्राप्यानि दुर्भावा, यो जेष्ठस्थितिबन्धकः ।। ६२३ ।। भोररुद्धस्तु स यस्ताद रागादिबाधितः । ग्रन्थि भिनत्ति यो नैव न चापि वनने ततः ।। ६२४ ।। सत्वमीष्टपुरं प्राप्तो योऽपूर्वकरणाद् द्वतुम् । रागद्वेषायपाकृत्य सम्यग्दर्शन माप्तवान् ॥ ६२५ ।।
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- लोकप्रकाश सगं ३ । ● मध्याखे मन्दतां प्राप्तं मित्राद्या अपि दृष्टमः । मार्गमिखभावेन कुर्वते मोक्षयोजनम् ॥ ३१ ॥
श्रीयशः विजयजी कृत योगावतारद्वात्रिंशिना ।
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का शास्त्र में अच्छा चित्र खींचा गया है । इन चार दृष्टियों में जो वर्तमान होते हैं, उनको सष्टि लाभ करने में फिर देरी नहीं लगती।
सङ्घोष, सद्द्वयं व सचरित्र के तर उम भाव की अपेक्षा से सद्दृष्टि के * भी शास्त्र में चार विभाग किये हैं, जिनमें मिथ्याष्टि त्याग कर अथवा मोह को एक या दोनों शक्तियों को जीतकर आगे a नए सभी विकसित आत्माओं का समावेश हो जाता है । अष दूसरे प्रकार से यों समझाया जा सकता है कि जिसमें आत्मा का स्वरूप भासित हो और उसकी प्राप्ति के लिये मुख्य प्रवृत्ति हो, वह सट इसके विपरीत जिसमें आत्मा का स्वरूप न तो यथावत् मासित हो और न उसकी प्राप्ति के लिये ही प्रवृत्ति हो, वह असतुष्टि । बोध वीर्य व चरित्र के तर-तम-भाव को लक्ष्य में रखकर शास्त्र में दोनों दृष्टि के चार-चार विभाग किये गये हैं, जिनमें सब विकासगामी आत्माओं का समावेश हो जाता है और जिनका वर्णन पड़ने से आध्यात्मिक विकास का वित्र आंखों के सामने नाचने लगता है।
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* - " सच्चासंगनो बोघो दृष्टिः सा वोदिता ।
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मिश्रा. तारा, बला, दीपा स्थिरा कान्ता, प्रभा, परा ॥ २५ ॥ तृणगोमय काष्ठाग्नि, कणोमा । रत्नताराचन्द्राभा, क्रमेण श्वादिसन्निभा ॥ २६ ॥
'आद्याश्वनम्र सापाय माता मिथ्य शामिह ।
तवतो निरपायाच भिन्नग्रन्थेोकाः ॥ २८ ॥
योगावतारात्रिशिका |
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+ इसके लिये देखिये, श्रीहरिभद्रसूरि कृत योगदृष्टिः समुच्चय तथा उपाध्याय यशोविजयजी - कृत २१ से २४ तक की चार द्वात्रिशिकाएँ ।
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शारीरिक और मानसिक दुखों की संवेदना के कारण अज्ञातरूप में ही गिरि-
नीमा * च्याए से आरमा का आवरण कुछ शिथिल होता है और इसके कारण उसके अनुमब तथा बोर्योल्लास-- को मात्रा कुछ रहती है, तब उस विकासगामी आत्मा के परिणामोंकी शुद्धि व कोमलता कुछ बढ़ती है। जिसकी बदौलत वह रागद्वेष को तोवतम-दुर्भव ग्रन्थि को तोड़ने की योग्यता बरत अंशों में प्राप्त कर लेता है । इस अमानपूर्वक दुःख संवेवना-जनित अति अल्प आत्म-शुद्धि को जन शास्त्र में 'यपाप्रवत्तिकरण' f कहा है। इसके बार जब कुछ और भी अधिक आत्म-शुद्धि तथा पौर्योल्लास की मात्रा बढ़ती है तब राग-मेष की उस बुर्भक प्रन्थि का भेवन किया जाता है इस प्रन्थिमेव कारका आत्मशुद्धि को ,अपूर्वकरण' : कहते हैं।
यथाप्रवृत्तकरणं, नन्वनामोगरूपकम् । भवत्यनामोगतश्च. वायं कर्मक्षयोऽङ्गिनाम् ॥ ६७॥ "यथा मिथो घर्षणेन, ग्रावागोऽदि नदीगताः । स्युश्चित्राकृत्यो ज्ञान,-शून्या अपि स्वभावतः ।। ६०८॥ तथा यथाप्रवृत्तात्स्यु,-रप्यनामोगलक्षणात । लघुस्थितिककर्माणो, जन्तवोऽत्रान्तरेऽथ च ॥ ६.६ ॥"
-लोकप्रकाश, सर्ग ३ इसको दिगम्बरसम्प्रदाय में 'अथाप्रवृत्तकरण' कहते है । इस के लिये देखिये, तत्त्वार्थ अध्याय ६ के १ले सूत्र का १३ बां राजवात्तिक । + "तीबधारपर्शकल्पा,ख्यिकारणेन हि ।। आविष्कृत्य परं वीर्य, ग्रन्थिं भिन्दन्ति के चन ॥ ६१८ 11
लोकप्रकाश, सर्ग ३ ।
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क्योंकि ऐसा करण-परिणाम * विकासगामी आत्मा के लिये अपूर्व-प्रथम ही प्राप्त है। इसके बाद अस्म-शुद्धि व वोर्योल्सास की मात्रा कुछ अधिक बढ़ती है, तब आत्मा मोह की प्रधानभूत शक्ति -वर्शनमोहपर अवश्य विजय लाभ करता है। इस विजयकारक आत्म-शुद्धि को जैनशास्त्र में "अनियुत्ति करण' कहा है। ज्योकि उस शात्म-शुद्धि के हो जाने पर आत्मा वर्शनमोह पर मयलाभ बिना किये नहीं रहता, अर्थात् वह पीछे नहीं हटता । उक्त सोन प्रकार को आरम-शुद्धियों में दूसरी अर्थात् अपूर्वकरण-नामक शुद्धि हो अत्यन्त संभ है । क्योंकि राग-द्वेष के सोबतम बेग को
- - *"परिणाम विशेषोऽत्र, करणं प्राणिनां मतम् ॥५९६।।"
-लोकप्रकाश, सर्ग ३ । "अवानिवृत्तिकरणेना,-तिस्वच्छाशयात्मना । करोत्यन्त रकरण,--मन्तर्मुहूर्तसमितम् ॥६२७॥ कृते च तस्मिन्निथ्यात्व,-मोहस्थितिद्विधा भवेत् । तत्राद्यान्तरकरणा,-वधस्तन्यपरोवं गा ॥६२८।। तत्राचायां स्थितो मिथ्या. हक् स तद्दलवंदनात् । अतीतायामैवतस्या, स्थितावन्तमुहू ततः ॥६२६॥ प्राप्नोत्यातरकरणं, तस्याबक्षण एव सः ।। सम्यक्त्वमौपरामिक, -मपौगलिकमाप्नुयात् ।।१३।। यथा वनदयो दग्धे,-न्धन: प्राप्यातृणं स्थलम् । स्वयं विध्यापति तथा, मिथ्यात्वोदवानलः ।।६३१।। अवाप्यान्तरकरणं. क्षिप्रं विध्यायति स्वयम् । यदीपशमिफ नाम, सम्यतावं लभतेसुमान् ।।६३२।।''
लोकप्रकाश, समं ३ ।
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रोकने का अत्यन्त कठिन कार्य इसी के द्वारा किया जाता है, जो सहज नहीं है। एक बार इस कार्य में सफलता प्राप्त हो जाने पर फिर चाहे विकासामी आत्मा ऊपर की किसी भूमिका से गिर भी पड़े तथापि वह पुनः कमी-न-कभी अपने लक्ष्य को – आध्यात्मिक पूर्ण स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। इस आध्यात्मिक परिस्थिति का कुछ स्पष्टीकरण अनुभवगत व्यावहारिक स्ष्टान्त के द्वारा किया जा सकता है।
जैसे एक ऐसा वस्त्र हो, जिसमें मल के अतिरिक्त चिकनाहट भी लगी हो । उसका मल ऊपर-ऊपर से दूर करना उतना कठिन यदि और श्रम साध्य नहीं, जितना कि चिकनाहट का दूर करना 1 चिकनाहट एक बार दूर हो जाय तो फिर बाकी का मल निकालनेमें fear किसी कारण वश फिर से लगे हुए ग को दूर करने में विशेष श्रम नहीं पड़ता और वस्त्र को उसके असली स्वरूप में सहज ही लाया जा सकता है । ऊपर-ऊपर का मल बूर करने में जो बल वरकार है, उसके सा "यथाप्रवृत्तिकरण" है । चिकनाहट दूर करने वाले विशेष बल व अम के समान "अपूर्वकरण" है । जो चिकनाहट के समान राग-द्वेष की तीव्रतम प्रत्थि को शिथिल करता है । बाकी बचे हुए मल को fear चिकनाहट दूर होने के बाद फिरसे लगे हुए मलको कम करने वाले बल प्रयोग के समान "अनिवृत्तिकरण" हैं । उक्त तीनों प्रकार के बल प्रयोगों में चिकनाहट दूर करने वाला जल-प्रयोग ही विशिष्ट है ।
अथवा जैसे किसी राजा ने आत्म रक्षा के लिये अपने अङ्गरक्षकों को लोन विभागों में विभाजित कर रक्खा हो, जिनमें दूसरा विभाग शेष दो विभागों से अधिक बलवान् हो, तब उसी को जीतने
में विशेष बल लगाना पड़ता है। पहले उसके रक्षक राग-द्वेष के
वैसे
.
तीन
ही दर्शनमोह को जीतने के संस्कारों को शिथिल करने के
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लिये विकासगामी आत्मा को तीन बार अल-प्रयोग करना पड़ता है। जिनमें दूसरी बार किया जाने वाला बल-प्रयोग ही, जिसके द्वारा राग-Jष की अत्यन्त तीव्रतारूप प्रन्थि भेजी जाती है, प्रधान होता है । जिस प्रकार उक्त तीनों दलों में से अलवान् दूसरे अङ्गरक्षक दल के जोस लिये जाने पर कि सजा का परामय सहज होता है. इसी प्रकार राग-द्वेष की अतितीव्रता को मिटा देने पर दर्शनमोह पर जयनाम करना सहज है। दर्शनमोह को जीता और पहले गुणस्थान की समाप्ति हुई।
ऐसा होते ही विकासमामी आत्मा स्वरूप का दर्शन कर लेता है अर्थात् उसको अब तक जो परखप में स्वरुप की भ्रास्ति थी, वह दूर हो जाती है । अत एव उसके प्रयत्न की गति उल्टी न होकर सीधी हो जाती है। अर्थात् वह विवेकी बन कर कर्तव्यअकर्तव्य का वास्तविक विभाग कर लेता है । इस दशा को जनशास्त्र में 'अन्तरात्म भाव" कहते हैं। क्योंकि इस स्थिति को प्राप्त करके विकासमामो आस्मा अपने अन्दर वर्तमान सूक्ष्म और सहज शुद्ध परमात्म-भाव को देखने लगता है, अर्थात अन्तरात्मभाव, यह आत्म-मन्दिर का गर्भद्वार है, जिसमें प्रविष्ट होकर उस मम्बिर में वर्तमान परमात्म-भावरूप निश्चय वेबका दर्शन किया जाता है।
यह दशा विकासक्रम को चतुर्थो भूमिका किंवा चतुर्थ गुणस्थान है, जिसे पाकर आरमा पहले पहल आध्यात्मिक शान्ति का अनुभव करता है । इस भूमिका में आध्यात्मिक दृष्टि यथार्थ ( आस्मस्वरुपोन्मुख ) होने के कारण विपर्यास-रहित होती है । जि को जनशास्त्र में सम्यग्रष्टि किम्वा सम्यक्त्व * कहा है।
जिनोक्तादविपर्यस्ता, सम्यग्दृष्टिनिगद्यते । सम्यक्त्वशालिनां सा स्पा,-तमंत्र जायसङ्गिनाम् ।।५९६॥"
--होकप्रकाश, सर्ग ३ ।
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चतुर्थी से आगे की अर्थात् पन्चमी आदि सब भूमिकाएं सम्म दृष्टि वाली ही समझनी चाहिये; क्योंकि उनमें उत्तरोत्तर विकास तथा दृष्टि की शुद्धि अधिकाधिक होती जाती है । चतुर्थ गुणस्थानमें स्वरूप-दर्शन करने से आत्मा को अपूर्व शान्ति मिलती है और उसको विश्वास होता है कि अब मेरा साध्य-विषयक भ्रम दूर हुआ, अर्थात् अब तक जिस पौब्लिक व बाह्य सुख को में तरस रहा या, वह परिणाम - विरस अस्थिर एवं परिमित है। परिणाम सुन्दर, स्थिर व अपरिमित सुख स्वरूप प्राप्ति में ही है । तब गामो आत्मा स्वरुप स्थिति के लिये प्रयत्न करने लगता है।
यह विकास
मोह की प्रधान शक्ति - दर्शनमोह को शिथिल करके स्वरूपदर्शन कर लेने के बाद भी, जब तक उसकी दूसरी शक्ति - चारित्रमोह को शिथिल न किया जाय तब तक स्वरूप लाभ किंवा स्वरूपस्थिति नहीं हो सकती। इसलिये वह मोह की मन्य करने के लिये प्रयास करता है । जब
·
दूसरी शक्ति को वह उस शक्ति को
भी उरकान्ति हो या परपरिणति त्याग
होने से चतुर्थ भूमिका की अपेक्षा अधिक शान्ति-लाभ होता है । यह वेशविरति नामक पाँचवां गुणस्थान है !
अंशतः शिथिल कर जाती है । जिसमें
पाता है; तब उसको और अंशत: स्वरूप- स्थिरता
इस गुणस्थान में विकासयामी आत्मा को यह विचार होने लगता है कि यदि अल्प-विरतिसे ही इतना अधिक शान्ति-लाभ हुआ तो फिर सर्व विरति - जड़ भावों के सर्वधा परिहार से कितना शान्ति-लाभ न होगा । इस विचार से प्रेरित होकर व प्राप्त आध्यात्मिक शान्ति के अनुभव से बलवान् होकर वह विका सगामी आत्मा चारित्रमोह को अधिकांश में शिथिल करके पहलेकी अपेक्षा भी अधिक स्वरूप स्थिरता व स्वरूप लाभ प्राप्त करनेकी चेष्टा करता है । इस चेष्टा में कृतकृत्य होते ही उसे सर्व विरति
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संयम प्राप्त होता है । जिसमें पौलिक भावों पर मूर्दा बिल्कुल नहीं रहती, और उसका सारा समय स्वरूप की अभिव्यक्ति करने के काम में ही खर्च होता है । मह 'जविरति"दाम का गलान है । इसमें आरम-कल्याण के अतिरिक्त लोक-कल्याण की भावना और सवनुकूल प्रवृत्ति मी होती है। जिससे कमी-कभी थोड़ी-बहुत मात्रा में प्रमाप आ जाता है ।
पांचवे गुणस्थान की अपेक्षा, इस छले गुणस्थान में स्वरूपअभिव्यक्ति अधिक होने के कारण यद्यपि विकासमामी आत्मा को आध्यात्मिक शान्सि पहले से अधिक हो मिलती है तथापि बीच-बीच में अनेक प्रमान उसे शान्ति-अनुभव में जो बाधा पहुंचाते हैं, उसको वह सहन नहीं कर सकता । अत एव सर्व-विरति-अमित शान्ति के साथ अप्रमाण-जनित विशिष्ट शान्ति का अनुभव करने की प्रबल लालसा से प्रेरित होकर वह विकासगामी आत्मा प्रमाद का स्वाग करता है और स्वरूप को अभिक्ति के अनुरूल मनन-चिन्तन के सिवाय अन्य सब व्यापारों का त्याग कर देता है। यही 'अप्रमत्तसंयत' नामक सातवां गुणस्थान है । इसमें एक और अप्रमावजन्य उत्कट सुख का अनुभव आत्मा को उस स्थिति में बने रहने के लिये उत्तेजित करता है और दूसरी ओर प्रमाद-जन्य पूर्वकासनाएं उसे अपनी ओर खींचती हैं । इस खींचातानी में विकासमामी आरमा कमी प्रमाद को तन्द्रा और कभी अप्रमाव को जागृति अर्थात् छठे और सात गुणस्थान में अनेक बार जाता आता रहता है । भंवर या बातममी में पड़ा हुआ तिनका इधर से उधर और उधर से इषर जिस प्रकार चलायमान होता रहता है, उसी प्रकार छठे और सातवें गुणस्थान के समय विकासगामी आत्मा अनवस्थित बन जाता है ।
प्रमाव के साथ होने वाले इस आन्तरिक युद्ध के समय विकास
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गामी आत्मा यदि अपमा चारिप-बल विशेष प्रकाशित करता है तो फिर वह प्रमावों- प्रलोभमों को पार कर विशेष अप्रमत्त-अवस्था प्राप्त कर लेता है । इस अवस्था को पाकर वह ऐसी शक्ति-तिकी तैयारी करता है कि जिससे शेष रहे-सहे मोह-बन को नष्ट किया जा सके । मोह के साथ होने वाले भावी यद्ध के लिये की जानेवाली तैयारी की इस भूमिका को आठवां गणस्थान कहते हैं।
पहले कभी न हुई ऐसी आत्म-शुद्धि इस गुणस्थान में हो जाती है । जिससे कोई विकासगामी आत्मा तो मोह के संस्कारों के प्रमाव को क्रमशः दबाता हुआ आगे बढ़ता है तथा अन्त में उसे विस्मुल हो उपशान्त कर देता है। और विशिष्ट आत्म-शुद्धि वाला कोई दूसरा व्यक्ति ऐसा भी होता है, जो मोह के संस्कारों को अगशः नः दल से शु.त'
पता है नम: अम्स में उन सब संस्कारों को सर्वथा निर्मूल हो कर डालता है । इस प्रकार आठवे गुणस्थान से मागे बढ़ने वाले अर्थात अन्तरात्म-भाव के विकास द्वारा परमात्म-भाव-रुप सर्वोपरि भूमिका के निकट पहुंचने वाले आत्मा दो श्रेणियों में विभक्त हो जाते हैं।
एक श्रेणियाले तो ऐसे होते हैं, जो मोह को एक बार सर्वथा थवा तो लेते हैं, पर उसे निम्ल नहीं कर पाते। अनए जिस प्रकार किसी बर्तन में भरी हुई माप कभी-कभी अपने वेग से उस बर्तनको उड़ा ले मागती है या नीचे गिरा देती है अथवा जिस प्रकार राख के नीचे दबा हुआ अग्नि हवा का अकोरा लगते ही अपना कार्य करने लगता है। किवा जिस प्रकार जल के तल में बैठा हुआ मस थोड़ा सा क्षोभ पाते ही ऊपर उठकर जल को गंदला कर देता है, उसी प्रकार पहले बनाया हुआ मी मोह आन्तरिक युद्ध में थके हुए उन प्रथम श्रेणि छाले आत्माओं को अपने वेग के द्वारा नीचे पटक देता है । एक बार सर्वथा चबाये जाने पर भी मोह, जिस
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भूमिका से आत्मा को हार दिलाकर नीचे की ओर पटक देता है, वही ग्यारहयो गुगस्थान है । मोह को क्रमश: बवाते-चवाते सधा बवाने तक में उत्तरोत्तर अधिक-अधिक विशुद्धिबाली को भूमिकाएँ अवश्य प्राप्त करनी पड़ती हैं । जो मौषां तथा दसर्वा गुणस्थान करसाता है। बारहवां गुणस्थान अध: पतन का स्थान है। क्योंकि उसे पाने वाला भास्मा आगे न बढ़कर एक बार तो अवश्य नीचे गिरता है।
दूसरी श्रेणीवाले प्राण भोर को प्राश: निम्न करते-करते अन्त में उसे सर्वथा मिल कर हो हासते है। सर्वथा निमूल करमेको जो उस भूमिका है, वही बारहवाँ गुणस्थान है । इस गुणस्थान को पाने तक में अर्थात् मोह को सर्धा निर्मूल करने से पहले बीच में मौधों और वसा गुणस्थान प्राप्त करना पड़ता है। इसी प्रकार देखा जाय तो चाहे पहली श्रेणियाले हों, चाहे वूसरी श्रेणिवाले, पर वे सब नौवा-वसवो गुणस्पान प्राप्त करते ही हैं। दोनों श्रेणिवालों में असर इतना ही होता है कि प्रथम श्रेणिवालों की अपेक्षा दूसरी श्रेणिवालों में प्रात्म-शुद्धि व आत्म-पल विशिष्ट प्रकार का पाया जाता है। जैसेः - किसी एक वर्जे के विद्यार्थी भी दो प्रकार के होते हैं , एक प्रकार के तो ऐसे होते हैं, जो सौ कोशिश करने पर भी एक बारगी अपनी परीक्षा में पास होकर आगे नहीं बढ़ सकते । पर दूसरे प्रकार के विद्यार्थी अपनी योग्यता के बल से सब कठिनाइयों को पार कर उस कठिनतम परीक्षा को वेषड़क पास कर ही लेते हैं । उन दोनों दल के इस अन्तर का कारण उनकी आन्तरिक योग्यता की न्यूनाधिकता है। वैसे ही मौवे तथा यसमें गुणस्थान को प्राप्त करने वाले उक्त दोनों श्रेणिगामी आत्माओं की माध्यास्मिक विशुद्धि न्यूनाधिक होती है । जिसके कारण एक श्रेणिवाले तो बसवें गुणस्थान को पाकर अन्त में ग्यारहवें गुणस्थान में मोह से हार खाफर नीचे गिरते हैं और अन्य श्रेणिवाले बसवें गुण
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स्थान को पाकर इतना अधिक आत्मबल प्रकट करते हैं कि अन्त में वे मोह को सर्वथा क्षीण कर बारहवें गुणस्थान को प्राप्त कर ही लेते हैं ।
जैसे ग्यारहवाँ गुणस्थान अवश्य पुनरावृत्तिका है, जैसे ही बार हवा गुणस्थान अपुनरावृत्तिका है। अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थान को पानेवाला आत्मा एक बार उससे अवश्य गिरता है और बारहवें गुणस्थान को पानेवाला उससे कदापि नहीं गिरता बल्कि ऊपर को ही चढ़ता है। किसी एक परीक्षा में नहीं पास होने वाले विद्यार्थी जिस प्रकार परिश्रम व एकाता से योग्यता बढ़ाकर फिर उस परीक्षा को पास कर लेते हैं; उसी प्रकार एक बार मोह से हार खाने वाले आत्मा भी अप्रमत्त-भाव व आत्म-चल की अधिकता से फिर मोह को अवश्य क्षीण कर देते हैं। उक्त दोनों श्रेणिवाले आत्माओं करे तर सम भावापन्न आध्यात्मिक विशुद्धि मानों परमात्म-वि-रूप सर्वोच्च भूमिकापर चढ़ने की दो नसेनियाँ हैं जिनमें से एक को जैनशास्त्र में 'उपशम श्रेणि' और दूसरी को क्षपकश्रेणि' कहा है। पहली कुछ दूर चढ़ाकर गिरानेवालों और दूसरी चढ़ाने वाली ही है। पहली श्रेणि से गिरनेवाला आध्यात्मिक अधःपतन के द्वारा चाहे प्रथम गुणस्थान तक क्यों न चला जाय, पर उसकी वह अधःपतित स्थिति कायम नहीं रहती । कभी-न-कभी फिर वह डूने बल से और दूनी सावधानी से तैयार होकर मोह-शत्रु का सामना करता है और अन्त में दूसरी श्रेणि की योग्यता प्राप्त कर मोह का सर्वपक्षिय कर डालता है। व्यवहार में अर्थात् आधिभौतिक क्षेत्र में भी यह देखा जाता है कि जो एक बार हार खाता है, वह पूरी तैयारी करके हराने वाले शत्रु को फिर से हरा सकता है ।
परमात्म भाव का स्वराज्य प्राप्त करने में मुख्य बाधक मोह ही है । जिसको नष्ट करना अन्तरात्म-भाव के विशिष्ट विकास पर निर्भर है। मोह का सर्वथा नाश हुआ कि अन्य आवरण जो जंग
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शास्त्र में 'घातिकम' कहलाते हैं, वे प्रधान सेनापति के मारे जाने के बाब अनुगामी संमिकों की तरह एक साथ तितर-बितर हो जाते हैं। फिर पया देरी, विकासगामी आत्मा तुरन्त हो परमात्म-भाव का पूर्ण आध्यात्मिक स्वराज्य पाकर अर्थात् सच्चिदानम्ह स्वरूप को पूर्णतया व्यक्त करके निरतिशय शाम, चारित्र आदि का लाभ करता है तथा अनिर्वचनीय स्वामाविक सुख का अनुभव करता है। जैसे, पूर्णिमा की रात में मिरभ चन्द्र की सम्पूर्ण कलाएं प्रकाशमान होतो हैं, वैसे ही उस समय आत्मा को चेतना आदि ममी मुख्य शक्तिपाँ पूर्ण विकसित हो जाती हैं । इस भूमिका को अन शास्त्र में तेरहवां गुणस्थान कहते हैं।
इस गुणस्थान में चिरफाल तक रहने के मात्र आत्मा बग्छ रञ्जु के समान शेष आवरणों की अर्थात् अप्रधानभूत अधातिकर्मों को उड़ा कर फेंक देने के लिये सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती शुल्कभ्यानरूप पवन का माश्रय लेकर मानसिक, वाचिक और कायिक ट्यापारों को सर्वथा रोक देता है । यही आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठा किया चौबहवो गुणस्मान है । इसमें आत्मा समुचिनक्रियाप्रतिपाति शुल्क ज्यान द्वारा सुमेरु की तरह निष्प्रकम्प स्थिति को प्राप्त करके अन्त में शारीर त्याग-पूर्वक व्यवहार और परमार्थ दृष्टि से लोकोत्तर स्थान को प्राप्त करता है। यही निर्गुण ब्रह्मस्थिति * है. यही सर्वाङ्गीण पूर्णता है, यही पूर्ण कृतकृत्यता है, यही परम पुरुषार्थ को अन्तिम सिद्धि * "योगसेन्यामतरत्यागी, योगानन्यडिल्लास्यजेत् । इत्येवं निर्गुणं ब्रह्म, परोक्तमुपपद्यते ।। ७ ।। वस्तुतस्तु गुणः पूर्ण-मनतर्भासने स्वतः । रूपं त्यक्तात्मन: माधो,-निरभ्रस्य विधोरिष ।। - ॥
-- नागन.... ।
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है और यही अपुनरावृत्ति-स्थान है । क्योंकि संसार का एकमात्र कारण मोह है। जिसके सब संस्कारों का निशेष नाबा हो जाने के कारण अब उपाधिका संभव नहीं है।
यह कथा हई पहिले से चौदहवे गुणस्थान तक के बारह गुणस्थानों को इसमें दूसरे और तीसरे गुणस्थान को कथा जो छूट गई है, वह यो है कि सम्यक्त्व किंवा तत्वज्ञानवालो ऊपर की चतुर्थी आदि भूमिकाओं के राजमार्ग से च्युत होकर जब कोई प्रास्मा तस्वशान शून्य किंवा मिथ्यारष्टि वाली प्रथम भूमिका के उन्मार्ग की ओर झुकता है, तर बीच में उस अधःपतनोन्मुख आस्मा को भी कुछ अवस्था होती है, वही दूसरा गुणस्थान है । यद्यपि इस गुणस्थान में प्रथम गणस्थान की अपेक्षा आत्म-शुद्धि वाय कुछ अधिक होती है, इसीलिये इसका नम्बर पहले के भाव रखा गया है, फिर भी यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि इस गुणस्थान को उस्क्रान्ति-स्थान नहीं कह सकते । क्योंकि प्रथम गुणस्थान को छोड़कर उत्क्रान्ति करनेपाला आस्मा इस वूसरे गुणस्थान को सीधे तौर से प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु ऊपर के गुणस्थान से गिरने वाला हो आत्मा इसका अधिकारी बनता है। अपापसन मोह के जनेक से होता है । अत: एष इस गणस्थान के समय मोह की तीव्र काषायिक शक्ति का आणि मांव पाया जाता है । खोर आदि मिष्ट भोजन करने के बाद जब वमन हो जाता है, सब मुख में एक प्रकार का विलक्षण स्वाव अर्थात् न अति मधुर न अति-अम्ल जैसे प्रतीत होता है । इसी प्रकार धूसरे गुणस्थान के समय आप्यात्मिक स्थिति विलक्षण पाई जाती है। क्योंकि उस समय श्रात्मा न तो तत्त्वज्ञान की मिश्षित भूमिका. पर है और न तस्व-ज्ञान-शून्य निश्चित भूमिका पर। अथवा से कोई व्यक्ति चड़ने को सीढ़ियों से खिसक कर जम सक जमीन पर भाकर नहीं ठहर जाता, तब तक बीच में एक विलक्षण अवस्था का
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मनुभव करता है, पैसे हो सभ्यत्व से गिरकर मिथ्यात्व को पाने तक में प्रति बीच में आत्मा एक विलक्षण प्राध्यात्मिक अवस्था का अनुभव करता है। यह बात हमारे इस व्यावहारिक अनुभव से भी सिद्ध है कि जब किसी निश्चित उन्नत-मवस्या से गिरकर कोई निश्चित अवनत-अवस्था प्राप्त की जाती है, तब बीच में एक विलक्षण
स्थति खड़ी होती है।
तीसरा गुणस्थान आत्मा को उस मिश्रित अवस्था का नाम है, जिसमें न तो केवल सम्यक् दृष्टि होती है और न केवल मिथ्या हष्टि, किन्तु आत्मा उसमें दोलायमान आध्यात्मिक स्थितिवाला बन जाता है । अत एवं उसकी बुद्धि स्वाधीन न होने के कारण सम्बेहशोल होती है अर्थात् उसके सामने जो कुछ आया, वह सब सम् । अर्थात न तो वह तस्व को एकान्त अतत्वरूप से ही जानती है और न तश्वअतस्व का वास्तविक पूर्ण विवेक ही कर सकती है।
कोई उस्क्रान्ति करने वाला आत्मा प्रथम गुणस्थान से निकलकर सोधे ही तोसरे गुणस्थान को प्राप्त कर सकता है और कोई अप. कान्ति करने वाला आत्मा भी चतुर्थ शादि गुणस्थान से गिरकर तीसरे गुणस्थान को प्राप्त कर सकता है । इस प्रकार उत्क्रान्ति करने वाले और अपक्रान्ति करने बाले-बोनों प्रकार के आत्माओं का आश्रय-स्थान तीसरा गुणस्थान है। यही तीसरे गुणस्थान की दूसरे गुणस्पाम से विशेषता है।
ऊपर आत्मा की जिन ग्रोवह अवस्थाओं का विचार किया है, उमका तथा उनके अन्तर्गत अवान्तर संघातीत अवस्थाओं का महत संक्षेप में वर्गीकरण करके शास्त्र में शरीरधारी आत्मा को सिर्फ तीन अवस्थाएं मतलाई है-(३) बहिरात्म-अवस्था, (२) अन्तरात्म. अवस्था और (३) परमात्म-अवस्था।
पहलो अवस्था में मात्मा का वास्तविक-विशुद्ध रूप अत्यन्त
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भाग्छन्न रहता है, जिसके कारण आत्मा मिथ्याध्यास वाला होकर पौद्ध लिक विलासों को ही सर्वस्व मान लेता है और उन्हीं को प्राप्ति केलिये सम्पूर्ण शक्ति का व्यय करता है ।
सूसरी अवस्था में मात्मा का वास्तविक स्वरूप पूर्णतया तो प्रकट महीं होता, पर उसके ऊपर का भावरण गाड़ न होकर शिथिलशिथिलतर, शिथिलतम बन जाता है, जिसके कारण उसको पुष्टि पौलिक विलासों की ओर से हट कर शुद्ध स्वरूप की ओर सग जाती है। इसी से उसको पुष्टि में शरीर भावि की जीर्णता में नवीनता अपनी जीर्णता व नवोनसा नहीं है । यह दूसरी. अश्स्था ही तीसरी अवस्था का द सोपान है।
तोसरी अवस्था में आत्मा का वास्तविक स्वरुप प्रकट हो जाता है अर्थात् उसके ऊपर के घने आवरण बिलकुल विलीन हो जाते हैं।
पहला, वूसरा और तीसरा गुणस्थान बहिरास्म-अवस्था का चित्रण है। चौथे से बारहवें सफ के गुणस्थान अन्तरात्म-अवस्था का विवर्मन है और तेरहवाँ, चौवा गुणस्थान परमात्म-अवस्था का वर्णन है ।
* अन्ये तु मिथ्यादर्शनादिभावपरिणतो वा यास्मा, सम्यग्दर्शनादिपरिणतस्त्वन्तरात्मा, केवलज्ञानादिपरिणतस्तु परमात्मा । तत्राद्यगुणस्थानत्रवे वाह्मात्मा, ततः परं क्षीणमोगुणस्थानं यावदन्तरास्मा, तस; परन्तु परमात्मेति । तथा व्यक्त्या बाह्मात्मा, शक्त्या परमारमान्तरात्मा च । व्यक्तयान्त गत्मा तु शक्त्या परमात्मा अनुभूतपूर्वनयेन च बाह्यात्मा, व्यक्तया परमात्मा, अनुभूतपूर्वनमेनय बाह्यास्मान्तरात्मा च ।"
- अध्यात्म मतपरीक्षा, गाथा १२५ ।
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भास्मा का स्वभाव ज्ञानमय है, इसलिये वह चाहे किसी गुणस्थान में क्यों न हो, पर ध्यान से कदापि मुक्त नहीं रहता । म्यान के सामान्य रोति से [१) शुभ और (२) अशुम, ऐसे दो विभाग भोर विशेष रोति से (१) आर्त, (२) रौद्र , (३) धर्म और १४) शुल्क, ऐसे चार विभाग शास्त्र में किये गये है । बार में से पहले दो अशुभ और पिछले वो शुम हैं । पौलिक अष्टि की मुख्यता के किंवा मात्म-विस्मृति के समय जो ध्यान होता है, वह अशुभ और पौरलिक रष्टि की गौणता व आत्मानुसन्धान-वशा में जो ध्यान होता है, वह शुभ है । अशुभ ध्यान संसार का कारण और शुभ ध्यान मोक्षका कारण है । पहले तीन गुणस्थानों में आर्त और रोन, ये वो ध्यान हो तर-तम-माव से पाये जाते हैं। चौथे और पांच गुणस्थान में उस दो ध्यानों के अतिरिक्त सम्यक्त्व के प्रभाव से धर्मध्यान भी होता है। छठे गुणस्थान में आतं और धर्म, ये वो ध्यान होते हैं । सातर्थे गुणस्थान में सिर्फ धर्मथ्यान होता है। आठवें से बारहवें तक पाँच गुणस्थानों में धर्म और शुल्क, ये वो ध्यान होते हैं।
तेरहवें और नौवहवें गुणस्थान में सिर्फ शुल्कध्यान होता है ।। "बामात्मा चान्तरात्मा च परमात्मेति च यः । कायाधिष्ठायकध्येयाः, प्रसिद्धा योगवाङ्मये ॥ १७ ॥ अन्ये मिथ्यात्वसम्यक्त्व, केवलज्ञानमागिनः । मिश्रे च क्षीणमोहे च, विश्रान्तास्ते त्वयोगिनि ॥ १८ ॥
--योगावतारद्वाविशिवा । *"आर्तरौद्रधर्मशुक्लानि ।''-- तत्त्वार्थ-अध्याय ८, सूत्र २६ । + इसके लिये देखिये, तत्त्वार्थ अ०६, सूत्र ३५ से ४० । ध्यानशतक, गा० ६३ ओर ६४ तथा आवश्यक-हारिभद्री टीका पृ० ६०२ । इस विषय में तत्त्वार्ध के उक्त मूत्रों का राजवातिक विशेप देखने योग्य है, क्योंकि उसमें श्वेताम्बर ग्रन्थों से थोड़ा सा मतभेद है।
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भरता हा
गुणस्थानों में पाये जाने वाले प्यामों के उक्त वर्णन से तथा गुणसानों में किये हुए महिरास्म-भाव मावि पूर्वोक्त विभाग से प्रत्येक मनुष्य यह सामान्यतया जान सकता है कि मैं फिस गुणस्थान का अधिकारी हैं। ऐसा जान, गीय अधिकारी श्री नगिक अत्याकांक्षा को अपर के गणस्थानों के लिये उत्तेजित करता है।
दर्शनान्तर के साथ जैनदर्शन का साम्य ।
जो वर्शन, आस्तिक अर्थात् आस्मा, उप्तका पुनर्जन्म, उसकी विकास शीलता तथा मोक्ष-योग्यता मानने वाले हैं, उन सबों में किसी-न-किसी रूप में आत्मा के क्रमिक विकास का विचार पाया जाना स्वाभाविक है । अत एव आर्यावत्तं के जन, वैविक और बौद्ध, इन तीनों प्राचीन वर्शनों में उक्त प्रकार का विचार पाया जाता है । यह विचार जनदर्शन में गुणस्थान के नाम से, बंदिक दर्शन में भूमिकाओं के नाम से और शैद्ध वर्षन में अबस्थाओं के नाम से प्रसिव है। गुणस्थान का विचार, जैसा जनदर्शन में सूक्ष्म तथा विस्तृत है, वैसा अन्य दर्शनों में नहीं है, तो भी उक्त तीनों दर्शनों की उस विचार के सम्बन्ध में बहुत-कुछ समता है। अर्थात् संकेत, वर्णनशंसी आदि की भिन्नता होने पर मी वस्तुतत्व के विषय में तीनों दर्शनों का भेद नहीं के घराबर ही है। वैदिकदर्शन के योगवाशिष्ठ, पातञ्जल योग आदि प्रन्थों में आत्मा की भूमिकाओं का अच्छा विचार है ।
जनशास्त्र में मिथ्यादष्टि या बहिरात्मा के नाम से अज्ञानी जीयका लक्षण बतलाया है कि जो अनात्मा में अर्यात् आत्म-भिन्न जड़तत्त्व में आत्म-बुद्धि करता है, वह मियादष्टि था बहिरात्मा * है । योग
*तत्र मिथ्यादर्शनोदयवशीकृतो मिथ्याष्टि: 1''
-तत्त्वार्ध-अध्याय ६, सू० १, राजपातिक १२ ।।
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३३
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वाशिष्ठ में * तथा पातञ्जलयोग सूत्र 1 में अज्ञानो लोग का वही लक्षण है । जैनशास्त्र में मिध्यात्वमोहमोथ का संसार वृद्धि और नुःवरूप पॉल मणित योगवाशिष्ट
है ।
मात
"आत्मश्रिया समुपात, कायादिः कीर्त्यतेऽत्र बहिरात्मा । कायादेः समधिष्ठायको भवस्यन्तरात्मा तु ॥७॥"
'
- योगशास्त्र, प्रकाश १२ ।
" निर्मलस्फटिकस्येव, सहजं रूपमात्मनः । अध्यस्तोपाधिसंबन्धो, जडस्तत्र विमुह्यति ॥६॥
-- ज्ञानसार, मोहाष्टक |
"नित्य शुच्यात्मताख्याति रनिरयाशुच्यनात्मसु । अविद्यातत्त्वविद्या योगाचार्यः प्रकीतिताः ॥७॥
-- ज्ञानसार, विद्याष्टक |
मच्छावा तदीक्षणम्
श्रमदाटी बहिदेखि अभ्रान्तस्तत्त्वदृष्टिस्तु, नास्यां शेते सुखाऽऽशया ॥ २ ॥"
- निसार, तस्वष्टि- अष्टक |
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* यस्याज्ञानात्मनोशस्य देह एषात्मभावना उदितेति वाक्ष, रिपवोऽभिभवन्ति तम् ॥३॥ "
— निर्माण प्रकरण, पूर्वार्ध, सगं ६ ।
"अनित्याऽशु दुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मस्यातिरविद्या ।" - पातञ्जलयोगसूत्र, साधन-याद, सूत्र ५ ।
+ समुदायावयवयोन्धहेतुत्वं वाक्यपरिसमाप्ते विश्यात् ।"
- तस्वार्थ, अध्याय ६ सू० १, बात्तिक ३१ ।
"विकल्प परात्मा, पीतमोहासवां ह्ययम् । मवोच्चतालमुसाल, प्रपञ्चमधितिष्ठति ॥४॥"
ક્
--- ज्ञानसार, मोहाष्टक |
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- ३४
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निर्वाण + प्रकरण में अज्ञान के फलरूप से कही गई है । (२) योगवाशिष्ठ निर्माण प्रकरण पूर्वार्ध में अविद्या से तृष्णा और तृष्णा से दुःख का अनुभव तथा विद्या से अविद्या का † नाश, यह कम जैसा वर्णित है. वही क्रम जंनशास्त्र में मिध्याज्ञान और सम्यक्ज्ञान के निरुपण द्वारा जगह-जगह वर्णित है । ( ३ ) योगवाशिष्ठ के उक्त प्रकरण में ही जो अविद्या का विद्या से और विद्या का t विचार से नाम बतलाया है, वह जेनशास्त्र में माने हुए मतिज्ञान आदि क्षायोपशमिकज्ञान से मिथ्याज्ञान के नाश और क्षायिकज्ञान से क्षयोपशमिकज्ञान के नाश के समान है । (४) जैनशास्त्र में मुख्यतयः मोह को ही बन्ध का संसार का हेतु माना है। योगवाशिष्ठ में वही
+
* "अज्ञानात्प्रसूता यस्मा, ज्जगत्पर्णपरम्पराः । यस्मिंस्तिष्ठन्ति राजन्ते विशन्ति विलसन्ति च
॥५३॥" "आपास मात्र मधुरत्वमन सत्त्व माद्यन्तवस्त्रम खल स्थिति भङ्ग रत्त्वम् । अज्ञानशाखिन इति प्रसूतानि राम, नानाकृतीनि विपुलानि फलानि तानि "
J
||६|| पूर्वाद्धं सर्ग ६,
“जन्मपर्वाहिना राधा, विनाशच्छद्रचचुरा । भोगाभोगरसापूर्णा, विचारक घुणक्षता ॥ ११॥"
"मिथः स्वान्ते तयोरन्त, रामानयोरिव । अविधायां विलीनामा, क्षीणे द्वे एव कल्पनं ||२३|| एते राघव लीयेते, अवाप्यं परिशिष्यते । अविद्यासक्षयात् क्षोणो, विद्यापक्षोऽपि राघव ॥ २४४
+ अविद्या संसृतिर्वन्धो माया मोहो महत्तमः । कल्पितानीति नामानि यस्याः सकलवेदिभि ||२०||
सर्ग 5 |
- सर्व ६
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बाल रूपान्तर से कही गई है। उसमें जो वय के अस्तित्व को बम्ध हा कारण कहा है; उसका तात्पर्य हृदय के अभिमान या अध्याय से है 1 (५) जैसे, जैनशास्त्र में ग्रन्थिमेव का वर्णन है वैसे ही योगवाशिष्ठ में भी है। (६) कि प्रत्थों का यह वर्णन कि ब्रह्म माया के संसर्ग से जीवत्व धारण करता है और मन के संसर्ग से संकल्प-विकल्पात्मक ऐखजासिक सृष्टि रचता है तथा स्थावरजङ्गमात्मक जगत् का कल्प के अन्त में नाश होता है हस्यादि बातों की संगति जेमात्र के अनुसार इस प्रकार की जा सकती है अत्मा का अव्यवहार- राशि से व्यवहार राशि में आना ब्रह्म का जीवश्व धारण करना है
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"वष्टुष्टं श्मस्य सत्ताङ्ग, बन्ध इत्यभिधीयते । द्रष्टा दृश्यबलाबद्धो, दश्याऽभावे विमुच्यते ॥२२॥”
- उत्पत्ति-प्रकरण, स० १ ।
सम्माच्चित्तविकल्पस्थ, पिशाची बालक मथा । त्रिनित्यमेपास, द्रष्टारं दृश्यरूपिका ॥३८॥ | "
- उत्पत्ति प्र० स० ३ |
* प्तिभिविच्छेद, स्तस्मिन् प्रति हि मुक्तता । मृगतृष्णाम्बुबुद्धय्यादि, शान्तिमात्रात्मक स्त्वसी ॥२३॥ | " ---उत्पत्ति प्रकरण, स० ११५
+ तत्स्वयं स्वंमेवाशु, संकल्पयति नित्यशः । तेनेत्यमिन्द्रजालश्री, विषसेयं तिच्यते ॥१६॥"
"यदिदं दृश्यते सर्व जगत्स्थावरजङ्गमम् । तत्सुषुप्ताव स्वप्न, कल्पान्ते प्रविनश्यति ||१०॥"
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उत्पत्ति प्रकरण, स० १ ।
स तथाभूत एवाना स्त्रयमन्य इवोल्लसन् । जीवतामुपयाखीव, भाविनाश्री कदर्थितान् ||१३|| "
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६
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कमषाः प्रथम तथा स्मूल मनद्वारा संक्षिप्त प्राप्त करके कल्पनाबाल में आत्मा का विचरण करना संकल्प-विकल्पात्मक ऐनमासिक सृष्टि है। पास मारम-स्वरूप मक्त होने पर सांसारिक पर्यायों का नाबा होना ही कल्प के अन्त में स्थावर-जङ्गमात्मक जगत् का नाम है भारमा अपनी सत्ता भूलकर जड़-सत्ता को स्वसत्ता मामला है, जो अहंस्व ममत्व भावना रूप मोहनीय का उदय और ष का कारण है बही महत्व-ममत्व भावना वैदिक वर्णन शैली के अनुसार कामहेतुभूत भय सता है । उत्पत्ति , वृद्धि विकास, स्वर्ग, नरक मारि जो जीव को अवस्थाएं वैविक पन्थों में वर्णित * हैं, ये हो जन-ष्टि के अनुसार व्यवहार-राशि-गत जीव के पर्याय हैं । (७) योगवाशिष्ठ में । स्वरूप-स्पिति को ज्ञानी का और स्वरूप-वंश को अनामी का लक्षण माना है। जैनशास्त्र में भी सम्यक्झान का और मिग्याष्टि का क्रमशः बही स्वरूप बतलाया है। (८) योगवाशिष्ठ में + जो सम्यकसान का लक्षण
* "उत्पद्यते यो जगति स एव किल वर्धत । स एव मोक्षमा प्रोति, स्वर्ग बा नरकं च वा ॥७॥"
---उत्पत्ति-प्रकरण, स. १ । " स्वरूपावस्थितिमुक्ति, स्तभ्रंशोऽहंस्यवेदनम् । एतत् संक्षेपतः प्रोक्त, लज्जत्वाशत्वलक्षणम् ॥५॥"
-उत्पति-प्रकरण स. ११७ अिहं ममेति मन्त्रोऽयं, मोहस्य जगदाध्यकृत् । अयमेव हि नबपूर्वः, प्रतिमन्त्रोपि मोहजित् ॥१॥"
--मानसार, मोहाष्टक । स्वभावलाभसंस्कार, कारणं ज्ञान मिष्यते । ध्याध्यमात्रमतस्त्वन्ध, तथा चोक्त महात्मना ।।३॥"
--ज्ञानसार, शानाष्टक । +"अनाद्यन्तावभासामा, परमात्मेह विद्यते ।
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है, वह जैन शास्त्र के अनुकूल है । (९) जैम शास्त्र में सम्पन् पर्शन की प्राप्ति, (१) स्वभाव और (२) बाह्य निमित, इन दो प्रकार से बतलाई है * । योगवाशिष्ठ में भी ज्ञान प्राप्ति का वैसा ही कम सूचित किया + है । (१०) जैन शास्त्र के शोवा मम्मामों के मान में पौरह मिलानों का वर्णन योगवाशिष्ठ में बहुत रुचि कर व विस्तृत है । सात भूमि
इत्येको निश्चयः फार मम्यग्नानं विदुर्बुधाः ॥ २ ॥"
-उपशम प्रकरण, स. ७६1 * "तनिसर्गादधिगमाद् वा ।" ।
तत्त्वार्थ-अ० १, सू०३। +"एकस्तावदुरुप्रोक्ता, दनुष्ठानाच्छनःशनैः ।
जन्मना जन्मभिर्वापि, सिद्धिद; समुदाहृतः ॥ ३ ॥ द्वितीयस्त्वात्मनेवाशु, किंचिद्व्युत्पन्नचेतसा , भवति ज्ञानसंप्राप्ति,-राकाषाफलपासयत् ।। ४ ।।
---उपशम-प्रकरण, स. ७/ t. "अज्ञानभूः सप्तपदा, शभूः सप्तपदैव हि ।
पदान्तराण्यसंख्यानि, भवन्त्यन्यान्यपतयोः ॥ २ ॥ ' सत्रारोपित मशानं, तस्य भूमीरिमाः शृणु । बीजजाग्रत्तथाजारान् महाजामसर्थव च ।। ११ ।। जाग्रतस्वप्रस्तथा स्वपनः, स्वप्रजासत्सुषुप्तकम् । इति सप्तविषो मोहः, पुनरेव परस्परम् ॥ १२ ॥ हिल्टो भवत्येनकास्यः, शृणु लक्षणमस्य च । प्रथमे चेतनं यत्स्या,- दनापं निर्मल चितः ॥ १३ ॥ भविष्यच्चित्तजीवादि, नामशब्दार्थभाजनम् । बीजरूपं स्थित जाग्रत, बीजजाग्रत्तदुच्यते ।। १४ ।।
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काएं शान की और सात अमान को बतलाई हुई हैं, जो जन परिभाषा के
एषा सप्तेर्नवावस्था, वं जाग्रत्संसृति शृणु। नवासूतस्य परा, दयं चाहमिदं मम ।। १५ ॥ इति य: प्रत्यय. स्वस्थसजावड़ागभावनात् । अयं सोऽहमिदं तन्म, इति जन्मान्तरोदितः ।। १६ ।। पीवरः प्रत्ययः प्रोक्तो, महाजाग्रदिप्ति स्फुरन् । अरूढमथवा रुळ, सर्वथा तन्मयात्मकम् ।। १७ ।। पउजाग्रतो मनोराज्यं जाग्रस्स्वप्नः स उच्यते । द्विचन्द्रशुक्तिकारूप्य,-मृगतृष्णादिभेदतः ॥ १८ ॥ अभ्यासात्प्राप्य जाग्रत्त्वं, स्वप्नोऽनेकविधो भवेत् । अल्पकालं मया दृष्टं, एवं नो सत्यमित्यपि ॥ १६ ॥ निद्राकालानुभूतेणे, निद्रान्ते प्रत्ययो हि यः । स स्वप्नः कथितस्तस्य, महाजाग्न रिस्थतेहुँ दि ।। २० ।। चिरसंदर्शनाभावा-दप्रफुल्सयहद् वपुः ।। स्वप्नो जाग्र तयारूहो, महाजाग्रत्पदं गतः ।। २१ ॥ अक्षते वा क्षते देहे, स्वप्रजाग्रन्मतं हि तत् । षडवस्थापरित्यागे, जया जीवस्य या स्थितिः ।। २२ ।। भविष्य ःख जोधाहया, सौषुप्ती सोच्यते गतिः । एते तस्यामवस्थायां, तृणलोष्ठशिलादयः ॥ २३ ॥ पदार्थाः संस्थिताः मर्च, परमाणुप्रमाणिनः । सप्तावस्था इति प्रोक्ता, मयाज्ञानस्म राषव ॥ २४ ॥"
उत्पत्ति-प्रकरण स०११७ । "ज्ञानभूमिः शुभेच्छाख्या, प्रथमा समुदाहृता । विचारणा दितीया न, तृतीया सन्मानण ॥ ५ ॥
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अनुसार क्रमशः मिथ्यारव को और सम्यक्त्व की अवस्था को सूचक हैं । (११) योगवशिष्ठ में तस्वल, समष्टि, पूर्णाशय और मुक्त पुरुष का
सस्थापत्तिश्चतुर्थी स्या, ततो संसक्तिनामिका । पदार्थाभावी षष्ठी, सप्तमी तुर्यगा स्मृता ।। ६ ।। आसामन्त स्थिता मुक्ति, स्तस्यां भूयो न शोच्यते । एतासां भूमिकानां त्व.-मिदं विसं महं ! ७ स्थित: कि मूढ एवास्मि, प्रेक्ष्येऽहं शास्त्रसज्जने । पैराग्यपूर्वमिच्छेति, शुभेच्छेत्युच्यते बुधः ।। ८ ।। शास्त्रसज्जनसंपर्फ-पैराग्याभ्यासपूर्वकम् । सदाचारप्रवृत्तिा . प्रोच्यते सा विचारणा || ६ विचारणा शुभेच्छाम्या,-मिन्द्रियार्थेष्व सक्तता । यत्र हा तनुसामावा,-प्रोच्यते तनुमानसा ॥ १० ॥ भूमिकात्रितयाभ्यासा,-चित्तेऽर्थे विरतेवशात् सत्यात्मनि स्थिति: शुद्ध, सत्त्वापत्तिरुदाहृता ।। ११ ॥ दशाचतुष्टयाभ्यासा, दससंगफलेन च । रूसस्वचमत्कारा,-प्रोक्ता संसक्तिनामिका ॥ १२ ॥ भुमिकापञ्चकाम्पासा, स्वात्मारामतया इदम् । आम्यन्तगणां बाह्यानां. पदार्यानाममावनात् ॥ १३ ।। परप्रयुक्तेन चिरं. प्रयत्नेनार्थ भावनात् । पदार्थाभावना नाम्री, षष्ठी संजायते गतिः ।। १४।। भूमिषट्कचिगम्यासा,-देन्दग्यानुपलामतः । यत्स्वभावकनिष्ठत्वं सा शेया सुर्यगा गतिः ॥ १५ ॥
उत्पत्ति-प्रकरण, स० ११८ ।
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४. .
जो वर्णन है बह जैन-संकतानुसार चतुर्म आधि गुणस्थान में स्थित मात्मा को लागू एकता है । जैन शास्त्र में जो जान का महत्व बणित है,
* पोग निर्वाण-प्र० स० १७०; निर्वाण -प्र. 3, स. ११६ ।
योग० स्थिति-प्रकरण, स० ५७; निर्वाण-प्र० स० १६६। + "जागति ज्ञानदृष्टिश्चे, तृष्णा कृष्णाऽहिजामली । पूर्णानन्धस्य तनिक स्पा, दैन्यवृश्चिकवेदना ॥ ४ ॥"
-ज्ञानासार, पूर्णताष्टक । "अस्ति चेग्रन्थिभिद् ज्ञानं, कि चिस्तन्त्रयन्त्रणः । प्रदीपाःक्कोपयुज्यन्ते, समोनी एष्टिरेव चेत् ॥ ६ ॥ मिथ्यात्वशैलपच्छिद्, ज्ञानदम्भोलिशोभितः । निमयः माक्रवद्योगी, नन्दत्यानन्यनन्दने ॥ ७ ॥ पीयूषमसमुद्रोत्वं, रसायन मनौषधम् । अनन्यापेक्षमश्वर्य, ज्ञानमाइ मनीषिणः ॥ = [1
ज्ञानासार जानाष्टक । संसारे निवसन् स्वार्थ,-सज्जा कज्जलये श्मनि । लिप्यते निखिलो सोको, शानसिद्धो न लिप्यते ।। १ ।। माहं पुद्गल भावना, कर्ता कारयिता च । नानुमन्सापि चस्यात्म,-ज्ञानवान् लिप्यते कथम् ॥ २ ॥ लिप्यते पुद्गलस्कन्धो, न लिप्ये पुद्गल रहम् । चित्रव्योमाजनेनेक, ध्यायन्निति न लिप्यते ।। ३ ।। लिप्तताज्ञानसंपात, प्रतिपाताय केवलम् । निर्लेपशानमग्नस्य, क्रिया सर्वोपयुज्यते ।। ४ ।।
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तप:श्रुतादिना मस:, क्रियावानपि लिप्यते । भायनाज्ञानसंग नो, निक्रियोऽपि न लिप्यते ।। ४ ।।"
ज्ञानसार, निलेपाष्टक । "छिन्दन्ति ज्ञानदायेगा, स्पृहा विषला बुधाः । मुखशोक च मा च, दैन्यं यच्छति यरफलम् ॥ ३ ॥"
ज्ञानसार, निःस्पृहाष्टक । "मिभोयुक्तपदार्थाना, मसंक्रममारकया । चिन्मात्रपरिणामेन. विषयानुभूयते ।। ७ ।। अविद्यातिमिरध्वं से, हशा विद्याजनस्पृशा । पश्यन्ति परमात्मान, मात्मन्येव हि योगिनः ॥ ८॥"
ज्ञानासार, विद्याष्टक । "भवसौख्येन वि भरि, भयज्वलन भस्मना । सदा मयोजिष्टानं ज्ञान, सुखमेव विशिष्यते ।। २ ।। न गोप्यं कापि नारोप्यं, हेयं देयं च न कचित् । क्क भयेन मुने: स्थेयं, जेयं ज्ञानन पश्यतः ॥ ३ ॥ एकं ब्रह्मास्त्रमादाय, निनमोहनम् मुनिः । बिभेति नैव संग्राम, शीर्षस्थ इव नागराट ॥ ४ ॥ मयूरी ज्ञानष्टिश्चे, प्रमर्पति मनोबने । वेष्रत भयसाणां, न तदाऽनन्दनन्दने ।। ५ ।। कृतमोहास्त्रदैफल्यं, ज्ञानवर्म विभनि यः । कफ भीम्सस्य क्क वा भङ्गः, कमरांगरके लिषु ॥ ६ ॥ तुलवल्लघवो मुढा, भ्रमन्स्यभ्र भयानिलः । । नक रोमापि तर्ज्ञान, गरिष्यानां तु कम्पते ।। ७ ॥
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४२
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वही योगवाशिष्ठ में प्रज्ञामाहात्म्य के नाम से उल्लिखित है* ।
चित्ते परिणतं यस्य चारित्रमकुतोभयम् ।
,
अखण्हज्ञानराज्यस्य म्या
ज्ञानसार, निर्भयाष्टक |
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"अष्टार्थेतु धावन्तः, शास्त्रदीपं विना जडाः । प्राप्नुवन्ति परं खेदं प्रस्खलन्तः पदे पदे ॥ ४॥ "अज्ञानाहिमहामन्त्र, स्वाच्छन्द्यज्वरसङ्घनम् । धर्मारामसुधाकुल्य, शास्त्रमाहुर्महर्षयः ॥ ७ ॥ शास्त्रोक्ताचारकर्त्ता च शास्त्रज्ञ शास्त्र देशकः । शास्त्रकरण महायोगी, प्राप्नोति परमं पदम् ॥ ८ ॥
ज्ञानसार, शास्त्रष्टक
- ज्ञानमेव बुधा: प्राहु, कर्मणां तापनात्तपः । तदाभ्यन्तरमेवेष्टं बाह्य ं तदुपख हुकम् ॥ १ ॥ अनुलोत सिकी वृत्ति, बलानां सुलशीलता । प्रातिस्रोतसिक वृत्ति, शनिनां परमं तपः ॥ २ ॥
"सदुपायप्रवृत्ताना, मुपेयमधुरत्वतः ।
शानिनां नित्यमानन्द, वृद्धिरेव तपस्विनाम् ॥ ४ ॥ " ज्ञानसार, तपोष्टक
*"न सद्गुरोर्न शास्त्रार्था, पुण्यात्प्राप्यते पदम् । यत्साधुसङ्गाभ्युदिता, द्विचारविशदाद्बुदः । १७ ।। सुन्दर्या विजया बुद्धय्या, प्रज्ञयेव वयस्यया । पदमासाद्यते राम, न नाम क्रिययान्यया ॥ १८ ॥
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-- ४३ -
यस्योवलति तीक्ष्णाग्रा, पूर्वाप रविचारिणी । प्रज्ञादीपशिखा जातु, ज्ञाहयान्ध्यं तं न बापते ।१९|| दुरुसरा या विपदो, दुःखकल्लोसंकुसाः । तोर्यते प्रज्ञया ताभ्यो, नायाऽपयो महामते ।।२०।। प्रशाविरहितं मूक-मापदल्पापि बाधते । पेलवचानिलकला, सारहीनमिवोलपम् ॥२१॥" "प्रशावानसहायोऽपि, कार्यान्तमधिगच्छति । दुष्प्रश: कार्य मासाटा , पEA! नश्यति । शास्त्रसज्जनसंसर्ग: प्रज्ञा पूर्व विवधयेत् । सेकसंरक्षणारम्भः, फलप्राप्ती लतामिव ।।२४।। प्रज्ञावल बृहन्मूलः, काले सरकार्यपादप. । फलं फलत्यतिस्वादु भासोनिम्बमिवैन्दवम् ॥२५॥ य एव यत्नः क्रियते, बारार्थोपार्जन जनः । स एवं यत्नः कर्तव्यः, पूर्व प्रज्ञाविवर्धने ॥२६॥ सीमान्तं सर्वदुःखाना, मापदा कोशमुत्तमम् । बीजं संसारवृक्षाणा, प्रज्ञामान्य बिनाशयेत् ॥२७॥ स्वर्गाद्यायमच पाताला, द्राज्याद्यत्समवाप्यते । तरसमासाद्यते सर्वं, प्रज्ञाकोगान्महात्मना ।।२८।। प्रज्ञयोत्तीर्यते भीमा, तस्मात्संसारसागरात । न दाननं च ना तीर्थ, स्तपसा न च राघव ॥२६।। परप्राप्ताः संपदं देवी, मपि भूमिचरा नराः । प्रज्ञापुण्यलतायास्त, स्फलं स्वादु समुत्थितम् ॥३०॥
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प्रज्ञ या नखरातून, मत्तवारणयूथपाः । जम्बुनिजिताः सिंहा, सिंहहरिणका इव ॥३१॥ सामाघरपि भूपत्न, प्राप्तं प्रज्ञावशानरः । स्वर्गापवर्गयोग्यत्व प्राज्ञस्येवेह दृश्यते ।।३२॥ प्रशया वादिनः मा स्वविकल्पविलासिन : 1 जयन्ति सुभटप्रख्या, नरानण्यतिमीरवः ।।३३।। चिन्तामणि रियं प्रज्ञा, हत्कोशस्था विवेकिनः । फलं कल्पलतेदेषा, चिन्तित गम्प्रयच्छति ॥३४॥ भव्यस्तरति संसार, प्रज्ञ यापोयतेऽधमः । शिक्षितः पारमाप्राति. नाना नानोत्यशिक्षितः ।।३।। धीः सम्यग्योजिता पार, ससम्यम्योजिता पदम् । नर नयपि संसारे, भ्रमन्ती नौरियाणवे ॥३६॥ विवेकिनमसंमुळे, प्रामाशागणोत्थिताः । घोषा न परिबाघन्ते, सन्नद्धमिव सायकाः ॥३७॥
प्रश्न येह जगत्सर्च, सम्यगेवाङ्ग दृश्यते । सम्यग्दर्शनमायान्ति, नापदो न च संपदः ॥३८॥ पिधान परमार्कस्य, जडात्मा वितताऽसितः । अहंकाराम्बुदो मत्तः, प्रज्ञावातेन बाध्यते ॥३६॥"
उपशम-4०, प्रशामाहात्म्य ।
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योगसम्बन्धी विचार । गुणस्थान और योग के विधार में अन्तर क्या है ? गुणस्थान के किका अमान व ज्ञान-को भूमिकाओं के वर्णन से यह ज्ञात होता है कि आत्मा का आध्यास्मिक विकास किस प्रम से होता है और योग के वर्णन से यह ज्ञात होता है कि मोक्ष का साधन क्या है । अर्थात् गुण. स्थान में आध्यात्मिक विकास के क्रम का विचार मुख्य है और योग में मोक्ष के साधन का विचार मुख्य है। इस प्रकार दोनों का मुख्य प्रतिप्राय प्रस्व भिन्न-भिन्न होने पर भी एक के विचार में दूसरे की छाया अवश्य आ जाती है, क्योकि कोई भी आत्मा मोक्ष के अन्तिम -- अनन्तर या अब्यवहित - साधन को प्रयम हो प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु विकास के प्रमानुसार जनरोत्तर सम्मायिन साधनों को सोपान-परम्परा की तरह प्राप्त करता हुआ अन्त में परम साधन को प्राप्त कर लेता है । अत एव योग के-मोक्ष सापन विषयक विचारमें आध्यात्मिक विकास के क्रम की छाया आ ही जाती है । इसी तरह आध्यात्मिा विकास किस क्रम से होता है, इसका विचार करते समय वात्मा के शुद्ध, शुद्धतर, शुद्धतम परिणाम. जो मोक्ष के साधनमूत हैं, उनकी छाया भी आ ही जाती है। इसलिए गुणस्थान के वर्णन-प्रसङ्ग में योग का स्वरूप संक्षेप में विखा वेना अप्रासनिक नहीं है
योग किसे परते हैं ? :- आत्मा का जो धर्म-यापार मोक्ष का मुख्य हेतु अर्थात् उपाइन कारण तथा बिना बिलम्ब से फल वेने. वाला हो, उसे योग * कहते हैं । ऐसा व्यापार प्रणिधान आदि शुभ * "मोक्षण योजनादव, योगा पत्र निरुच्यते । लक्षणं तेन तन्मुख्य,-हेतुच्यापार तारय तु ।।१॥
-योगलक्षण विशिफा ।
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भाष या शुभभावपूर्धक की जाने वाली क्रिया है । पातञ्जलयान में चित्त को वृत्तियों के निरोध को योग + कहा है । उसका भी वही मतसब है, अर्थात् ऐसा निरोध मोक्ष का मुख्य कारण है, क्योंकि उसके साथ कारण और कार्य-रूप से शुभ भाव का अवश्य सम्बन्ध होता है।
योग का आरम्म कब से होता है? :-आत्मा अनादि काल से जन्म मृत्यु-के प्रवाह में पड़ा है और उसमें नाना प्रकार के व्यापारों को करता रहता है । इसलिये यह प्रश्न पैदा होता है कि उसके व्यापारको कम से योग स्वरूप माना गया । इसका उत्तर शास्त्र में यह दिया गया है कि जब तक आत्मा मिथ्यात्व से व्याप्त युद्धिवाला, अत एवं विमूढ की तरह उल्टी दिशा में गति करने वाला अर्थात् आरम-- लक्ष्य से भ्रष्ट हो, तब तक उसका व्यापार प्रणिधान अवि शुभ-भाव * : प्रणिधानं प्रवृत्तिश्च, तथा विघ्नजयस्निया । सिद्धिश्न विनियोगश्च, एते कर्मशुमायामाः ।। १० ।।" 'एतैराशययोगैस्तु, विना धर्माय न क्रिया । प्रत्युत प्रत्यपायाय, लोभमोक्रिया यथा ॥ १६॥"
-योगलक्षणहाधिशिका। 1योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । —पातजससूध, पान १, सू० । 1 "मुख्यत्वं चान्तरङ्गत्यात, फलाक्षेपाच्च दशितम् ।
च रमे पुद्गलावते, यत एतस्म संभवः ॥ २ ॥ न सम्मार्गाभिमुख्यं स्या,-दावर्तेषु परेषु तु।। मिथ्यात्वच्छन्नबुद्धीना, दिड् 'मूढानामिवाङ्गिनाम् ॥ ३ ॥
-योगलक्षणवात्रिविका ,
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रहित होने के कारण योग नहीं कहा जा सकता । इसके विपरीत जब से मिथ्यात्व कर तिमिर कम होने के कारण आत्मा को भ्रान्ति मिटने लगती है और उसकी गति सीधी अर्थात् सम्मा के अभिमुख हो जाती है, तभी से उसके व्यापार को प्रणिधान आदि शुभ- भाव सहित होने के कारण' योग' संज्ञा दी जा सकती है। सारांश यह है कि आत्मा के आनादि सांसारिक काल के वो हिस्से हो जाते हैं । एक चरमपुद्गलपरावर्त और दूसरा अचरम पुद्गलपरावर्त कहा जाता है । चरमपुद्गलवरावतं अनादि सांसारिक काल का आखिरी और बहुत छोटा अंश हैं । अघरभपुगलपरावर्त उसका बहुत बड़ा भाग है। क्योंकि चरमपुद्गलपरावर्त को याद करके अनादि सांसारिक काल, जो अनन्तकालचक्र परिमाण है, वह सब अचरमपुद्गलपरावर्त कहलाता है। आत्मा का सांसारिक काल जब चरमपुद्गलपरावर्त - परिमाण बाकी रहता है, तथ उसके ऊपर से मिथ्यात्वमोह का आवरण हटने लगता है । अत एव उसके परिणाम निर्मल होने लगते हैं और क्रिया मी निर्मल भावपूर्वक होती है। ऐसी क्रिया से भाव-शुद्धि और भी बढ़ती है। इस प्रकार उत्तरोत्तर भावशुद्धि बढते जाने के कारण चरमपुद्गलपरावर्तकालीन धर्म व्यापारको योग कहा है । अचरमपुद्गल परावतं कालीन व्यापार न तो शुभभावपूर्वक होता है और न शुभ- माव का कारण हो होता है। इसलिये व परम्परा से मी मोक्ष के न होने के सबब से योग नहीं कहा जाता। पास जलदर्शन में भी अनवि सांसारिक काल के निवृताधिकार प्रकृति और अनिवृत्तिविकार प्रकृति इस
* : 'चरमावतिनो जन्तोः सिद्धेरासम्मता भवम् ।
भूमसोऽभी व्यतिक्रान्तास्तेष्वेको बिन्दुरम्बुधौ ॥ २८ ॥ "
- मुष्य द्वेष प्राधान्यद्वात्रिशिका
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- ४८
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प्रकार दो भेद बतलाये हैं, जो शास्त्र के चरम और अचरम-पुद्गलपरावर्त के जैन समानार्थक * हैं। योग के भेव और उनका आधार.___जैनशास्त्र में + (१) अध्यात्म, (२) भावना, (३) ध्यान, १४) समता और {५) वृत्तियक्षय, ऐसे पांच मेव योग के किये हैं । पातजनदर्शन में योग के (१) सम्प्रज्ञात और (२) असम्प्रज्ञात, ऐसे दो मेव है। । जो मोक्ष का साक्षात्-अस्माहित कारण हो अर्थात् जिसके प्राप्त होने के बाद तुर ही मोक्ष हो, वही यधार्थ में योग कहा जा सकता है। ऐसा योग जनशास्त्र के संकेतानुसार वृत्तिसंक्षय और पात जलवर्शन के संकेतानुसार असम्प्रजात ही है । अत एव यह प्रश्न होता है कि योग के जो इतने भेद किये जाते हैं, उनका आधार क्या है? इसका उत्तर यह है कि अलबत्ता वृतिसंक्षय किंवा असम्प्रज्ञात हो मोक्ष का साक्षात् कारण होने से वास्तव में योग हैं। तथापि वह योग किसी बिकासगामी आत्मा को पहले ही पहल प्राप्त नहीं होता, किन्तु इसके पहले विकास-क्रम के अनुसार ऐसे अनेक आन्तरिक धर्मव्यापार करने पड़ते हैं, जो उत्तरोत्तर चिकास को बढ़ाने वाले और अन्त में उस वास्तविक योग तक पहुंचाने वाले होते हैं । वे सब धर्मव्यापार योग के कारण होने से अर्थात् वृनिसंक्षय या असम्प्रज्ञात * ''योजनाद्योग इत्युक्तो, मोक्षेण निमत्त: मः । स निवृत्ताधिकारियां, प्रकृतो लशतो ध्रुवः ।। १४ ।।"
- अपुनर्बन्धद्धा त्रिदिाका । + "अध्यात्म भावना ध्यानं, समता वृत्तिसंक्षयः ।। योगः पञ्चविधः प्रोक्तो, मोगमार्गविशाग्दैः ।। १ ।।
—योगभेदद्वात्रिशिका । ई दखिये, पाद १, मुत्र १० और १८ ।
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योग के साक्षात् किंवा परम्परा से हेतु होने से योग कहे जाते हैं । सारांश यह है कि योग के मेवों का आधार विकास का क्रम है । afa विकास क्रमिक न होकर एक ही बार पूर्णतया प्राप्त हो जाता तो योग के मेव नहीं किये जाते । अत एव वृतिसंक्षय जो मोक्ष कर साक्षात् कारण है, उसको प्रधान योग समझना चाहिये उसके जो व्यापार योगकोटि में गिने जाते हैं, ये प्रधान योग के कारण होने से योग कहे जाते हैं । इन सब व्यापारों की समष्टि को पातजलदर्शन में सम्प्रज्ञात कहा है और जनशास्त्र में शुद्धि के तर-तम भावानुसार इस समष्टि के अध्यात्म आदि चार व किये हैं। वृत्तिसंक्षय के प्रति साक्षात् किंवा परम्परा से कारण होने वाले व्यापारों को जब योग कहा गया, तब यह प्रश्न चैवा होता है कि ये पूर्वभावी व्यापार कब से लेने चाहिये । किन्तु इसका उत्तर पहले ही दिया गया है कि धरमपुर लपरावर्तकाल से जो व्यापार किये जाते हैं, वे ही योगकोटि में गिने जाने चाहिये । इसका सबब यह है कि सहकारी निमित्त मिलते हो, वे सब व्यापार मोक्ष के अनुकूल अर्थात् धर्म व्यापार हो जाते हैं । इसके विपरीत कितने ही सहकारी कारण क्यों न मिलें, पर अचरमपुदग्लपरावलं - कालीन व्यापार मोक्ष के अनुकूल नहीं होते ।
योग के उपाय और गुणस्थानों में योगावतार:
पातञ्जल वर्शन में (१) अभ्यास और ( २ ) वैराग्य, ये वो उपाय योग के बतलाये हुए हैं। उसमें वैराग्य भी पर अपर रूप से दो प्रकार का कहा गया है * । योग का कारण होने से वैराग्य को योग मानकर जैनशास्त्र में अपर-राग्य को अताविक धर्मसन्यास और परवराज्य को ता
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* देखिये, पाद सूत्र, १२, १४ और १६ ।
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स्विक धर्मसंन्यासयोग कहा " है । जन-शास्त्र में योग का प्रारम्भ पूर्वसेवा से माना गया है। पूर्व सेवा से अध्यात्म, अध्यात्म से भावना, भावना से ध्यान सपा समता, ध्यान तथा समता से वृत्तिसक्षम भौर वृत्तिसंक्षय से मोक्ष प्राप्त होता है । इसलिये वृत्तिसंक्षय ही मुख्य योग है और पूर्व सेवा से लेकर समता पर्यन्त सभी धर्म-व्यापार सरक्षात् किंवा पसर २३ योग : उपायमा । अष्टावा , जो मिथ्यात्व को त्यागने के लिये तत्पर और सम्यक्रव-प्राप्ति के अभिमुख होता है, उसको पूर्वसेवा तायिक रूप से होती है और सकतन्धक, सिन्धक आदि को पूर्वसेवा अतात्त्विक होती है । अध्यात्म और भावना अपुनर्वस्यक तथा सम्यम्हष्टि को व्यवहारनय से तात्विक और देश-विति तथा सर्व-विरति को निश्चयनय से तारिवक होते हैं। अप्रमत्त, सर्वविरति आदि गुणस्थानों में ध्यान तथा समता जप्तरोत्तर सात्विकरूप से होते हैं । वृत्तिसंक्षय तेर
*विषयदोषदर्शनजनितमापात् धर्मसंन्यासलक्षणं प्रथमम्. स तत्त्वचिन्तया विषयौदासीन्येन जनितं द्वितीयापूर्वकरणभावितास्विकधर्मसंन्यासलक्षणं द्वितीयं वैराग्य, यत्र क्षायोपशामिका धर्मा अपि क्षीयन्ते क्षायिकाश्चोत्पद्यन्त इत्यस्माकं सिद्धान्तः ॥" - श्रीयशोविजयजी-कृत पातञ्जल-दर्शनवृत्ति, पाद १०, सूत्र १६ ।..
+"पूर्ष सेवा तु योगस्य, गुरुदेवाविपूजनम् । सदाचारस्तपो मुक्त्य, द्वेषश्चेति प्रकीर्तिताः ॥१॥"
-पूर्व सेवादरनिशिका। *''उपायत्वेऽत्र पूर्वेषा, मन्स्य एवावशिष्यते । तप्पश्चगुणस्थाना, दुपायो गिति स्थितिः ॥३१॥"
--योगभेदहानिधिका।
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हमें और औरहवें गुणस्थान में होता है । सम्प्रज्ञातयोग अध्यात्मसे लेकर ध्यान पर्यन्त के चारों मेहस्वरूप है और असम्प्रभातयोग पृतिसंक्षयरूप है। इसलिये छौथे से बारहवें गुणस्थान तक में सम्प्रशातयोग और तेरहवें -धौरहवें गुणस्थान में असम्प्रतियोग समाना चाहिए ।
*"शुक्लपक्षेन्दुवत्प्रायो, वर्धमानगुणः स्मृतः । भवाभिनन्दिदोपाणा, मपुनर्बन्धको व्यये ॥ १॥ अस्यैव पूर्वसेवोक्ता, मुस्थाऽन्यस्योपचारतः । अस्यावस्थान्तर मार्ग, पतिताभिमुखो पुनः ।। २ ।।"
--अपुनर्बन्धकद्वात्रिशिका । "अपुनर्बन्धकस्यायं, व्यवहारेण तात्त्विक: अध्यात्मभावनारूपो, निश्चयेनोत्तरस्य तु ॥१४।। सदावर्तनादीना, मतात्त्विक उदाहृतः । प्रत्यपायफलप्राय, स्तथा वेषादिमात्रतः ॥१५॥ शुद्ध रपेक्षा यथायोग, चारित्रवत्त एव च । हन्त ध्यानादिको योग, स्तात्त्विकः प्रविजृम्भते ॥१६॥"
-योगविवेकद्वात्रिक्षिका । संप्रशातोऽवतरति, ध्यानभेदेऽत्र तत्त्वत: । तात्त्विकी च समापत्ति, त्मिनो भाव्यतां विना ॥१५॥
असम्प्रज्ञात नामा तु, संमतो वृत्तिसंक्षयः ॥ सर्वतोभ्मादकरण,-नियमः पापगोचरः ॥२१॥"
-योगावतारद्वानिशिका।
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पूर्वसेवा आदि शब्दों की व्याख्या:
[१] गुरु देव आदि पूज्यवर्ग का पूजन, सदाचार, तप और मुक्ति के प्रति द्वेष, यह 'पूर्वसेवा' कहलाती है। [२] उचित प्रवृतिरूप अणुव्रत महाव्रत थुक्त होकर मंत्री आदि भावनापूर्वक जो शास्त्र - नुसार तत्व-चिन्तन करना, वह 'अध्यात्म ' * है । [३] अध्यात्म का बुद्धिसंगत अधिकाधिक अभ्यास हो भावना' । है । [४] अभ्य विषय के संचार से रहित जो किसी एक विषय का धारावाही प्रशस्त सूक्ष्मबोध हो, वह 'ध्यान [५] अविधा से कल्पित जो इष्टअनिष्ट वस्तुएं हैं, उनमें विवेकपूर्वक तस्थ-बुद्धि करना अर्थात् इष्टस्व-अनिष्टस्व की भावना छोड़कर उपेक्षा धारण करमा 'समता' + है । [६] मन और शरीर के संयोग से उत्पन्न होने वाली विकल्परूप तथा चेष्टारूप वृत्तियों का निर्मूल नाश करना 'वृत्तिसंक्षय' X है ।
*"औचित्यान्द्रत्तयुक्तस्य वचनात्तस्वचिन्तनम् |
मादिभाव संयुक्त मध्यात्मं तद्विदो विदुः ॥ २ ॥"
— योगभेदद्वात्रिंशिका |
अभ्यास वृद्धिमानस्य, भावना बुद्धिसंगतः । निवृत्तिरशुभाभ्यासाद्भाववृश्चि तत्फलम् ॥ e ॥”
- योगभेदात्रिशिका |
उपयोगे विजातीय, प्रत्ययाव्यवधानभाक् । शुकप्रत्ययो ध्यानं, सूक्ष्माभोगसमन्वितम् ॥ ११७"
- योगभेदद्वात्रिंशिका |
+ "व्यवहारकुष्टयोचे रिष्टानिष्टेषु वस्तुषु । कल्पितेषु विवेकेन, तत्स्वधीः समतोच्यते ग२शा"
-- योगभेदद्वात्रिशिका |
X"विकल्य स्पन्दरूपाणां वृत्तीनामन्यजन्मनाम् । अपुनर्भावतो रोषः प्रोच्यते वृत्तिसंक्षयः ||२४||
+
- योगभेदात्रिशिका |
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उपाध्याय श्रीयशोविजयजी ने अपनी पतञ्जलसूत्र वृति में वृत्तिसंशय शब्द की उक्त व्याख्या की अपेक्षा अधिक विस्तृत व्याख्ण की है उसमें बुति का अर्थात् कर्मसंयोग को योग्यता का संभय - ह्रास, जो प्रथम से शुरू होकर चौदहवें गुणस्थान में समाप्त होता है, उसी को वृतिसंक्षय कहा है और शुल्कध्यान के पहले वो मेदों में सम्प्रज्ञात का तथा अन्तिम दो मेवों में असम्प्रज्ञात का समावेश किया है ।
योगजन्य विभूतियाँ:
-
योग से होनेवाली ज्ञाम, मनोवल वचनबल, शरीरबल आवि सम्वन्धिनी अनेक विभूतियों का वर्णन पातञ्जल दर्शन में है। जैन, शास्त्र में वैकियल ब्धि, आहारकलब्धि, अवधिज्ञान मनःपर्याय, ज्ञान आदि सिद्धियाँ वर्णित हैं, सो योग का ही फन है ।
*
सू०
१५, ३४.
बौद्धदर्शन में भी आश्मा को संसार, मोक्ष आदि अवस्थाएं मानी हुई है । इसलिये उसमें आध्यात्मिक क्रमिक विकास का वर्णन होना स्वाभाविक हैं । स्वरूपोन्मुख होने की स्थिति से लेकर स्वरूप की पराकाष्ठा प्राप्त कर लेने तक की स्थिति का वर्णन बौद्ध प्रन्थों में है, जो
सू० पे० सू० पे०
६. २, २२.
"
* द्विविषोऽत्मयमध्यात्मभावनाध्यानसमतावृत्तिसंक्षयभेदेन पञ्चधोक्तस्य योगस्य पञ्चमभेदेऽवतरति" इत्यादि,
देखिये, तीसरा विभूतिपाद ।
1 देखिये, आवश्यक नियुक्ति, गा० ६६ और ७० ।
+ देखिये, प्रो० सि० वि०
-पाद १, सू० १८ |
राजवाड़े - सम्पादित मज्झिमनिकाय:
पे० सु० पे०
४,
४८. १०
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पाय विभागों में विभाजित है। इनके नाम इस प्रकार हैं:-(१) धर्मानुसारी, ( २ ) सोतापल ( ३ ) सकवरगामी. ( ४ ) अनागामी और ( ५ ) अरहा । ( १ ) इनमें से 'धर्मानुसारो' या 'श्रद्धानुसारी' बह कहलाता है, जो निर्वाणमार्ग के अर्थात् मोक्षमार्ग के अभिमुख हो, पर उसे प्राप्त न हुआ हो । इसी को जमशास्त्र में 'मार्गानुसारौं' कहा है और उसके पैतीस गुण बतलाये हैं। (२) मोक्षमार्ग को प्राप्त किये हुए मारमाओं के विकास की पूनाषिकता के कारण सोतापस आदि धार विभाग हैं । जो मारमा अविनिपातधर्मा निमत और सम्बोषिपरायण हो, उसको 'सीतापन' कहते हैं । सोतापन आत्मा सातवें जन्म में अवश्य निर्शण पाता है। (३) 'सकवागामी' उसे कहते हैं, जो एक ही शर इस लोक में अम्म ग्रहण करके मोक्ष जानेवाला हो । (४) जो इस लोक में जन्म ग्रहण म करके ब्रह्म लोक से सीधे हो मोक्ष नामेवाला हो, वह 'अनागामी' कहलाता है । (५) जो सम्पूर्ण यात्रवों का क्षय करके कृतकार्य हो जाता है। उसे 'थरहा' । कहते हैं।
धर्मानुसारी आदि उक्त पोष अवस्थाओं का वर्णन मनिझमनिकाय में बहुत स्पष्ट किया हुआ है । उसमें वर्णन किया है कि तत्कासात वत्स, कुछ बड़ा किन्तु भुल वत्स, प्रौढ़ बस्स, हल में जोतने लायक बलवान् बैल और पूर्ण वृषभ जिस प्रकार उसरोत्तर अस्प-अरूप श्रम से गङ्गा नदी के तिरछे प्रवाह को पार कर लेते हैं,
--. ..
* देखिये, श्रीहेमचन्द्राचार्य-कृत योगशास्त्र, प्रकाश १ । + देखिये, प्रो. राजवाड़े संपादित मराठीभाषान्तरित दीघ
निकाय, प० १७६ टिप्पनी । + देखिये, पृ० १५६ ।
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वैसे ही धर्मानुसारी आदि उक्त पाँच प्रकार के आस्मा भी मार - काम के बैग को उत्तरोतर अल्प श्रम से जीत सकते हैं ।
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भा
बौद्ध वस्त्र में दस संयोजनाएँ- बन्धन वणित हैं। इनमें से पाँच 'ओरंभागीय' और पाँच 'उद्भागीय' कही जाती हैं। पहली सोम संयोजनाओं का क्षय हो पर सोना होती है । इसके बाद राग, द्वेष और मोह शिथिल होने से सकदा - गाधी अवस्थर प्राप्त होती है। पांच औरंभागीय संयोजनाओं का नाश हो जाने पर औपपत्तिक अनावृत्तिधर्मा किंवा अनागामीअवस्था प्राप्त होती है और दसों संघोजनाओं का नाश हो जाने पर अरहा पर मिलता है । यह वर्णन जंनशास्त्र-गत कर्म- प्रकृतियों के क्षय के वर्णन जैसा है । सोतापन्न आदि उक्त चार अवस्थाओं का विचार चौथे से लेकर चौदहवें तक के गुणस्थानों के विचारों से मिलता-जुलता है अथवा यों कहिये कि उक्त चार अवस्थाएं चतुर्थ आदि गुणस्थानों का संक्षेप मात्र हैं ।
जैसे जंन शास्त्र में लब्धिका तथा वर्णन है, से ही मौख शास्त्र में भी सिद्धियों का वर्णन है, जिनको उसने 'अभिता' जाएं छह हैं, जिनमें पाँच लौकिक और गयी है ।
योगदर्शन में योगविभूति का माध्यात्मिक विकास कालोन करते हैं । ऐसी अमिएक लोकोत्तर कही
*
( १ ) सककार्यादिदिउ, (२) विचिकिच्छा, ( ३ ) सी लब्बत परामास, ( ४ ) कामराग, (५) पटी, (६) रूपराग ( ७ ) अरूपराग ( ) मान, (e) उद्धन्त्र और (१०) अविज्जा ।
मराठीभाषान्तरित दीघनिकाय, पृ० १७५ टिप्पणी । + देखिये - मराठी भाषान्तरित दोघनिकाय पू० १५६ ।
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बौद्ध शास्त्र में बोधिसत्व का जो लक्षण * है, वहीं जैम-शास्त्र के अनुसार सम्यहष्टिका लक्षण हैं । जो सम्पादि होता है. वह यदि गृहस्थ के आरम्भ समारम्भा आदि कार्यों में प्रवृत्त होता है, तो भी उसकी वृत्ति तप्तलोहपवन्यासवत् अर्थात् गरम लोहे पर रक्खे जाने वाले पैर के समान सकम्प या पाप-मीद होती है। बोद्ध-शास्त्र में में भी बोधिसत्त्व का वैसा ही स्वरूप मानकर उसे कायपाती अर्थात् शरीर मात्र से [[चित्त से नहीं] सांसारिक प्रवृति में पड़ने वाला कहा है । वह चिल्ल पाती नहीं होता ।
-
इति ।
* "कामपातित एवेह बोधिसत्त्वाः परोदितम् । चितस्ताव देवदत्रापि युक्तिमत् १२७१ ॥
J
r
"एवं च यत्परं रुक्तं बोधिसत्वस्य लक्षणम् । विचार्यमाणं सन्नीत्वा तदप्यत्रोपपद्यते ॥ १० ॥ तप्तलोहपदन्यास - तुल्यावृत्तिः कचिद्यदि ।
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इत्युक्तेः कायात्येव चितपाती न स स्मृतः ॥ ११ ॥
-
योगबिन्दु ।
- सम्यग्वष्टाशिना ।
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श्रीवीतरागाय नमः । श्रीवेवेन्द्रसूरिविरचित 'षडशीतिक' नामक
चौथा कर्मग्रन्थ ।
मंगल और विषय ।
नमिय जिणं जिलमग्गण, गुणठाणुख ओगजोगलेसाओ । बंधप्पबहुभावे, संखिज्जाई किमवि बुच्छं ॥ १ ॥ नत्वा जिनं जीवमागंणागुणस्थानोपयोगयोगले श्या: । बन्धाल्पबहुत्वभावान् संख्यादीन् किमपि वक्ष्ये ॥ १ ॥
अर्थ - श्रीजिनेश्वर भगवान् को नमस्कार करके जीवस्थान, मार्गणास्थान, गुणस्थान, उपयोग, योग, लेश्या, बन्ध, अल्पबहुत्व, भाव और संख्या आदि विषयों को में संक्षेप से कहूँगा ।। १ ।।
भावार्थ - इस गाथा में चौदह विषय संगृहीत हैं, जिनका विचार अनेक रीति से इस कर्मग्रन्थ में किया हुआ है। इनमें से जीवस्थान आदि दस विषयों का कथन तो गाथा में स्पष्ट ही किया गया है. और उदय, उदीरणा, सत्ता और बन्धहेतु, ये चार विषय 'वन्ध' शब्द से सूचित किये गये हैं ।
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इस अन्य के तीन विभाग है:-(१) जोवस्थान, (२) मागणास्थान और (३) गुणस्यान । पहले विभाग में जीवस्थान को लेकर आठ विषय का विचार किया गया है। यथा:-(१) गुणस्थान, (२) योग, (३) उपयोग, (४) लेश्या, (५) बन्ध, (६) उज्य, (७) उचोरणा और (6) सत्ता । दूसरे विभाग में मार्गणास्थान पर छह विषयों की विवेचना की गई है:(१) जीवस्थान, (२) गुणस्थान, (३) योग, [४) उपयोग, (५) लेश्या और (६) अल्पवस्व । तीसरे दिमाग में गुणस्थान को लेकर बारह विषयों का वर्णन किया गया है:--(१) जीवस्याल, (२) योग, (३) उपयोग, (४) लेण्या, (५) बनवहे. (६) अन्ध, (७) उबय, (८) उवीरणा, (६। सत्ता, (१०) अल्पमहत्व, (११) भाव और (१२) संख्यात आदि संख्या ।
१.. इन विषयों की संग्रह-गाधायें ये हैं:--
"नमिय जिणं वत्सन्चा, चउदसजिलठाणए सु गुणाणा । जोगुवांगो लेसा, बंधुदओदीरणा सत्ता |॥ १ ॥ सह मूल चउपमग्गण,---ठाणेसु बासट्टि उत्तरेसु च । जिअगुणजोगुवओगा, लेसणबहुं च छळाणा ।। २ ।। चउदसगुणेसु जिअजो, गुवोगलेसा प बंघहेऊ य ।
बंश्राइच अप्पा, बहु च तो भावसंलाई ।। ३ ।।"
ये गाथायें श्रीजीवविजयजी-कृत और श्रीजयसोमसूरि-कृत टवे में हैं। इनके स्थान में पाठान्तरबाली निम्नलिखित तीन गाथायें प्राचीन चतुर्थ कर्मअन्य हारिमद्री टीका, श्रीदेवेन्द्र सूरिकृत स्वोपज्ञ टीका और श्रीजयसोमसूरिकृप्त टबे में भी हैं:
"उदसजियठाणेसु, चउदसगुणठाणगाणि जोगा य । उपयोगले सबंधुद, ओदीरणसंत अपए ।। १ ।।
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जीवस्थान आदि विषयों की व्याख्या | (१) जीवों के सूक्ष्म बायर आदि प्रकारों (भेदों) को 'जीवस्थान', कहते हैं। द्रव्य और भाव प्राणों को जो धारण करता है, वह 'जीव' है । पाँच इन्द्रियाँ तीन वल, श्वासोच्छवास और आयु, ये दस प्रथपप्राण हैं, क्योंकि वे बड़ और कर्म- जभ्य हैं। ज्ञान, दर्शन आदि पर्याय जो जीव के गुर्गों के ही कार्य हैं, वे भावप्राण हैं। जीव की यह व्याया संसारी वस्था को लेकर की गई है, क्योंकि जीवस्थानों में संसारी जीवों का ही समावेश है। अत एव वह मुक्त जीवों में लग्गू नहीं पड़
चउदसग्गणठणे, मूलपएस बिसद्धि इयरेसु । जियगुणजोगुबओगा, लेसप्पबहु व छठाणा ॥ २ ॥ चउदसगुण ठाणेसु, जिमजोगुवओगलेसबंधा य । बंधुदयुदीरणाओं, संतप्पबहु च दस ठाणा ॥ ३ 11'
१- - जीवस्थान के अर्थ में 'जीबसमास' शब्द का प्रयोग भी दिगम्बरीय
-
साहित्य में मिलता है। इसकी व्याख्या उसमें इस प्रकार है:
---
'जेहि अया जीवा, गज्जते बहुविहा वि तज्जादी ।
ते
पुण संगहिदत्था, जीवसमासा त्ति विष्णेया ॥७०॥ तसच दुजुगाणमज्झे, 'अविरुद्धेहि जुबजादिकम्मुदये । जीवसमासा होंति हु, तबभवसारिच्छसामण्णा ॥ ७१ ॥
"
-- जीवकाण्ड |
जिन धर्मों के द्वारा अनेक जीव तथा उनकी अनेक जातियों का बोष होता है, वे 'जीवसमास' कहलाते हैं ॥७०॥ तथा स, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक युगल में से अविरुद्ध नामकर्म (जैसे-सूक्ष्म से अविरुद्ध स्थावर) के उदथ से युक्त जाति नामकर्म का उदय होने पर जो कता सामान्य जीवों में होती है, वह 'जीवसमास' कहलाता है ।। ७१ ॥
कालक्रम से अनेक अवस्थाओं के होने पर भी एक ही वस्तु का जो पूर्वापर सादृश्य देखा जाता है, वह 'ऊर्ध्वता सामान्य है । इससे उलटा एक समय में ही अनेक वस्तुओं की जो परस्पर समानता देखी जाती है, वह 'तिर्यक्सामान्य' है ।
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.- ४
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सकती । मुक्त जीव में निश्चय हष्टि से की गई ध्याख्या घटती है। जैसे:--जिसमें नेतना गुण है, वह 'जीव' इत्यादि हैं।
(२) मार्गणा के अर्थात् गुणस्यान, योग, उपयोग आदि की विधारणा के स्थानों ( विषयों ) को 'मार्गणास्थान' कहते हैं। जीव के गति इन्द्रिय आदि अनेक प्रकार के पर्याय ही ऐसे स्थान हैं, इसलिये ये मागंणास्थान कहलाते हैं।
(३) ज्ञान, वर्शन, चरित्र आदि गुणों की शुद्धि तथा अशुद्धि के तरतम-भाव से होने वाले जीव के भिन्न भिन्न स्वरूपों को गुणस्थान' कहते हैं। १--"तिक्काले च पाणा, इंदियबल माउआणपाणो य । बवहारा सी जीवों, णिच्छमणयदो दुवेदणा जस्स ||३||"
--द्रव्यसंग्रह। २--इस बात को गोम्मटसार-जीवकाण्ड में भी कहा है:--
"जाह व जासु व जीवा, मगिज्जते जहा तहा दिछा । ताओ चोदम जाणे, सुयणाणे मागणी होति ।।१४०॥"
जिन पदार्या के द्वारा अथवा जिन' पर्यायों में जीयों की विचारणा, सर्वज्ञ , दृष्टि के अनुसार की जाने, वे पर्याय 'मार्गणास्थान' है।
___ गोम्मटसार में विस्तार' 'आदेश' और 'विशेष', ये तोन दाब्द मार्गणास्थान के नामान्तर माने गये हैं। --जीना, गा० ३ । ३--इसकी व्याख्या गम्मिटसार-जीवकाण्ड में इस प्रकार है:--
"जेहि दु लक्खिज्जते, उदयादिसु संभवेहिं भावहिं ।
जौवा ते गुणस प्रणा, णिहिट्ठा सनद रसीहि ।।।" दर्शनमोहनीय तधा चारित्रमोहनीय के औदायक आदि जिन भावों (पर्यायों ) के द्वारा जीव का बोध होता है, वे भाव 'गुणस्थान' है।
गोम्मटसार में संक्षेप', 'ओध', 'सामान्य' और 'जीवसमास, ये चार शब्द गुणस्थान के समानार्थक हैं । ---जी०, गा० ३ तथा १० ।
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जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान, ये सब जीव को अवस्थायें हैं, तो भी इनमें अन्तर यह है कि जीवस्थान, जाति-नामकर्म, पर्याप्त नामकर्म और अपर्याप्त नामकर्म के श्रीयिक साथ है; मार्गणास्थान, नाम, मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और बेवनीयकर्म के औदायिक आदि भावरुप तथा पारिणामिक भावरूप हैं और गुणस्थान, सिर्फ मोहनीय कर्म के औदधिक, क्षायोपशमिक ऑपशमिक और क्षायिक भावरूप तथा योग के भावाभावरूप हैं |
(४) चेतना-शक्ति का बोधरूप व्यापार, जो जीव का असाधारण स्वरूप है और जिसके द्वारा वस्तु का सामान्य तथा विशेष स्वरूप जाना जाता है, उसे 'उपयोग" कहते हैं ।
(५) मन, वचन या काय के द्वारा होनेवाला श्रीयं शक्ति का परिस्पन्व -आत्मा के प्रदेशों में हलचल (कम्पन ) - 'योग' है ।
(६) आत्मा का सहजरूप स्फटिक के समान निर्मल है । उसके भिन्न भिन्न परिणाम जो कृष्ण, नील आदि अनेक रंगवाले पुद्गलविशेष के असर से होते हैं, उन्हें 'लेश्या' कहते हैं" ।
(७) मामा के प्रदेशों के साथ कर्म-पुगलों का जो दूध-पानी के समान सम्बन्ध होता है, वही 'बन्ध' कहलाता है । नट, मिध्यात्व आदि हेतुओं से होता है।
१- गोम्मटसार जीवकाण्ड में यही व्याख्या है ।
"बत्थु निमित्तं भावो आवो जीवस्स जो हु उबजोगो ।
सो बुविहो गायष्यो सायारो चैत्र णायारो ॥६७१ ।। "
२ - देखिये, परिशिष्ट 'क'
३. कृष्णादिस्य साचिव्यात्परिणामोऽयमात्मनः ।
स्फटिकस्येव तत्रयं लेश्याशब्दः प्रवर्तते ॥ "
+
यह एक प्राचीन श्लोक है। जिसे श्रीहरिभद्रसूरि ने आवश्यक टीका पृष्ठ
६
* पर प्रमाण रूप से लिया हैं ।
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―er
(८) बंधे हुए फर्म- वलिकों का विपाकानुभव ( फलोदय ) "उदय" कहलाता है। कभी तो भाषाकाल पूर्ण होने पर होता है और कभी नियत अबाधाकाल पूर्ण होने के पहले ही अपना' आणि करण से होता है ।
(e) जिम कर्म- दलिकों का उदयकाल न आया हो उन्हें प्रयत्नविशेष से खींचकर दम्कालीन स्थिति से हटाकर उपलिका में बरखिल करना 'उदीरणा' कहलाती है।
(१०) बन्धन' या संक्रमण' करण से जो कर्म- पुद्गल, जिस कर्मरूपमें परिणत हुये हों, उनका, निर्जरा" या संक्रम' से रूपान्तर न होकर उस स्वप में बना रहना 'सरत है ।
१ - बंधा हुआ कर्म जितने काल तक उदय में नहीं आता, वह 'अबाधाकाल' है ।
२ - कर्म के पूर्व वद्ध स्थिति और रस, मिस वीर्य-शक्ति से घट जाते हैं, उसे अपनाकरण कहते हैं ।
३- जिस वीयं विशेष से कर्म का बन्च होता है, वह 'बन्धनकरण' कह लाता है ।
४- जिस वीर्य विशेष से एक कर्म का अन्य सजातीय कर्मरूप में संक्रम होता है, वह 'संक्रमणकरण' है ।
५ -- कर्मपुद्गलों का आत्म-प्रदेशों से अलग होना 'निर्जरा' है ।
६ - एक कर्म रूप में स्थित प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश का अन्य सजातीय कर्मरूप में बदल जाना 'संक्रम' है ।
७- बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता के ये ही लक्षण यथाक्रम से प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्म के भाष्य में इस प्रकार है.
"जीवस्त पुण्गलाण व जुग्गाण पत्परं अमेएवं
-
मिच्छ ( इहेउ विशिया, जा घडणा इश्य सो बंधो ॥ ३० ॥ करणेण सहावेगम णिइवचए तेसिमुरत्ताणं ।
जं बेवणं विवागेन सोउ उदओ बिणामिहिओ ।। ३१ ।।
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(११) मिध्यात्व अवि जिन वैभाषिक परिणामों से कर्म-योग्य पुद्गल, कर्म-रूप में परिणत हो जाते हैं, उन परिणामों को 'बन्धहेतु' कहते हैं ।
(१२) पदार्थों के परस्पर न्यूनाधिक भाव को 'अल्पबहुत्व' कहते हैं । (१३) जीव और अजीव की स्वाभाविक या वैभाविक अवस्थाको 'भाव' कहते हैं।
(१४) संख्यात, असंख्यात और अनन्त, ये तीनों पारिभाषिक संज्ञायें हैं ।
विषयों के क्रम का अभिप्राय
सबसे पहले जीवस्थान का निवेश इसलिये किया है कि यह सबमें मुख्य है, क्योंकि मार्गणास्थान आदि अन्य सब विषयों का विचार जीव को लेकर ही किया जाता है। इसके बाद मार्गणास्थान के निर्देश करने का मतलब यह है कि जीव के व्यवहारिक या परमाfue स्वरूप का बोष किसी-न-किसी गति आदि पर्याय के ( मार्गणास्थान के द्वारा हो किया जा सकता है। मार्गशास्थान के पश्चात् गुणस्थान के निवेश करने का मतलब यह है कि जो जीव मार्गेणास्थानवर्ती हैं, वे किसी-न-किसी गुणस्थान में वर्तमान होते ही हैं।
कम्माणं जाए, करणविसेसेण विश्वचयभावे ।
जं उदया बलियाए पवेसण मुदीरणा ऐह ।। ३२ ।।
"
बंधण संकमल - तल हक मस्स स्वअविणासो |
निज्ञ्जरण संकमेहि, सम्भावो जो थ सा सत्ता ॥ ३३ ॥
१- आत्मा के कर्मोदय-जन्य परिणाम' वैभाविक परिणाम' हैं जैसे क्रोध आदि
२ -- देखिये, आगे गाया ५१-५२ ।
३- देखिये आगे गा० ७३ से आगे ।
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गुणस्थान के बाद उपयोग के निर्देश का तात्पर्य यह है कि जो उपयोगवान हैं, उन्हीं में गुणस्थानों का सम्भव हैं। उपयोग-शूग्य आकाशा आदि में नहीं । उपयोग के अनन्तर योग के कथन का आशय यह है कि उपयोग वाले बिना योग के कर्म-ग्रहण नहीं कर सकते । जैसे:- सिद्ध । योग के पीछे लेश्या का कथन इस अभिप्राय से किया है कि योगद्वारा ग्रहण किये गये कर्म-पुबगलों में भी स्थितिबन्ध व अनुभागबन्ध का निर्माण लेश्या ही से होता है। लेश्या के पश्चात् बन्ध के निर्देश का मतलब यह है कि जो जीव लेश्या-साहित हैं, वे हो कर्म बांष सकते हैं । बन्ध के बाव अल्पबहत्व का कथन करने से ग्रन्धकार का तात्पर्य यह है कि बन्ध करने वाले जीव, मार्गणस्थान आदि में वर्तमान होते हुए आपस में अवश्य न्यूनाधिक हुआ करते हैं । अल्पमहत्व के अनन्तर भाव के कहने का मतलब यह है कि जो जीव अल्पबहत्व वाले हैं, उनमें औपशमिक प्राधि किसी-न-किसी भाव का होना पाया हो जाता है । भाव के बाद संस्पात आदि के कहने का तात्पर्य यह है कि भाववाले जीवों का एक दूसरे से जो अल्पबहत्व है, उसका वर्णन संस्थात, अप्स्यात आवि संख्या के द्वारा ही किया जा सकता है।
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(१)-जीवस्थान-धिकार।
जीवस्थान । इह सुहमन्त्रायरेगि, दिबितिचउअसंनिसनिधिदी । अपजत्ता पज्जता, कमेण च दस जियट्ठाणा ॥२॥
इस सूक्ष्मवादरैकेन्द्रियदि त्रिचतुरसंशिपञ्चेन्द्रियाः ।
अपत्तिा; पताः , क्रमण चतुर्दश जीवस्थानानि ॥ २ ॥ अर्थ- इस लोक में सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एफेन्द्रिय,न्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुररिन्द्रिय, असं शिपञ्चेन्द्रिय और संज्ञिपञ्चेन्द्रिय, ये सातों भेद पर्याप्त अपर्याप्तरूप से दो दो प्रकार के हैं. इसलिये जोध के कुल स्थान ( भेद ) चौवह होते हैं ॥ २ ॥
भावार्थ- यहां पर जीव के चौदह मेव विखाये है, सो संसारी अवस्था को लेकर । जीवत्वरूप सामान्य धर्म को अपेक्षा से समानता होने पर भी व्यक्ति की अपेक्षा से जीव अनन्त हैं। इनकी कर्म-जन्य अवस्थायें भी अनन्त हैं। इससे व्यक्तिशः ज्ञान-सम्पावन करना छास्थ के लिये सहज नहीं। इसलिये विशेषदर्शी शास्त्रकारों ने सूक्ष्म ऐकेन्वियित्व आवि जाति की अपेक्षा से इनके चौवह वर्ग किये हैं, जिनमें सभी संसारी जीवों का समावेश हो जाता है ।
सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव के हैं, जिन्हें सूक्ष्म नामकर्म का उदय हो । ऐसे जीव सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। : नफा शरीर इतना सूक्ष्म होता
१- यही गाथा प्राचीन चतुर्थ वर्मग्रन्ध में ज्यों की त्यों है । २--ये भेद, पनसंग्रह द्वार २, मा० ८२ में हैं।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
है कि यदि ये संख्यातीत इकट्टे हों तब भी इन्हें भी देख नहीं सकती: अत एल इनको व्यवहार के अयोग्य कहा है।
बावर एकेन्द्रिय जीव के हैं, जिनको बाबर नामकर्म का उदय हो। ये जीव, लोक के किसी किसी भाग में नहीं भी होते; जैसे, अविससोने, चांदी आदि वस्तुओं में । यद्यपि पृथिवी-काधिक आदि वावर एकेन्द्रिय जीव ऐसे हैं, जिनके अलग अलग शरीर, आंखों से नहीं चीखते; तथापि इमका शारीरिक परिणमन ऐसा काबर होता है कि जिससे वे समुवायरूप में विखाई देते हैं । इसी से इन्हें व्यवहार-योग्य फहा है । सूक्ष्म या बादर. समो एकेन्द्रियों के इन्द्रिय, केवल स्वचा होती है । ऐसे जीव, पृथिवीकायिक आदि पांच प्रकार के स्थावर ही हैं।
तोनिद्रय थे हैं, जिनके स्वचा, जीभ, ये वो इन्द्रियाँ हों; ऐसे जीव शख, सीप, कृमि आदि हैं।
श्रीन्नियों के स्थमा, जीभ, नासिका, ये तीन इन्द्रियां है। ऐसे जीव , खटमल आदि हैं।
चतुरस्तियों के उक्त तीन और आंख, ये घार इन्द्रियाँ हैं । भौरे, बिच्छू आषि की गिनती पतुरिन्त्रियों में ।।
पञ्चेन्धियों को उक्त चार इन्द्रियों के अतिरिक्त काम भी होता है। मनुष्य, पशु, पक्षी आदि पञ्चेन्द्रिय हैं । पञ्चेन्निय वो प्रकार के हैं - (१) असंक्षी और १२) संजी। असंशी वे है, जिन्हें संज्ञा न हो । संक्षी वे है, जिन्हें संज्ञा हो। इस जगह संज्ञा का मतलम उस मानस शक्ति से है, जिससे किसी पवार्थ के स्वभाष का पूर्वापर विचार म मनुसम्मान किया जा सके ।
हीन्द्रिय से लेकर पञ्चप्रिय पर्यन्त सब तरह के जोन भावर तथा बस ( चलने-फिरने वाले ) ही होते हैं।
१-- देखिये, परिशिष्टम' । . ... । २- देखिये। परिशिष्ट 'ग'. . . . . :! .
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एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय पर्यन्त उक्त सब प्रकार के लो अपर्याप्त', पर्याप्त इस तरह वो दो प्रकार के होते हैं । (क) अपर्याप्त दे हैं, जिन्हें अपर्याप्त नामकर्म का उदय हो । (ख) पर्याप्त वे हैं, जिनको पर्याप्त नामकर्म का उदय हो ||२||
( १ - जीवस्थानों में गुणस्थान ।
2
११
बायरअसंनिविगले, अज्जि पदमविय संनि अपअत्तं । अजयजुअ संनि पज्जे, सव्वगुणा मिच्छ सेसेसु || ३ || बादरासंज्ञिविकलेऽप्पर्याप्त प्रथमादिक संज्ञित्यपर्याप्ते | अयुतं संज्ञिनि पर्याप्ते, सर्वगुणा मिध्यात्वं दशेषेषु ॥ ३ ॥ अर्थ - अपर्याप्त वावर एकेन्द्रिय, अपर्याप्त असंशिपञ्चेन्द्रिय और अपर्याप्त विकलेन्द्रिय में पहला दूसरा दोही गुणस्थान पाये जाते हैं । अपर्याप्त संशिपचेन्द्रिय में पहला, दूसरा और चौथा, ये तोन गुणस्थान हो सकते हैं। पर्याप्त संज्ञिपञ्चेन्द्रिय में सब गुणस्थानों का सम्भव है। शेष सात जीवस्थानों में- अपर्याप्त तथा पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, पर्याप्त बाहर एकेन्द्रिय, पर्याप्त असज्ञि पञ्चेन्द्रिय और पर्याप्त विकलेनिय श्रय में पहला हो गुणस्थान होता है ॥ ३ ॥
भावार्थ - बावर एकेन्द्रिय, असंज्ञिपञ्चेन्द्रिय और तीन विकलेविय, इन पांच अपर्याप्त जीवस्थानों में दो गुणस्थान कहे गये हैं; पर इस विषय में यह जानना चाहिये कि दूसरा गुणस्थान करण-अपर्याप्तमें होता है, लकिन अपर्याप्त में नहीं; क्योंकि सास्थावनसम्यग्दृष्टि वाला जीव लब्धि अपर्याप्तरूप से पैदा होता ही नहीं । इसलिये करण
,
१ - देखिये, परिशिष्ट व
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कर्मग्रन्थ भाग चार
अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय आदि उक्त पांच जीवस्थानों में दो गुणस्थान और लग्-ि अपर्याप्त बावर एकेन्द्रिय आवि पोषों में पहला ही गुणस्थान समझना चाहिये ।
बादर एकेन्द्रिय में वो गुणस्थान कहे गये हैं सो भी सब बावर एकेत्रियों में नहीं किन्तु पृथिवीकायिक, जलकाक और वनस्पतिकायिक में क्योंकि तेजःकायिक और वायुकायिक जीव, चाहे वे बादर हों पर उनमें ऐसे परिणाम का सम्भव नहीं जिससे सास्वावनसम्यक्त युक्त जीव उनमें पैदा हो सके। इसलिये सूक्ष्म के समान बायर तेज- कायिक- बाधुकायिक में पहला ही गुणस्थान चाहिये । इस जगह एकेन्द्रियों में दी गुणस्थान पाये जाने का कथन है, सो कर्म प्रत्थ के मतानुसार; क्योंकि सिद्धान्त में एकेन्द्रियों को पहला ही गुणस्थान माना है ।
समझना
१२
"
अपर्याप्त संज्ञि पञ्चेन्द्रिय में तीन गुणस्थान कहे गये हैं, सो इस अपेक्षा से कि जब कोई जीव चतुथं गुणहयान सहित मर कर संज्ञिपञ्चेन्द्रियरूप से पैदा होता है तब उसे अपर्याप्त अवस्था में चौथे ' गुणस्थान का सम्भव है । इस प्रकार जो जीव सम्यक्त्वका त्याग करता हुआ सास्वादन भाव में वर्तमान होकर संज्ञिपञ्चेन्द्रियरूप से पैदा होता है, उसमें शरीर पर्याप्त पूर्ण न होने तक दूसरे गुणस्थाम कर सम्भव है और अन्य सब संज्ञि पञ्चेन्द्रिय जीवों को अपर्याप्त अबस्था में पहला गुणस्थान होता ही है । अपर्याप्त संज्ञि पञ्चेन्द्रिय में तीन
I
-
१ - - देखिये ४३ वीं गाथा की टिप्पणी ।
२ - गोम्मटसार में तेरहवें गुणस्थान के समय केवलसमुद्रात अवस्था में योग की अपूर्णता के कारण अपर्याप्तता मानी हुई है, तथा छरे गुणस्थान के समय भी आहारकमिश्र काययोग दशा में आहारक शरीर पूर्ण न बन जाने तक अपना मानी हुई है। इसलिये गोम्मटसार जीन० गा० ११४ - ११६ ) में नित्यपर्याप्त और श्वेताम्बरसम्प्रदाय प्रसिद्ध
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गुणस्थानों का सम्भव विखाया, सो करण-अपर्याप्त में; क्योंकि लब्धिअपर्यात में तो गले में वो मान पी. योग्यता ही नहीं होती।
पर्याप्ति संजि-पञ्चेन्द्रिय में सब गुणस्थान माने जाते हैं । इसका कारण यह है कि गर्भज मनष्य, जिसमें सब प्रकार के शुभाशुभ तथा शुद्धाशुद्ध परिणामों की योग्यता होने से चौवहीं गुणस्थान पाये जा सकते हैं, वे संक्षिपञ्चेत्रिय हो हैं। ___ यह शङ्का हो सकती है कि संजि-पञ्चे स्त्रिय में पन्नुले बारह गुणस्थान होते हैं, पर तेरहवा पौवां , ये दो गुणस्थान नहीं होते । क्योंकि इन वो, गुणस्थानों के समय संजिस्व का अभाव हो जाता है । उस समय क्षायिक ज्ञान होने के कारण क्षायोपशामिक ज्ञानात्मक संज्ञा, जिसे 'भावमन' भी कहते हैं, नहीं होती । इस शङ्का का समाधान इतना ही है कि संझि-पञ्नेत्रिय में तेरह।, चौदहवें गुणस्थान का जो कथन है सो द्रव्यमन के सम्बन्ध से संशित्व का व्यवहार अङ्गीकार करके; क्योंकि भावमन के सम्बन्ध से जो संजी हैं, उनमें बारह हो गुणस्थान होते हैं। करण-अपर्याप्त ) संज्ञि-वेन्द्रिय में पहला, दुमरा, चौथा, छठा और तेरहवा, ये पांच गुणस्थान कहे गए हैं।
इस कर्मग्रन्थ' में करण-अपयाप्त संज्ञि'पन्चेन्द्रिय में तीन गुणस्थानों का कथन है, सो उत्पत्तिकालीन अपर्याप्त-अवस्था को लेकर । गोम्मटसार में पाँच गुणस्यानो का कथन है, सो उत्पत्तिकालीन, लब्धिकालीन उभय अप. र्याप्त अवस्था को लेकर 1 इस तरह ये दोनों कथन अपेक्षाकृत होने से आपस में विरुद्ध नहीं है।
लब्धिकालीन अपर्याप्त-अवस्था को लेकर संज्ञी में गुणस्थान का विचार करना हो तो पांचवां गुणस्बान भी गिनना चाहिये, क्योंकि उग गुणस्थान में व िकयलब्धि से वक्रियशरीर रच जाने के समय अपर्याप्त-अवस्था पायी जाती है।
१–यही बात सप्ततिकाणि के निम्नलिखित पाय से स्पष्ट होती है:
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अपर्याप्त तथा पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय आवि चपयुक्त शेष सात जोवस्थानों में परिणाम ऐसे संक्लिष्ट होते हैं कि जिससे जनमें मिथ्यात्व के सिवाय अन्य किसी गुणस्थान का सम्मय नहीं है ॥३॥
"मणकरण केलिणो वि अत्यि, तेन संनिणो भन्नति, मनोविन्नाणं पहुच्च से संनिणो न भवति ति ।"
केवली को भी द्रव्यमन होता है. इससे वै संजी कहे जाते हैं, परन्तु मनोज्ञान की अपेक्षा से वे संज्ञी नहीं है । केवली अवस्था में द्रव्यमानके सम्बन्ध से संजित्व का व्यवहार गोम्मटसार जीवकाण्ड में भी माना गया है । यथा -
"मणसहियाणं वयणं, बिटु तप्पुष्यमिदि समोगन्हि । उत्तो मणोक्यारे, -णिविय णाणेण होणमिह ।।२२७।। अंगोवंगदयादो, वस्वमपट्ट जिणि वचंम्हि । मणवरगण खंषाण, आगमणा दो मण जोगो ॥२२८।।
संयोगीवावली गुणस्थान में मन न होने पर भी बचन होने के कारण उपचार से मन माना जाता है; उपचार का कारण यह है कि पहले गुणस्थानों में मनवालों को वचन देखा जाता है ॥२२॥
जिनेश्वर को भी द्रव्यमान के लिये अङ्गोपाङ्ग नामवमं के उदय से मनोवगंणा के स्कन्धों का आगमन हुआ करता है। इसलिये उन्हें मनोयोग कहा है ॥२२॥
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( २ ) - जीवस्थानों में योगं । [ वो गाथाओं से । ] अपत्तछषिक कम्सुर, लमोसजोगा अपज्जसंनीसु । ते सविजयमीस प्रसु तणु पज्जेसु उरलमन्ने || ४ ||
अपर्याप्तषट् के कार्मणौदारिकमि वयोगावतसंशिपु । तो सर्व क्रियामिश्रावेषु तनुपर्याप्तेष्वौदारिकमन्ये ॥४॥
१५.
अर्थ - अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त विकसत्रिक और अपर्याप्त असंति पञ्चेन्द्रिय, इन वह प्रकार के जीवों में कामंक और औतारिकमिश्र, ये दो ही योग होते हैं । अपर्याप्त संज्ञि-पश्रिय में कामंण, औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र, ये तीन योग पाये जाते है । अन्य आचार्य ऐसा मानते है कि उक्त सातों प्रकार के अपर्याप्त जीव, जब शरीरपर्याप्ति पूरी कर लेते हैं. तब उन्हें मौवारिक काययोग हो होता है, औदारिकमिश्र नहीं" ॥
J
भावार्थ - सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि उपर्युक्त छह अपर्याप्त जीवस्थानों में कार्मण और औवारिकमिश्र दो ही योग माने गये हैं। इसका कारण यह है कि सब प्रकार के जीवों को अन्तराल गति में तथा जन्म-ग्रहण करने के प्रथम समय में कार्मणयोग ही होता है; क्योंकि उस समय ओदारिक आदि स्थूल शरीर का अभाव होने के कारण योग प्रवृत्ति केवल कार्मणशरीर से होती है । परन्तु उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर स्वयोग्य पर्याप्तियों के पूर्ण वन जाने तक मिश्रयोग होता है; क्योंकि उस अवस्था में कार्मण और औवारिक आदि
।;
१- यह विषय पञ्चस्ता० द्वा०] १. गाव. ६-७ में है ।
!
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१६
स्थूल शरीर को मदद से योगप्रवृति होती है ।" आदि छहों जीवस्थान औवारिक शरीर वाले ही हैं, अपर्याप्त अवस्था में कार्मणकाययोग के बाद औवारिक मिश्र काययोग ही होता है । उक्त जीवस्थान अपर्याप्त कहे गये हैं । सो विध तथा करण दोनों प्रकार से अपर्याप्त समझने चाहिये ।
अपर्याप्त संजि-पञ्चेन्द्रिय में मनुष्य, तियं देव और नारक सभी सम्मिलित हैं। इसलिये उसमें कार्मणकामयोग और कार्मणकाययोग के बाद मनुष्य और निर्यञ्च की अपेक्षा से औवारिकमिश्रकाप्रयोग तथा देव और नारक की अपेक्षा से क्रियमिश्रकाययोग, कुल तीन योग माने गये हैं ।
गाथा में जिस मतान्तर का उल्लेख है, वह शीलाङ्क आदि आचाप का है । उनका अभिप्राय यह है कि शरीरपर्याप्ति पूर्ण बन जाने से शरीर पूर्ण बन जाता है । इसलिये अन्य पर्याप्सियों की पूर्णता न होने पर भी जब शरीर पर्याप्त पूर्ण बन जाती है तभी से मिश्रयोग नहीं रहता; किन्तु मौवारिक शरीरवालों को औदारिककायोग और क्रियशरीर वालों को वैक्रियकाययोग हो होता है !" इस मतान्तर के अनुसार सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि छह अपर्याप्त जोव स्थानों में कामंण, औवारिक मिश्र और औवारिक, ये तीन योग और
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सूक्ष्म एकेन्द्रिय इसलिये उनकी
"
-
१ - जैसे
"औदारिकयोगस्तिग्मनुजयोः शरीरपर्याप्तरूध्वं तदा
रतस्तु
मिश्रः । " आचारङ्ग - अध्य०२, उ ० १ को टीका पृ० २४ । यद्यपि मतान्तर के उल्लेख में गाथा में 'उरलं' पद ही है; तथापि वह वैकिकाययोग का लक्षक (सुचक ) है | इसलिय क्रियशरीरी देवनारकों को शरीर पर्याप्ति पूर्ण बन जाने के बाद अपर्याप्त दशा में वैक्रियकानयोग समझना चाहिये ।
इस मतान्तर को एक प्राचीन गाया के आधार पर श्रीमनिरिजी ने पञ्चसंग्रह द्वा॰ १. गा० ६-७ की वृति में विस्तारपूर्वक दिया है ।
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कर्मग्रन्थ भाग घार
अपर्याप्त संक्षि-पञ्चेन्द्रिय में उक्त तीन तथा वैशियमिश्र और क्रिय, कुल पनि योग समझने चाहिये ।"
उक्त मतान्तर के सम्बन्ध में टीफा में लिखा है कि यह मत युक्तिहोन है। क्योंकि केवल शरीरपर्याप्ति बन जाने से शरीर पूरा नहीं बनता; किन्तु उसकी पूर्णता के लिये स्त्रोग्य सभी पर्याप्तियों का पूर्ण बन जाना आवश्यक है। इसलिये शरीरपर्याप्ति के बाद भी अपर्याप्त-अषस्था पर्यन्त मिश्र योग मानना युक्त है ॥४॥
सन्चे सनिपजत्ते, उरलं सुहमे सभासु तं चउसु । बायरि सविउतियदुर्ग, पजस निसु बार उवओगा ॥५॥ सयें संशिनि पर्याप्त औदारिकं सक्ष्मे सभाष तच्चतुषु । बादरे सर्व कियदि कं, पर्याप्तसंजिषु द्वादशोपयोगाः ।।५
अर्थ-पर्याप्त संज्ञी में सब योग पाये जाते हैं। पर्याप्त सूक्ष्मएकेन्द्रिय में औवारिफकाययोग ही होता है । पर्याप्त विकलेन्द्रिय-निक और पर्याप्त असजि-पञ्चेन्द्रिय, इम चार जीवस्थामों में औवारिक और असत्यामृषामचन, ये दो योग होते हैं। पर्याप्त वावर-एकेन्द्रिय में औवारिक, 4क्रिय तथा नियमिन, ये तीन कारयोग होते हैं । ( जीवस्थानों में उपयोग:-) पर्याप्त संझि-पञ्चेन्द्रि य में सब जम्योग होते हैं ॥५॥
भावार्थ-"पर्याप्त संशि-पञ्चेन्द्रिय में छहों पर्याप्ति होती है" इसलिये उसको योग्यता विशिष्ट प्रकार की है। अतएव उसमें चारों बचनयोग, चारों मनोयोग और सातों काययोग होते हैं ।
"यद्यपि कार्मण, औदारिकमिश्र और वैश्यिमिन, ये तीन योग अपप्ति-अवस्था-भावी हैं। तथापि घे संक्षि-पञ्चेन्द्रियों में पर्याप्त-अवस्था में भी पाये जाते है ।" कार्मण तथा औदारिकमिश्रकाययोग पर्याप्तअवस्था में तब होते हैं, जबकि केवली भगवान् केलि-समुहात रचते
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कर्मग्रन्थ भाग बार
हैं । केवलि समुद्रात की स्थिति आठ समय प्रमाण मानी हुई है; इसके तीसरे चौथे और पाँचवें समय में कार्मण काययोग और दूसरे, छठे तथा सातवें समय में औदारिक मिश्रकाययोग होता है।" "वैि यमिश्र काययोग, पर्याप्त अवस्था में तय होता है, जब कोई वैक्रियलब्धधारी मुनि आदि वैकिशरीर को बनाते हैं।"
आहारककाययोग तथा आहारक मिश्रकाययोग के अधिकारी, 'चतुर्दशधर मुनि है।" उन्हें आहारकशरीर बनाने व त्यागने के समय आहारक मिश्रकापयोग और उस शरीर को धारण करने के समय आहारकाययोग होता है ।" "औदारिककाययोग के अधिकारी, सभी समो पर्याप्त मनुष्य तिर्यन्त और वंक्रियकाययोग के अधिकारी, पर्याप्त देव नारक हैं । "
१८
fr
" सूक्ष्म एकेन्द्रिय को पर्याप्त अवस्था में औदारिकाययोग हो माना गया है । इसका कारण यह है कि उसमें जैसे मन तथा वचन की सन्धि नहीं है, वैसे ही वंक्रिय आदि लब्धि भी नहीं है । इसलिये वैकिय काययोग आदि का उसमें सम्भव नहीं है ।
दीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञि पञ्चेन्द्रिय इन चार जीवस्थानों में पर्याप्त अवस्था में व्यवहार भाषा-असत्यामृषाभाषा होती है; क्योंकि उन्हें मुख होता है। काययोग, उनमें औदारिक हो होता है। इसी से उनमें दो ही योग कहे गये हैं ।
१ – यही बात भगवान् उमास्वातिने कही है:
7
"औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्ट मस मयययारेमाविष्टः । मिश्रौदारित्रयोक्ता सप्तमपष्ठद्वितीयेषु ॥
:
कामणदारीश्योगी, चतुर्थ के पञ्चमे तृतीये च । समयत्रवेऽपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् ॥ २७६ ॥ "
- प्रशमरति अधि० २० ।
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कर्मग्रन्थ भाग खार
मादर- एकेन्द्रिय को- पाँच स्थावर को, पर्याप्त अवस्था में औदारिक, वैक्रिय और क्रियमिश्र, ये तीन योग माने हुये हैं। इनमें से औवारिककाययोग तो सब तरह के एकेन्द्रियों को पर्याप्त अवस्था में होता है, पर वैयि सा वैक्रियो के विषय में यह बात नहीं है। घो योग, "केवल बारवायुकाय में होते हैं; क्योंकि बाबरवायुकायिक जीवों को वैकिलब्धि होती है। इससे वे जब क्रियशरीर बनाते हैं, तब उन्हें क्रियमिश्रकाप्रयोग और वैक्रियशरीर पूर्ण यत्र जाने के ara वैक्रियकाययोग समझना चाहिये । उनका वैक्रियशरीर ध्वजाकार माना गया हैं ।"
१ - "भाचं तिर्यग्मनुष्याणां देवनारक्योः परम् ।
केषांचिल्लब्धिमद्वायु, संज्ञितियं नृणामपि ॥ १४४ ॥ "
१ह
-- लोक प्रकाश सर्गः ३
पहला (दारिक शरीर तिर्यञ्चों और मनुष्यों को होता है; दूसरा ( बैकिस ) शरीर देवों, नारकों, लब्धिवाले वायुकायिकों और लब्धिवाले संज्ञी तिर्यञ्च - मनुष्यों को होता है ।" वायुकायिक को लब्धि-जन्य वैक्रिय शरीर होता है यह बात, लत्त्वार्थ मूल तथा उसके भाष्य में स्पष्ट नहीं है, किन्तु इसका उल्लेख भाष्य की दीवा में है।
"वायोश्च वैक्रियं लब्धप्रत्ययमेव" इत्यादि ।
- स्वार्थ अ० २०४८ को भाष्य-वृत्ति । दिगम्बरीय साहित्य में कुछ विशेषता है । उसमें वायुकायिक के समान तेजःकायिक की भी वैक्रियशरीर का स्वामी कहा है। यद्यपि सर्वार्थसिद्धि में तेजःकायिक तथा वायुकायिक के वैक्रियशरीर के सम्बन्ध में कोई उल्लेख देखने में नहीं आया, पर राजवार्तिक में हैं. -
क्रियिकं देवनारकाणां तेजोवायुकायिकपञ्चेन्द्रि तिग्मनुष्याणां च केषांचित् ॥ " -- तत्त्वार्थ- अ० २, सू० ४६, राजवर्तिक ८ । यही बात गोम्मटसार-जीवकाण्ड में भी हैः-"बादरतेऊबाऊ, पंचिदिय पुण्णमा विगुब्वंति । ओर लिये सरीरं, विगुरुणप्वं हवे जेसि ॥२३२॥"
२ -- यह मन्तच्य श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में समान है:
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गत माता
(३)-जीवस्थानों में उपयोग' ।
पर्याप्त संज्ञि-पञ्चेन्द्रिम में सभी उपयोग पाये जाते हैं। क्योंकि गर्भज-मनुष्य, जिनमें सब प्रकार के उपयोगों का सम्भव है, वे संशिपञ्चेन्द्रिय हैं 1 उपयोग बारह हैं, जिनमें पांच ज्ञान और तीन अज्ञान, ये आठ साकार (विशेषरूप ) हैं और चार वर्शन, ये निराकार ( सामान्यरूप ) हैं। इनमें से केवल ज्ञान और केवल वर्शन को स्थिति समयमात्र करे और शेष छानस्थिक दस उपयोगों की स्थिति अन्समुहूर्त की मानी हुई है।
"ममतां तत्रजाकार, द्वैधानामपि भूमहाम् । स्ट: शरीराण्यनियत:-संस्थानानीति तद्विदः ॥२५४१॥"
-लो० प्र०, स. ५। "मसुरंबुधिदिसुई,-कलावधयसष्णिहो हवे देहो । पुढवी आदि बउगह, तरुतसकाया अणेयविहा ।।२००॥"
-मीवकाण्ड । १-यह विचार, पचसं द्वा० १, गा० ८ में है।
२-छामस्थिक उपयोगों की अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण स्थिति के सम्बन्ध में तस्वार्थ-टीका में नीचे लिखे उल्लेख मिलते हैं:"उपयोगस्थितिकालोऽन्तमहत्तंपरिणाम; प्रकर्षान्द्रवति ।"
-अ० २, सू० ८ की टीका। "उपयोगतोऽन्तमुहर्स मेव जघन्योत्कृष्टाभ्याम् ॥"
-अ० २, मुह की दीका । "उपयोगतस्तु त:याप्यन्तमुहर्तमवस्थानम् ।'
--म० २, सू० ६ की दीका । यह बात गोम्मटसार में भी उल्लिखित है:--
"मदिसुदओहिमणेहि य, सगसगविसये विसेसविण्णाणं । अंतोमुहत्तंकालो, उवजोगो सो दु साधारी ॥६७३॥
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कर्मग्रन्थ भाग चार
सभी उपयोग क्रमभावी' हैं, इसलिये एक जीव में एक समय में कोई भी दो उपयोग नहीं होते ॥ ५३३" पजचरविअसंनिसु दुदंस बु अनाण दससु चक्बुविणा संनिपज्जे मणना - णखक केबल दुर्गा विणा ॥ ६ ॥
पर्याप्त चतुरिन्द्रियासंज्ञिनोः, द्विदर्शव्यज्ञानं दशसु चक्षुविना । संज्ञिन्यपर्याप्ते मनोज्ञान वक्षुः केवल द्विकविहीनीः ॥ ६ ॥
२१
अर्थ पर्याप्त चतुरिन्द्रिय तथा पर्याप्त असंज्ञि - पचेन्द्रिय में चक्षु अचक्षु वो दर्शन और मतिपून घी अज्ञान कुल धार उपयोग होते हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बावर- एकेन्द्रिय, हीन्द्रिय और श्रोत्रिय, ये चारों पर्याप्त तथा अपर्याप्त और अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय तथा अपर्याप्त असंशिपचेन्द्रिय इन दस प्रकार के शोषों में मति-अज्ञान, श्रुत- अज्ञान और अचक्षुर्दर्शन ये तीन उपयोग होते हैं । अपर्याप्त संज्ञि पञ्चेन्द्रियों में मनःपर्यायज्ञान, पशु दर्शन केवलज्ञान, केवलवर्शन, इन चार को छोड़ शेष आठ ( मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञानदर्शन, मति अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, विमङ्गज्ञान और अवशुदर्शन ) उपयोग होते हैं || ६ ॥
·
भावार्थ- पर्याप्त चतुरित्रिय और पर्याप्त अपिचेन्द्रिय में चक्षुवर्शन आदि उपर्युक्त चार ही उपयोग होते हैं; क्योंकि आवरण
इंक्मिणीहिणा वा मत्थे अविसेसी दृणं जं गहणं । अंतीमुतकालो, उब जोगो सो अणायारो ॥ ६७४ |
जीवकाण्ड |
क्षायिक उपयोग की एक समय-समान स्थिति, "अन्ने एगंतरियं इच्छंत सुझोवएसेणं ।" इस कथन से सिद्धान्त सम्मत है। विशेष खुलासे के लिये नन्दी सु० २२, मलयगिरिवृत्ति पु० १३४ तथा विदीप ० ० ३१०१ की वृत्ति देखना चाहिये । लोकप्रकाश के तीसरे सर्ग में भी यही कहा है"एकस्मिन् समये ज्ञानं दर्शनं चापरक्षणे ।
सर्वज्ञस्योपयोगी हो, समयान्तरित सवा ॥ ६७३ ।। " १ - देखिये, परिशिष्ट 'च ।'
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भाग चार
को घनिष्ठता और पहला हो गुणस्थान होने के कारण, उनमें बक्षुवर्शन और अधक्षुवंशम के सिवाय अन्य सामान्य उपयोग तथा मति-अहान, श्रुत-अज्ञान के सिवाय अन्य विशेष उपयोग नहीं होते।
सूक्ष्म-ए केन्द्रिय' आदि उपयुक्त दस प्रकार के जीवों में तीम उपयोग कहे गये हैं, सो कर्मग्रन्थिक मत के अनुसार, सैद्धान्तिक मत के अनुसार महीं।
१-देखिये, परिशिष्ट छ ।'
२-इसका खुलासा यों है:-पद्यगि बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रिन्द्रिय,चतुरिन्द्रप और असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय, इन पाँच प्रकार के अपर्याप्त जीवों में काम ग्रन्थिक विद्वान पहला और दूसरा, ये दो गुणस्थान मानते हैं देखिये, आगे गा५वीं । तथापि ने दूसरे गुणस्थानक समय मति आदि को, ज्ञानरूप न मानकर अज्ञानरूप ही मान लेते हैं । देखिये, आगे गा० २१वीं । इसलिये, उनके मतानुशार पर्याप्त-अपर्याप्त सक्षम-एकेन्द्रिय, पर्याप्त बादर-एकन्द्रिय, पर्याप्त वीन्द्रिय और पर्याप्त नीन्द्रिय इन पहले मुणस्थान-बाले पाँच जीवस्थानों के समान, बादर एकन्द्रिय आदि उक्त पाँच प्रकार के अपर्याप्त जीवस्थायों में भी, जिनमें दो गुणस्थानों का सम्भव है, अचक्षुर्दर्शन, मतिअज्ञान और श्रुत-अज्ञान, ये तीन उपयोग ही माने जाते हैं ।
परन्तु सैद्धान्तिक विद्वानों का मन्तव्य कुछ भिन्न है । ये कहते हैं कि "किसी प्रकार के एकेन्द्रिय में-चाहे पर्याप्त हो या अपर्याप्त, सुक्ष्म हो या बादर-पहले के सिवाय अन्य गूणस्थान होता ही नहीं। दखिये, गा० ४६ वीं | पर द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञि-पच्चेन्द्रिय, इन चार अपर्याप्त जीवस्थानों में पहला और दूसरा, ये दो मुणस्थान होते हैं।' साथ ही सैद्धान्तिक विद्वान, दूसरे गुणस्थान के समय मति आदि को अज्ञानरूप न मानकर ज्ञानरूप ही मानते हैं। देखिये, मा० ४६ वीं । अत एब इनके मतानुसार वीन्द्रिय आदि उक्त बार अपर्याप्त-जीवस्थानों में अचक्षुदंशन, मति अशान, मतिज्ञान और श्रुतज्ञान, के पाँच उपयोग और सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि उपयुक्त दस जीवस्थानों में से द्वीन्द्रिय आदि उता चार के सिवाय शेप छह जीव-स्थानों में अवक्षुदर्शन' मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, ये तीन उपयोग समझने चाहिये ।
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कर्मवन्य भाग चार
संजि-पन्चेनिध को, अपलो अवस्था में उपयोग मे नये हैं । सो इस प्रकार:-तीर्य कर तथा सम्यक्त्वी देव-नारक आदि को उत्पत्ति-क्षण से हो सोन ज्ञान और दो दर्शन होते हैं सथा मिथ्यात्वी देव-नारक आदि को जन्म-रामय से ही तीन अज्ञान और दो वर्शन होते हैं। मन:पर्याण आदि चार उपयोग न होने का कारण यह है कि मनःपर्यायशान, संयम वालों को हो सकता है, परन्तु अपर्याप्तअवस्था में संयम का सम्भव नहीं है। तथा चक्षुर्दशन, धतुरिन्द्रिय के व्यापार की अपेक्षा रखता है। जो अपर्याप्त अवस्था में नहीं होता । इसी प्रकार केवलज्ञान और केसलदर्शन, ये दो उपयोग कर्मक्षय-जन्य हैं, किन्तु अपर्याप्त-अवस्था में कर्म-मय का सम्भव नहीं है । संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय को अपर्याप्त-अवस्था में आ3 उपयोग कहे, गये, सो करण-अप पति को अपेक्षा से, क्योंकि लब्धि-अपर्याप्त में मति-अज्ञान- श्रुत-अज्ञान और अच दर्शन के सिवाय अन्य उपयोग नहीं होते ।
इस गाथा में अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय, अपर्याप्त असंजि-पञ्चेन्द्रिय और अपर्याप्त संजि-पञ्चेन्दिय में जो जो उपयोग बनलाये गये हैं, उनमें चतुर्वर्शन परिगणित नहीं है, सो मतान्तर से; क्योंकि पक्षमसङ्ग्रहकार के मत से उक्त तीनों जीवस्यानों में अपप्ति-अवस्था में मो इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के बाम च दर्शन होता है । दोनों मत के तात्पर्य को समापने के लिये गा० १७ वीं का नोट देखना चाहिये ॥ ६ ।।
१-इसका उस्लेख श्रीमलयगिरिमुरि ने इस प्रकार किया है:
"अपर्याप्तकाश्चेत सध्यपर्याप्तका बेदितव्याः, अन्यथा फरणापर्याप्नकेषु चतुरिन्द्रि याविष्वन्द्रिय पयप्तिो सत्यों चक्षुर्वर्शनमपि प्राप्यते मूलटोकायामायिणाभ्यनुजानात् । -पवसं० द्वार १, गार ८ की टीका।
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क.मंगन्ध-भाग चार
(४-८)-जीवस्थानों में लेश्या-बन्ध आदि ।
{ दो गाधाओं से । संनिदुगे छलेसअप,-जबायरे पढम चउ ति सेसेसु । सत्तट्ठ बन्धुवोरण, संतुदया अट्ट तेरससु ॥ ७ ॥ संजिदिके षड्लेश्या अप्तिबादरे प्रधमाश्चतस्नस्तिस्रः शेषेषु । सप्ताष्टबन्धोदीरण, सदुदयावष्टानां क्रयोदशसु ॥ ५ ॥
अर्थ-संक्षि-विको-अपर्याप्त तथा पर्याप्त संजि-पञ्चेन्निय मेंछहों लेश्यायें होती हैं । अपर्याप्त बाबर-एके स्त्रिय में कृष्ण आदि पहली चार लेण्यायें पायी जाती हैं । शेष मारह जीवस्थानों में - अपर्याप्त तथा पर्याप्त सूक्ष्म-एकेन्द्रिय, पर्याप्त पावर-एकेन्द्रिय, अपर्याप्त-पर्याप्त रेन्धि य, अपर्याप्त-पर्याप्त त्रीन्द्रिय, अपर्याप्त-पर्याप्त चतुरित्रिय और अपर्याप्त-पर्याप्त असंजि-पञ्चेन्द्रियों में कृष्ण, नीत और कापोत ये तीन लेश्यायें होती है।
पर्याप्त संजी के सिवाय तेरह जीवस्थानों में वन्ध, सात या आठ कर्मका होता है तथा उदोरणा भी सात या आठ फोकी होती है, परन्तु सजा तथा उदय आठ आठ कर्मकि ही होते हैं ॥७।।
भावार्थ-अपर्याप्त तथा पर्याप्त दोनों प्रकार के संशो, छह लेश्याओंके स्वामी माने जाते हैं, इसका कारण यह है कि उनमें शुभ-अशुभ सम तरहके परिणामोंका सम्भव है । अपर्याप्त संशि-पञ्चेन्नियका मतलब करणापर्याप्तसे है। क्योंकि उसी में छह लेपाओं का सम्भव है । लरिष-अपर्याप्त तो सिर्फ तीन लेश्याओं के अधिकारी हैं ।
कृष्ण आदि तीन लेश्याय, सब एकेन्द्रियों के लिये साधारण हैं। किन्तु अपर्याप्त मादर- एकेन्द्रियमें इतनी विशेषता है कि उसनमें सेलोलेश्या भी पायी जाती है। क्योंकि तेजलेश्या वाले ज्योतिषी आधि देव,
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कर्मग्रन्थ भाग चार
जब उसने लेश्या में भरते हैं और बादर पृथिवीकाय, जलकाय या वनस्पतिकाय में जन्म लेते हैं, तब उन्हें अपर्याप्त अवस्था में तेजोलेश्या होती है। यह नियम ही है कि जिस लेश्या में मरण हो, जनमते समय वही लेइपा होती है।
अपर्याप्त तथा पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि उपर्युक्त ग्यारह जीव स्थानों में तीन लेश्यायें कही गई है। इसका कारण यह है कि वे सब जीवस्थान, अशुभ परिणाम वाले ही होते हैं इसलिये उनमें शुभ परिणामरूप पिछली तीन लेश्यायें नहीं होती ।
इस जगह जीवस्थानों में बन्ध, उदीरणा, सत्ता और उदय का जो विचार किया गया है, वह मूल प्रकृतियों को लेकर । प्रत्येक जीवस्थान में किसी एक समय में मूल आठ प्रकृतियों में से कितनी प्रकृतियों का बन्ध, कितनी प्रकृतियों की उदीरणा, कितनी प्रकृतियों को सत्ता और कितनी प्रकृतियों का उदय पाया जा सकता है, उसी को दिखाया है १. बन्ध ।
पर्याप्त संज्ञि के सिवाय सब प्रकार के जीव, प्रत्येक समय में आयु को छोड़कर सात कर्मप्रकृतियों को बांधते रहते हैं। आठ कर्मप्रकृतियों को ये तभी से हैं, जबकि आयु का बन्ध करते हैं। आयु का बन्ध एक भव में एक ही बार जघन्य या उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक ही होता है । आयुकर्म के लिये यह नियम है कि वर्तमान आयु का तीसरा, नयाँ
१ – इसका उल्लेख इस प्रकार मिलता है: "जल्ले से मरइ, तल्लेसे उबवज्जद" । इति
२५
――
I
२-- उक्त नियम सोपक्रम (अपवर्त्य घट सकने वाली ) आयु वाले जीवों को लागू पड़ता है, निरुपक्रम आयु वालों को नहीं ने यदि देव नारक या असंख्य मनुष्य तिर्यञ्च हों तो यह महीने आयु बाकी रहने पर ही परभबकी आयु बांधते हैं और यदि एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय या पञ्चेन्द्रिय मनुष्य-तियंञ्च हों तो वर्तमान भाव का तीसरा भाग शेष रहने पर ही आयु बचते हैं।
-- बृहत्संग्रहणी, गा० ३२१-३२३, तथा पञ्चम कर्मग्रन्थ, गा० ३४ ।
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ममग्नन्थ भाग चार
या सत्ताईसा झावि भाग माकी रहने पर हो परमय के आयु का बन्ध होता है।
इस नियम के अनुसार यदि जन्ध न हो तो अन्त में जब वर्तमान आमु, अन्तर्मुहूत-प्रमाण वाकी रहती है, तब अगले भव को आयु का बन्ध अवश्य होता है।
२. उदीरणा । उपयुक्त तेरह प्रकार के जीवस्थानों में प्रत्येक समय में आठ कमाँ की उबीरणा हुमा करती है । सात कमीं की उदारणा, आयु की उदीरणा न होने के समय-जीवन की अन्तिम आवलिका में--पायी जाती है। क्योंकि उस समय , आवलिकामात्र स्थिति शेष रहने के कारण वर्तमान ( उदयमान ) आघु को और अधिक स्थिति होने पर भी उवयमान न होने गो माग अगले गा आप को उतीरणा नहीं होती । शास्त्र में उबोरणा का यह नियम बतलाया है कि जो कर्म, उवय-प्राप्त है, उसकी उधारणा होती है, दूसरे की नहीं । और उदम-प्राप्त कर्म मी आवसिकामात्र शेष रह जाता है, तब से उसकी उदी रणा रुक जाती है।
१.-"उदयावलियाबहिरिल्ल दिहितो कसायग़हिया सहिएणं जोगकरणेणं दलियमाकढिय उदयपत्तदलियेण समं अणुभवणामुदीरणा ।"
___-.-कर्मप्रकृति-चूणि । अर्थात् उदय-आवलिकासे बाहर की स्थिति वाले दलिकों को कषाय सहित या कघायरहित योगद्वारा खींचकर- उस स्थिति से उन्हें छुड़ाकरउदय-प्राप्त दलिवों के माथ भोग लेना 'उदीरणा' कहलाती है।
इस कपन का तात्पर्य इतना ही है कि उदयावलिका के अन्तर्गत दलिकों को उदीरणा नहीं होती। अत एव वर्म की स्थिति भावलिकामात्र वाकी रहने वा समय उसकी उदीरणा का रुक जाना नियमानुकूल हैं ।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
उक्त तेरह जीवस्थानों में जो अपर्याप्त जीवस्थान हैं, वे सभी लधिअपर्याप्त समझने चाहिये, क्योंकि उन्हीं में सात या आठ कर्म की उवीरणा घट सकती है। वे अपर्याप्त-अवस्था ही में मर जाते हैं, इसलिये उनमें आवलिकामात्र आयु बाकी रहने पर सात कम को और इसके पहले आठ कर्म को जवीरणा होती है। परन्तु करणापर्याप्तों के अपर्याप्त-अवस्था में मरने का नियम नहीं है । वे यदि लक्षिपर्याप्त हुये तो पर्याप्स-अवस्था ही में मरते हैं । इसलिये उनमें अपर्याप्त-अवस्था में आलिकामात्र श्रायु शेष रहने का और सात कर्म की उदीरणा का संभव नहीं है।
३-४. सत्ता और उदय । आठ कर्मों की सत्ता ग्यारहवें गुणस्थान तक होती है और आठ कर्म का उपय सबै गुणस्थान तक बना रहता है। परन्तु पर्याप्त संशी के सिवाय सब प्रकार के जीवों में अधिक से अधिक पल्ला, दूसरा और चौथा, इन तीन गुणस्थानों का संभव है। इसलिये उक्त तेरह प्रकार के जीवों में सत्ता और उदय आठ कमो का माना गया है ।।
सतलुछेगबंधा, सतुदया सत्तअट ठचत्तारि । सत्सद्वछपंचगं उदीरणा सनिपज्जत्ते ॥ ८ ॥ सप्ताष्टपडेबाबन्धा, सदुदयौ सप्ताष्टचत्वारि ।
सप्ताष्टघट्पञ्चद्विक मुदारणा संज्ञि-गर्याप्ते ।। अर्थ --पर्याप्त संजी में सात कर्म का, आठ कम का, छह कर्म का मोर एक फर्म का, ये चार बधस्थान है, सत्तास्थान और उवयस्थान सात, आठ और चार कर्म के हैं तथा उचीरणास्थान सात, आठ, छह, पांच और दो कर्म का है ॥ ८ ॥
भाषार्थ-जिन प्रकृतियों का बन्ध एक साथ (युगपत्) हो, उनके समुदायको बन्धस्यान' कहते हैं । इसी तरह जिन प्रकृतियों की सत्ता
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कर्मग्रन्थ भाग चार
एक साथ पायो जाय, उनके समुदायको 'सत्तास्थान' जिन प्रकृतियोंकर उदय एक साथ पाया जाय, उनके समुद्र को 'उवयस्थान' क्षौर जिन प्रकृतियों की उदीरणर एक साथ पायो जाप, उनके समुदाय को 'धीरणास्थान' कहते है ।
५. बन्धस्थान |
उपर्युक्त चार स्थानों में से सात कर्म का बन्धस्थान, उस समय पाया जाता है जिस समय कि आयु का बन्ध नहीं होता | एक बार आयु का बन्ध हो जाने के बाद दूसरी बार उसका वध होने में जकय काल, अन्तर्मुहूर्त प्रमाण' और उत्कृष्ट फाल, अन्तर्मुहूर्त-कर्म करोड़ पूर्ववर्ष तथा छह मास कम तेलांस सागरोपम प्रमाण चला जाता है । अत एव कर्म के बन्धस्थान की स्थिति भी उतनी ही अर्थात् जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण और उत्कृष्ट असतं कम करोड़ तथा छह मास कम तेतीस सागरोपम प्रमाण समझनी चाहिये ।
-
आठ कर्म का बन्धस्थान, आयु-बन्ध के समय पाया जाता है । आयु-बन्ध, जघन्य या उत्कृष्ट अन्तर्मुहूतं तक होता है, इसलिये आठ के बन्धस्थान की जघन्य या उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त -प्रमाण है।
१ - नो समय प्रभाण, दस समय प्रमाण, इस तरह एक एक समय बढ़ते बढ़ते अन्त में एक समय कम मुहूर्त - प्रमाण, यह सब प्रकार का काल अन्तर्मुहूर्त' कहलाता है । जघन्य अन्तर्मुहुत्तं नय समय का उकृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त एक समय कम मुहूर्त का और मध्यम अन्तर्मुहर्स दस समय, ग्यारह समय आदि बीच के सब प्रकार के काल का समझना चाहिये | दो घड़ी को - अड़तालीस मिनट को - 'मुहूर्त' कहते हैं ।
2
२- दस कोटाकोटि पत्योपमका एक 'सागरोपम' और असंख्य वर्षो का एक 'पल्मोपम' होता है । --तत्त्वार्थ अ० ४ ० १५ का माष्य । ३:- जब करोड़ पूर्व वर्ष की आयु वाला कोई मनुष्य अपनी आयु के तीसरे भाग में अनुत्तर विमान की तेतीम सागरोपम प्रमाण आयु बाँधता है, तब अन्तर्मुहूर्त्त पर्यन्त आयुबन्ध करके फिर वह देव की आयु के छह महीने दोष रहने पर ही आयु बाँध सकता है, इस अपेक्षा से आयु के बन्ध का उत्कृष्ट अन्तर समझना ।
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छह कर्मका बन्धस्थान बसवें ही गुणस्थान में पाया जाता है। क्योंकि उसमें आयु और मोहनीय, बो कर्मका घन्ध नहीं होता । इप्स बन्धस्थानको जघन्य तथा उत्कृष्ट स्थिति दस गुणस्थानको स्थितिके बराबर--जघन्य एक समय की' और उत्कृष्ट अन्लमुहर्त कीसमानी चाहिये ।
___एक फर्मका बन्धस्थान ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें, तीन गुणस्थानों में होता है । इसका कारण यह है कि इन गुणस्थानों के समय सातवेवनीयके सिवाय अन्य कर्मका पन्ध नहीं होता । ग्यारहवें गुणस्थानको मघन्य स्थिति हर समयको कार तेसाई न को उस्कृष्ट स्थिति नौ वर्ष-कम करोड़ पूर्व' वर्षकी है । अत एव इस बन्धास्थानको स्थिति, जघन्य समयमात्रकी और उत्कृष्द नौ वर्ष-कम करोड़ पूर्व वर्ष की समझनी चाहिये ।
६. सत्तास्थान ।। तीन ससास्थानोंमें से माठ का सत्तास्थान, पहले ग्यारह गुणस्थानों में पाया जाता है। इसकी स्थिति, अभष्यकी अपेक्षा से अमादि. अनन्त और भव्यको अपेक्षासे अनादि-सान्त है। इसका सपब यह है कि अभव्यको फर्म-परम्पराको जैसे आवि नहीं है, वैसे अन्त मी नहीं है। पर भव्यको कर्म परम्परा के विषय में ऐसा नहीं है। उसकी आदि तो नहीं है, किन्तु अन्त होता है।।
सातका सत्तास्थान केवल बारहवें गुणस्थान में होता है । इस १-अत्यन्त सूक्ष्म कियावाला अर्थात् सबसे जघन्य गतिबाला परमाणु जितने काल में अपने आकाश-प्रदेश से अनन्तर आकाश-प्रदेश में जाता है, वह काल 'समय' कहलाता है।
-तत्त्वार्थ अ० ४ सू० १५ का भाष्य । २-चौरासी लक्ष वर्ष का एक पूर्वाङ्ग और चौरासी लक्ष पूर्वाङ्ग का एक 'पूर्व' होता है ।
--लस्वार्थ अ०४, १५ का भाष्य ।
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गुणस्थानको अघन्य या उत्कृष्ट स्थिति अन्तमहतं की मानी जाती है । अत एव सालके सत्तास्थान की स्थिति उतनी समझनी चाहिये । इस सत्तास्थान में मोहनीय के सियार ज में 7 मर है।
चार का सत्तास्थान तेरहो और चौवह गुणस्थान में पाया जाता है। क्योंकि इन वो गुणस्थानों में चार अघाति कर्म को ही सत्ता शेष रहती है । इन दो गुणस्थानों को मिलाकर उत्कृष्ट स्थिति आठ वर्ष आठ माप्त-कम करोड़ पूर्व-प्रमाण हैं । अत एव बारके सत्तास्थान की उत्कृष्ट स्थिति उतनी समझना चाहिये । उनको जघन्य स्थिति तो अन्तम हुसं-प्रमाण है।
७. उदयस्थान । . आठ कर्मका उदयस्थान, पहले से दसवें तक बस गुणस्थानों में रहता है। इसकी स्थिति अभव्यको अपेक्षा से अनावि-अनरत और भव्य की अपेक्षा से अनादि-सान्त है । परन्तु उपशमन्थेणी से गिरे हुए मध्य की अपेक्षा से उसकी स्थिति सावि-सान्त है । उपधाम-श्रेणी से गिरने के बाद फिर से अन्तमुहर्स में श्रेणी की जा सकती है। यदि अन्तर्मुहूर्त में न की जा सको तो अश्त में कुछ-कम अपुग्दल-परावर्त के बार अवश्य को जाती है। इसलिये माठ के उदयस्यान को साविसान्त स्थिति जघन्य अन्तर्मुहत -प्रमाण और उस्कृष्ट वेश-ऊन (कुछ कम) अर्धपुरवल परावर्त प्रमाण समझनी चाहिये ।
सासका उवयस्थान, ग्यारें और बारहवें गुणस्थान में पाया जाता है। इस उवयस्थान की स्थिति, जघन्य एक समयको और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त की मानी जाती है । जो जोय ग्यारहवे गुणस्थान में एक समय मात्र रह कर मरता है और अनुत्तर विमान में पैदा होता है, यह पैदा होते ही आठ कर्म के उचय का अनुभव करता है, इस अपेक्षा से सातके उपयस्थान को जघन्य स्थिति समय-प्रमाण कही गई है । जो जीव, बारहवे गुणस्थान को पाता है, वह अधिक से अधिक
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कर्मग्रन्थ माग बार
रस गुणस्थान की स्थिति तक-अन्त महत्तं तक के सात कर्म के उदयका अनुभव करता है, पौछ अवश्य तेरहवें गुणस्थान को पाकर छार कर्म के उदय का अनुमव करता है। इस अपेक्षा से साप्त के उपयस्थान को उत्कृष्ट का अन्तम:': कही है। चा: । स्वयस्थान, तेरहवे और चौवर्षे गुणस्थान में पाया जाता है क्योंकि इन वो गुणस्थानों में अघातिकर्म के सिवाय अन्य किसी कर्म का उदय नहीं रहता । इस उक्ष्यस्थान की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट, बेश- उन करोड़ पूर्व वर्ष की है ।
८. उदीरणास्थान । आठ का उदीरणास्थान, शायु को उदोरणा के समय होता है। आयु को उपोरमा पहले छह गुणस्थानों में होती है । अत एव यह उबीरणास्याम इन्हीं गुणस्थानों में पाया जाता है।
सात का उतीरणास्थान, उस समय होता है जिस समय कि आयु को उदीरणा रुक जाती है। आयु को उवीरणा तब रुक जाती है, जब बर्तमान आयु आलिका'-प्रमाण शेष रह जाती है। वर्तमान आयु को अन्तिम आवलिका के समय पहला, दूसरा, चौथा, पांचवा और छठा, ये पांच गुणस्थान पाये जा सकते हैं। दूसरे नहीं । अतएव सात के खदीरणास्थान का सम्मय, इन पनि गुणस्थानों में समझना चाहिये। तीसरे गुणस्थान में सात को उदोरणास्थान नहीं होता, क्योंकि मावलिका-प्रमाण आयु शेष रहने के समय, इस गुणस्थान का सम्भव ही नहीं है। इसलिये इस गुणस्थान में आठ काही उदीरणास्थान माना जाता है।
मह का उबीरणास्थान सातवें गुणस्थान से लेकर वसवें गुणस्थान की एक मालिका-प्रमाण स्थिति बाकी रहती है, तब तक
१- एक मुहूर्त के १. ६३, ७३, २१६ वें भाग की 'आलिका' कहते
है
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कर्मग्रन्थ भाग चार
पाया जाता है। क्योंकि उस समय आयु और वेदनीय, इन दो को उदीमा नहीं होती। ____ बसवें गुणस्थान की अन्तिम आवलिका, जिसमें मोहनीय की भी उदारणा रुक जाती है, उससे लेकर बारहवें गुणस्थाम को अन्तिम आवलिका पर्यन्त पांच का उदीरणास्थान होता है।
बारहवें गुणस्थान की अन्तिम आवलिका, जिसमें ज्ञानावरण, वर्शनावरण और अन्तराय, तीन कर्म की उदीरणा रूक जाती है, उससे सेकर तेरहवें गणस्थान के अन्त पर्यन्त चार का उदीरणा-स्थान होता है। सौदहवें गुणस्थान में योग न होने के कारण उच्य रहनेपर भी नाम-गोत्र की उपोरणा नहीं होती।
उक्त सत्र पन्धस्थान, सत्तास्थान आदि पर्याप्त संजी के हैं। क्योंकि बौवहों गणस्थानों का अधिकारी वही है। किस किस गुणस्थान में कौनसा फौनसा अन्वस्थान, ससास्थान, उक्यस्थान और उदीरणास्थान है। इसका विचार आगे गा० ५६ से ६२ तक में है ।। ||
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कार्मग्रन्थ भाग चार
प्रथमाधिकार के परिशिष्ट ।।
परिशिष्ट "क"। पृष्ठ ५ के "लेवया" पादपर--
१-लेश्या के (क) द्रव्य और (स) भाव, इस प्रकार दो भेद है। (क)द्रव्यलेश्या,पुद्ग्ल-विशेषात्मक है। इसके स्वरूप के सम्बन्ध में मुख्यतया तीन मत हैं।(१) कर्मवर्गणा-निष्पन्न (२)कर्म-निष्यन्द और(३)योग-परिणाम।
१ले मत का यह मानना है कि लेल्या-द्रव्य, कर्म-वर्गणा से बने हुये है। फिर भी ने आठ कर्म से भिन्न ही हैं: जमा कि कार्मणशरीर । यह मंत उत्तराध्ययन, अ५ ३४ को टीका, धृ० ६५० पर उल्लिखित है।
२ रे मत का आशय यह है f. लेश्या-द्रव्य, कर्म निष्यन्दरूप (बध्यमान कर्म-प्रवाहरूप) है। चौदहवें गुणस्थान में कर्म के होने पर भी उसका निष्पन्दन होने से लेश्या के अभाव की उपपत्ति हो जाती है। यह मत उक्त पृष्ठ पर ही निर्दिष्ट है, जिसको टीकाकार बादिवताल श्रीशान्तिसूरि ने 'गुरवस्तु व्याचक्षसे' कहकर लिखा है।
३रा मत श्रीहरिभदसरि आदि का है। इस मत का आशय श्रीमलयगिरि जी ने पप्रधणा पद १७ की टीका, पृ० ३३० पर स्पष्ट बसलाया है। बे सेश्या-द्रव्य को योगवर्गणा-अन्सर्गस स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं। उपाध्याय थीविनयविजयजी ने अपने आगम-दोहनरूप लोकप्रकाश, सर्ग ३, श्लोक २८५ में इस मत को ग्राह्य ठहराया है।
(ख) भावलेश्या, आत्मा का परिणाम-विशेष है, जी संश्लेश और योग से अनगत है संपलेश के तीव्र,तीव्रतर,तीयतम, मन्द, मन्दतर मम्वतम आदि अनेक भेद होने से वस्तुतः भावलेश्या, असंख्य प्रकार की है तथापि संक्षेप में छह विभाग करके शास्त्र में उसका स्वरूप दिखाया है। देखिये, गा० १२ वी। छह भेदों का स्वरूप समलने के लिये पाास्त्र में नीचे लिखे दो दृष्टान्स दिये गये हैं:पहिला:-कोई छल्ल पुरुष जम्बूफल (जामून) खाने को इच्छा करते हुये चले जा रहे थे, इतने में जम्बवृक्षको देख उनमें से एक पुरुष बोला-'लीजिये, जम्वृक्ष तो आ गया । अब फलों के लिये ऊपर चढ़ने की अपेक्षा फलों से लदी हुई बड़ी-बड़ी शाखा वाले इस वृक्ष को काट गिराना ही अच्छा है।"
यह सुनकर मरे ने कहा--"क्ष काटने से पया लाभ ? केवल शाखाओं को काट दो।"
तीसरे पुरुष ने कहा-"यह भी ठीक नहीं, स्रोटी-छोटी शाखाओं के काट लेने से भी तो काम निकाला जा सकता है?"
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कर्मग्रन्थ भाग चार चौथे ने कहा-"शाखायें भी क्यों काटना ? फलों के गुच्छों को तोड़लीजिये"
___पांचों बोला-"गुच्छों से क्या प्रयोजन ? उनमें से कुछ फलों को ही ने लेना अच्छा है।"
अन्त में छठे पुरुष ने कहा- ये सब विचार निरर्थक हैं; क्योंकि हम लोग जिन्हें चाहते है, वे फन तो नीचे भी गिरे हुये हैं, क्या उन्हीं से अपनी प्रयोजन-सिद्धि नहीं हो सकती है ?"
__ दूसरा:-कोई छः पुरुप धन लूटने के इरादे से जा रहे थे। रास्ते में किसी गाँव को पाकर उनमें से एक बोला:- इस गांव को तहस-नहस कर दो-मनुष्य, पशु, पक्षी, जो कोई मिले, उन्हें मारों और धन लूट लो।"
यह सुन कर दूसरा बोला:- पशु पक्षी जादि को मार : केबल विरोध करने वाले मनुष्यों ही को मारो।" ।
तीसरे ने कहा:--"बेचारी स्त्रियों की हत्या क्यों करना ? पुरुषों को मार दो ।" चौथे ने कहा:-"सब पूरुषों को नहीं जो सशस्त्र हों, उन्हीं को मारो।'
पांच ने कहा-"जो सशस्त्र पुरुष भी विरोध नहीं करते, उन्हें क्यों मारना ।'
अन्त में छठे पुरुष ने कहा:-- किसी को मारने से क्या लाभ? जिस प्रकार से धन अपहरण किया जा सके, उस प्रकार से उसे उठा लो और किसी को मारी मत । एक तो पन लूटना और दूसरे उसके मालिकों को मारना, यह ठीक नहीं।"
इन दो दृष्टान्तों से लेश्याओं का स्वरूप स्पष्ट जाना जाता है। प्रत्येक रष्टान्त के छह-छह पुरुषों में पूर्व-पूर्व पुरुष के परिणाम की अपेक्षा उतरउत्तर पुरुष के परिणाम शुभ, शुभतर और शुभतम पाये जाते हैं-उत्तरउत्तर पुरुष के परिणामों में संक्लेश की न्यूनप्ता और मृदुता की अधिकता पाई जाती है। प्रथम पुरुप के परिणाम की 'कृष्णलेश्या.' दूसरे के परिणाम को 'नीललेश्या', इस प्रकार क्रम से छठे पुरुष के परिणाम का 'शुक्लले क्या' समझना चाहिये । -आवश्यक हारिभद्री वृत्ति पृ० १५ तथा लोक० प्र०, स.३, श्लोक ३६३-३८० ।
लेश्या-द्रव्य के स्वरूप सम्बन्धी उक्त तीनों मत के अनुसार तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त भाव-लेश्या का सद्भव समझना चाहिये । यह सिद्धान्त गोम्मटसार-जीवकाण्ड को भी मान्य है; क्योंकि उसमें योग-प्रवृत्ति को लेश्या कहा है । यथा:--
"अयोति छलेस्सामो, सुहतियलेस्सा दु देसविरवतिये तत्ती सुश्का लेस्सा, अजोगिता अलेस्सं तु ॥५३१।।"
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सर्वार्थसिद्धि में और गोम्मटसार के स्थानान्तर में कपायोदय-अनुरंजित योग प्रवृत्ति को लेश्या' कहा है। यद्यपि इस कथन से दसवें गुणस्थान पर्यन्त ही लेश्या का होना पाया जाता है, पर वह कथन अपेक्षाकृत होने के कारण पूर्व कथन से विरुद्ध नहीं है । पूर्व कथन में केवल प्रकृतिप्रदेश बन्ध के निमित्तभूत परिणाम लेश्यारूप से नियमित है और इस कथन में स्थिति अनुभाग आदि चारों बन्धों के निमित्तभूत परिणाम श्यारूप से विक्षित है, केवल प्रकृति- प्रदेश बन्धके निमित्तभूत परिणाम नहीं । यथा:
•
"भावलेश्या कषायोदयराञ्जिता योग-प्रवत्तिरिति कृत्वा औदयिकीत्युच्यते ।" सर्वार्थसिद्धि - अध्याय २, सूत्र ६ ।
"जोगपत्ती लेस्सा, कसाय उद्यारंजिया हो । तत्तो दोष्णं कज्जे, गंधचक्क समुद्दि
४८६॥
३५
- जीवकाण्ड
द्रव्यलेश्या के वर्ण - गन्ध आदि का विचार तथा भावलेश्या के लक्षण आदि का विचार उत्तरग्ध्यन, भ० ३४ में है । इसके लिये प्रज्ञापना - लेश्यापद, आवश्यक, लोक प्रकाश आदि आकार ग्रन्य श्वेताम्बरसाहित्य में है । उक्त दो दृष्टन्तों में से पहला दृष्टान्त, जीवकाण्ड गा० ५०६-५०७ में है । लेश्या की कुछ विशेष बातें जानने के लिये जीवकाण्ड का लेण्यामार्गगाधिकार (पा० ४८६ - ५५५ देखने योग्य है |
जीवों के आन्तरिक भावों की मलिनता तथा पवित्रता के तर तम भाव का सूचक या का विचार, जैसा जैन शास्त्र में है। कुछ उसी के समान छह जातियों का विभाग, मङ्गलीगोसाल पुत्र के मत में है, जो कर्म की शुद्धि - अशुद्धि को लेकर कृष्ण-नील आदि छह वर्णों के आधार पर किया गया है । इसका वर्णन, 'दीव निकाय -सामफलसुत्त" में है । "महाभारत" के १२.२८६ में भी छह जीव-वर्ण दिन है, जो उक्त विचार से कुछ मिलते-जुलते हैं ।
"पातञ्जलयोगदर्शन" के ४,७ में भी ऐसी कल्पना है; क्योंकि उसमें कर्म के चार विभाग करके जीवों के भावों की शुद्धि-अशुद्धि पृथकरण किया है। इसके लिये देखिये, दोषनिकाय का मराठी भाषान्तर पृ० ५६ ।
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परिशिष्ट "ख" ।
पृष्ठ १०, पंक्ति १८ के 'पञ्चेन्द्रिय' शब्द पर
जीव के एकेन्द्रिय आदि पांच भेद किये गये हैं, सो द्रव्येन्द्रिय के आधार पर क्योंकि भावेन्द्रियों तो सभी संसारी जीवों को पांचों होती हैं ।
यथाः
"अहवा पहुन्च लडिदियं पिपंचेंदिया सम्ये ॥२६६६॥" - विशेषावश्यक अर्थात् लब्धीन्द्रियकी अपेक्षा से सभी सारी जांव पञ्चेन्द्रिय हैं । "पंचेदि व्व बउलो, मरो ध्व सव्य-विस ओवलंभाओ ।" इत्यादि - विशेषावश्यक, ग० २००१ अर्थात् सव विषय का ज्ञान होने की योग्यता के कारण बकुल दक्ष मनुष्य की तरह पाँच इन्द्रियों वाला है ।
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यह ठीक है कि द्वीन्द्रिय आदि की भावेन्द्रिय एकेन्द्रिय आदि की भावेन्द्रिय से उत्तरोतर व्यक्त व्यक्ततर ही होती है । पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि जिनको द्रव्येन्द्रियो पाँच पूरी नहीं हैं उन्हें भी भावेन्द्रियाँ तो सभी होती ही हैं। यह बात आधुनिक विज्ञान से भी प्रमाणित है । डा० जगदीशचन्द्र बसुकी खोज ने वनस्पति में स्मरण शक्ति का अस्तित्व सिद्ध किया है। स्मरण, जो कि मानसशक्ति का कार्य है, वह यदि एके न्द्रिय में पाया जाता है तो फिर उसमें अन्य इन्द्रियाँ जो कि मन से नीचे की श्रेणिकी मानी जाती है, उनके होने में कोई बाधा नहीं । इन्द्रिय के सम्बन्ध में प्राचीन काल में विशेष दर्शी महात्माओं ने बहुत विचार किया है, जो अनेक जैन ग्रन्थों में उपलब्ध है। उसका कुछ अंश इस प्रकार है :--
इन्द्रियाँ दो प्रकार की है. - ( १ ) द्रव्यरुप और (२) भावरुप | द्रव्येन्द्रिय, पुद्ग्ल-जन्य होने से जरूप है; पर भावेन्द्रिय, ज्ञानरूप है, क्योंकि वह चेतना शक्ति का पर्याय है ।
(१) द्रव्येन्द्रिय अङ्गोपाङ्क्ष और निर्माण नामकर्म के उदय-जन्य है । इसके दो भेद हैं:- (क) निर्वृत्ति और (ख) उपकरण ।
(क) इन्द्रियके आकार का नाम 'निवृत्ति' है निर्वृत्ति के भी (१) बाह्य और (२) आभ्यन्तर ये दो भेद हैं । (१) इन्द्रियके बाह्य
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आकार को 'बाह्यनिर्वृति कहते हैं और ( २ ) भीतरी आकार को 'आभ्यन्तर निवृत्ति' बाह्य भाग तलवार के समान है और आभ्यन्तर भाग तलवार की तेज बार के समान, जो अत्यन्त स्वच्छ परमाणुओं का बना हुआ होता है । आभ्यन्तर निर्वृत्ति का यह पुद्ग्ल स्वरूप प्रज्ञापनासूत्र - इन्द्रियपदकी टीका ० २६ के अनुसार है। आचराङ्गइति गृ० १०४ में उसका स्वरूप चेतनामय बतलाया है ।
आकार के सम्बन्ध में यह बात जाननी चाहिये कि स्वचाकी आकृति अनेक प्रकारको होती है, पर उसके बाह्य और आभ्यन्तर आकार में जुदाई नहीं है। किसी प्राणी की त्वचाका जैसा बाह्य आकार होता है, वैसा हो आभ्यन्तर आकार होता है । परन्तु अन्य इन्द्रियोंके विषय में ऐसा नहीं है:त्वचाको छोड़ अन्य सब इन्द्रियोंके आभ्यन्तर आकार, बाह्य आकारसे नही मिलते | सब जाति के प्राणियों की सजातीय इन्द्रियों के आभ्यन्तर बाकार, एक तरह के माने हुये हैं । जैसे:- कानका माभ्यन्तर आकार, कदम्ब-पुष्पजैसा, आंख का मसूरके दाना जैसा, नाकका अतिमुक्तक के फूल जैसा और जीका छुराजैसा है। किन्तु बाह्य आकार सब जातिमें भिन्न-भिन्न देखे जाते हैं । उदाहरणार्थ:- मनुष्य, हाथी, घोड़ा, बैल, बिल्ली, चूहा आदिके कान, आंख, नाक, जीभ को देखिये |
(ख) आभ्यन्तरनिर्वृतिकी विषय- ग्रहण-शक्तिको 'उपकरणेन्द्रिय' कहते है। (२) भावेन्द्रिय दो प्रकारको है: - (१) लब्धिरूप और (२) उपयोगरूप | (१) मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमको बेतना-शक्तिकी योग्यता- विशेषको 'लब्धिरूप भावेन्द्रिय' कहते है । ( २ ) इस लब्धिरूप मावेन्द्रियके अनुसार आत्माकी विषय ग्रहण में जो प्रवृत्ति होती है, उसे उपयोग रूप भावेन्द्रिय' कहते है ।
इस विषयको विस्तारपूर्वक जानने के लिये प्रज्ञापना-पद १५, पृ० २६३/ तत्वार्थ अध्याय २, सू० १७-१८ तथा वृत्ति, विशेषाव०, गा० २६६३२००३ सथा लोकप्रकाश-सर्ग ३ श्लोक ४६४ से आगे देखना चाहिये ।
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परिशिष्ट 'ग' | शम्ब पर
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पृ० १० पंक्ति १६ के " संज्ञा "
संज्ञा का मतलब आयोग ( मानसिक क्रिया - विशेष ) से है | इनके (क) ज्ञान और (ख) अनुभव, ये दो भेद है ।
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(क) मति श्रुत आदि पाँच प्रकार का ज्ञान 'ज्ञानसंज्ञा' है । (ख) अनुभवसंज्ञा (१) आहार, (२) भय, (३) मैथुन, (४) परिग्रह (५) क्रोध (६) मान, (७) माया (८) लोभ, (६) ओघ, (१०) लोक (११) मोह. (१२) धर्म, (१३) सुख, (१४) दुःख, (१५) जुगुप्सा और (१६) शोक, ये सोलह भेद है। आचाराङ्ग-नियुक्ति, गा० ३८-- ३९ में तो अनुभवसंज्ञा के ये सोलह भेद किये गये है। लेकिन भगवती - शतक ७. उद्देश में तथा प्रज्ञापना-पद में इनमें से पहले दस हो भेद, निर्दिष्ट है।
ये संज्ञार्थ सब जीवों में न्यूनाधिक प्रमाण में पाई जाती है, इसलिये ये संज्ञि असज्ञि व्यवहारको नियामक नहीं है। शास्त्रमें सज्ञि असंज्ञी का भेद है, सो अन्य असंज्ञाओंकी अपेक्षा से एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय पर्यन्तके जीवोंमें चैतन्यता विकास क्रमशः अधिकाधिक है। इस विकासके तर-चमभावको समझानेके लिये शास्त्रमें इसके स्थल रीतिपर बार विभाग किये गये हैं ।
(१) पहले विभाग में ज्ञानका अत्यन्त अल्प विकास विवक्षित है | यह विकास इतना अल्प है कि इस विकाससे युक्त जीव, मूच्छित की तरह चेष्टा रहित होते हैं। इस अव्यक्ततर चैतन्यकी 'ओघसखा' कही गई है । एकेन्द्रिय जीव, ओषस ज्ञावाले ही है ।
(२) दूसरे विभाग में विकासकी इतनी मात्रा विवक्षित है कि जिससे कुछ भूतकालका -- सुदीर्घं इतकालका नही- --स्मरण किया जाता है और जिससे इष्ट विषयों में प्रवृत्ति तथा अनिष्ट विषयोंसे निवृत्ति होती है। इस प्रवृत्तिनिवृत्त-कारी ज्ञानको 'हेतुवादोपदेशिकी संज्ञ' कहा है। ब्रोन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सम्मूच्छिम पञ्चेन्द्रिय जीव हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा वाले है ।
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(३) तीसरे विभाग में इतना विकास विवक्षत है कि जिससे सुदीर्घ
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भूतकालमें अनुभव किये हुये विषयोंका स्मरण और स्मरणद्वारा वर्तमान काल के फर्स व्यों का निश्चय किया जाता है। यह काम विचिष्ट मनकी सहायता से होता है। इस ज्ञानको 'दीर्घकालोपदेशिको संज्ञा' कहा है। देव, नारक और गर्भज मनुष्य तिर्यञ्च दीर्घकालोपदेशिकी संज्ञायाले है ।
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(४) चौथे विभाग में विशिष्ट श्रुतज्ञान विषक्षित है। यह शान इतना शुद्ध होता है कि सम्यक्त्वयोंके सिवाय अन्य जीवोंमें इसका संभव नहीं है । इस विशुद्ध ज्ञानको 'दृष्टिवादोपदेशिको संज्ञा' कहा है।
३६
शास्त्र में जहाँ कहीं संशी असंशीका उल्लेख है, वहाँ सबजगह असंज्ञीका मतलब भोषसंज्ञावाले और हेतुवादोपदेशिकी संज्ञावाले जीवों से है । तभा संज्ञीका मतलब सब जगह दीर्घकालोपदेशिकी शावालों से है ।
इस विषयका विशेष विचार तत्त्वार्थ अ० २, सू०२५ वृत्ति, नन्दी सू० ३६. विशेषावश्यक गा० ५०४ - ५२६ और लोकप्र०, स०३ श्लोक ४४२-४६३ में है।
संज्ञी असंजी के व्यवहार के विषय में दिगम्बर सम्प्रदाय में श्वेताम्बर की अपेक्षा थोड़ा सा भेद है । उसमें गर्भज तिर्यञ्चोंको संशीमात्र न मानकर संज्ञी तथा असंशी माना है । इसीतरह संमूमि तिर्यञ्चकोसिर्फ असंझी न मानकर संत्री असंज्ञी उभयरूप माना है। (जीव०, ग०७६ ) इसके सिवाय यह बात ध्यान देने योग्य है कि श्वेताम्बर -ग्रन्थ में हेतुवादोपदेशिकी आदि जो तीन संज्ञायें अणित है, उनका विधार दिगम्बरी प्रसिद्ध ग्रन्थों में दृष्टिगोचर नहीं होता ।
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४
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परिशिष्ट "" पन्छ ११ के 'अपर्याप्त' शम्द पर
(क)अपर्याप्तके दो प्रकार हैं-(१)लब्धि-अपर्याप्त और (२) करण-अपयप्ति । वैसेही (ख)पर्याप्तके भी दो भेद हैं-(१)लब्धि पर्याप्त(२) करण-पर्याप्त।
(क)-जो जीय, अपर्याप्तनामकर्म के उदयके कारण ऐसी शक्तिवाले हों कि कि स्वयोग Te'त्रिों को पूर्ण किये बिरा ही मर जाते हैं, वे लब्धिअपर्याप्त हैं।
२-परन्तु कारण-अपर्यापतके विषय में यह बात नही,थे पर्याप्तनामकर्म के भी उदरपाले होते हैं । अर्थात् चाहे पर्याप्ततामकर्मका उदय हो या अपर्याप्तनामकर्मका, पर जब तक करणोंकी (शरीर,इन्द्रिग आदि पर्याप्तियोंकी समाप्ति नहो, तब तक जीव 'करण-अपर्याप्त' कहे जाते हैं।
(ख)१-जिनको पर्याप्तनामकर्म का उदय हो और इससे जो स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करने के बाद ही मरते है, पहले नहीं, वे 'लब्धि-पर्याप्त हैं।
२-करण-पर्याप्तोंके लिये यह नियम नहीं कि वे स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करके ही मरते है। जो लब्धि-अर्याप्त है,वे भी करण-पर्याप्त होते ही हैं। क्योंकि आहारपर्याप्ति वन चकनेके बाद कमसे कम शरीरपर्याप्ति बन जाती है तभी से जीव 'करण-पर्याप्त' माने जाते हैं। यह तो नियम ही है कि लब्धि. अपर्याप्त भी कमसे कम आहार, शरीर और इन्द्रिय. इन तीन पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना मरते नहीं । इन नियमके सम्बन्ध में श्रीमलयगिरिजीने नन्दी सूत्रको टीका, पृ० १०५ में यह लिम्का है -
___"पस्मारागामिमवायुध्या भ्रियन्ते सर्वएव देहिनः तस्यहारशरीरेमिय पर्याप्तिपर्याप्तामामेव व्यत इति'
अर्थात् सभी प्राणी अगले मवकी आयुको बाँधकर ही मरते हैं, बिना बाँप नहीं मरते । आयु तभी बांधी जा सकती है, जबकि आहार, शरीर और इन्द्रिय, ये तीन पर्याप्तियां पूर्ण बन चुकी हो।
इसी बातका खुलासा श्रीदिनयविजयजीने लोकप्रकाश सर्ग ३,श्लोक १ में इस प्रकार किया है:-जो जीव लब्धि-अपर्याप्त है , वह भी पहली तीन पर्या
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कर्मग्रन्थ भाग बार
प्तियोंको पूर्ण करने ही अग्रिम भवकी आयु बांधता है। अन्तमुहत तक आयुबन्च करके फिर उसका जघन्य अबाधाकाल, जो अन्तमुहूर्त का माना गया है, उसे वह बिताता है । इसके बाद मरके वह गत्यन्सर में जा सकता है । जो अग्रिम आयुको नहीं बांधता और उस के अबाधाकालको पूरा नहीं करता, वह मर ही नहीं सकता।
दिगम्बर साहित्य में करण-अपर्याप्तके बदले नित्ति अपर्याप्त शब्द मिलता है: हर्ष में होडासा पनि ति शब्द का अर्थ शरीर ही किया हुआ है । अत एव शरीरपर्याप्ति पूर्ण न होने तक ही दिगम्बरीय साहित्य, जीवको नियंत्ति अपर्याप्त काहता है । शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद वह, निवं त्ति अपर्याप्त व्यवहार करने की सम्मति नहीं देता । यथाः
"पजत सय उदये, णिणियपज्जति णिटिचो होकि । जाब सरीरमयुष्ण, शिव्यत्तिमपुष्णगो तात्र ॥ १२० ॥
__ ---जीवकाण्ड । सारोश यह कि दिगम्बर-साहित्यमें पर्याप्तनामकर्मका उदयवाला ही शरीर-पर्याप्ति पूर्ण न होने तक 'निर्वृत्ति-अपर्याप्त' शब्दसे अभिमत है।
परन्तु श्वेताम्बरीय साहित्य में 'करण' शन्दका शरीर, इन्द्रिय आदि पर्याप्तियाँ, इतना अर्थ किया हुआ मिलता है । यथाःकरणानि शरीराक्षावोनि ।'
-लो प्र0, स० ३, श्लो० १० | अत एव श्वेताम्बरीय सम्प्रदाय के अनुसार जिसने शरीर पर्याप्ति पूर्ण की है, पर इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण नहीं की है, वह भी 'करण-अपर्याप्त कहा जा सकता है । अर्थात् शरीररूप करण पूर्ण करनेसे 'करण-पर्याप्त'
और इन्द्रियरूप करण पूर्ण न करनेसे 'कारण-अपर्याप्त' कहा जा सकता है। इस प्रकार श्वेताम्बरी सम्प्रदायकी दृष्टिसे शरीरपर्याप्तिसे लेकर मनः पर्याप्ति पर्यन्त पूर्व-पूर्व पर्याप्ति पूर्ण होनेपर 'करण-पर्याप्त' और उत्तरोत्तर पर्याप्तिके पूर्ण न होनेसे 'करण-अपर्याप्त' कह सकते हैं । परन्तु जब जीव, स्थयोग्य सम्पूर्ण पर्याप्तियोंको पूर्ण कर लेवे, तब उसे 'करण-अपर्याप्त नहीं रह सकते।
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पर्याप्ति का स्वरूपः-पर्याप्ति, वह शक्ति है, जिसके द्वारा जीव, आहार श्वासोच्छवास आदिके योग्य पुद गमों को ग्रहण करता है और गृहीत पुद्गलों को आहार-आदिरूपमें परिणत करता है। ऐसी शक्ति जीवमें पुद्गलोंके उपचश्मे बनती है । अर्थात् जिस प्रकार पेटके भीतर के भाग में वर्तमान पुद्ग्लों में एक तरहकी शक्ति होती है, जिससे कि खाया हुआ आहार भिन्न भिन्न रूपमें बदल जाता है,इसी प्रकार जन्मस्थान-प्राप्स' जीव के द्वारा गृहीत पूदग्लोंसे ऐसी शक्ति बन जाती है, जो कि आहार आदि प्रदालोंको खल-रस आदिरुपों में बदल देती है। वहीं शक्ति पर्याप्ति है । जनक पुद्ग्ल में से कुछ तो ऐसे होते हैं, जो कि जन्मस्थान में आये हुये जीवके द्वारा प्रथम समय में ही ग्रहण किये हुये होते हैं और कुछ ऐसे भी होते हैं, जो पीछे से प्रत्येक समय ग्रहण किये जाकार, पूर्व-गृहीत पुग्लों के संसग से तद्रूप बने हुये होते हैं ।
काय-भेदस पयाप्तिके छन् भद-5 आहार :, शरीरपर्याप्सि, (३) इन्द्रियपाति, (४) दवामोमालासपर्याप्ति, १५) भाषापर्याप्ति
और (६) मनःपर्याप्ति । इनकी व्याख्या, पहले कर्म ग्रन्थी ४६ वीं गाथाके भावार्थ में पृ० ६७ वें से देख लेनी चाहिये ।
इन छह पर्याप्तियों में से पहली चार पर्याप्तयों के अधिकारी एकेन्द्रिय ही हैं । द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रि य, चतुरिन्द्रिय और असज्ञि-पञ्चन्द्रिय जीव, मनः पर्याप्तियोंके सिवाय शेष पाँच पर्याप्तियोंके अधिकारी है । संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय जीव, छहा पर्याप्तियों के अधिकारी है ।इस विषयको गाथा, श्रीजिनमद्रगणि क्षमाश्रमण-कुत बृहत्सग्रहण में है:
"आहारसरिदिय-पज्जत्ती आणपाणभासमणो।
प्रसारि पंच छपि य, एगिविविगलसंनीणं ।। ३४६ ॥'' पही गाथा गोम्मटसार-जीवकाण्ड में ११८ वे नम्बर पर दर्ज है। प्रस्तुत विषयका विशेष स्वरूप जाननेके लिये ये स्थल देखने योग्य है:
नन्दी, पृ० १०४-१०५ पञ्चस०, द्वा० १, गा० ५ वृत्ति, लोकप्र०, स० ३, श्लो०७-४२ तथा जीवकाण्ड, पर्याप्ति-अधिकार, गा० ११७-१२७
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परिशिष्ट ""
पृष्ठ २१ के क्रम मावों शब्द पर
छभस्थ के उपयोग कमभावी हैं, इसमें मतभेद नहीं है, पर केवली के उपयोग के सम्बन्ध में मुख्य तीन पक्ष है:
(१) सिद्धान्त- पक्ष, केवलज्ञान और केवलदर्शनको कमभावी मानता है इसके समर्थक श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि हैं ।
(२) दूसरा पक्ष, केवलज्ञान- केवलदर्शन, उभय उपयोगको सहभावी मानता है । इसके पोषक श्रीमल्लवादी तार्किक आदि हैं।
(तीसरा पक्ष उभय उपयोगोंका भेद न मानकर उनका ऐक्यमानता हैं। इसके स्थापक श्रीसिद्धसेन दिवाकर है।
तीनों पक्षोंकी कुछ मुख्य-मुख्य दलीलें क्रमशः नीचे दी जाती हैं:
-
१ (क) सिद्धान्त (नगवती- शतक १८ और २५ के ६ उद्देश, तथा प्रज्ञापना-पद ३० ) में ज्ञान दर्शन दोनोंका अलग-अलग कथन है तथा उनका क्रम मावित्व स्पष्ट वर्णित है । ख) नियुक्ति | आ०नि०गा० २७७-९७६। में केवल ज्ञान- केवलदर्शन दोनोंका भिन्न-भिन्न लक्षण उनके द्वारा सर्व विषयक ज्ञान तथा दर्शनका होना और युगपत् दो उपयोगों का निषेध स्पष्ट बतलाया है। (ग) केवल ज्ञान- केवलदर्शन के भिन्न-भिन्न आवरण और उपयोगोंकी बारह संख्या शास्त्र में (प्रज्ञापना २६०३५ आदिमें जगह-जगह वर्णित है । (घ) केवलज्ञान और केवलदर्शन, अनन्त कहे जाते हैं, सो लब्धिको अपेक्षा से उपयोग की अपेक्षा से नहीं । उपयोगकी अपेक्षा से उनकी स्थिति एक समयकी है; क्योंकि उपयोगकी अपेक्षा से अनन्तता शास्त्रम नाही भी प्रतिपादित नहीं है । (ङ) उपयोगों का स्वभाव ही ऐसा है, जिससे कि वे क्रमशः प्रवृत्त होते हैं। इसलिये केवलज्ञान और केवलदर्शनको क्रमभावी और अलग-अलग मानना चाहिये ।
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२ (क) आवरण-क्षयरूप निमित्त और सामान्य विशेषात्मक विषय, समकालीन होने से केवलज्ञान और केवलदर्शन युगपत् होते हैं । ख) लायस्थिक उपयोगों में कार्यकारण भाव या पररपर प्रतिबन्ध्य-प्रतिबन्धक भाव घट सकता है. ज्ञायिक उपयोगों में नहीं; क्योंकि बोध-स्वभाव शरश्वत आत्मा, जब निरावरण हो, तब उसके दोनों क्षायिक उपयोग निरन्तर ही होने चाहिये । (ग) केवलज्ञान केवलदर्शनकी सादि-अपर्यवसितता, जो शास्त्र में कही है, वह भी युगपतृ पक्ष में ही घट सकती है; क्योंकि इस पक्ष में दोनों उपयोग युगपत् और निरन्तर होते रहते हैं। इसलिये द्रव्यार्थिकनयसे उपयोग-दुबके प्रवाहको अपर्यवसित (अनन्त) कहा जा सकता है। (घ) केवलज्ञान- केवलदर्शन के सम्बन्ध में सिद्धान्त में जहकहीं जो कुछ कहा गया है, वह सब दोनोंके व्यक्ति-भेदका साधक है, तमा वित्व का नहीं। इस लिये दोनों उपयोगको सहभावी मानना चाहिये ।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
३---(क) जैसे सामग्री मिलनेपर एक शान-पर्याय में अनेक घट-पटादि विषय भासित होते हैं, बसे ही आवरण-क्षय, विषय आदि सामग्री मिलने पर एफ ही केवल-उपयोग, पदार्थोके सामान्यविशेष उभय स्वरूपक जान सकता है। खजसे केवलज्ञान के समय,मतिज्ञानावरणादिका अभाव होनेपर भी मति आदि जान, केवलज्ञानसे अलग नहीं माने जाते, वैसे ही केवल दर्शना-वरणका क्षय होने । पर मी केवलदर्शनकों, केवलज्ञानसे अलग मानना उचित नहीं। (ग)विषय और क्षयोपशमतकी विभिन्नताके मारण, छानस्थिक ज्ञान और दर्शन में परस्पर भेद माना जा सकता है, पर अनन्त-विषयकता और क्षायिक-भाव समान होने से केोवत्रज्ञान केवलदर्शन में किसी तरह भेद नहीं माना जा सकता। (घ) यदि केबल दर्शनको केवलज्ञानसे अलग माना जाय तो वह सामान्यमात्रको विषय करने वाला होनेसे अल्पविषयकसिद्ध होगा, जिससे उसकाशास्त्रकथितअनन्त-विषयकत्व नहीं घट सकेगा । (ड:) कालोका भाषण, सावलशान साम-दुर्वर होता है, मह शास्त्र-कथन अभेद-पक्षहीम पूर्णतया घट सकता है । (च) आवरण-भेद कथञ्चित है; अर्थात् वस्तुत: आवरण एक होने पर भी कार्य और उपाधि-भेदकी अपेक्षा से उसके भेद समझने चाहिये इस लिये एक उपयोग-व्यक्तिमें ज्ञानत्व दश नत्व दो धर्म अलग-अलग मानना चाहिये । उपयोग, ज्ञान-दर्शन दो अलग-अलग मानना युक्त नहीं; अत एवं ज्ञान-दर्शन दोनों शब्द पर्यायमात्र एकार्थवाधी) हैं।
उपाध्याय श्रीयशोविजयजीने अपने ज्ञानबिन्दु प०११४ में नयी-दुष्टि से तीनों पक्षों का समन्वय किया है:-सिद्धान्त-पक्ष,शुद्ध ऋजसुत्रनयकी अपेक्षा से; श्रीमत्लवादी जी का पक्ष, व्यवहार-मयकी अपेक्षा से और श्रीसिद्धसेन दिवाकरका पक्ष, संग्रहनयकी अपेक्षा से जानना चाहिये। इस' विषयका सविस्तर वर्णन, सम्मतितर्क; जीवकाण्ड मा. ३ से आगे; विशेषावश्यक माण्य गा० ३०८८-३१३५, श्रीहरिभद्रगरिकृत धर्मसंग्रहणी गा० १३३६-१३५६, श्रीसिद्धसेनगणिकृत तत्वार्थटीका अ० १, सू० ३१, प. श्रीमलयगिरि-नन्दीवृत्ति १० १३४-१३८ और मानबिन्दु प०१५४-१६४ से जान लेना चाहिये ।
'दिगम्बर-सम्प्रदाय में उक्त तीन पक्ष में से दुसरा अर्थात् उपयोग-जयका पक्ष ही प्रसिद्ध है:
जगवं वदणाणं, केवलजाणिस्स बसणं च तहा। विणयरपयासतापं, जह पट्टई तह मुणेघवं ॥१६॥" -नियमसार । "सिद्धाणं सिद्धगई, केबलणाणं च बंसगं खयियं ।
सम्म समणाहार, उपजोगाणरकमपउत्ती ॥७३०॥" -जीवकाण्ठ । "बसणपुवं जाणं, छदमस्थाणं ण वोण्णि उपजग्गा।
गर्व सम्हा केवलि–णाहे झुग तु ते धो वि ॥४४॥" - द्रश्यसंग्रह ।
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कर्मग्रन्थ भाग बार
परिशिष्ट "छ" ।
"भावसु मसाभि
पृष्ठ २२ के 'एकेन्द्रिय शब्द पर
एकेन्द्रियों में तीन उपयोग माने गये हैं। इसलिये यह शङ्का होती है कि स्पर्शनेन्द्रिय-मति - ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने से एकेन्द्रियों में मति उपयोग मानना ठीक है, परन्तु माषालब्धि ( बोलने की शक्ति ) तथा श्रवणलब्धि ( सुनने की शक्ति) न होने के कारण उनमें श्रुत उपयोग कैसे माना जा सकता है; क्योंकि शास्त्र में भाषा तथा श्रणलब्धिवालों को ही ज्ञान माना है । यथा:
LA
भातासो - यलद्विणो जुज्जए म यस्स हरिताहि ॥९०२५
सोकर
४५
7
- विशेषावश्यक |
बोलने व सुनने की शक्ति वाले हो को भावभूत हो सकता है, दूसरे को नहीं | क्योंकि 'श्रुतान' उस ज्ञान को कहते हैं, जो बोलने की इच्छा वाले या वचन सुनने वाले को होता है ।
1
इसका समाधान यह है कि स्पर्शनेन्द्रिय के सिवाय अन्य द्रव्य ( बाह्य) इन्द्रियों ने होने पर भी वृक्षादि जीवों में पाँच मावेन्द्रिय-जन्य ज्ञानों का होना, जैसा शास्त्र सम्मत हैं, वैसे ही बोलने और सुनने की शक्ति न होने पर भी एकेन्द्रियों में भावश्रुतज्ञान का होना शास्त्र सम्मत है । यथा:"जह सुमं भावित्रिय - नाणं वश्विवियावरोहे वि ।
तह दव्यसुयाभावे भावसुर्य पश्चिवाईनं ॥ १०३॥ "
- विशेषावश्यक | जिस प्रकार द्रव्य इन्द्रियों के अभाव में भावेन्द्रिय-जन्य सूक्ष्म ज्ञान होता है, इसी प्रकार द्रव्यश्रुत के भाषा आदि बाह्य निमित्त के अभाव में मी पृथ्वीकायिक आदि जीवों को अल्प भावश्रुत होता है। यह ठीक है कि औरों को जैसा स्पष्ट ज्ञान होता है, वैसा एकेन्द्रियों को नहीं होता । शास्त्रमें एकेन्द्रियों को आहार का अभिलाष माना है, यही उनके अस्पष्ट ज्ञान मानने में हेतु है ।
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कमग्रन्थ भाग चार
आहार का अभिलाष, शुधावेदनीयकम के उदय से होने वाला आत्मा का परिणाम-विशेष (अध्यवसाय) है । यथा:---
___ "माहारसंज्ञा आहाराभिलाषः क्षुदनीयोषयप्रभवः खल्वात्मपरिणाम इति ।"
-आवश्यक, हारिमट्टी वृत्ति पृ० ५८० । इस अभिलाषरूप अध्यवसाय में 'मुझे अमूक वस्तु मिले तो अच्छा, इस प्रकार का वाब्द और अर्थ का विकल्प होता है। जो अध्यवसाय विकल्प सहित होता है, वही श्रुतज्ञान कहलाता है । यथा:--
"इंशियमणोनिमित्तं जं विष्णाण सुयाणुसारेणं ।। निपयत्युत्तिसमत्थं, तं मायसुयं मई सेसं ॥१००1"
__ --विशेषावश्यक । अर्थात् इन्द्रिय और मन के निमित्त से उत्पन्न होने वाला ज्ञान, जो नियत अर्थ का कथन करने में ममर्च और श्रुतानुसारी (शकद तथा अर्थ के विकल्प से युक्त) है, उसे 'भावश्च त' तथा जल से भिन्न ज्ञान को 'मतिज्ञान' समझना चाहिये । श्च यदि एन्द्रियों में श्रत उपयोग न माना जाय लो उनमें आहार का अभिलाष, जो शास्त्र-सम्मत है। वह कैसे घट सकेगा ? इसलिये बोलने और सुनने की शक्ति न होने पर भी उनमें अत्यन्त सूक्ष्म श्रुत-उपयोग अवश्य ही मानना चाहिये ।
भापा तथा श्रवणलब्धि वाले को हो भावश्रुत होता है, दूसरे को नहीं इस शास्त्र-कथन का तात्पर्य इतना ही है कि उक्त प्रकार की शक्ति वाले को स्पष्ट भावश्रुत होता है और दूसरों को अस्पष्ट ।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
(२) - मार्गणास्थान- अधिकार । मार्गणा के मूल भेद ।
गइदिए ध काये, जोए बेए कसायनाणेसु । संजमदंसणलेसा, भवसम्मे स निआहारे' ॥ ६ ॥ गतीन्द्रिये काथे, योगे वेदे कषायज्ञानयोः । संयमदनलेश्या भव्यसम्यक्त्वे संज्ञयाहारे ॥ ॥
अर्थ - मार्गणास्थान के गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, वर्शन, लेश्या, भव्यश्व, सम्यक्त्य, संशित्व और आहारकस्व, ये चौदह मेद हैं ॥ ६ ॥
मार्गणाओं की व्यास्था
हैं
भावार्थ - ( १ ) गति--जो पर्याप्त, गतिनामकर्म के उदय से होते जिससे जोर मनुष्य विदारक का व्यवहार होता है, वे 'गति' हैं ।
१- यह गाथा पञ्चसंग्रह की है (द्वार १. गा० २१) । गोम्मटसार जीवकाण्ड में यह इस प्रकार है:
―
"वियेसु काये, जोगे वेदे कसायणाणे ग
संजमसणलेस्साविवासमत्तसम्णि आहारे ॥ १४१ ॥ "
२ -- गोम्मटसार - जीवकाण्ड के मार्गणाधिकार में मार्गणाओं के जो लक्षण हैं, वे संक्षेप में इस प्रकार हैं:
(१) गतिनामकर्म के उदय-जन्य पर्याय या बार गति पाने के कारणभूत जो पर्याय, वे 'गति' कहलाते हैं ।
-- गा० १४५
(२) अहमिन्द्र देव के समान आपस में स्वतन्त्र होने से नेत्र आदि को 'इन्द्रिय' कहते हैं ।
-- ना० १६३ ॥ (३) जातिनामकर्म के नियत सहचारी अस या स्थावर- नामकर्म के उदय से होने वाले पर्याय 'काय' हैं । गा० १८० ।
(४) पुल-विपाकी शरीरनामकर्म के उदय से मन, वचन और काययुक्त जीव की कर्म-ग्रहण में कारणभूत जो शक्ति, वह 'योग' है । - गा० २१५
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४८
कर्ममन्य भाग चार (२) निय-खचा, नेत्र मावि जिन साधनों से सर्वो-गर्मी,
(५) वेदमोहनीय के उदय-उदीरणा से होने वाला परिणाम का संमोह (चाञ्चल्य), जिससे गुण-दोषका विवेक नहीं रहता, वह 'वेद' है।-गा० २७१
(६) 'पाय' जीव के उस परिणाम को कहते हैं, जिससे सुख-दुःख रूप अनेक प्रकार के घास को पैदा करने वाले और संसार रूप विस्तृत सीमा वाले कर्मरूप क्षेत्र का कर्षण किया जाता है। -गा २८१ ।
___ सम्मनत्व, देशचारिय, सर्वचारित्र और यथाख्यातचारित्र का घात (प्रतिबन्ध) करने वाला परिणाम 'काय' है।
-गात २२ । (७) जिसके द्वारा जीव तीन काल-सम्बन्धी अनेक प्रकार के द्रव्य , गुण और पर्याय को जान सकता है, वह 'शान' है। --गा २९८ ।
(1) अहिंसा आदि व्रतों के धारण, ईयाँ आदि समितियों के पासान कषायों के निग्रह. मन आदि दण्ड के त्याग और इन्द्रियों की जय को 'संयम'
__ -गा. ४६४। (६) पदार्थों के आकार को विशेष रूप से न जानकर सामान्य रूप से जानना, वह 'दर्शन' है।
--गा० ४७१। (१०) जिस परिणाम द्वारा जीव पुण्य-अप कर्म को अपने साथ मिला लेता है, वह लेश्या' है।
___..-पा०४८८ । (११ जिन जीवों की सिद्धि कभी होने वाली हो-जो सिद्धि के योग्य हैं, वे भन्य' और इसके विपरीत, जो कभी संसार में मुक्त न होंगे, वे 'अभव्य' हैं।
-गा५५६ । (१२ वीतराग के कहे हुये पाँच अस्तिकाय, छह दृश्य या नव प्रकार के पदार्थों पर आज्ञापूर्वक या अधिगमपूर्व प्रमाण-नय-निक्षेप-द्वारा) श्रद्धा करना 'सम्यक्त्व' है।
-गा० ५६० । [१३. नो-इन्द्रिय (मन) के आवरण का क्षयोपशम या उससे होने वाला ज्ञान, जिसे संशा कहते हैं, उसे धारण करने वाला जीव 'संझी' और इसके विपरीत, जिसको मन के मिवाय अन्य इन्द्रियों से ज्ञान होता है वह 'असंज्ञी' है।
गा० ६५९ । (१४) औदारिक, बैंक्रिय और आहारक, इन सीन में से किसी भी शरीर के योग्य वर्गणाओं को पथायोग्य ग्रहण करने बाला जीव 'आहारक है
—गा० ६६४ ।
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कर्म ग्रन्थ भाग चार
काले-पीले आदि विषयों का ज्ञान होता है और जो अङ्गोपाङ्ग तथा निर्माण नामकर्म के उवय से प्राप्त होते हैं, वे 'इन्द्रिय' हैं।
(३) काम – जिसकी रचना और वृधि यथायोग्य औवारिक, बक्रिय आदि पुग्ल-स्कन्यों होती है और जो करनाNE उवय से बनता है, उसे 'काय' ( शरीर ) कहते हैं।
(४) योग--वीर्य-शक्ति के जिस परिस्पद से - आरिमक-प्रदेशोंको हस-मल से-गमन, भोजन आदि क्रियायें होती हैं और मो परिस्पन्व, शरीर, भाषा तथा ममोवर्गणा के पुग्लों की सहायता से होता है. वह 'योग' है।
( ५ ) वेद-संभोग-अन्य सुख के अनुभव की इसछा, जो वेवमोहनीयकर्म के उदय से होती है, वह 'द' है।
(६ ) कषाय--किसी पर भासक्त होना या किसी से माराम हो जाना, इत्यादि मानसिक-विकार, प्रो संसार-वृद्धि के कारण है और जो कषायमोहनीय फर्म के उवय-जन्य हैं, उनको 'काम' कहते हैं।
(७) जाम-किसी वस्तु को विशेष रूप से सामने वाला चेतनाशक्ति का व्यापार ( उपयोग ), 'ज्ञान' कहलाता है।
() संयम-कर्मबन्ध-जनक प्रवृत्ति से अलग हो जाना, 'संगम' कहलाता है ।
(६) दर्शन--विषय को सामान्य रूप से जानने वाला चेतनाशक्ति का उपयोग 'दर्शन' है।
(१०) लेश्या - आश्मा के साथ कर्म का मेल कराने वाले परिणामविशेष लक्ष्या' हैं।
( ११ ) मध्यस्व-मोक्ष पाने की योग्यता को 'भन्यत्व' कहते हैं।
(१२ ) सम्पपरव-आत्मा के बस परिणाम को सम्यक्रम कहते हैं, को मोक्ष का अविरोषी है-जिसके व्यक्त होते ही मारमा की प्रवृत्ति,
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गर्म
कर
मुख्यतथा अन्तर्मुख भीतर की ओर ) हो जाती है। तस्व-राधि, इसी परिणाम का पाल हैं। प्रशम, संवेग, निवेद, अनुकम्पा और प्रास्तिकता, ये पांच लक्षण प्रायः सम्यक्री में पाये जाते हैं।
१३) संश्रिय-धोघंकालिको संझा को प्राप्ति को 'संमित्व कहते हैं।
(१४) आहारकरव -किसी-न-किसी प्रकार के आहार' को प्रण करना, 'आहारकत्व है।
मूल प्रत्येक मार्गणा में सम्पूर्ण संसारी जीवों का समावेश होता है ।।१।।
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१- यही बात भट्टारका पीअकालदेवने कही है:"तस्मात् सम्यग्दर्शनमात्मपरिणामः श्रेयोभिमुखमध्ययस्यामः"
– तत्वा अ० १, सू० २, रान० १६ । 5-आहार नीन प्रकार वा है:-। ओज-आहार, (२) लोभआहार और (३) कवल-आहार । इनका लक्षण इस प्रकार है:--
"सरीरेणीयाहारी. तपाइ फासेण लोम आहारो।
पक्खे पाहारो पुण, कलियो होइ नामको।" गर्भ में उत्पन्न होने के समय जो शुक्र-शोणितरूप आहार, कार्मणशरीर के द्वारा लिया जाता है. वह ओज, वायु का स्वगिद्रिय द्वारा जो ग्रहण किया जाता है, यह लोभ और जो अन्न आदि खाद्य, मुख द्वारा ग्रहण किया जाता है, वह कवल-आहार है।
आहार का स्वरूप गोम्मटसार-जीवकाण्ड में इस प्रकार है:
"उदयावष्णसरी रो,-बयेण तहहबयणाचित्ताणं ।
गोकम्मवगणाणं, गहणे आहारयं नाम ॥६६३॥ शारीरनामकर्म के उदय से देह, वचन और दध्यमा के बनने योग्य नोकर्म-वर्गणाओं का जो ग्रहण होता है, उसाको 'आहार' कहते हैं।
दिगम्बर-साहित्य में आहार के छह भेद किये हुये मिलते हैं । यथा:--
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कर्मग्रन्थ भाप चार
मार्गणास्थान के अवान्तर (विशेष) भेद ।।
। चार गाथाओं से । ] सुरनर तिरिनिरयमई, इगनियतियचउणिदि छकाया। भूजलजलणानिलकण, तसा य मणक्यणतणुजोगा |१०|| गुरनरयिं इनिरयगति रेकतिकनिकचतुष्पञ्चेन्द्रियाणि प्रकायाः । भूजन ज्वलनानिग्न वन समाश्च मनोम चनतनुयोगाः ॥ १० ॥
अर्थ-देष, मनुष्य, तियंञ्च और नरक, ये चार गतियां हैं। एकेन्द्रिय, होन्द्रिय, श्रीप्रिय, चरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय, ये पाच इन्द्रिय हैं । पृथ्वीकाय, जलकाय, वायुकाम, अग्निकाय, वनस्पतिकाय और उसकाय, ये छह काय हैं । मनोयोग, पचनयोग और काययोग, ये तीन योग हैं ।। १० ।।
(१)--गतिमार्गणा के भेदों का स्वरूरः
भावार्थ-- १ ) देवगसिनामकर्म के उदय से होने वाला पर्याय (शरीर का विशिष्ट आकार), जिससे यह वेब' है, ऐसा व्यवहार किया जाता है, यह 'वेवगति' । (२) 'यह मनुष्य है,' ऐसा व्यवहार करानेपाला जो मनुष्यगतिनाम कर्म के उवय-जन्य पर्याय, वह 'मनुष्यगति' । (३) मिस पर्याय से जीय तिर्यञ्च' कहलाता है और जो तिर्यञ्चतिमामकर्म के उचय से होता है, वह 'तिर्ययाति' । (४) जिस पर्याय को पाकर जीय, 'नारक' कहा जाता है और जिसका कारण मरगति. मामकर्म का उदप है, वह 'नरफगति' है ।
गोकम्मरम्महारो, कवालाहारो प लेपमाहारो। ओजमणो वि य कमसो, आहारो विहो यो ।।" -~-प्रमेयकमलमार्तण्ड के द्वियीय परिच्छेद में प्रमाण रूप से उद्धप्त ।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
(२}--इन्द्रियमाणा के भेदों का स्वरूपः----
(१) निस जाति में सिर्फ स्वचा इन्द्रिय पायी जाती है और जो जाति, एफेन्द्रियजातिनामकर्म के उदय से प्राप्त होती है, वह 'एफेन्द्रियजाति । ( २ ) जिस जाति में छो इग्नियां (त्वचा, जीम) हैं
और जो द्वीन्द्रियजालिनामकर्म के उदय-जन्म है, बाह 'दीन्द्रियजाति' । ( ३ ) जिस जाति में इन्नि यो नीन (उक्त दो तमा नाक) होती हैं और श्रीन्द्रियजातिनामकर्म का उपय जिसका कारण है, वह 'श्रीन्द्रियजाति' । ; ) प्रदिपजाति मन्द्रियाँ चार । उक्त तौन तथा नेत्र ) होती हैं और जिसकी प्राप्ति चतुरिन्द्रियजालिनामकर्म के उदय से होती है । ( ५ ) पञ्चेन्द्रियजाति में उक्त धार और कान, ये पाँच इन्द्रियाँ होती हैं और उसके होने में निमित्त पञ्चे. द्रियजातिनामकर्म का उदय है ।
(३)---कायमार्गणा के भेदों का स्वरूप:
(१) पार्थिव शरीर, जो पृथ्वी का बनता है, यह 'पृथ्वीकाय' । ( २ ) जलीय शरीर, जो जससे बनता है, वह 'जलकाय' । ( ३ ) तंजसशरीर, जो तेजका बनता है, वह 'लेज काय' । (४) वायवीय शरीर, जो वायु-जन्य है, वह वायफाय 1 (५) बनस्पतिशरीर, जो वनस्पतिमय है, वह 'वनस्पतिकाय' है । ये पाँच काय, स्थावर नामकर्म के उसम से होते हैं और इनके स्वामी पृथ्वीकापिक आदि एकेन्द्रिय जीव है । । ६ ) जो शरीर अल-फिर सकता है और जो प्रसनामकर्म के बय से प्राप्त होता है, यह 'सकाय' है । इसके धारण करने वाले द्वीन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय तक सब प्रकार के जीत हैं।
(४)- योगमार्गणा के मेदों का स्वरूप:-- {१) जीव का बह व्यापार 'मनोयोग' है, जो औवारिक, वैक्रिय १-देखिये, परिशिष्ट "ज ।"
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कर्मनाप भाग चार
या माहारक- शरीर के द्वारा ग्रहण किये हुये मनोवक्ष्य-समूह की भवद से होता है। (२) जीव के उस व्यापार को 'वचन योग' कहते हैं, जो औदारिक, वैक्रिय या आहारक-बारीर को क्रिया द्वारा संचय किये हुये भाषानध्य की सहायता से होता है (३) बारीरधारी आत्मा को पार्य शक्ति का व्यापार-विशेष 'काययोग' कहलाता है ॥१॥
-तमार्गणा लो भेटों का मः -- वेय नरिस्थिनपुसा, कसाय कोहमयमायलोभ ति। महसुयवहिमणकेवल,-बिहंगमइसुअनाण सागारा ॥११॥
वेदा नरस्त्रिनपुसकाः, कषाया क्रोधमदमायालोमा इति । मातश्रुतावधिमनः कवयिङ्गमति श्रुताज्ञानानि साकाराणि ||१||
अर्थ-पुरुष, स्त्री और नपुंसक, ये तीन वेद हैं । क्रोध, मान माया और लोभ, ये चार मेव कषाय के हैं । मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्याय और केवल जान तथा मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभङ्गजान, ये आठ सकार (विशेष) उपयोग हैं ॥११॥
भावार्थ-(१) स्त्री के संसर्ग को इच्छा 'पुरुषवेव', (२) पुरुषके संसर्ग करने की इच्छा स्त्रीवेद' और 1) स्त्री-पुरुष दोनों के संसर्ग की इच्छा 'भपुसकत्रेव' है ।
१-यह लक्षग भागवेदका है । द्रव्यवेदका निर्णय बाहरी चिह्नों से किया जाता है:-पुरुष के चिन्ह, डाड़ी-मूछ आदि हैं। स्त्री के चिन्ह डाढ़ी मूछ का अभाव तथा स्तन आदि हैं । नसक में स्त्री-पुरुष दोनों क कुछ-कुछ चिन्ह होते हैं ।
यही बात प्रज्ञापना-भाषा पद की टीम में ही हुई है: - “योनिम दुवमस्पर्य, मुम्भता कोस्वता स्तनो। पुस्कामितेति लिङ्गानि, सप्त स्रोस्थे प्रचक्षते ॥१॥ मेहनं खरता बाढय, शोषटीय मधु धृष्टता । स्त्रीकामिति लिङ्गानि, सप्त धुरो प्रचक्षते ॥२॥
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कर्मग्रन्थ भाग चार
स्तनाविश्मयकेशावि, मावाभाघसमन्वितम् । नपुसकं बुधाः प्राह, मोहानलसुदीपितम् ॥३॥
बाव चिन्ह के सम्बन्ध में यह कथन बहलता की अपेक्षा से है। क्योंकि कभी कभी पुरुष के चिन्ह, स्त्री में और स्त्री के चिन्ह, पुरुष में देखे जाते हैं। इस बात की सत्यता के लिये नीचे-लिखे उद्धरण देखने योग्य हैं:
"मेरे परम मित्र डाटर शिवप्रसाद, जिस समय कोटा हास्पिटल में थे (अब आपने स्वतन्त्र भेडिकस हाल खोलने के इरादे से नौकरी छोड़ दी है , अपनी आँखों देखा हाल इस प्रकार ज्यान करते हैं कि 'डाक्टर मेकबाट साहब के जमाने में ( कि जो उस समय कोटे में चीफ मेखिकल आफिसर पे ) ......... 'एक व्यक्ति पर मुथस्था ( अन्डर फस्रोफ़ार्म ) में शस्त्रचिकित्सा ( बापरेशन ) फरनी यो, श्रतएव उसे मूचित किया गया; देखते क्या हैं कि उसके शरीर में स्त्री और पुरुष दोनों के जिम्ह विद्यमान हैं । ये दोनों अवयव पूर्ण रूप से विकास पाए हुए थे । शस्त्रचिकित्सा किये जाने पर उसे होश में लाया गया, होश में आने पर उससे पूछने पर मालूम हुआ कि उसने उन दोनों अवयवों से पृथक् २ उनका कार्य लिया है, किन्तु गर्भाविक शंका के कारण उसने स्त्री विषयक अवयय से कार्य लेना छोड़ दिया है। यह व्यक्ति अब तक जीवित है।'
"सुनने में आया है और प्रायः सत्य है कि 'मेरवाड़ा शिस्ट्रिपट (Merwari District: में एक व्यक्ति के लड़का हुआ । उसने वयस्क होने पर एण्ट्रेन्स पास किया । इसी असे में माता पिता में उसका विवाह भी कर दिया, क्योंकि उसके पुरुष होने में किसी प्रकार की शंका तो थी हो नहीं; किन्तु विवाह होने पर मालूम हुआ कि वह पुरुषत्व के विचार से सर्वथा अयोग्य है। अतएव साक्टरी जांच करवाने पर मालूम हुआ कि यह वास्तव में यों है और स्त्री चिन्ह के
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कर्मग्रन्थ भाग नार
(६) कषाय मार्गणा के भेदों का स्वरुपः - (१) 'क्रोध' वह विकार है. जिससे किसी की भली. बुरी बात सहन नहीं की जाती या नाराजी होती है। (२) जिस दोष से छोटे-बड़े के प्रति उचित नत्रभाष नहीं रहता था जिससे ऐंठ हो वह 'मान' है। ऊपर पृषचिन्ह नाम मात्र को बन गया . इसी कारण वह चिन्ह मिरर्थक है .-अतएव डाक्टर के उस कृत्रिम बिह को दूर कर देने पर उसका शुद्ध स्त्रीस्वरुप प्रकट हो गया और उन दोनों स्त्रियों (पुरुषरुपारी स्त्री और उसकी विवाहिता स्त्री) की एक ही व्यक्ति से शादी कर दी गई।' यह स्त्री कुछ समय पहिले तक जीवित बतलाई जाती है।"
--मानवसतिशास्त्र प्रकरण छा। यह नियम नहीं है कि ट्रम्पवेद और भाववेद समाा ही हो । ऊपर से पुरुष के चिन्ह होने पर भी भार से स्त्री वेद के अनुभव का सम्मव है । यथा:
"प्रारम र फेलिसंकुलरणारम्भे तया साहसप्रायं कान्तजयाय किश्चिदुपरि प्रारम्भि तभ्रमाः । खिम्ना पेन कटीतटी शिथिलता दोवंल्लिरुकम्पिरतम्, पक्षी मीलितमैक्षि पौषरस: स्त्रीण कुन: सिद्धति ॥१७॥'
--सुभापितम्लाहार विपरीत तत्रिमा इसी प्रकार अन्य वदों के विषय में भी विपर्यया राम्जव है, तयापि बहतकर दल और मात्र वेद में समानता--बार चिन्ह के अनुसार ही मानसिक विक्रिया--पाई जाती है।
- गोम्मटमार-जीवकाण्ड में पुरुष आदि वेद का लक्षण शल्य-न्युल्पति के अनुसार किया है ।
मा०२७२-५४ । १--कपायि शक्ति के लान-मन्द-गाव की अपेक्षा से श्रोधादि प्रत्येक पाय के अनन्तान्वन्धी आदि चार-चार भेद कर्म प्रन्थ और गोम्मटसार-जीवाई में समान है। किम् गोमदार में लेश्या की अक्षा से चौदह-बौदहू और आयु में बन्धाबध ी अशा से बीमबील भेद किये गये हैं। उनका विचार श्वेताम्बरी ग्रन्थों में नहीं देखा गया । इन भेदों के लिये देखिये, जी. गा० २६१ से २६४ तक ।
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कर्मग्रन्थ माग चार
(३) 'माया' उसे कहते हैं, जिससे, छल-कपट में प्रवृत्ति होती है । (४) 'लोभ' ममश्वको कहते हैं ।
(७) ज्ञानमार्गणा के भेदों का स्वरूपः
(१) जो ज्ञान इन्द्रिय के तथा मन के द्वारा होता और श्रो बहुतकर वर्तमानकालिक विषयों को जानता है, वह 'मतिज्ञान है । (२) जो शाम श्रुतानुसारी है— जिसमें शब्द अर्थ का सम्बन्ध मासित होता है--और जो मतिज्ञान के बाद होता है; जैसे- 'जल' Tea सुनकर यह जानना कि यह शब्द पानी का बोधक है अथवा पानी देखकर यह विचारना कि यह 'जल' शब्द का अर्थ है, इस प्रकार उसके सम्बन्ध को अन्य अन्य बातों का विचार करना, वह '' है। (३) 'अवधिज्ञान' वह है, जो इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना ही उत्पन्न होता है जिसके होने में आत्मा की विशिष्ट योग्यता मात्र अपेक्षित है और जो रूप वाले विषयों को ही जानता है । ( ४ ) 'मन: पर्यायज्ञान' यह है, जो संज्ञी जोवों के मन की अवस्थाओं को जानता है और जिसके होने में आत्मा के विशिष्ट क्षयोपशममात्र की अपेक्षा है, इन्द्रिय-मन की नहीं । (५) केवलज्ञान' उत ज्ञान को कहते हैं, जिनसे कालिक सब वस्तुएं जानी जाती है और जो परिपूर्ण स्थात्री तथा स्वतन्त्र है । (६) विपरीत मतिउपयोग, 'मति अज्ञान' है; जैसे:-घट आदि को एकान्न सद्रूप मानना अर्थात् यह मानना कि वह किसी अपेक्षा से असद्रूप नहीं है। (७) विपरीत भूत- उपयोग 'भूत अज्ञान' है; जैसे:- 'हरि' आदि किसी शब्द को सुनकर यह निश्चय करना कि इसका अर्थ सिह है, दूसरा अर्थ हो ही नहीं सकता, इत्यादि । ( 5 ) विपरीत अवधि - उपयोग ही 'विज्ञान' है। कहा जाता है कि शिवराजति को ऐसा ज्ञान था; क्योंकि उन्होंने सात द्वीप तथा सात समुद्र देखकर उतने में ही सब द्वीप समुद्र का निश्चय किया था ।
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कर्मग्रन्थ भाग नार
जिस समय मिथ्यात्व का उदय हो आता है, उस समय जीव कवाग्रही बन जाता है, जिससे वह किसी विषय का यथार्थ स्वरूप जानने नहीं पाता। उस समय उसका उपयोग--चाहे वह मतिरूप हो, शुतरूप हो या अवधिरूप हो--अज्ञान ( अयथार्थ-जान ) रूप में अवल जाता है। ____ मनःपर्याय और फेवलमान, ये दो उपयोग, मिथ्यात्वो को होते ही नहीं; इससे वे जानरूप ही हैं।
ये पाठ उपयोग, साफार इसलिये कहे जाते हैं कि इनके द्वारा वस्तु के सामान्य-विशेष, समय रूप में से विशेष रूप (विशेष आकार) मुख्यतया जाना जाता है ॥११॥
(८) संयममार्गणा के भेदों का स्वरूपः--
स्थमाइअछेयपरिहार, सुहमअहखायदेसजवअजया। चक्नुअचखूओही, वलसाण अणागारा॥ १२ ॥ सामायिकच्छदपरिहारमूक्ष्मयथाख्यातदेशयतायता नि । चक्षुरचक्षुरवधिकंवलदशनान्यनाकाराणि ॥ १२ ।।
अर्थ--सामायिक, छेवोपस्थापमोय, परिहारविशुख, सूक्ष्मसम्यराय, यथाख्यरत, देशविरति और अविरति, ये सात मेव संयममार्गणा के हैं । चक्षुदर्शन, अचक्षुर्वर्शन, अवधिवर्शन और केवलबर्शन, ये चार उपयोग अनाकार हैं ॥ १२ ॥
भावार्थ---(१) जिस संयम में समभाव को (राग-द्वेष के अभाष की) प्राप्ति हो, वह 'सामायिकसंयम, है । इसके (क) 'इत्वर' और (ख) 'पावस्कथित' ये वो मेद है।
( क ) 'इत्सरसामापिकसंयम' वह है, जो अभ्यासार्यों शिष्योंको स्थिरता प्राप्त करने के लिय पहले-पहल दिया जाता है और
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जिसकी कालमर्यादा उपस्थापन पर्यंत बड़ा दीक्षा लेने तक - मानी गई है। यह संयम भरत ऐरवत क्षेत्र में प्रथम तथा अन्तिम तीथंजूर के शासन के समय ग्रहण किया जाता है। इसके धारण करने वालों को प्रतिक्रमण सहित पांच महाव्रत अङ्गीकार करने पड़ते हैं तथा इस संयम के स्वामी 'स्त्रितकल्पी" होते हैं ।
( ख ) यावत्कथित सामायिकसंगम वह है, जो ग्रहण करने के समय से जीवनपर्यन्त पाला जाता है । ऐसा संयम ऐरवत क्षेत्रमें मध्यवर्ती बाईस तीर्थङ्करों के शासन में ग्रहण किया जाता है पर महावियेहक्षेत्र में तो यह संघम सब में दिल शाहा है। संयम के धारण करने वालों को महाव्रत चार और कल्प स्थितास्थित होता है ।
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( २ ) प्रथम संयम पर्याय की बकर फिर से उपस्थापन (व्रतारोपण ) करना – पहले जितने समय तक संयम का पालन किया हो, उतने समय को व्यवहार में न गिनना और दुबारा संयम ग्रहण करने के समय से वीक्षाकाल गिनना व छोटे-बड़े का व्यवहार करना--- छेत्रोंस्थानीयसंयम है। इसके (क) 'सातिवार और (ख) निरतिचार, ये वो सेव हैं।
( क ) सातिचार छेदोपस्थापनीय संग्रम' वह है, जो किसी कारण से मूलगुणों का महाव्रतों का भङ्ग हो जाने पर फिर से ग्रहण किया जाता है ।
(ख) निरतिचार-छेदोपस्थापनीय' उस संयम को कहते
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१ – आचेलक्य, औद्दे शिक सस्थातरपिष्ड, राजभिण्ड, कृतिकर्म, व्रत, उपेष्ठ, प्रतिक्रमण, माम और पर्युपणा, वन दम कल्पों में जो स्थित हैं, वे 'स्थितकल्पी' और शय्यातर पिण्ड व्रत, ज्येष्ठ तथा कृतिकर्म, इन चार में नियम से स्थित और शेष छह कल्पो में जो अस्थित होते हैं, वे स्थितास्थित कल्परी' कहे जाते हैं ।
० हारिभद्री वृत्ति, पृ० ७६०, पञ्चाशक, प्रकरण १७ १
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कर्मनन्य भाग भार हैं, जिसको रत्वरसामायिकसयम वाले बड़ी वीभा के रूप में ग्रहण करते हैं। यह संयम, भरत-ऐरवत क्षेत्र में प्रथम तथा परम तीर्थङ्करके साधुओं को होता है और एक तीर्थ के साधु, दूसरे तीर्थ में जब दाखिल होते हैं। जैसे:--श्रीपाश्र्धनाथ के केशीगालय' आदि सान्तानिक हा, भगवान महावीके में खिल हु५; तब उन्हें भी पुनक्षारूप में यही संयम होता है।
(3) परिहार विशुद्धसंघम" वह है, जिसमें 'परिहार विशुद्धि नाम की तपस्या की जाती है । परिहारविशुक्षि तपस्या का विधान संक्षेप में इस प्रकार है:--
१-इस बात का वर्णन भगवतीसूत्र में है।
२-- इस संयम का अधिकार पाने के लिये गृहस्थ पर्याय उम्र) फा जघन्य प्रमाण २१ साल साधु-पर्याय (दीभाकाल) का जघन्य प्रमाण २० साल और दोनों पर्याय का सत्कृष्ट प्रमाण कुछ-कम करोड पुर्व वर्ष माना है। यथा:
"एपस्स एस नेओ, गिहिरिआमो नहनि गणतीसा। जापरियामओ बीसा, वोसुधि उनकोस वे सूणा ।" इस संवर के अधिकारी को साढे नम पूर्व का ज्ञान होता है। यह श्री प्रयसोममूरि ने अपने टबे में निवा है। इसका ग्रहण तीर्थङ्करों क या तीर्थलगे अन्तेवासी के पास माना गया है इस संयम को धारण करने वाले मुनि, दिन के तीसरे प्रहर में निक्षा व विहार कर सकते हैं और अन्य समय में ध्यान, कायोत्सर्ग आदि । परन्तु इस रिपब मे दिगम्बर-शास्त्र का थोड़ा सा मत-भेद है। उसमें तीस वर्ष की उम्रपाले को इस संयम का अधिकारी माना है । अधिकारी के लिये नो पूर्व या ज्ञान आवश्यक बतलाया है । तीर्थकुर के सिवाय और किसी के पास उस संथम के ग्रहण करने की उसमें मनाही है। साथ ही तीन संध्याओं को छोड़कर दिन के किसी भाग में दो कोस तक जाने की उसमें सम्मति है । यथाः
''तीसं वासो अम्मै, वासपुधत्तं न तित्यय रमूले ।। पचरवाणं पढिदो, संसूण लुगाउय बिहारो ॥४७२।।"
जीवकाण्ड ।
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नौ साधुओं का एक गण ( समुदाय ) होता है, जिसमें से चार तपस्वी बनते हैं, चार उनके परिचारक ( सेवक ) और एक वास नाचायें । जो तपस्वी हैं, वे ग्रीष्मकाल में जघन्य एक, मध्यम दो और उत्कृष्ट तीन उपवास करते हैं। शीतकाल में जघन्य दो मध्यम तीन और उत्कृष्ट चार, उपयास करते है । परन्तु वर्षाकाल में जघन्य सोम, मध्यम चार और उत्कृष्ट पाँच, उपवास करते हैं । तपस्वी, पारा के दिन अभिप्रहसहित आय बिल' व्रत करते हैं । यह क्रम छह महीने तक चलता है। दूसरे छह महीनों में पहले के तपस्वी तो परिचारक बनते हैं और परिचारक, तपस्वी ।
दूसरे छह महीने के लिये तपस्वी बने हुये साधुओं की तपस्या का वही क्रम होता है, जो पहले के तपस्वियों की तपस्या का । परन्तु जो साधु परिचारक पद ग्रहण किये हुये होते हैं, वे सदा आयंबिल हो करते हैं। दूसरे छह महीने के बाद तीसरे छह महीने के लिये वाचना चाही तपस्वी बनता है; शेष आठ साधुओं में से कोई एक वाचनाचार्य और बाकी के सब परिचारक होते हैं । इस प्रकार सीसरे छह
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महीने पूर्ण होने के बाद बयारह मास की यह 'परिहारविशुद्ध' नामक तपस्या समाप्त होती है। इसके बाद वे जिनकल्प ग्रहण करते हैं अथवा वे पहले जिस गच्छ के रहे हों, उसी में बाखिल होते हैं या फिर भी बसी हो तपस्या शुरु करते हैं । परिहारविशुद्ध संयम के 'निविशमानक' और 'निविष्टकायिक', ये वो भेव हैं। वर्तमान परिहारfara को 'निविशमानक और भूत परिहारविशुद्ध को 'निविष्टकाकि' कहते हैं ।
(४) जिस सयम में सम्पराय ( कषाय) का उदय सूक्ष्म ( अति
२ – यह एक प्रकार का व्रत है, जिसमें घी, दूध आदि रसको छोड़कर केवल अन्न वाया जाता है। सो भी दिन एक ही दफा पानी इल में गरम पिया जाता है ।
आवश्यक नि० गा० १६०३ - ५ ।
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स्वल्प ) रहता है. वह सूक्ष्मसम्परायसंयम' है । इसमें लोमकषाय उदयमान होता है। अन्य नहीं । यह संयम बसवें गुणस्थान वालों को होता है । इसके (क) 'संल्किश्यामानक' और (ख) 'विशुद्धयमानक' ये दो भेद हैं।
(क) उपशमणि से गिरने वालों को दसवें गुणस्थान की प्राप्ति के समय जो संयम होता है, यह 'संल्किश्यमानकसूक्ष्मसम्पर संयम है। क्योंकि पतन होने के कारण उस समय परिणाम संस्केश-प्रमान ही होते जाते हैं ।
(ख) उपशमणि या क्षपकणि पर चढ़ने वालों को बस गुणस्थान में जो संयम होता है, वही विशुद्धयमामकसूदय सम्पा६. संयम है। क्योंकि उस समय के परिणाम विशुधि-प्रधान ही होते है।
(५) जो संयम अथातथ्य है अर्थात् जिसमें कषाय का उदय-लेश भी नहीं है। वह 'यथाल्यातसंयम' है । इसके (क) 'छापस्थिक' और . (ख) 'बायस्थिक, ये दो मेव हैं।
(क) 'छानस्थिकपथाण्यात संयम' यह है, जो ग्यारहवें बारहवें गुणस्थान वालों को होता है । ग्यारहवें गुणस्थान की अपेक्षा गरहों गुणस्थान में विशेषता यह है कि ग्यारहवें में कषाय का उदय नहीं होता, उसकी सत्तामात्र होती है। पर बारहवें में तो कषाय को सत्ता भी नहीं होती।
(ख) अछामस्थिफयथाख्यातसंयम केलियों को होता है । सयोगी केवली का संयम ‘सयोगीयथाख्यात' और अमोगी केवली का संयम 'अयोगीयथास्यात' है।
(६) कर्मबन्ध-जनक आरम्भ-समारम्भसे किसी अंश में निवृत्त होना 'देशाविरतिसंयम' कहलाता है । इसके अधिकारी गृहस्थ हैं' ।।
१--श्रावक की दया का परिमाण:--मुनी सब तरह की हिंसा से मुक्त रह सकते हैं, इसलिये उनकी दया परिपूर्ण कही जाती हैं । पर गृहस्थ बसे रह नहीं सकाने; इसलिये उनकी दया का
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(७) किसी प्रकार के संयम का स्वीकार न करना 'अविरति' है। यह पहले से सोधे तक चार गणस्थानों में पायी जाती है। (8)-वर्शनमागंणा के चार भेवों का स्वरूप:-- (१) चा (
ने त्र के नारा जो दोष होता है. वा पक्षबर्शन' है ।
(२) पक्ष को छोड़ अन्म इन्द्रिय के द्वारा तथा मन के द्वारा जो सामान्ध बोष होता है, वह 'अनार्दशन' है।
- - परिमाण बहुत-क्रम कहा गया है । यदि मुनियों की दया को बीरा अंश मान ले तो शावकों की दया को गवा अंश कहना चाहिये । इसी बात वो जैन शास्त्रीय पग्भिापा में कहा है कि "साधुओं की दया बीस बिस्वा और श्वानों की दया सशा बिस्वा है"। इसका कारण यह है कि थापक, बस जीवों की हिंसा को छोड़ सकते हैं स्थावर जीवों की हिंसा को नहीं। इससे मुनियों की बीरा बिस्वादमा की अपेक्षा आधा परिमाण रह जाता है इसमें भी श्रावक, असकी संकल्प पूर्वक हिंसा का त्याग कर सकते हैं. आरम्भ-जन्य हिंसा का नहीं । अत एव उस आधे परिमाण में से भी आधा हिस्सा निकल जाने पर पांच बिस्वा दया बचती है । इरादा-पूर्वक हिसा भी उन्हीं प्रमों की त्याग की जा सकती है, जो निरपराध है। सााध असों की हिंसा से श्रावक मुक्त नहीं हो सकने इससे हाई बिस्वा दया रहती। इसमें से भी आधा अंश निकल जाता है। क्योंकि निरपरा असों की भी सापेक्षा हिसा धावकों के द्वारा हो ही जाती है, वे उनकी निरपेक्षाहमा नहीं करते । इसी से श्राबों की दया का परिमाण सवा विरवा माना है । स भाव को जानने के लिये एक प्राचीन गाथा इस प्रकार है।
"जोबा सुहमा चुला, ... आरंभा भवे दुनिहा।
सावराह निरवराहा, सविक्खा व निरविश्खा ॥" इसके विशेष खुलासे के लिए देखिये, जैनतरवादर्शना परिच्छेद १८वा ।
१--यद्यपि सब जगह दर्शन के चार भेद ही प्रसिद्ध हैं और इमी को मनः पर्याय दर्शन नहीं माना जाता है । तथापि कहीं-कहीं मनः पथ्याय दान की भी स्वीकार किया है। इसका उल्लेख तस्त्रार्थ-अ. स. २४ की टीका में है:---
"केचित्तु मन्यन्ते प्रज्ञापना मम: पर्यायाने वर्शनना पदयस"
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(३! अपशिलग्धिवालों को इन्द्रियों की सहायता के बिना ही वपी वध्य-विषयक जो सामान्य को होता है, वह 'अवधिदर्शन' है ।
(४) सम्पूर्ण प्रख्य-परायों को सामान्य रूप से विषय करने वाला मोष 'फेवलवर्शन' है ।
दर्शन को अनाकार-उपयोग इसलिये कहते हैं कि इसके द्वारा पस्तु के सामान्य-विशेष, उभय रूपों में से सामान्य रूप (सामान्य आकार ) मुख्यतया जाना जाता है। अनाकार-उपयोग को न्याय-शेविक आदि दर्शनों में निर्विकल्पहाव्यवसायात्मकज्ञान' कहते हैं ॥१२॥
(१०)-- लेश्या के भेदों का स्वरूपः--
कियहा नीला काक, तेऊ पम्हा य सुक्क भवियरा । बेयमखाइगुवसममि,-छमीससासाण संनियरे ॥१३॥ कृष्णा नीला कापोला, तेजः पया च शुल्का भव्यतरी बदकलापिकोषमम मिया मिश्रमासादनान संझीतरी ॥१३॥
अर्थ--कृष्ण, मील, कापोत, तेजः, पद्म और शुल्क ये छह लेश्यायें हैं । भष्यत्व, अभयत्व, पे दो भेद भन्यमार्गणा के हैं । वेवक (सायोपशमिक), क्षायिक, औपशभिक, मिथ्यात्व. मिथ और सासावन, में छह भेव सम्यापरवमार्गणा के हैं - संशित्व, असंमिस्व, ये वो मेव पंनिमार्गणा के हैं ॥१६॥ __ भावार्थ--(१) काजल के समान कृष्ण वर्ण के सेश्या-आतीय पुदगलों के सम्बन्ध से आत्मा में ऐसा परिणाम होता है, जिससे हिसार आदि पाँच आस्त्रयों में प्रवृत्ति होती है, मन, बचन तथा शरीर का संयम नहीं रहता; स्वभाव क्षुद्र बन जाता है। गुण-दोष की परीक्षा किये बिना ही कार्य करने की आवतसी हो जाती है और क्रूरता मा जाती है, वह परिणाम 'कृष्णलेश्या है।
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नीले रंग के है कि जिससे
बादलों से ऐसा ईर्ष्या, असहिष्णुता
(२) अशोक वृक्ष के समान परिणाम आत्मा में उत्पन्न होता तथा माया-कपट होने लगते हैं; निलंन्लता आ जाती है; विषयों की लालसा प्रदोष हो पता होती है और सदा वह परिणाम 'मोललेश्या है ।
पौदलिक सुख को खोज की जाती है,
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(३) कबूतर के गले के समान रक्त तथा कृष्ण वर्ण के पुदलों से इस प्रकार का परिणाम आत्मा में उत्पन्न होता है, जिससे बोलने, काम करने और विचारने में सब कहीं वक्रता हो वक्ता होती है; किसी विषय में सरलता नहीं होती; नास्तिकता आती है और दूसरों को कष्ट हो, ऐसा भाषण करने की प्रवृत्ति होती है। वह परि णाम 'कापोतलेश्या' है ।
(४) तोते की च के समान रक्त वर्ण के लेश्या पुदग्लों से एक प्रकार का अश्मा में परिणाम होता है, जिससे कि मखता आ जाती है; पठता दूर हो जाती है; चपलता तक जाती है; धर्म में रुचि तथा वता होती है और सब लोगों का हित करने की इच्छा होती हैं, वह परिणाम 'तेजोलेश्या' है ।
(५) हल्दी के समान पीले रंग के लेया पुरग्लों से एक तरह का परिणाम आत्मा में होता है, जिससे क्रोध, मान आदि कषाय बहुत अंशों में मन्द हो जन्ते हैं, वित्त प्रशान हो जाता है, आत्म-संयम जितेन्द्रियता आ जाती है। किया जा सकता है; मितभाषिता और वह परिणाम 'पपलेश्या' है ।
(६) 'शुल्कलेश्या' उस परिणाम को समझमा चाहिये, जिससे कि आर्त-शव-ध्यान बंद होकर धर्म तथा शुल्क-ध्यान होने लगता है; मन,
वचन और शरीर को नियमित धनाने में रुकावट नहीं आती; कवाय उपशान्ति होती है और बीतराग भाव सम्पादन करने की भी अनु
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कूलसा हो जाती है । ऐसा परिणाम शङ्ख के समान श्वेत वर्ण के लेण्याजातीय-पुवालों के सम्बन्ध से होता है।
(११)--भव्यत्वमागणा के भेदों का स्वरूप:--
(१) 'भस्म' थे हैं, जो अनादि तारश-पारिणामिक-मार के कारण मोक्ष को पाते हैं मा पाने की योग्यता रखते हैं ।
(२) जो अनादि तथाविध परिणाम के कारण किसी समय मोक्ष पाने की योग्यता ही नहीं रखते, वे 'अभश्य' हैं ।
(१२)- सम्यक्त्वमार्गणा के भेदों का स्वरूपः-- (१) चार अनन्तानुबन्धोकपाय और दर्शनमोहनीय के उपशम से प्रकट होने वाला तत्त्वरूचि रूप आत्म-परिणाम, औपक्षामिकसम्यक्त्व, है। इसके (क) 'ग्रन्थि-भेद जन्य' और (ख) 'उपशमश्रेणी-माधी' ये दो भेद हैं।
(क) 'प्रन्थि-भेद-जन्य औषशमिकसम्यक्त्व', अनादि-मिथ्यारवी भथ्यों को होता है । इसके प्राप्त होने की प्रक्रिया का विचार दूसरे
१-अनेक भव्य ऐसे हैं कि जो मोक्ष की योग्यता रखते हुए भी उसे नहीं पाते; क्योंकि उन्हें बसी अनुकूल सामग्री ही नहीं मिलती, जिमसे कि मोक्ष प्राप्त हो । इसलिये उन्हें 'जाति-मध्य कहते हैं । ऐसी भी मिट्टी है कि जिममें सुवर्ण के अंश तो हैं। पर अनुकूल साधन के अभाव से ने न तो अब तक प्रकट हुए और न आगे ही प्रकट होने की सम्भावना है। तो भी उस मिट्टी को योग्यता की अपेक्षा से जिस प्रकार 'सुवर्ण-मृत्तिका' (सोने की मिट्टी) कह सकते हैं। जैसे ही मोक्ष की योग्यता होते हुए भी उसके विशिष्ट साधन न मिलने से, मोक्ष को कभी न पा सकने वाले जीयों को 'जातिभव्य' कहना विरुद्ध नहीं । इसका विचार प्रज्ञापना के १८वे पद की टीका में, उपाध्याय-समयसुन्दरगणि-कृत विशेषशतक में तथा भगवती के १ शतक के रे 'जयन्ती' नामक अधिकार में है।
२-- देखिये परिशिष्ट 'श।'
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कर्मग्रन्थ की री गाथा के माधर्ष में लिखा गया है। इसको 'प्रथभोपामसम्पाव' भी कहा है ।
ख) 'उपशमणि-माषी औपचामिकसम्यमस्व' को प्राप्ति बाणे, पाँच,छठे या सातवें में से किसी भी गुणस्थान में हो सकती है। परन्तु माठवें गुगस्थान में सो उसको प्राप्ति अवश्य ही होती है।
बोपशमिकसम्यक्रव के समय आयुबन्ध, मरग, अनन्तानुबन्धी कषाय का बन्ध तथा अनन्तानुबन्धीकवाय का, उवय, ये धार पाते नहीं होती। पर उससे च्युत होने के बाद सास्वावम-भाव के समय उक्त चारों बातें हो सकती है।
(२) अनन्तानुबन्धीय और धर्शनमोहनीय के क्षयोपशम से प्रकट होने वाला तत्व-हचिरूप परिणाम, 'क्षायोपमिकसम्यगाव' है।
(३) जो तत्व-रूचिरूप परिणाम, अनन्तानुबन्धी-चतुक और दर्शनमोहनीय-निक के क्षय से प्रकट होता है, वह 'मायिकसम्यमत्व' है।
___ यह क्षायिकसम्यक्त्व, जिन-कालिक मनुष्यों को होता है। जो जीब युबन्ध करने के बाद इससे प्राप्त करते हैं, वे तीसरे पा चौथे मव में मोक्ष पाते हैं। परन्तु अगले भव की आपु बाँधने के पहिले जिनको यह सम्यक्त्व प्राप्त होता है, वे वर्तमान भव में हो मुक्त
१--मह मत, श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनो को एकसा इष्ट है 1 सणसवणस्तरिहो, जिणकालीयो पुमवासुबरि" इत्यावि ॥
-पञ्चसंग्रह पृ० ११६५ । "सगमोहसवणा,-पडवगो कम्मभूमिजो मणुसो । तिरपयरपायमूले केवलिसुबकेवलीमूले ॥११."
--सन्धिसार ।
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( ४ ) औपशमिकसम्वत् का त्याग कर मिध्यात्व के अभिमुख होने के समय, जीव का जो परिणाम होता है, उसी को 'सास दनसम्पद' कहते हैं । इसकी स्थिति, जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट सह आवलिकाओं को होती है । इसके समय, अनन्तरनुबन्धीकवायों का उदय रहने के कारण, जीव के परिणाम निर्मल नहीं होते । सरसावन में मतस्व-रुचि, अव्यक्त होती है और मिध्यास्व में व्यक्त यही योगों में अन्तर है ।
(५) तत्व और अतत्व, इन दोनों की रूचिप मिश्र परिणाम, जो सम्यङ्गमिथ्यामोहनीय कर्म के उदय से होता है, वह 'मिसम्यऋश्व ( सम्यङ्गमा) है |
(६) मिथ्यात्व वह परिणाम है, जो मिथ्यामोहनीय कर्म के उवय से होता है जिसके होने से जोष, जड़-चेतन का भेद नहीं जान पत्ता इसी से आत्मोन्मुख प्रवृत्तियाला मी नहीं हो सकता है । कप्रि आदि दोष इसके फल हैं ।
[१३] - संज्ञीमागंणा के भेदों का स्वरूपः --
(१) विशिष्ट मनःशक्ति अर्थात् वीर्घकालिकी संश
'संजिब' है ।
(२) उक्त संज्ञा का न होना 'असंज्ञित्य' हे ||१३||
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का होना
( १ ) - यद्यपि प्राणीमात्र को किसी न किसी प्रकार की संज्ञा होती ही है; क्योंकि उसके बिना जीवस्व ही असम्भव है, तथापि शास्त्र में जो संशी असंज्ञी का भेद किया गया है, सो दीर्घकालिकी संज्ञा के आधार पर इसके लिये देखिये, परिशिष्ट 'ग'
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[१]-मार्गणाओं में जीवस्थान ।
पाँच गाथाओं से] आहायर भेया, सरनरग्यविभगमहसुओहिदुगे ।
सम्मसतिगे पम्हा,--सुक्कासन्नीसु सन्निदुर्ग ॥१४॥ आहारेतरी भेदास्सुरनरकविभङ्गमतिश्रुतावधिद्धिके । सम्यक्त्वत्रिके पाक्लासंज्ञिघु संजिद्विकम् ॥१४॥
अर्थ-- आहारकमार्गमा के आहारक और अनाहरक, ये दो मेव है । वेवति, नरकति. विभङ्गाजान, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, अवधिवशेन, तौन सम्यक्त्व (ओपशभिक, शायिक और क्षायोपशमिक), दो लेश्याएँ (पद्मा और शुल्का और संशिव, इन तेरह मार्गणाओं में अपर्याप्त संझो और पर्याप्त संजो, घे वो जीवस्थान होते हैं ॥१४॥
(१४)--आहारकर्मागणा के भेदों का स्वरूप:--- भावार्थ--- १) जो जीव, ओज, लोम और केवल, इनमें से किसी भी प्रकार के बाहार को करता है, वह 'आहारक' है।
(२) उक्त तीन तरह के आहार में से किसी भी प्रकार के आहार को जो जीव ग्रहण नहीं करता है, वह 'अनाहारक' है ।
वगति और नरकगति में वर्तमान कोई भी जोय, असंज्ञो नहीं होता । चाहे अपर्याप्त हो या पर्याप्त, पर होते हैं सभी संज्ञो हो । इसी से इन दो गतियों में वो ही जीवस्थान माने गये हैं ।
विमनाजान को पाने की योग्यता किसी भसंझी में नहीं होती अस्तउसमें भी अपर्याप्त-पर्याप्त संशो ये को ही जोवस्थाम माने गये है।
१-यह विषय पञ्चसंग्रह गाथा २२ से २७ तक में है। २-यद्यपि पञ्चसंग्रह द्वार गाथा २७वीं में यह उल्लेख है कि विभङ्गशान में संज्ञी - पर्याप्त एक ही जीवस्थान है,
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मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अवधि-ष्ट्रिक, औपशमिक आदि उक्त तीन सम्यक्स्थ और पद्म-शुल्क-पेश्या, इन नौ मार्गणाओं में दो संशो जीवस्थान माने गये हैं । इसका कारण यह है कि किसी असंतो में सभ्यकत्व का सम्भव नहीं है और सभ्यवश्व के सिवाय मतिबुल - ज्ञान आदि का होना ही असम्भव है इस प्रकार संज्ञो के सिवाय दूसरे जीवों में पद्म या शुल्क लेश्या के परिणाम नहीं हो अपर्याप्त अवस्था में मति श्रुत ज्ञान और अवधि-द्विक इसलिये माने जाते हैं कि कोई-कोई जीव तीन ज्ञान सहित जन्म ग्रहण करते हैं। जो जीव, आयु बाँधने के बाद क्षायिकसम्यक्त्व प्राप्त करता है, वह बंधी हुई आयु के अनुसार चार गतियों में से किसी भी गति में जाता है । इसी अपेक्षा से अपर्याप्त अवस्था में क्षायिकसम्यक्त्व माना जाता है । उस अवस्था में क्षाषोपशमिकसम्यक्त्व मानने का कारण यह है कि भावी तीर्थङ्कर आदि जब देव आदि गति से निकल कर मनुष्य जन्म ग्रहण करते हैं, तब वे क्षायोपशमिकसम्यक्त्व सहित होते हैं । औपशमिकसम्यक्त्व के विषय में यह जानना चाहिये कि आयु क पूरे हो जाने से जब कोई औपशमिकसम्पत्वो ग्यारहवे गुणस्थान से तथापि उसके साथ इस कर्म ग्रन्थ का कोई विरोध नहीं; क्योंकि मूल पञ्च संग्रह में विभङ्ग ज्ञान में एक ही जीवस्थान कहा है, सो अपेक्षाविशेष से । अतः अन्य अपेक्षा से विभज्ञान में दो जीवस्थान भी उसे उष्ट हैं । इस बात का खुलासा श्रामलयगिरिमूरिन उक्त २७वीं गाथा की टीका से स्पष्ट कर दिया है । में लिखते हैं कि संज्ञि पञ्चेन्द्रिय तिर्य और मनुष्य को अपर्याप्त अवस्था में त्रिभङ्गज्ञान उत्पन्न नहीं होता । तथा जो असंज्ञी जीव मरकर रत्नप्रभानरक में नारक का जन्म लेते हैं, उन्हें भी अपर्याप्त अवस्था में विभङ्गज्ञान नहीं होता। इस अपेक्षा से विभज्ञान में एक पर्याप्त संज्ञिरूप) जीवस्थान कहा गया है। सामान्य-दृष्टि से उसमें दो जीवस्थान ही समझने चाहिये। क्योंकि जो सजी जी, मरकर देव यान रूप से पैदा होते हैं, उन्हें अपयाप्त अवस्था में भी विभ ज्ञान होता है ।
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फयुत होकर अनुत्तरविमान में पैदा होता है, तब अपर्याप्त अवस्था में Mareecured पाया जाता है ।
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१ - यह मन्तव्य "सप्ततिका" नामक छड़े कर्मग्रन्थ की चूर्णी और पदसंग्रह के मतानुसार समझना चाहिये। चूर्णी में अपर्याप्त अवस्था के समय नारकों में क्षायोपशमिक और क्षायिकां ये दो; पर देवों में औपशमिकसहित तीन सम्यक्त्व माने हैं। पञ्चसंग्रह में भी द्वार १ गा० २५वीं तथा उसकी टीका में उक्त चूर्णी के मत की ही पुष्टि की गई है । गोम्मटसार भी इसी मत के पक्ष में है; क्योंकि वह द्वितीय - उपमश्रेणी-मादी – उपशम सम्यक्त्व हो अपर्याप्त अवस्था के जीवों को मानता है । इसके लिये देखिये, जीवकाण्ड की गा० ७२६६ी ।
परन्तु कोई आचार्य यह मानते हैं कि 'अपर्याप्त अवस्था में औपशfree rare नहीं होता । इनसे केवल पर्याय संजी जीवस्थान मानना चाहिये।' इस मत के समर्थन में वे कहते हैं कि 'अपर्याप्त अवस्था में योग्य (विशुद्ध) अध्यवसाय न होने से औपशमिकसम्यक्त्व नया तो उत्पन्न ही नहीं हो रहा पूर्वे में सो उसका भी अपर्याप्त अवस्था तक रहना शास्त्र सम्मत नहीं है; क्योंकि ऑपशमिकस - म्यरख दो प्रकार का है । एक तो वह जो अनादि मिथ्यात्वी को पहलेपहल होता है। दूसरा वह, जो उपशमश्रेणिक समय होता है। इसमें पहले प्रकार के सम्यक्त्व के सहित तो जीव मरता ही नहीं । उसका प्रमाण आगम में इस प्रकार है:
"झणघोषय माग, बंधं कालं च सासणी कुणई ॥ उहमिक्कं पि नो कुणई ॥"
उपसमसम्म हिट्टो,
अर्थात् "अनन्तानुबन्धो का बन्ध, उसका उदय, आयु का बन्ध और मरण, ये चार कार्य दूसरे गुणस्थान में होते हैं, पर इनमें से एक भी कार्य औप मिसम्यक्त्व में नहीं होता।"
दूसरे प्रकार के औपशमिकसम्यक्त्व के विषय में यह नियम है कि उसमें वर्तमान जीव मरता तो है, पर जन्म ग्रहण करते ही सम्यक्त्वमोहनीय का उदय होने से वह औदामिकसम्यक्त्वी न रहकर क्षायोपशमिकस बन जाता है । यह बात शतक | ( पाँचवें कर्म ग्रन्थ) को बृहचूणों में लिखी है ।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
संज्ञिमागंणा में दो संज्ञि जीवस्थान के सिवाय अन्य किसी जीवस्थान का सम्भव नहीं है, क्योंकि अन्य सब जीवस्थान असंती ही हैं । देवगति आदि उपर्युक्त मागंगाओं में अपर्याप्त सभी का मतलब कर-पर्याप्त से है, अप से नहीं। इसका कारण यह है कि देवगति और नरक गति में लब्धि अपर्याप्त रूप से कोई जीव पैया नहीं होते और म लब्धि अपर्याप्त को मति आदि ज्ञान, पद्म आदि लेश्या तथा सम्यक्त्व होता है ॥ १४ ॥
समसंनिअपज्जजुर्ग, नरे सबायरअपज्ज तेऊए ।
यावर इगिंदि पढमा चत्र बार असन्नि दु दुखिगले || १५ || तवसंग्यपर्याप्तयुतं नरे सवादराय पर्याप्तं तेजसि । स्थावर एकेन्द्रिये, पथमानि चत्वारि द्वादशमंज्ञिनि
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विकले ||१५||
'जो जवसमसम्मो उवसमसेोए कालं करे सो पढमसमये वेद सम्मत्तपुंजं उबयान लिगाए, छोड्न सम्मतपुरले वेएर, तेग न उवसमसम्म हिट्ठी अपनत्तगो लग्मइ ।”
अर्थात् "जो उपशमसम्यग्दृष्टि, उपशमश्रेणि में मरता है, वह मरण के प्रथम समय में हो सम्यक्त्वमोहनीय पुजको उदयवलिका में उसे लाकर उसे वेदता है; इससे अपर्याप्त अवस्था में औपशमिकसम्यवत्व पाया नहीं जा सकता ।"
"
इस प्रकार अपर्याप्त अवस्था में किसी तरह के ओपशमिकसम्यक्त्व का सम्भव न होने से उन आजार्यो के मत से सम्यक्त्व में केवल पर्याप्त संशी जीव स्थान ही माना जाता है ।
इस प्रसङ्ग में श्रीजीवविजय जी ने अपने टबेमें ग्रन्थ के नाम का उल्लेख किये बिना ही उसकी गाथा को उद्धृत करके लिखा है कि औपमिसम्यक्त्वी ग्यारह गुणस्थान से गिरता है सही पर उसमें मरता नहीं । मरनेवाला श्रमिकसम्यक्तवी ही होता है । गाथा इस प्रकार है
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'उससे पत्ता, मरंति उवसमगुणेषु जे सत्तर ते लवसत्तम देवा, सब
जुआ ।"
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कर्मग्रन्थ भाग चार
अर्थ-मनुष्य गति में पूर्वोक्त संजि-द्विक (अपर्याप्त तथा पर्याप्त संशो) और अपात असं न नीका है । गोलेया में शबर अपर्याप्त और संजी-द्विक, ये तीन जीवस्थान हैं। पांच स्थावर और एकेन्द्रिय में पहले चार (अपर्याप्त सूक्ष्म, पर्याप्त सूक्ष्म, अपर्याप्त बाबर और पर्याप्त बावर) जोवस्थान है । असंक्षि मार्गणा में संशिविकके सिवाय पहले बारह जोवस्थान हैं । विकन्द्रिय में दो-दो अपर्याप्त तथा पर्याप्त जीवस्थान हैं ॥१५॥
भावार्थ मनुष्य को प्रकार के है:--गर्भज और सम्मन्छिम । गर्भज सभी संजोही होते हैं, वे अपर्याप्त तथा पर्याप्त दोनों प्रकार के पाये जाते हैं। पर संमश्छिम मनुष्य, जो ढाई लोप-समुद्र में गर्भज मनुष्य के मल-मूत्र, शुक्र-शोणित मादि में पैदा होते हैं, उनकी आयु अन्तमहतं-प्रमाण ही होती है। वे स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना ही मर जाते हैं, इसो से उन्हें लरिष-अपमाप्त हो माना है, तथा दे असंज्ञी हो माने गये है । इसलिये सामाग्य मनुष्य गति में उपर्युक्त तीन ही जीवस्थान पाये जाते हैं ।
उसका मतलब यह है कि 'जो जीव उपशमश्रेणी को पाकर ग्यारहवं गुणस्थान में मरते हैं, वे सर्वार्थसिद्धविमान में शामिनामम्यक्त्व-युक्त ही पंधा होते हैं और 'लवसत्तम दव' कहलाते हैं। लवसप्तग कहलाने का सबब यह है कि सात लव-प्रमाण आयु कम होने से उनको देव का जन्म ग्रहण करना पड़ता है। मदि उनकी आयु और गी अधिवः होती तो देव हुए बिना उमी जन्म में मोक्ष होता ।
१- जैसे, भगवान् श्यामाचार्य प्रभागना पृ. ५. में वर्णन करते है:___ "कहिणं भंते संमुनिछममणुस्सा संमुच्छेति ? गोयमा ! अंतो मगुस्सखेत्तस्स पणयालीसाए जोयणसमसहस्सेसु अबदाइज्जेमु दीवसमहसू पत्ररस कम्मभूमीसुतीसाए अकम्मभूमीसु छप्पनाए असरबौवेसु गमवक्कलियमणुस्साणं घेव उच्चारेसु वा पासवणेषु वा खेलेसु मा तेसु वा पित्तेसु वा सुक्कसु वा सोणिएसु वा सुक्कपुरंगपरिसाडेसु था विगयलीवकलेवरेसु वा धोपुरिससंजोगेसु वा नगरनिक्षमणेतु का सध्वेसु चेव असुइठाणसु इच्छर्ण समुच्छिममणुस्सा संमुण्छति अगुसस असंखभागमित्ताए ओगाहणाए असली भिधिट्टी अन्नाणी सवाहि पस्नत्तीहि अपञ्जता अंतमुहसाउया चेव कालं करति ति।"
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कर्मग्रन्थ भाग चा
तेजोलेश्या, पर्याप्त तथा अपर्याप्त दोनों प्रकार के संशियों में पायी जाती है तथा वह बावर एकेन्द्रिय में भी अपर्याप्त अवस्था में होती है, इसी से उस लेश्या में उपर्युक्त तीन जोवस्थान माने हुये हैं । बादर एकेन्द्रिय को अपर्याप्त अवस्था में तेजोलेश्या मानी जाती है, सो इस अपेक्षा से हि भवनपति, व्यन्तर' आदि देव, जिनमें तेजोलेश्या का सम्भव है वे जब तेजोलेश्यासहित मरकर पृथिवी, पानी या वनस्पति में जन्म ग्रहण करते हैं, तब उनको अर्याल (करण-अपयति - ] अवस्था में कुछ काल तक तेजोलेश्या रहती है ।
पहले चार जोवस्थान के सिवाय अन्य किसी जीवस्थान में एकेन्द्रिय तथा स्थावरकाधिक जीव नहीं है। इसी से एकेन्द्रिय और पाँच स्थावरकाय इन छह मार्गणाओं में पहले चार जीवस्थान माने गये हैं ।
इसका सार संक्षेप में इस प्रकार है: - 'प्रश्न करने पर भगवान् महाबीर, गणधर और गौतम से कहते हैं कि पैंतालिस लाख योजन-प्रमाण मनुष्य-क्षेत्र के भीतर ढाई द्वीप समुद्र में पन्द्रह कर्मभूमि, तीस अकर्मभूमि और छप्पन अन्तद्वीपों में गर्भज मनुष्यों के मल, मूत्र, कफ आदि सभी अशुचि पदार्थों में संमूमि पैदा होते हैं, जिनका देह परिणाम अगुल कं. असंख्यातवें भाग के बराबर हैं, जो असंगती, मिथ्यात्वी तथा अज्ञानी होत हैं और जो अपर्याप्त ही हैं तथा अन्तर्मुहूर्त-मात्र में मर जाते हैं ।
१--" किव्हा नीला काऊ, सेऊलेसा य भवणवंतरिया |
नोइससोहम्मीसा-ण तेऊसेसा मुणेयश्वा । १६३॥"
बृहत्संग्रहणी | अर्थात् भवनपति और व्यन्तर में कृष्ण आदि चार लेखाएँ होती हैं; किन्तु ज्योतिष और सोधर्म ईशान देवलोक में तेजोलेश्या ही होती है। २- पुढवी आउवणस्सह, गमे पज्जल संचये । समनुषाणं दासो, सेसा परिसेहिया ठाणा । "
अर्थात् "पृथ्वी, जल, वनस्पति और पर्याप्त इन स्थानों ही में स्वर्ग-च्युत देव नहीं ।"
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-- विशेपावश्यक भाष्य । संख्यात वर्ष आयु वाले गर्भजपैदा होते हैं। अन्य स्थानों में
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कर्मग्रन्थ भाग चार
वह जीवस्थानों में से दो हो जीवस्थान संज्ञी हैं । इसी कारण संज्ञिमागंणा में बारह जीवस्थान समझना चाहिये ।
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प्रत्येक विकलेन्द्रिय में अपर्याप्त तथा पर्याप्त दो-यो जीवस्थान पाये जाते हैं, इसी से विकलेन्द्रियमार्गणा में दो ही वो जीवस्थान मात्रे गये हैं |१५||
दस चरम तसे अजया, हारगति रितणुक साय अनाणे | पढमतिले साभवियर, अचक्खुनपुमिच्छि सथ्ये वि ॥१६॥ दश चरमाणि त्रसेऽयताहारक तिर्यक्तनु कषायद्व्यज्ञाने |
प्रथम त्रिलेश्या भव्येतराऽचक्षुर्नषु मिथ्यात्वे सर्वाण्यपि ।। १६ ।।
अर्थ – सकाय में अन्तिम बस जीवस्थान है। अविरति, आहारक तिर्यञ्चगति, काययोग, चार कवाय मति श्रुत को अज्ञान कृष्ण आदि पहली तीन लेश्याएँ, मध्यश्व, अमध्यस्थ, अचक्षुर्दर्शन, नपुंसक वेद और मिथ्याराथन भातु पाणी) स्थान पाये जाते हैं ।। १६ ॥
भावार्थ - चौदह में से अपर्याप्त और पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय तथा अपर्याप्त और पर्याप्त बावर एकेन्द्रिय इस बार के सिवाय शेष दस जीवस्थान त्रसफाय में है; क्योंकि उन बस में ही असनामकर्म का उमय होता है और इससे वे ही स्वतन्त्रतापूर्वक चल-फिर सकते हैं ।
अविरति आदि उपर्युक्त अठारह मार्गणाओं में सभी जोषस्थान इसलिये माने जाते हैं कि सब प्रकार के जीवों में इन मार्गणाओं का सम्भव' है ।
मिध्यात्व में सब जीवस्थान कहे हैं। अर्थात् सब जीवस्थानों में सामान्यतः मिथ्यात्व कहा है। किन्तु पहले बारह जीवस्थानों में बनाभोग मिध्यात्व समझना चाहिये; क्योंकि उनमें अमाभोग-जन्य (अज्ञान - जम्प अतत्व- रुचि है । पञ्चसंग्रह में 'अनभिग्रहिक - मिथ्यात्व ' १- देखिये, परिशिष्ट 'ट ।'
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उन जीवस्थानों में लिखा है, सो अन्य अपेक्षा से अर्थात् वेव-गुरु-धर्मका स्वीकार न होने के कारण उन जीवस्थानों का मिध्यात्व 'अनमिप्रहिक' भी कहा जा सकता है ॥१६॥
पजसती केवलदुग, संजय मणनाणदेसमणमीसे ।
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पण चरमपज्ज वयणे, तिय छ व परिजयर चक्खुमि ||१७|| पर्याप्तसंज्ञी केवलहिक - संयत मनोज्ञानदेश मनोमि ।
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पञ्च चरमपर्याप्तानि वचने, श्रोणि पड् वा पर्याप्तितराणि चक्षुषि ।। १७॥ अर्थ- केवल ट्रिक (केवलज्ञान - केवलर्शन ) सामायिक क्षादि पाँच संयम, मनःपर्यायज्ञान, वैशविरति मनोयोग और मिसम्यक्त्व, इन ग्यारह मार्गणाओं में सिर्फ पर्याप्त संज्ञी जीवस्थान है । वचनयोग में अन्तिम पाँच (डीप्रिय, योन्द्रिय, चतुरिप्रिय, असंति- पचेन्द्रिय और [सं-पत्र) पर्याप्त जीवस्थान हैं। चक्षुदंर्शन में पर्याप्त तीन (चतुरिन्द्रिय असंशि- पञ्चेन्द्रिय और सोंज्ञ-पचेन्द्रिय) जीवस्थान मतान्तर से पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकार के उक्त तीन अर्थात् फूल छह जीवस्थान हैं ।। १७ ।।
भावार्थ - केवल-लिक आदि उपर्युक्त ग्यारह मार्गणाओं में सिर्फ पर्याप्त संज्ञी जीवस्थान माना जाता है। इसका कारण यह है कि पर्याप्त संज्ञी के सिवाय अन्य प्रकार के जीवों में न सर्वविरति का और न वेशविरतिका संभव है । अत एव संज्ञि-भिन्न जोवों में केवल विक, पाँच संगम, देशविरति और मनःपर्यायज्ञान, जिनका सम्बन्ध विरतिसे है, वे हो ही नहीं सकते । इस तरह पर्याप्त संझी के सिवाय अन्य जीवों में तथाविषद्रव्यमन का सम्बन्ध न होने के कारण मनोयोग नहीं होता और मिसम्यक्त्व को योग्यता भी नहीं होती ।
1
एकेन्द्रिय में भाषापर्याप्ति नहीं होती । भाषापर्याप्ति के सिवाय योग का होना संभव नहीं । कीन्द्रिय आवि जीवों में भाषापर्यादित का संभव है । वे जब सम्पूर्ण स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण कर लेते हैं, तभी उनमें भाषापर्याप्ति के हो जाने से बचनयोग हो सकता है। इसी से
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कमग्रन्थ भाग चार वचनयोग में पर्याप्त वीन्द्रिय अादि उपयुक्त पाच जी प्रस्थान माने ट्वये है ।
आंखपालों को ही चादर्शन हो सकता है । चतुरिन्द्रिय, असंशिपञ्चेम्ब्रिय और संशि-पञ्चेन्द्रिय, इन तीन प्रकार के हो जीपों को आँखें होती हैं । इसी से इनके सिवाय अन्य प्रकार के जोवों में चक्षुर्वर्शन का अभाव है। उक्त तीन प्रकार के जवों के विषय में भी का मत हैं ।
१-इन्द्रियपर्याप्ति को नीचे-लिखी दो व्याख्यायें, इन मतों की जड़
(क) “इन्द्रियपापित जीन की वह शक्ति है जिसके द्वारा धातुरूप में परिणत आहार-गुदम्लों में से योग्य पुग्ल, इन्द्रियरूप में परिणत किये जात
है।"
यह व्याख्या, प्रज्ञापना-वृत्ति तथा पञ्चसंग्रह वृत्ति पृ०६ में है। इस व्याख्या के अनुसार इन्द्रियपर्याप्ति का मतलब, इन्द्रिय-जनकः शक्ति से है । इस व्याख्या को मानने वाले पहले मत का आशय यह है कि स्वयोग्य पान्तियाँ पूर्ण बन चुकने के बाद (पर्याप्त-अवस्था में) सबको इन्द्रियजन्य उपयोग होता है, अपर्याप्त अवस्था में नहीं । इसलिये इन्द्रि यपर्याप्ति पूर्ण बन चकने के बाद, नेप होने पर भी अपर्याप्त अवस्था में चतुरिन्द्रिय आदि को चक्षदंशन नहीं माना जाता।
(य)-- "इन्द्रियपर्याप्ति जीव की वह शक्ति है, जिसके द्वारा योग्य आहार पुलों की इन्द्रिय रूप में परिणत करके इन्द्रिय-जन्य दोध का सामर्थ्य प्राप्त किया जाता है"
यह व्यास्था वहतसंग्रहणी पृ० १३० तथा भगमती-बत्ति पृ०५६६ में है । इसक अनुसार इन्द्रिपर्याप्ति का मतलब, इन्द्रिय-रचना से लेकर, इन्द्रिय-जन्य उपयोग तक की सब कियाओं को करने वाली शक्ति से है । इस व्याख्या को मानने वाले दुसरे मत के अनुसार इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण बन जाने से अपर्याप्त-अवस्था में भी सबको इन्द्रिय-जन्य उपयोग होता है। इसलिये इन्द्रियपर्याप्ति बन जाने के बाद नेत्र-जन्य उपयोग होने के कारण अपर्याप्त अवस्था में भी चतुरिन्द्रिय आदि का चक्षुर्दर्शन मानना चाहिये । इस मत की पुष्टि, पञ्चसंग्रह-मलयगिरि-वृत्ति के 5 पृष्ठ पर उल्लिखित इस मन्तव्य से होती है:
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पहले मत के अनुसार उनमें स्वयोग्य पर्याप्तियां पूर्ण बन जाने के बाव ही चक्षुर्दशन माना जाता है। दूसरे मत के अनुसार स्वभोग्य पर्याप्तियों पूर्ण होने के पहले भी-अपर्याप्स-अवस्था में मी-चक्षुदर्शन माना जाता है। किन्तु इसके लिये इन्द्रियपर्याप्सि का पूर्ण सम जाना आवश्यक है। क्योंकि इन्द्रियपर्याप्ति न बन जाय सब तक आंत के पूर्ण न बनने से वक्षुदर्शन हो ही नहीं सकता। इस दूसरे मत के अनुसार चक्षुर्वशंम में छह जीवस्थान माने हुए हैं और पहले मत के अनुसार तीन जीवस्थान ।। १७ ॥ __ थोनरपणिदि चरमा, च उ अणहारेद् सनि छ अपज्जा ।
ते सुहमअपज्ज विणा, सासणिइत्तो गुणे बुच्छं ॥१८॥ स्त्रीनरपञ्चेन्दिये चरमाणि, चत्वार्यनाहारके द्वौ सान्झनो पडपर्याप्ताः । ते सूक्ष्माषर्याप्त बिना, सासादन इतो गुणान् वक्ष्ये ॥१८ ।। ___ अर्थ-स्त्रोवेद, पुरुषवेद और पञ्चेन्द्रियजाति में अन्तिम चार ( अपर्याप्त तथा पर्याप्त असंशि-पञ्चेन्द्रिय, अपर्याप्त तथा पर्याप्त संजि-पञ्चेन्द्रिय ) जीवस्थान हैं। अनाहारकमार्गणा में अपर्याण-पर्याप्त दो संजी और सूक्ष्म-एकेन्द्रिय, बादर-एकेन्द्रिय, वीन्द्रिय, श्रोत्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंजि-पञ्चेन्द्रिय, ये छह अपर्याप्त, फुल शाह जीवस्थान हैं । सासावनसम्यक्त्व में उक्त आठ में से सूक्ष्म-अपर्याप्त को छोड़कर शेष सात जीयस्थान हैं।
अब आगे गुणस्थान कहे जायंगे ॥ १८ ॥ भावार्थ-स्त्रीवेव आदि उपर्युक्त तीम मार्गणाओं में अपर्याप्त
"करणापर्याप्तेषु चतुरिन्द्रियाविष्विन्द्रियपर्याप्ती सस्यो चक्षुर्वर्शनमपि प्राप्यते ॥"
इन्द्रिप्रपर्याप्ति की उक्त दोनों व्यास्याओं का बल्लेख, लोक प्र० स० ३ श्लोक २०-२१ में है।
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असंशि- पञ्चेन्द्रिय आदि चार जीवस्थान कहे हुए हैं। इसमें अपर्याप्तका मतलब करण अपर्याप्त से है, लब्ध- अपर्याप्त से नहीं; क्योंकि - पर्याप्त को ध्यदेव, नपुंसक ही होता है ।
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असंशिपचेन्द्रिय को यहाँ स्त्री और पुरुष, ये दो वेव माने हैं और सिद्धान्त' में नपुंसक; तथापि इसमें कोई विरोध का कयम द्रव्यवेव को अपेक्षा से और सिद्धान्त अपेक्षा से है। भावनपुंसकवेद वाले को स्त्री या होते हैं।
नहीं है। क्योंकि यहाँका कथन भायवेद की
पुरुष के भी चिन्ह
अनाहारक मागंणा में जो आठ जीवस्थान ऊपर कहे हुए हैं, इनमें सात अपर्याप्त हैं और एक पर्याप्त सब प्रकार के अपर्याप्त जीव, अनाहारक े उस समय होते हैं, जिस समय वे विग्रहगति ( वक्रगति) में एक, दो या तीन समय तक आहार ग्रहण नहीं करते । पर्याप्त संशी को अनाहारक इस अपेक्षा से माना है कि केवलज्ञानी, मध्यमन के संबन्ध से संज्ञी कहलाते हैं और वे केवलिसमुद्धात के तीसरे, चौषे और पाँचवें समय में कार्मणकाययोगी होने के कारण किसी प्रकार के आहारको ग्रहण नहीं करते ।
१णं भते असंनिपञ्चेन्दिय तिरिक्खओजिया कि इश्विवेगा पुरिया नपुंसकवेयगा ? गोमा ! नो इस्थिवेग को पुरिसवेया नपुंसकयेगा ।" -भगवती
२] वासंज्ञिपर्याप्त पर्याप्तो नपुसको तथापि स्त्रीपु सलि ङ्गाकारमात्रमङ्गीकृत्य स्त्रीपु साबुक्ताविति । "
— ३- देखिये, परिशिष्ट 'रु ।'
संग्रह द्वार १ गा० २४ की मूल टीका ।
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कर्मरन्थ भाग चार
सासाबमसम्पपश्व में सात जीवस्यान कहे हैं, जिनमें से छह अपर्याप्स हैं और एक पर्याप्त । सूक्ष्म-ए केन्द्रिय को छोड़कर अन्य छह प्रकार के अपर्याप्त जीवस्थानों में सासाधनसम्यक्त्व इसलिये माना जाता है कि जब कोई औपशामिकसम्यक्रव वाला जीव, उस सम्यक्रवको छोड़ता हुमा बावर-एकेन्द्रिय, डोम्निय, त्रीस्चिय, चतुरिन्द्रिय, असंशि-पञ्चेन्द्रिय या संशि-पञ्धेन्द्रिय में जन्म प्रहण करता है, तब उसको अपर्याप्त-अवस्था में सासादनसम्यक्तव पाया जाता है। परन्तु कोई जीव औरमिकसम्यक्तव को वमन करता हुमा सूक्ष्म-एप्रियमें पचा नहीं होता, इसलिये उसमें अपर्याप्त-अवस्था में सासादमसम्यसव का संभव नहीं है । संशि-पञ्चेन्द्रिय के सिवाय कोई भी जीव, पर्याप्त अवस्था में सासावनसम्तवी नहीं होता। पयोंकि इस अवस्था में औपशामिकसभ्य रुष पाने वाले संझी ही होते हैं, दूसरे नहीं ॥१८॥
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कर्मग्रन्थ-भाग चार
(२)-मार्गणाओं में गुणस्थान ।
[ पाँच गाया में । ]
पतिरि चर सुरनरए, नरसंनिपणिदिममवतसि सम्वे । इगविगल भूदगवणे, दु द एगं गइतसमध्चे ॥१६॥ पञ्च तिरचि चत्वारि सुरनर के, नरसंज्ञिपञ्चेन्द्रियभव्यास सर्वाणि । एकविकलभूदकवने हे हे एक गति प्रसाभव्ये ॥ १६ ।।
अर्घ-तिपंचगति में पांच गुणस्थान हैं। देव तथा नरकगति में घार गुणस्थान हैं । मनुष्यगति, संत्री, पञ्चेनियबाप्ति, भय और त्रसकाय, इन पांच मार्गणाओं में सब गुणस्थान हैं । एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पृथ्वी काय, अलकाय और वनस्पतिकाय में पहला और दूसरा, ये दो गुणस्थान हैं । गसिस (तंज:काय और बायकाय) और अभश्य में एक ( पहला । ही गुणस्थान है |॥ १६ ॥
भावार्थ--तियश्वगति में पहले पाँच गुणस्थान हैं। क्योंकि उसमें जाति-स्वभाव से सर्व विरतिका संभव नहीं होता और सर्वधिति के सिवाय छके आदि गुणस्थानों का संभव नहीं है।
वेवगति और नरकगति में पहले चार गुणस्थान माने जाने का सषय यह है कि देव या नारक, स्वभाव से ही विरतिरहित होते हैं और विति के बिमा अन्य गुणस्थानों का संभव नहीं है।
मनुष्य गति आदि उपयुक्त पाँच मार्गणाओं में हर प्रकार के परिमानों के संभव होने के कारण सब गणस्थान पाये जाते हैं।
एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पृथ्वीकाय, साले काय और बनस्पतिकाय में दो गुणस्थान कहे हैं । इममें से दूसरा स्थान अपर्याप्तअवस्था में ही होता है । एकेन्द्रिय आदि की आयु का बन्ध हो जाने के
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बाव न किसी को औपशामिकसम्यारव प्राप्त होता है, तब वह जसे त्याग करता हुआ सासावनसम्यक्त्वसहित एकेन्द्रिय आदि में जन्म प्रहण करता है। उस समय अपर्याप्त-अवस्था में कुछ काल तक दूसरा गुणस्थान पाया जाता है । पहला गुणस्थान तो एकेन्द्रिय
आदि के लिये सामान्य है । क्योंकि वे सब अनाभोग (अज्ञान-) के कारण तत्त्व-थबा-हीन होने से मिथ्यात्वी होते हैं । जो अपर्याप्त एकेन्द्रिय आवि, दूसरे गुणस्थान के अधिकारी कह गये हैं, वे करणअपर्याप्त हैं, लब्धि-अपर्याप्त नहीं; क्योंकि लब्धि-अपर्याप्त तो सभी जोष, मिथ्यात्वी ही होते हैं ।
सेजःकाय और वायुकाय, ओ गनिस या लधिनस काहे नाते हैं, उनमें न तो औपशमिकसम्यक्रव प्राप्त होता है और म औपशमिकसम्यक्त्व को बमन करने वाला जीव ही उनमें जन्म ग्रहण करता है। इसीसे उनमें पहला हो गुणस्थान कहा गया है ।
___ अमयों में सिर्फ प्रथम गुणस्थान, इस कारण माना जाता है कि के स्वभाव से ही सम्यव-लाभ नहीं कर सकते और सम्यक्त्व प्राप्त किये बिना दूसरे आदि गुणस्थान असम्भब हैं ॥१६॥
वेयतिकसाय नव दस, लोभेचज अजय दुति अनाणतिगे । बारस अचक्खु चक्खुसु, पढमा अहखाइ चरम चउ ॥२०॥ वेदनिकषाये नव दश, लोमे चत्वार्ययते है भाग्यवानत्रि के । द्वादशाक्षुक्चेक्षुषोः, प्रथमानि यथाख्याते चरमाणि चत्वारि ।।२०||
अर्थ-तीन वेव तथा तोम कषाय (संज्वलन-क्रोष, मान और मापा-) में पहले नौ गुणस्थान पाये जाते हैं । लोभ में (संज्वलनलोभ-) में दस गुणस्थान होते हैं । मयत (अविरति-) में चार गुणस्थान हैं । तीन अज्ञान (मति-अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभङ्गान-) में पहले दो या तीन मुयसन माने जाते हैं । अयक्षदर्शन और चक्षु
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वंशम में पहले बारह गणस्थान होते हैं। यथास्यासचारित्र में अन्तिम चार गुण स्थान है ॥२०॥
भावार्थ-तीन वेव और सीन संज्वलन-कषाय में नौ गुणस्थान कहे गये हैं, सो उवय की अपेक्षा से समझना चाहिये। क्योंकि उनको सत्ता ग्यारहवे गुणस्थान पर्यन्त पाई जा सकती हैं। मघः गुणस्थान के अन्तिम समय तक में तीन वेद और तीन सयलनकषाय या तो सोण हो जाते हैं या उपशान्त; इस कारण आगे के गृणस्थानों में उनका उवय नहीं रहता।
___सज्वलन लोभ में वस गुणस्थान उज्य की अपेक्षा से ही समालमे चाहिये, क्योंकि ससा तो उसकी ग्यारहवें गुणस्थान तक पायी जा सकती है।
अविरति में पहले चार गुणस्थान इसलिये कहे हुए हैं कि पांचवे से लेकर आगे के सब गुणस्थान विरतिरूप हैं।
अशान-धिको गुणस्थानों की संख्या के विषय में दो मत' हैं। पहला उसमें दो गुणस्थान मानता है और दूसरा तीन गुणस्थान । ये दोनों मत कार्मग्रधिक है।
(१) वो गुणस्थान माननेवाले आचार्य का अभिप्राय गह है कि कि तीसरे गुणस्थाम के समय शुद्ध सम्यक्त्व न होने के कारण पूर्ण यथार्थ जान भले ही न हो, पर उस गणस्थान में मिन-रष्टि होने से यमार्य ज्ञान की योड़ी-बहुत मात्रा' रहतो हो हैं । पयोंकि मित्र १--इन में से पहला मत ही गोम्मटसार-जीयकाण्ड की ६८६वीं गाथा
में उल्लिखित है। २-'मिथ्यात्वाधिकस्य मिश्र इष्टेरशानबाहुल्यं सम्यक्तवाधिकस्य पुनः सम्यकामगाहल्यमिति ।'
अर्थात्-"मिथ्यात्व अधिक होने पर मिश्र-दृष्टि में अज्ञान की बहुलता और सभ्यकत्व अधिक होने पर ज्ञान की बहुलता होती है।"
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कर्मग्रन्थ भाग चार
ष्टि के समय मिथ्यात्व का उदय जय अधिक प्रमाण में रहना है, तब तो अजान का अंश अधिक और शान का अंश कम होता है। पर जब मिथ्यात्व का उदय मन्द और सम्यक्तव-पुवग्ल का उवय तीन रहता है, तब ज्ञान की मात्रा ज्यादा और अबान की मात्रा कम होती है । चाहे मिश्र-ष्टि की कैसी भी अवस्था हो, पर उसमें न्यून अधिक प्रमाण में ज्ञान की मात्रा का सेभष होने के कारण उस समय के ज्ञान को अज्ञान न मानकर ज्ञान हो मानना उचित है । इसलिये अमान-त्रिक में दो हो गुणस्थान मानने चाहिये ।
(२) तीन गुणस्थान मानने वाले आचार्य का आशय यह है कि यपि तीसरे गुणस्थान के समय अज्ञान को ज्ञान-मिश्रित कहा है तथापि मिश्न-जान को जाम भानना उचित नहीं; उसे अज्ञान ही कहना चाहिये । क्योंकि शुद्ध सम्यक्तम हुए बिना चाहे कैसा भी बान हो, पर वह है अज्ञान । पदि सम्यक्त के अंश के कारण तीसरे गुणस्थान में जान को अनान न मानकर ज्ञान हो मान लिया जाय तो दूसरे गुणस्थान में भी सम्मक्तव का अंश होने के कारण ज्ञान को अज्ञान न पानकर जान ही मानना पड़ेगा, जो कि इTE नहीं है । इष्ट न होने का सबब यही है कि अमान-निकमें दो गुणस्थान मानने वाले भी, दूसरे गुणस्थान में मति आदि को अज्ञान मानते हैं । सिद्धान्त वादी के सिवाय किसी भी कामधिक विद्वान् को झुमरे गुणस्थान में मति आदि को ज्ञान भानमा इष्ट नहीं है। इस कारण सासाबन की तरह मित्रगुणस्थान में भी मति आदि को अज्ञान मानकर अज्ञान-त्रिक तीन गुणस्थान मानना युक्त है।
अचक्षुर्वर्शन तथा चक्षनर्शन में चारह गुणान इस अभिप्राय से
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१-'मिस्सभि का मिस्सा" इत्यादि । अर्थात् "मिश्रगुणस्थान में अशान, ज्ञान-मिश्रित है।"
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कर्म न्य भाग चार
माने जाते हैं कि उक्त दोनों दर्शन क्षात्रपशमिक हैं। इससे भामिकदर्शन के समय अर्थात तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में उनका अभाव हो जाता है। क्योंकि क्षायिक और क्षायोपशमिक ज्ञान वर्शन का साहचर्य नहीं रहता ।
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arrer चारित्र में अन्तिम चार गुणस्थान माने जाने का अभिप्राय यह है कि यथास्यात चारित्र मोहनीय कर्म का उदय एक जाने पर प्राप्त होता है और मोहनीय कर्म का उदयाभाव ग्यारहवे से चौद हमें तक चार गुणस्थानों में रहता है ||२०|
मणनाणि सग जधाई, समइयछेय चउ बुन्नि परिहारे । केवलगि दो चरमा जयाइ हिदुमे ॥ २१ ॥
मनोज्ञाने सप्त यतादीनि सामायिकच्छेदे चत्वारि परिहारे । केवलद्विके हे चरमेऽयतादीनि नव मतिश्रुतावधिद्विके ॥११॥
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अर्थ – मनः पर्यायज्ञान में प्रमत्तसंयत आदि सात गुणस्थान; सामायिक तथा छेदोपस्थापनीय- संयम में प्रमत्तसंयत आदि चार गुणस्थान; परिहारविशुद्धसंयम में प्रमतसंयत आदि वो गुणस्थान; केवल हिकमें अन्तिम दो गुणस्थान मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिठिक इन चार मार्गणाओं में अधिरतसम्यग्दृष्टि आदि नो गुणस्थान हैं ।। २१४
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मावार्थ-- मन पर्यायज्ञान वाले छठे आदि सात गुणस्थानों में वर्तमान पाये जाते हैं । इस ज्ञान की प्राप्ति के समय सातवाँ और प्राप्ति के बाद अन्य गुणस्थान होते हैं ।
सामायिक और छेवोपस्थापनीय, ये दो संयम, छठे आबि चार गुणस्थान में माने जाते हैं; क्योंकि वीतराग-भाव होने के कारण ऊपर के गुणस्थानों में इन सरागसंयमों का संभव नहीं है ।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
परिहारविशुद्धसंग्रम में रहकर श्रेणि नहीं की आ सकती इसलिये उसमें छठा और सातवां, ये को ही गुणस्थान समझने चाहिये ।
केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों क्षायिक हैं । भाषिक-शाम और क्षायिक-धर्शन, तेरहवें और पौवह गुणस्थान में होते हैं, इसी से केवलसिक में उक्त वो गुणस्थान माने जाते हैं।
मतिमान, श्रुतज्ञान और अवधि-द्विकवाले, चौथे से लेफर बारहवें तक नौ गुणस्थान में वर्तमान होते हैं। क्योंकि सम्यक्तत्र प्राप्त होने के पहले अर्थात् पहले तीन गुणस्थानों में मति आदि अज्ञानरूप ही हैं और अन्तिम धो गुणस्थान में क्षायिक-उपयोग होने से इनका अमाय ही हो जाता है।
इस जगह अयविदर्शन' में नथ गुणस्थान कहे हुये हैं, सो कार्मप्रन्यिक मत के अनुसार । कार्मयिक विद्वान पहले तीन गुणस्थानों में अवधियर्शन नहीं मानते । वे कहते है कि विमङ्गज्ञान से अवधिवर्शन की मिमता न माननी चाहिये । परन्तु सिद्धान्त के मतानुसार उसमें
और भी तीन गुणस्थान गिनने चाहिये । सिद्धान्तो, विभङ्गज्ञान से अवधिवशेन को जुवा मानकर पहले तीन गुणस्थानों में भी अवषिवर्शन मानते हैं ।। २१ ॥
अड उवसमि चउ वेगि, खइए इफ्कार मिच्छतिगि वेसे । सुहमे य सठरणं तेर.-स जोग आहार सुक्काए ।। २२ ।।
अष्टोपशमे चत्वारि वेद के, क्षायिक एकादश मिथ्यात्रिके देशे ।
सूक्ष्मे च स्वस्थानं त्रयोदश योगे आहारे शुक्लायाम् ॥ २२ ॥
अर्थ--उपशमसम्यक्तव में चौथा आदि आठ, वेदक (क्षायोपमिक-) सम्यक्त्व में चौथा आवि चार और क्षायिकसभ्यषय चीया
१-दखिये, परिशिष्ट 'इ ।'
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कमग्रन्थ भाग चार
आबि ग्यारह गुणस्थान हैं। मिथ्यात्व- त्रिक (मिध्यादृष्टि सास्वादन और मिश्रष्टि--) में, देशविरति में तथा सूक्ष्मसम्पराय चरित्र में स्व-स्व स्थान ( अपना-अपना एक ही गुणस्थान ) है । योग, शुक्ललेामार्गणा में पहले तेरह गुणस्थान है ।। २२ ।।
आहारक और
भावार्थ – उपशमसम्यक्त्व में आठ गुणस्थान माने हैं। इनमें से चोथा भरवि चार गुणस्थान, ग्रन्थि-मेव-जन्य प्रथम सम्यक्त्व पाते समय और आठवी आदि चार गुणस्थान, उपशमश्रेणी करते समय होते हैं ।
वेदसम्यत्व तभी होता है। जब कि सम्मोहनीय का उदय हो । सम्यक्तवमोहनीय का उदय श्रेणी का आरम्भ न होने तक { सातवें गुणस्थान तक रहता है । इस कारण वेदकसम्यक्तव में चौथे से लेकर चार ही गुणस्थान समझने चाहिये ।
चौथे और पांचवें आदि गुणस्थान में क्षायिकसम्यक्तव प्राप्त होता है, जो सवा के लिये रहता है; इसी से उसमें चौथा आदि ग्यारह गुणस्थान कहे गये हैं ।
१ --- देखिये, परिशिष्ट ' '
पहला ही गुणस्थान मिथ्यास्वरूप, तीसरा ही मिश्र दृष्टिरूप, पाँचत्र ही सूक्ष्मसम्परायचारित्ररूप है। इसी से सूक्ष्मसम्पराय में एक-एक गृणस्थान कहा गया है ।
तीन प्रकार का योग, आहारक' और शुल्कलेश्या, इन छह मार्गणाओंमें तेरह गुणस्थान होते हैं; क्योंकि चौदहवें गुणस्थान के समय न तो किसी प्रकार का योग रहता है, न किसी तरह का आहार ग्रहण किया जाता है और न लेश्या का ही सम्भव है।
योग में तेरह गुणस्थानों का कथन मनोयोग आदि सामान्य योगों
दूसरा ही सास्वादन - भावरूप, देश विरतिरूप और दसवाँ हो मिथ्यात्व त्रिक, बेशविरति और
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काँग्रन्थ भाग चार
की अपेक्षा से किया गया है । सत्यमनोयोग आदि विशेष घोगों को अपेक्षा से गणस्थान इस प्रकार हैं
(क) सत्यमन, असत्यामृषामन, सत्यवचन, असत्यामृषावचन और औदारिक, इन पांच योगों में तेरह गुणस्थान हैं।
(ख) असत्यमम, मिथमन, असत्यवचन, और मिश्रवचन, इस चार में पहले बारह गुणस्थान हैं।
(ग) औदारिकमित्र तथा फार्मणकायद्योग में पहला, बूसरा, चौथा और तेरहवा, ये चार गणस्थान हैं।
(घ) वैक्रियफाययोग मे पहले सात और क्रियमिश्रकाययोग में पहला, दूसरा, चौथा, पांचना और छठा, य पाँच गणस्थान है।
(च. आहारककाययोग में छठा और सातवां, ये दो और आहारकामधकाययोग में केवल छठा गणस्थान है ॥ २२ ॥
अस्सन्निसु पढमबुगं, पढमतिलेसासु छच्च दुसु सत्त। पहमतिद्गअजया, अणहारे मग्गणासु गुणा ॥२३॥ असंज्ञि पु प्रथमद्विक, प्रथमपिलेश्यासु षट् च द्वमोस्मप्त ।
प्रथमातिद्विकायतान्यताहारे मार्गणासु गुणाः ।। २३ ॥
अर्थ--संज्ञि प्रों में पहले दो गुणस्थान पाये जाते हैं। कृष्ण, नील और कापोत, इन तीन लेश्याओं में पहले छह गुणस्थान और सेज; और पद्म, इन तीन लेश्याओं में पहले सात गुणस्थान है । अना. हारफमार्गणा में पहले दो, अन्तिम वो और अविरतसम्यग्दृष्टि, ये पाँच गुणस्थान हैं। इस प्रकार मार्गणाओं में गुणस्थान का वर्णन हुआ ।। २३ ॥
मावार्थ- असंजी में बो गणस्थान कहे हुए हैं । पहला गुपस्थान सब प्रकार के अत्तियों को होता है और दूसरा कुछ असंशिओंको ऐसे असंजी, करण -अपर्याप्त एकेन्द्रिय आवि ही है, क्योंकि
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कर्मनन्थ भाग चार
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सब्धि-अपर्याप्त ए केन्द्रिय आदि में कोई जीव सास्वादन-मावसहित आकर जन्म ग्रहण नहीं करता।
कृष्ण, नील और कापोत, इन तीन लेण्याओं में छह गुगस्थान माने जाते हैं । इनमें से पहले चार गणस्थान ऐसे हैं कि जिनको प्राप्ति के समय और प्राप्ति के बाव भी उक्त तीन लेश्याएं होती हैं । परन्तु पांचों और छठा, ये वो गुणस्थान ऐसे नहीं हैं। ये को गणस्थान सम्यक्तबमूसक विरतिरूप हैं। इसलिये उनकी प्राप्ति तेजः मावि शुभ लेश्याओं के समय होती है। कृष्ण आदि अशुभ लेश्याओं के समय नहीं । तो भी प्राप्ति हो जाने के गाल नरिणाम-गि दुई के रहन वो गुणस्थानों में अशुभ लेश्याएं भी आ जाती है।
कहीं-कहीं कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्याओं में पहले चार ही गणस्यान कहे गये हैं, सो प्राप्ति-काल की अपेक्षा से अर्थात् उक्त तीन लेण्याओं के समय पहले चार गणस्थानों के सिवाय अन्य कोई गुणस्थान प्राप्त नहीं किया जा सकता।
सेजोलेल्या और पपलेश्या में पहले सात ग णस्थान माने हुए हैं, सो प्रतिपद्यमान और पूर्वप्रतिपन, बोनों को अपेक्षा से अर्थात् सात गणस्थानों को पाने के समय और पाने के बाद भी उक्त दो लेश्याएँ रहती हैं।
१--यही बात श्रीभद्र बाहुस्वामी ने ही है:-- "सम्मत्तसुयं सध्या,-सु लहइ सुद्धासु तीसु य चरितं । पुध्धपरियन्नो पुण, अन्नयरीए उ लेसाए ॥२२॥"
--आवश्यक-नियुक्ति, पृ०३ मर्थात् "सम्यक्त्व की प्राप्ति सब लेश्याओं में होती है, चारित्र की प्राप्ति पिछली तीन शुद्ध लेश्याओं में ही होती है । परन्तु चारित्र प्राप्त होने के बाद छह में से कोई लेश्या आ सकती है।"
२. इसके लिये देखिये, पञ्चसंग्रह, द्वार १, गा ३० तथा बन्धस्वामित्व , गाव २४ और जीवकाण्ड गा, ५३१ ।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
अनाहारकमार्गणा में पहला, दूसरा, चौथा, तेरहवां और धोबहरा, ये पाँच गुणस्थान कहे हुए हैं। इनमें से पहले तीन गुणस्थान विग्रहगति-कालीन अनाहारक-अवस्था की अपेक्षा से, तेरहवां गणस्थान केलिसमुद्धात के तीसरे, चौथे और पांचवें समय में होने वाली अनाहारषा अवस्था की अपेक्षा से । और चौद
वाँ गुणस्थान योग-निरोधजन्य अनाहारक-अवस्था की अपेक्षा से समझना चाहिये।
कहीं-कहीं यह लिखा हुआ मिलता है कि तीसरे, बारहवें और तेरहवें, इन तीन गुपए स्थानों में मरण नहीं होता, शेष ग्यारह गणस्थानों में इसका संभव है। इसलिये इस जगह यह शङ्का होती है कि जब उक्स शेष ग्यारह गुणस्थानों में मरण का संभव है, तब विग्रहगति में पहला, दूसरा और चौथा, ये तीन ही गुणस्थान क्यों माने जाते हैं?
इसका समाधान यह है कि मरण के समय उक्त ग्यारह गणस्थानों के पाये जाने का कयन है, सो व्यावहारिक मरण को लेकर { वर्तमान भवका अन्तिम समय, जिसमें मोष मरणोन्मुख हो जाता है, उसको लेकर ), निश्चय मरण को लेकर नहीं । परभक्ष की आयु का प्राथमिक उदय, निश्चय भरण है। उस समय जीव विरति-रहित होता है । वितिका सम्बन्ध वर्तमान भव के अन्तिम समय तक ही है । इसलिये निश्चय मरण-काल में अर्थात् विग्रहगति में पहले, दूसरे और चौथे गुणस्थान को छोड़कर विरतिवाले पांचवें आधि आठ गणस्थानों का संभव ही नहीं है ।। २३ ॥
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फर्मग्रन्दमाग चार
(३)-मार्गणाओं में योग ।
[ छह गाथाओं से । ।
सनयरमीसअस, चमोसमणवाविउवियाहारा । उरलं मीसा कम्मण, इय जोगा कम्ममणहारे ॥२४॥ सत्येतरमिथासत्यमृपमनोवचो कुर्विकाहारकाणि । ओरारिक मिथाणि कामणमिति योगा: कामणमनाहारे ॥ २४॥
मयं-सरप, असत्य, मिश्र (सत्यासत्य ) और असत्यामृष, ये चार मेष मनोयोग के हैं। बचमयोग भी उक्त चार प्रकार का ही है। वैक्रिय, आहारक और औदारिक, ये सीन शुद्ध तथा ये ही तीन मिश्र और फार्मण, इस तरह सात भेद काययोग के है । सब मिलाकर पन्द्रह योग हुए ।
अनाहारक-अवस्था में कार्मण काययोग हो होता है ॥ २४ ॥
मनोयोग के भंवों का स्वरूपः
भावार्थ---( १ ) जिस मनोयोगहारा वस्तु का मथार्थ स्वरूप विधारा जाय; जैसे:-जीव तस्यापिकनय से नित्य और पर्याणथिकनय से अनित्य है, इत्यावि, वह 'सरयमनोयोग' है।।
(२) जिस मनोयोग से वस्तु के स्वरूप का विपरीत चिन्तन हो; जैसे:--जीव एक ही है या नित्य ही है, इत्या , वह 'असत्यमनोयोग है।
( ३ ) किसी अंश में यथार्थ और किसी अंश में अयथार्थ, ऐस मिश्रित चिन्सन, जिस मनोयोग के द्वारा हो, वह मिश्रमनोयोग है। जैसे:-किसी व्यक्ति में गुण-वौष धोनों के होते हुए भी उसे सिप
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बोषी समझना । ह समें एक अंश मिथ्या है, क्योंकि दोष की तरह गुण भी बोष रूप से सवाल किये जाते हैं ।
(४) जिस ममोयोग के द्वारा की जाने वाली कल्पना विधि-निषेधशून्य हो–जो कल्पना, न तो किसी वस्तु का स्थापन ही फरसो हो और न उत्थापन, वह 'असत्यामूटषामनोयोग है । असे:-हे देववस । हे इन्द्रवत्त । स्यादि । इस कल्पना का अभिप्राय अग्य कार्य में ध्यप्रव्यक्ति को सम्बोधित करना मात्र है. किसी तत्व के स्थापन-उत्थापन का नहीं।
उक्त चार मेव, घ्यबहारनयको अपेक्षा से हैं। क्योंकि निश्चय हष्टि से सबका समावेश सत्य और असत्य, इन वो भेदों में ही हो जाता है । अर्थात् जिस मनोयोग में छल-कपट की बुद्धि नहीं है, चाहे मिश्न हो या असत्षामृष, उसे 'सत्यमनोयोग' ही समलना चाहिये । इसके विपरीत जिस मनोयोग में छल-कपट का अंश है, वह 'असत्यमनोयोग' ही है।
वचन योग के भेदों का स्वरूप:
(१) जिस 'वचनयोग' के द्वारा वस्तु का यथार्थ स्वरूप स्यापित किया जाय; जैसे:-यह कहना कि जीब सत्रूप भी है और असप मो, वह 'असत्यवचनयोग' है ।
२) किसी वस्तु को अयथार्थ रुप से सिद्ध करने वाला बचनपोग, 'असत्यवचनयोग है; जैसे:-यह कहना कि आरमा कोई पोज नही है या पुण्य-पाप कुछ भी नहीं है ।
(३) अनेक रूप वस्तु को एकरुप ही प्रतिपादन करने वाला वचनयोग मिश्रवचनमोग' है । जैसे:---आम, नीम, माचि अनेक प्रकार के वृक्षों के वन को आम का हो यन कहना, इत्यादि ।
(४) जो 'वचनयोग' किसी वस्तु के स्थापन-उत्थापन के लिये
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प्रवृत नहीं होता, वह असत्यामुषवचनयोग है। जैसे:-- किसी का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिये कहना कि हे भोजवत्त | हे मित्रसेन ! इत्यादि पद सम्बोधनमात्र हैं, स्थापन उत्थापन नहीं । योग के भो मनोयोग की तरह, तत्त्व-ष्टि से सत्य और असत्य, ये वो ही मेद समझने चाहिये ।
काययोग के भेदों का स्वरूपः
(३) सिर्फ वैक्रिय शरीर के द्वारा वीर्य-शक्ति का जो व्यापार होता हैं, वह 'काययोग' । यह योग, देवों तथा मारकों को पर्याप्त अवस्था में सब ही होता है । और मनुष्यों तथा तिर्यों को वैक्रिय लब्धि के वन से क्रियशरीर धारण कर लेने पर ही होता है। वैकिय शरीर' उस शरीर को कहते हैं, जो कभी एकरूप और कभी अनेक रूप होता है, तथा कभी छोटा, कभी बड़ा मो आकाश-गामी, कभी भूमि- गामी, कभी रहय और कभी अवश्य होता है । ऐसा-चं क्रियशरीर देवों तथा नारकों को जन्म समय से ही प्राप्त होता है; इसलिये वह 'गति' कहलाता है। मनुष्यों तथा तिर्यञ्चका वैक्रियशरीर 'लब्धिप्रत्यय' कहलाता है; क्योंकि उन्हें ऐसा शरीर, लब्धि के निमित्त से प्राप्त होता है, जन्म से नहीं ।
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भावान
(२) क्रिय और कार्मण तथा वैक्रिय और औदारिक, इन दोदो शरीरों के द्वारा होने वाला बीयं शक्ति का व्यापार, र्वक्रि मिश्रकाययोग' है । पहले प्रकार का वैक्रियमिश्रकाययोग, देवों तथा नारकों को उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर अपर्याप्त अवस्था तक रहता है । दूसरे प्रकार का क्रियमिव काययोग, मनुष्यों और तिर्यञ्चों में लखी पाया जाता है जब कि वे लब्धि के सहारे से वैक्रिय शरीर का आरम्भ और परित्याग करते हैं ।
(३) सिर्फ आहारक शरीर की सहायता से होने वरना वीर्य-शक्ति का व्यापार, 'आहारककाययोग' है ।
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(४) 'आहारकमिथकाय योग' वीर्य-शक्ति का यह व्यापार है, जो आहारक और औदारिक, इन दो शरोरों के द्वारा होता है। आहारक शरीर धारण करने के समय, आहारकशरीर और उसका आरम्मपरित्याग करने के समय आहारकमिश्रकाययोग होता हैं। अतुर्दशपूर्वधर मुनि, संशय दूर करने, किसी सूक्ष्म विषय को जानने अथवा समृद्धि देखने के निमित्त, दूसरे क्षेत्र में तीर्थर के पास जाने के लिये विशिष्ट-लब्धि के द्वारा आहारफशरीर बनाते हैं ।
(५) औचारिककाययोग, बोर्य-शक्ति का वह व्यापार है, जो सिर्फ औदारिक शारीर से होता है । यह योग, सब औदारिकशरीरी जोयों को पर्याप्त-दशा में होता है । जिस शरीर को तीर्थङ्कर आदि महान पुरुष धारण करते हैं, जिससे मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है, जिसके बनने में मिडी के समान थोड़े पुव ग्लों की आवश्यकता होती है और जो मांस-हल्ली और नस आधि अवयवों से बना होता है, यही शरीर, 'औदारिक' कहलाता है।
(६) वीर्य-शक्ति का जो व्यापार, औदारिक और कार्मण इन दोनों शरीरों की सहायता से होता है, वह 'औचारिकमिश्रकायोग' है । यह योग, उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर अपर्याप्त अवस्था पर्यन्त सब औदारिफबारीरी जीवों को होता है ।
(७) सिर्फ कार्मणशरीर को मस्त से वीर्य-शक्ति की जो प्रवृत्ति होती है, वह 'फार्मणकाययोग' हैं। यह योग, विग्रह गति में तथा उत्पत्ति के प्रथम समय में सब जीवों को होता है । और केलिसमुद्धात के तीसरे, चौथे और पांचवें समय में फेक्ली को होता है । कार्मणशरीर' यह है, जो कभं-पुदालों से बना होता है और आत्माके प्रदेशों में इस तरह मिला रहता है, जिस तरह दूध में पान. । सब शरीरों को अड, फार्मणशरीर ही है अर्थात् जब इस शरीर का समूस नाश होता है, तभी संसार का उच्छेद हो जाता है । जीव, नये जन्मको
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ग्रहण करने के लिये जब एक स्थान से दुसरे स्थान को जाता है, तम वह ! सो शरीर से वेष्टित रहता है । यह शरीर इतना सूक्ष्म है कि वाह रुपवाला होने पर भी नेत्र मावि इन्द्रियों का विषय बन नहीं सकता । इसी शरीर को वसरे वार्शनिक ग्रन्थों में 'सूक्ष्मशरीर' या 'लिङ्गशरोर'
___ यद्यपि तेजस नाम का एक और भी शारीर माना गया है, जो कि खाये हुए आहार को पचाता है और विशिष्ट लम्पि-धारी तपस्वी, जिसकी सहायता से तेजोलेश्या का प्रयोग करते हैं । इसलिये यह शङ्का हो सकती है कि फार्मणकाययोग के समान तंजसकाययोग भी मानना आवश्यक है।
इस शङ्क का समाधान यह है कि तेजसशरीर और फार्मणारीरका सबा साहचर्य रहता है। अर्थात् औदारिक आवि अन्य शरीर. कभी-कभी कार्मणशरीर को छोड़ भी देते हैं। पर तेजसशरीर उसे कभी नहीं छोड़ना । इसलिये वीर्य-शक्ति का जो व्यापार, कार्मणशरीर के द्वारा होता है, वही नियम से तेजस शरीर के द्वारा भी होता रहता है । अत: कामणकाय योग में ही तेजसकाययोग का समावेश हो आता है। इसलिये उसको जुदा नहीं गिना है ।
आठ मार्गणाओं में योग का विचार:---- ऊपर जिन पन्द्रह योगों का विचार किया गया है उनमें से कार्मण काययोग ही ऐसा है, जो अनाहारक-अयस्पा में पाया जाता है । शेष बौदह योग, आहारक अवस्था में ही होते हैं । यह नियम नहीं है कि अमाहारक-अवस्था में कामणकाययोग होता ही है। क्योंकि चौरहवें गुणस्थान में अनाहारक-अवस्था होने पर भी किसी तरह का १--' उक्तस्य सूक्ष्मशारीरस्य स्वरूपमाह--"सप्तदर्शक लिङ्गम् ।।
.-साख्य दर्शन-अ० ३, सू० । ।
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योग नहीं होता । यह भो नियम नहीं है कि कार्मणाकाययोग के समय अनाहारक-अवस्था अवश्य होती है। क्योंकि उत्पत्ति क्षणमें कार्मणकाययोग होने पर भी जीव, अनाहारक नहीं होता, बल्कि वह उसी योग के द्वारा आहार लेता है. परन्तु यह तो नियम ही है कि जेल जीव को अनाहारक-अवस्था होती है, तब कार्मणकाययोग के सिवाय अन्य योग होता ही नहीं । इमोसे अमाहारक-मार्गणा में एक मात्र कामणकाययोग माना गया है ॥२४॥
नरगइणि दितसतणु-अचक्खुनरनपुकसायसंवुमगे । संनिछलेसाहारग,-भवमइमुओहिदगे सब्वे ॥२५॥ न रगतपञ्चेन्द्रि यत्र स तन्वनक्षनरनपुस ककषायस म्यवद्धिके । मंजिषङ्लेश्याहारकभव्यमितिश्रुतावविद्विवे सर्वे ॥२५॥
अर्थ—मनुष्यगति, पञ्चेप्रियजाति, प्रसफाय, काययोग, अचादर्शन, पुरुषवेद, नपूसकवेद, चार कबाय, क्षायिक तथा बायोपशमिक, ये दो सम्मकत्व, संजी, छह लेश्याएं, आहारक, भव्य , मतिमान श्रुतज्ञान और अवधि द्विक. इन छुट्बीस मार्गणाओं में सब पन्द्रहोंयोग होते हैं ।।२५॥
भावार्थ -उपर्युक्त छब्बीस मार्गणाओं में पन्द्रह योग इसलिये कहे गये हैं कि इन सब मार्गणाओं का सम्बन्ध मनुष्यपर्याय के साथ है और मनुष्यपर्याय सब योगों का सम्भव है ।
यपि कहीं-कहीं यह कथन मिलता है कि आहारकमार्गणा में कर्मणयोग नहीं होता, शेष घौदह योग होते हैं । किन्तु वह युक्तिसमत नहीं जान पड़ता; क्योंकि अन्म के प्रथम समय में, कार्मणयोग के सिवाय अन्य किसी योग का संभव नहीं है। इसलिये उस समय, कार्मण योग के द्वारा हो माहाकश्व घटाया जा सकता है ।
जन्म के प्रथम समय में जो आहार किया जाता है, उसमें गझमाण
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पुबगल ही साधन होते हैं। इसलिये उस समय, कार्मणकाययोग माननेकी जरूरत नहीं है । ऐसी वाङ्का करना व्यर्थ है। क्योंकि प्रथम समय में, आहाररुप से ग्रहण किये हुए पुग्ल उसी समय शरीररुप में परिणत होकर चूसरे समप में आहार लेने में साधन बन सकते है, पर अपने प्रण में आप साधन नहीं बन सकते ।।२।।
तिरिस्थिअजयसासण,-अनाणउवसमअभध्वमिच्छेसु । तेराहारदुगुणा, ते उरलदुगूण सुरनरए ॥२६॥ तिर्यवत्र्ययत सासादनाशानोपशमाभयमिथ्यात्धेषु अयोदशाहार कदिकोनास्त औदारिकाद्वकोनाः सुरेनरक ॥२६।।
अर्थ तिर्थचमति, स्त्रीवेद, अविरति, सास्वादन, तीन अज्ञान, उपशामसम्यकत्व, अभव्य और मिथ्यात्व, इन दस मार्गणाओं में आहारक--द्विकके सिवाय तेरह योग होते हैं। देवगति और नरकगति में उक्त तेरह में से औदारिक-द्विकके सिवाय शेष ग्यारह योग होते है ॥२६॥
भावार्थ-तिर्यंचति आदि उपयुंक्त बस मागंणामों में आहारक-तिकके सिवाय शेष सब योग होते हैं । इनमें से स्त्रीवेद और उपशमसम्यवरष को छोड़कर शेष आठ मार्गणाओं में आहारफयोग न होने का कारण सर्वविरतिका अभाव ही है। स्त्रीवेव में सर्वविरतिका संभव होने पर भो आहारकयोग न होने का कारण स्त्री जाति को रष्टिबाव-जिसमें चौवह पूर्व है....पढ़ने का निषेध है। उपशमसम्यबत्व में सर्वविरतिका संभव है तथापि उसमें आहारक योग न मानने का कारण यह है कि उपशमसम्यवस्वी आहारकनधि का प्रयोग नहीं करते।
१ देखिये, परिशिष्ट 'त।'
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कर्मग्रन्थ माग चार
तिर्थञ्चगति में तेरह योग कहे गये हैं। इनमें से चार मनोयोग, धार वननयोग और एक ओवारिककाययोग. इस तरह से ये नो योग पर्याप्त. अवस्था में होते हैं। बैंक्रियकापयोग और वैक्रियमिश्रकाययोग पर्याप्तअवस्था में होते हैं सही; पर सव तियंञ्चों को नहीं; किन्तु बैंक्रिया wo मे बल से मिमीर घनाने पाले कुछ निर्गों को हो । कार्मण और औारिकमिश्र, ये दो योग, तिर्यञ्चों को अपर्याप्त-अवस्था में ही होते हैं।
स्त्रीवेव' में तेरह योगों का संभव इस प्रकार है:--मन के चार वचन के चार, दो पंक्रिय और एक औदारिक, ये ग्यारह योग मनुष्य-तिर्यञ्च-स्त्री को पर्याप्त अवस्था में, क्रियमिश्रकाययोग देवस्त्री को अपर्याप्त-अवस्था में, औदारिकमिश्रकाययोग मनुष्य-तिर्यस्त्री को अपर्याप्त-अवस्था में और कामंणकाययोग पर्याप्त मनुष्यस्त्री को केवलिसमुद्धात-अवस्था में होता है।
अधिरति, सम्पष्टि, सास्वावन, तीन अज्ञान, अभव्य और मिथ्यात्व, इन सात मार्गणाओं में मार मन के, चार वचन के, औवारिक और वैक्रिय, ये दस योग पर्याप्त-अवस्था में होते हैं। कार्मणकाययोग विवाहपसि में तथा उत्पत्ति के प्रथम क्षण में होता है । औदारिफमिन और वैनियमिश्र, ये दो योग अपर्याप्त-अवस्था में होते है।
१-स्त्रीवेद का मतलब इस जगह द्रव्यस्त्रीवेद से ही है । क्योंकि उसी में आहारकयोग का अभाव घट सकता है । भावस्त्रीवेद में तो आहारकयोग का संभव है अर्थात् जो द्रव्य से पुरुष होकर भावस्त्रोवेद का अनुभान करता है, वह भी आहारकयोग वाला होता है । इसी तरह आगे उपयोगाधिकार में जहां वेद म बारह उपयोग कहे हैं, वहाँ भी वेद का मतलब द्रव्यवेद से ही है। क्योंकि क्षायिक-उपयोग भाघवेदर हितको ही होते हैं, इसलिये भाववेद में बारह उपयोग नहीं घट सकते । इससे उलटा, गुणस्थान-अधिकार में वेद का मतलब भावद से ही है। क्योकि वेद में नौ गु प्रस्थान कहे हुए हैं, सो भाववेद में ही घट सकते हैं, द्रव्यवेद तो चौदहवें गुणस्थान पर्यन्त रहता है ।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
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उपनामसम्यक्तव में चार मन के, चार वचन के, औवारिक और वैषिय, ये दस योग पर्याप्त अवस्था में पाये जाते है । कार्मण और मंक्रियमिश्र, ये दो योग अपर्याप्त अवस्था में देवों की अपेक्षा से समझने चाहिये क्योंकि जिनका यह मत है कि उपशमणि से गिरनेवाले जोश मरकर अनुत्तर विमान में उपशमसम्यक्तव सहित जन्म लेते हैं, उनके मत से अपर्याप्त देवो में उपशमसम्यक्तव के समय उक्त योगों योग पाये जाते हैं । उपशमसम्यक्त्व में औदारिम मिश्रयोग दिया है, सो सैद्धान्तिक मत के अनुसार, कार्मग्रन्थिक मत के अनुसार नहीं क्योंकि फार्मप्रस्थिक मत से पर्याप्त अवस्था में फेमली के सिवाय अन्य किसी को यह योग नहीं होता। अपर्याप्त अवस्था में मनुष्य तथा तिर्यञ्च को होता है सही पर उन्हें उस अवस्था में किसी तरह का उपशमसम्यक्त नहीं होता । संद्धान्तिक मत से उपशमसम्यक्स्व में औदारिकमिश्रयोग घट सकता है; क्योंकि सैद्धान्तिक विद्वान् क्रियशरीर की रचना के समय वक्रियमिश्रयोग न मानकर औवारिक मिश्र योग मानते हैं; इसलिये यह योग, प्रन्यि-मेव-जन्य उपशमसम्यरूष वाले वैक्रियसब्धि-संपत्र मनुष्य में वैक्रिथशरीर की रचना के समय पाया जा सकता है ।
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देवगति और नरकगति में विरति न सम्भव नहीं है तथा औदारिकशरीर न होने संभव नहीं है। इसलिये इन चार योगों के उक्त दो गतियों में कहे गये हैं; सो चाहिये ॥ २६ ॥
१ - यह मत स्वयं ग्रन्धकारने ही आगे की ४६ वीं गाया में इस अंश
से निर्दिष्ट किया है
होने से हो व्यहारकयोगों का से वो श्रीदारिकयोगों का सिवाय शेष ग्यारह योग यथासम्भव विचार लेमा
"विगाहार उरलमिस्सं "
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कर्मग्रन्थ भाग चार
कम्मुरलदुर्ग थावरि, ते सविउविदुग पंच इगि 'रवणे । छ असंनि चरमवाइजुय, ते विउवगुण चल विगले ॥२७॥
कार्मणौतारिकनिक स्थावरे, ते सक्रिय द्रिका: पञ्चकस्मिन् पवने । पडसज्जिनि चरमवचोयुतास्ते बैंक्रियतिकोनाश्चत्वारो विकले ॥२७॥ ___ मर्थ-स्थावरकाम में, फार्मण तथा औदारिक-विक, ये तीन योग होते हैं। एकेन्द्रिय जाति और वायुफाप में उक्त तीन तथा बैकिय-विक, पे कुल पांच योग होते हैं । असंज्ञो में उक्त पांच और चरम बचनयोग (असस्यामृषानचन) फुल छह योग होते हैं । विकलेन्द्रिय में उक्त छहमें से बैंक्रिय-द्विक को घटाकर शेष चार (फार्मण, औचारिकमिश्र, औवारिफ और असत्यामृषावचन) योग होते हैं ॥ २७ ॥
भावार्य-स्थावरकाय में तीन योग कहे गये हैं, सो वायुकाय के सिवाय अन्य चार प्रकार के स्थावरों में समझना चाहिये । क्योंकि वायुकाय में और भी दो योगों का संभव है । तीन योगों में से कामणकाययोग, विग्रहगति में तथा उत्पत्ति-समय में, औवारिकमिभकाययोग, उत्पत्ति-समय को छोड़कर शेष अपर्याप्त-काल में और आवारिककाययोग, पर्याप्त-अवस्था में समझना चाहिये।
एकेन्द्रियजाति में, वायुकाय के जोच भी आ जाते है । इसलिये उसमें तीन योगों के अतिरिक्त, वो बैक्रिययोग मानकर पांच योग कहे हैं।
वायुकाय में अन्य स्थानों की तरह कार्मण आदि तीन योग पापे जाते हैं। पर इनके सिवाय और भी दो योग (वैक्रिय और बनियमिश्र) होते हैं। इसी से उसमें पांच योग माने गये हैं। वायुकाय' में पर्याप्त पावर
१-वही बात प्रज्ञापना-णि में कही हुई:--
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कर्मग्रन्थ भाग चार
जीव, बैंक्रिपलब्धि-संपन्न होते हैं, वे ही वैक्रिय-द्विक के अधिकारी हैं, सब नहीं । वैक्रियशरीर बनाते समय, बैंक्रियमिश्रकाययोग और बना चुकने के बाद उसे धारण करते समय बैंक्रियकापयोग होता है।
असंजी में छह योग कहे गये हैं। इनमें से पांच योग तो वायुफायको अपेक्षा से; क्योंकि सभी एकेन्द्रिय असंज्ञो हो हैं । छठा असत्यामृषावरनययोग, द्वीन्द्रिय आदिको अपेक्षा से; क्योंकि वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और समूच्छिमपञ्चेन्द्रिय, ये सभी असंही हैं। बोन्द्रिय आदि भसंज्ञी जीव, भाषालब्धि-युक्त होते हैं। इसलिये उनमें असत्यामृषावचनयोग होता है।
विकलेन्द्रिय में चार योग कहे गये हैं। क्योंकि वे, वैक्रिय सन्धिसंपन्न न होने के कारण वंनियशरीर नहीं बना सकते । इसलिये उनमें असं नयी छह योगों में से किन-कि नहीं होता ॥२७।।
कम्मुरलमीसविणु मण, वइसमहयद्देयचक्षुमणनाणे । उरलदुगकम्म पढम,-तिममणवइ केवलदुर्गमि ॥२८ ।।
कमौदारि कमिश्रं विना मनोवचरसामायिक महेंदचक्षुमनोज्ञाने ।
औदारिकति कर्मपयमान्तिममनोवचः कवलविके ।। २ ।। अर्थ--मनोयोग, वचनयोग, सामायिकचारित्र, छेवोपस्थापमीयचारित्र, चक्षुर्वर्शन और मन:पर्याय ज्ञान, इन छह मागंगाओं में
"निहं ताव रासीणं, वेनियललो घेध नरिप । वापरपज्जताण पि, संखेज्जइ भागस्स ति।"
--पक्व संग्रह-द्वार १ की टीका में प्रमाण रूप से उद्धृत । अर्थात्-"अपर्याप्त तथा पर्याप्त मूक्ष्म और अपर्याप्त वादर' इन तीन प्रकार के वायुकायिकों में तो वैक्रिपलब्धि है ही नहीं । पर्याप्त बादर वायुकाय में है, परन्तु वह सबमें नहीं; सिर्फ उसके संख्यातवें भाग में ही है।"
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कर्मग्रन्थ भाग चार
१०१
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कार्मण तथा औदारिकमिश्रको को छोड़कर तेरह योग होते हैं। केवल द्विकमें अवारिक विक, कार्मण, प्रथम तथा अन्तिम मनोयोग (सत्य तथा असत्यामुषामनोयोग ) और प्रथम तथा अन्तिम वचनयोग (सत्य तथा असत्याभूषावचनयोग) ये सात योग होते हैं ॥२८॥ भावार्थ- मनोयोग आदि उपर्युक्त छह मार्गणाएं पर्याप्त मवस्था में ही पायी जाती हैं । इसलिये इनमें कार्मण तथा औदारिकमिश्र, ये अपर्याप्त अवस्था भावी दो योग नहीं होते । केवली को केवलिमुद्धात में ये योग होते हैं इसलिये यद्यपि पर्याप्त-अबस्था में भी इनका संभव है तथापि यह जानना चाहिये कि केवलसमुद्धतमें जब कि ये योग होते हैं, मनोयोग आदि उपर्युक्त छह में से कोई भी मार्गणा नहीं होती) इससे इन छह मार्गणाओं में उक्त दो योग के सिवाय, शेष कहे
हैं।
केवल द्विकमें औदारिक-टिक आदि सात योग कहे गये हैं, सो इस प्रकार : - योगी केवली को, औबारिककाययोग सदा ही रहता है; सिर्फ केवलिसमुद्धात के मध्यवर्ती छह समयों में नहीं होता । अवारिक मिश्र काययोग केवलिसमुखात के दूसरे, छठे और सातवें समय में तथा कार्मण काययोग तीसरे, चौथे और पांचवें समय में होता है । म्रो वचनयोग, देशना देने के समय होते हैं और दो मनोयोग किसो के प्रश्न का मन से उत्तर देने के समय मन से उत्तर देने का मतलब यह है कि जब कोई अनुत्तरविमानवासी देव या मन पर्यायज्ञानी अपने स्थान में रहकर मनसे ही केवली को प्रसन्न करते हैं, तब उनके प्रसन्न को केवलज्ञान से जानकर केवली भगवान् उसका उत्तर मनसे ही देते हैं । अर्थात् मनोव्य को ग्रहणकर उसकी ऐसी रचना करते हैं कि
२ - देखिये, परिशिष्ट 'थ ।'
२ - गोम्मटसार-जीवकाण्ड की २२८वों गाथा में भी केवली को द्रव्य मन का सम्बन्ध माना है ।
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कर्मग्रन्थ-भाग चार
जिसको अवधिज्ञान या केवली भगवा
मनः पर्यायज्ञान के द्वारा देखकर प्रश्नकर्ता हुए उत्तर को अनुमान द्वारा जान लेते हैं । यद्यपि मनोद्रव्य बहुत सूक्ष्म है तथापि अवधिज्ञान और मनः पर्याय ज्ञान में उसका प्रत्यक्ष ज्ञान कर लेने की शक्ति है। जैसे कोई मानसशास्त्र किसी के चेहरे पर होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों को देखकर उसके मनोगत-भाव को अनुमान द्वारा जान लेता है, वैसे ही अवधिज्ञानी या मनः पर्यायज्ञानी मनोनय को रचना को साक्षात् देखकर अनुमानद्वारा यह जान लेते हैं कि इस प्रकार को मनो-रचना के द्वारा अमुक अर्थ का ही चिन्तन किया हुआ होना चाहिये ||२८||
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मणवइउरला परिहा, रिसुहुमि नवते उमीसि सविउव्वा । देसे सगा सकम्मुरलमीत अहखाए ॥२६॥ मनांत्रच औदारिकाणि परिहारे सुक्ष्म नव ते तु मिश्र सक्रियाः । देशे सर्व क्रियद्विकाः, सकार्मणौदारिकमिश्राः यथाहपाते ||२६|
दस योग होते
अर्थ- परिहारविशुद्ध और सूक्ष्मसम्परायचारित्र में मन के चार, aat के चार और एक औदारिक, ये नौ योग होते हैं । मिश्र में ( सम्यग्मिथ्याष्टि में ) उक्त नौ तथा एक वैक्रिय, फुल है । देशविरति में उक्त नौ तथा वैक्रिय-द्विक, कुल होते हैं । यथाश्यातचारित्र में चार मनके, चार वचन के कार्मण और औदारिक-द्विक, ये ग्यारह योग होते हैं ||२६||
ग्यारह योग
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भावार्थ - कार्मण और औदारिक मिश्र, ये वो योग छास्थ के लिये अपर्याप्त अवस्था भावी हैं, किन्तु चारित्र कोई भी अपर्याप्तअवस्था में नहीं होता। वैक्रिय और बेक्क्रियमिश्र, ये वो योग ि
धि का प्रयोग करने वाले ही मनुष्य को होते हैं । परन्तु परिहारविशुद्ध या सूक्ष्मसम्पराय चारित्र वाला कभी बेलिब्धि का प्रयोग नहीं करता । आहारक और आहारकमिश्र, ये वो योग चतुर्दश
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कर्मग्रन्य भाग चार
पूर्व-धर प्रमत्त मुनि को हो होते हैं। किन्तु परिहारविशुद्ध चारित्र का अधिकारी कुछ-कम दस पूर्व का हो पाटो होता है और सूक्ष्मसंपरायचारित्र वाला प्रतुवर्श-पूर्व-घर होने पर भी अपमत ही होता है; इस कारण परिहार विशुद्ध और सूक्ष्मसंपराय में कार्मण, औवारिकमिश्र, बैंक्रिय, वैकिमिश्र, आहारक और आहारक मिश्र, ये छह योग नहीं होते, शेष नौ होते हैं।
मिश्रसम्यक्त्व के समय मृत्यु नहीं होती । इस कारण अपर्याप्तअवस्था में वह सम्यक्त्व नहीं पाया जाता इसीसे उसमें फार्मणऔदारिक मिथ और वैक्रियमिश्र , ये अपरिस-अवस्था-भावी तीन योग नहीं होते । तथा मिनसम्मक्त्व के समय चौदह पूर्व के ज्ञान का संभव न होने के कारण वो आहारकयोग नहीं होसे । इस प्रकार कार्मण आदि उक्त पांच योगों को छोड़कर शेष इस योग मिश्रसम्यक्रम में होते हैं।
इस मगह यह शङ्का होती है कि मिथसम्यक्त्व में अपर्याप्त-अवस्था-भावी चंशियमिश्र योग नहीं माना जाता, सो तो ठीक है। परन्तु वैनियलब्धि का प्रयोग करते समय मनुष्य और तिबंधको पर्याप्त-अवस्था में जो क्रियमिश्र योग होता है, वह मिश्रसम्यवश्व में क्यों नहीं माना जाता ? इसका समाधान इतना ही दिया जाता है कि मिथसम्यक्त्व और लब्धि-जन्य बकिमिश्नयोगः ये दोनों पर्याप्तअवस्था-भाषी हैं। किन्तु इनका साहचर्य नहीं होता । अर्थात् मिश्रसम्यक्त्व के समय सन्धि का प्रयोग न किये जाने के कारण वक्रिय| मिश्र काययोग नहीं होता।
व्रतधारी प्रावक, चतुर्वश-पूर्वी और अपर्याप्त नहीं होता। इस कारण देशविरति में दो आहारक और अपर्याप्त-अवस्था-भावी कार्मण और औवारिकमिश्न, इन चार के सिवाय शेष ग्यारह योग माने जाते हैं । ग्यारहमें वैक्रिय और क्रियमिश्र, ये वो योग गिने गए हैं।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
सो इसलिये कि 'अम्बर' आदि श्रावक द्वारा वैफियलब्धि से वैश्यिशरीर बनाये जाने की बात शास्त्र में प्रसिद्ध है।
यथारपात चारित्र वाला अप्रमत्त ही होता है, इसलिपे उस चारित्र में दो पंक्रिय और दो आहारक, ये प्रमाव-सहचारी चार योग नहीं होते, शेष ग्यारह होते हैं । ग्यारहवें कार्मण और भौवा रिकमिश्र, ये दो योग गिने गये हैं, सो केवलि समुद्रात को अपेक्षा से । कैलिसमुद्रात के वूमरे, छठे और सातवे समय में औदारिकमिश्र और तीसरे, चौथे और पांचवे समय में कार्मणयोग होता है ॥२६॥
१--देखिये, औपचातिका पु. ६६ । २--देखिये, परिशिष्ट 'द ।'
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कर्मग्रन्थ भाग पार
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(४)-मार्गणाओं में उपयोग ।
[ छह गाथाओं से]
तिअनाण नाण पण च ३, सण बार जियलक्षणवओगा। विणु मणनाणदुकेवल, नव सुरतिरिनिरयअजएसु ॥३०॥
पीण्यज्ञानानि मामानि पञ्च चत्वारि,दर्शनानि द्वादश जीवलमणमुपयोगाः । विना ममोज्ञानदिकेवल नव सुरतिर्मनिरयायतेषु ॥३०॥
अर्थ--तीम अमान- पांच शान और चार बर्षन ये बारह उपयोग हैं, जो जीव के लक्षण है। इनमें से मातः पर्याय काम और केवल-निक. इन तीन के सिवाय शेष नो उपयोग वेबगति, तिर्यन्वगति, नरकति और अविरत में पाये जाते हैं ॥३०॥
मावार्थ - किसी वस्तु का लक्षण, उसका असाधारण धर्म है। क्योंकि सक्षग का उद्देश्य, लक्ष्य को आय वस्तुओं से भिन्न बतलामा है। जो असाधारण धर्म में ही घट सकता है। उपयोग, मीच के असावारण (खास) धर्म हैं और अजीब से उसको भिमता को बरसाते हैं। इसी कारण ये जीप के लक्षण कहे जाते हैं।
मनः पर्याय और केवल-दिक, ये तीन उपयोग सर्वविरति-सापेक्ष हैं। परन्तु वेवति, तिच्चगति, नरकगति और अविरति, इन बार मार्गणाओं में सर्वविरति का संभव नहीं है। इस कारण इसमें तीन उपयोगों को छोड़कर शेष नौ उपयोग माने जाते हैं।
अविरति वालों में से शुद्ध सम्यक्रवो को तीन मान, तीन दर्शन ये छह उपपोग और शेष सबको तीन अज्ञान और दो दर्शन, ये पौष उपयोग समझने चाहिये ॥३०॥
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कर्मग्रन्थ' माग चार
तसजोययेयसुक्का, हारनरणिविसंनिर्भाव सत्वे । नयणेयरपणलेसा,-कसाइ दस केवलबुगुणा ॥३१॥
असयोगवेदशुक्लाहारक नरपञ्चन्द्रियसंजिभ्य्ये सर्वे । नयनेतरपञ्चलेश्याकषाये दश केवल द्विवोनाः ॥३१॥
अर्थ- ब्रसकाथ, तीन योग, तीन वेव, शुल्क लेश्या, आहारक, ममुख्यगति, पञ्चे प्रियजाति, संजी और भव्य, इन तेरह मार्गणाओं में सच उपयोग होते हैं । चक्षुदर्शन, अवक्षुर्वर्शन, शुल्क के सिवाय शेष पचि लेश्याएँ और चार कषाय, इन ग्यारह मागंणामों में केवल-द्विक को छोड़कर शेष दस उपयोग पाये जाते हैं ! ३१।।
भावार्थ-सकाय आदि उपर्युक तेरह मार्गणाओं में से योग, शुरुकलेच्या और आहारकत्व, पे तीन मार्गगाएँ तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त और शेष दस, चौदहवें गण स्थान पर्यन्त पायी जाती हैं। इसलिये इन सब में बारह उपयोग माने जाते हैं । चौवह गुणस्थान पति देव पाये जाने का मतलब, द्रव्य वेव से है। क्योंकि भायवेव तो म गुणस्थान तक ही रहता है।
चक्षुदर्शन और अचक्षुवंर्शन, ये को बारहवें गुणस्थान पर्यन्त, कृष्ण-आदि तीन लेश्याएं छठे गुणस्यान पर्यन्त, तेमः पद्म, दो लेण्याएँ सासवें गुणस्थान पर्यम्त और फवापोचय अधिक से अधिक घसवें गुणस्थान पर्यन्त पाया जाता है। इस कारण चक्षुवंशन आदि उक्त ग्यारह मार्गणाओं में केवल-द्विकके सिवाय शेष दस उपयोग होते हैं ॥३१॥
चरिदिअसंनि वृअना, णदसण इगिबितिथावरि अचक्छु । तिअनाण सणदुर्ग, अनाणतिगअभवि मिच्छयुगे ॥३२॥
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कर्मग्रन्थ भाग चार
चतुरिन्द्रियासंशिनि दुयज्ञानदर्शन मेकदित्रिस्थायरचः । । । न्यज्ञानं दर्शगाद्वितमज्ञानत्रिकामव्य मिथ्यात्वहिके ॥ ३२ ॥
अर्थ--चतुरिन्द्रिय और असंजि-पच्नेन्द्रिय में मति और श्रुत दो मज्ञान तथा चक्षुः और अचक्षुः यो वर्शन, कुल चार उपयोग होते हैं । एकेन्द्रिय, हीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और पाँच प्रकार के स्थावर में उक्त चार में से चक्षुर्दर्शन के सिवाय, शेष तीन उपयोग होते हैं। तीन अशान, अभय, और मिथ्यात्व-विक ( मिथ्यात्व सथा सरसादन ), इन छह मार्गणाओं में तीन अज्ञान और दो वर्शन कुल पाँच उपयोग होते हैं । ।।
मावार्थ-चतुरिन्द्रिय और असंशि-पम्चेन्द्रिय में विभङ्गलान प्राप्त करने की योग्यता नहीं है तथा उनमें सम्यक्त्व न होने के कारण, सम्यतब के सहचारी पांच ज्ञान और अवधि और केवल दो वर्शन, ये सास उपयोग नहीं होते, इस तरह कुल आर के सिशय शेष चार उपयोग होते हैं।
एकेन्द्रिय आदि उपर्युक्त भाठ मार्गणाओं में मेत्र न होने के कारग चक्षदर्शन और सम्यक्तव न होने के कारण पाँच जान तथा अवषि और फेवल, ये दो दर्शन और तथाविध योग्यता न होने के कारण विमङ्गशान, इस तरह कुल नौ उपयोग नहीं होते, शेष तीन होते है।
__ अजान-त्रिक आदि उपयुक्त छह मागणाओं में सम्यक्तन: तथा विरति नहीं है। इसलिये उनमें पांच शान और अवधि केवल, ये वो वर्शन, इन मात के सिवाय शेष पाँच उपयोग होते हैं। .
सिद्धान्ती, विभङ्गमानी में अधिवशंन मानसे हैं और सास्वावनगुणस्थान में अज्ञाम न मानका मान ही मानते हैं। इसलिये इस माह अज्ञान-त्रिक आदि छह मार्गणाओं में अवधिदर्शन नहीं माना है और
– खुलासे के लिये २१वीं तथा ४६वी गाथा का टिप्पण देखना चाहिये ।
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कमंग्राय भाग चार
सास्वाममार्गणा में ज्ञान नहीं माना है, सो कार्मपन्थिक मत के अनुसार समारना चाहिये ॥ ३२ ॥
केवलगे भियगं, नव तिअनाण विणु खइयअहखाये । बंसगनाणसिंग वे,-सि मीसि अनाणमीसं तं ।। ३३ ।।
केवलतिके निजहिक, नव व्यशानं विना क्षायिकयथास्पाते ।
दर्शनशानत्रिक देणे मिश्रेज्ञानपि तत् ॥३३॥ ____ अर्थ-केवल-तिक में निज-तिक (केवलशान और केवमर्शम) दो ही उपयोग है । क्षापिकसम्यक्तव और यथाख्यातचारित्र में तीन समान जोगा शेष नौ सयोग होते हैं : दिनति में तीन जान और तीन बर्शन, ये वह उपयोग होते हैं । मिश्र-ष्टि में बही उपयोग महान-मिभित होते हैं ।।३३
भावार्म-केवल-तिक में केवलमान और केवलदर्शन दो हो उपयोग माने जाने का कारण यह है कि मतिज्ञान माधि शेष बस बास्पिक उपयोग, केवली को नहीं होते।
सायिकसम्परूप के समय, मिभ्यारव का अभाव ही होता है । यधारमातचारित्र के समय, ग्यारहवें गुणस्थान में मिथ्यारव भी है। पर सिर्फ सत्तागत, उदयमान नहीं; इस कारण इन दो मागंगाओं में मिप्यास्पोरम-सहमाची तीन महान नहीं होते । शेष नौ उपयोग होते हैं। सो इस प्रकार:- उपत वो मार्गमाओं में छवास्थअवस्था में पहले चार शाम तथा तीन वर्शन, ये सात उपयोग और फेवलि-अवस्था में केवलशाम और केवसरदर्शन, ये दो उपयोग।
देशाविरति में, मिथ्यात्व का उपय न होने के कारण तीन अज्ञान नहीं होते मोर सर्वविरतिको अपेक्षा रखने वाले ममःपर्यायका और
१-याही मत गोम्मटसार-जीवकाण्ड की ७०४त्री माथा में उल्लिखित है।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
केवल-निक, ये तीन उपयोग भी नहीं होते। शेष पह होते हैं। छह में अवषि-विकका परिगणन इसलिये किया गया है कि प्रावकों को अवधिउपयोग का वर्णन, शास्त्र में मिलता है।
मिश्र-रष्टि में छह उपयोग नहीं होते हैं, 'यो निर में; पर विशेषता इतनी है कि मिश्र-ष्टि में तीन शान, मिक्षित होते हैं, शुद्ध नहीं अर्थात् मतिज्ञान, मति-अज्ञान-मिथित, तमान, भुतअज्ञान-मिश्रित और अवधिमान, विमङ्गज्ञान-मिश्रित होता है। मिश्रितता इसलिये मानी जाती है कि मिश्र-रष्टिमुणस्थान के समय भई-विशुद्ध बनिमोहमीय-पुस का उज्य होने के कारण परिणाम कुछ शुद्ध और कुछ अशुद्ध अर्थात् मिल होते हैं । शुद्धि को अपेक्षा से मति आदि को नाम मोर अशुद्ध की अपेक्षा से शाम कहा जाता हैं।
गुणस्थान में अवधिवशेन का सम्बन्ध मिधारने वाले कामंम्पिक पक्ष रो है । पहला घोथै आदि मी गुणस्थानों में अवपिन मामता है, जो २१वी गा० में निर्दिष्ट है । दूसरा पक्ष, तीसरे गुणस्मान में सो अवधिदर्शन मानता है, जो ४८वों गाथा में निहिष्ट है। इस जगह दूसरे पक्ष को लेकर ही मिश्र-टि के उपयोगों में अवषिवर्शन गिना है ।। ३३ ॥
मणनाणचक्खुवज्जा, अणहारि तिन्नि दसण नऊ नाथा । चउनाणसंचमोवस,-मवेयगे ओहिदसे य ॥ ३४ ॥
मनोशानचक्षुर्जा अनाहारे त्रीणि वर्शनानि चत्वारि ज्ञानानि । चतुर्शानसंयमोपशमवेदकेऽवधिदर्शनने च ।।३४॥
अर्थ -अनाहारकमार्गणा में ममःपर्यापमान और चमन को छोड़कर, शेष दस उपयोग होते हैं। बार जाम, चार संयम, उप
१-जैसे:-श्रीयुत् धनपतिसिंह जी द्वारा मुद्रिस उपासकवशा पृ०७०।
२-गोम्मटसार में यही बात मानी हुई है । देखिये, जीवकाण्ड की गाथा ७०४।
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कामग्रभ्य भाग चार
और अवधितथा तीन वर्शन कुल
ग्रामसम्यक्तक, बेवक अर्थात् क्षायोपशमिकसम्यषस्व दर्शन, इनारह मार्गणाओं में चार शान सात उपयोग होते हैं ॥ ३४ ॥ नियति
और मोक्ष में अनाहारकत्व होता है । विग्रहगति में माठ उपयोग होते है । जैसे:- भावी तीर्थंकर आदिः सम्यक्त्वो मिथ्यास्थी को तीन ज्ञान, मिथ्यात्वीको तीन अज्ञान और सम्यक्त्व- मिथ्यात्वी उभय की अवक्षु और अवधि, ये वो दो दर्शन । केवलसमुद्धात और मोक्ष में केवलज्ञान और केवलवर्शन, उपयोग होते हैं। इस तरह सब मिलाकर अनाहारकमार्गणा में दस उपयोग हुए। मनःपर्यायज्ञान गौर क्षुर्शन, ये दो उपयोग पर्याप्त अवस्थाभावी होने के कारण अनाहारकमार्गणा में नहीं होते । के सिवाय चार केवलज्ञान के सिवाय चार ज्ञाम, यथाख्यात चारित्र, औपशमिक क्षायोपशमिक दो सम्यक्त्व और अवधिदर्शन ये ग्यारह भार्गवाएँ चौथे से लेकर वारहवे गुणस्थान तक में ही पायो 'जाती हैं। इस कारण इनमें तीन अज्ञान और केवल द्विक, इन पाँचके सिवाय शेष सात उपयोग माने हुए हैं ।
इस जगह अवधिदर्शन में तीन अज्ञान नहीं माने हैं । सो २१ वीं गाथा में कहे हुए "जयाद नव महसुशहिदुर्ग इस कर्मग्रन्थिक मतके अनुसार समझना चाहिये ।। ३४ ।
बोतेर तर बारस, मणे कमा अट्ठ दु च च वयणं । चदु पण तिनि काये, जियगुणजोगोवओगन्ने ।। ३५ ।।
त्रयोदश त्रयोदश द्वादश, मनसि क्रमादष्ट द्वे चरवारचत्वारो बनने । चत्वारि द्वे पच त्रयः कार्य, जीवगुणयोगोपयोगा अन्ये ।। ३५ ।।
अर्थ — अन्य आचार्य मनोयोग में जीवस्थान दो गुणस्थान तेरह, योग तेरह उपयोग बारह वचनयोग में जीवस्थान आठ गुणस्थान
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कर्मग्रन्थ माग चार
वार,
वो. योग उपयोग, चार और काययोग में जीवस्थान घार, गुणस्थान वो, योग पाँच और उपयोग तोन मानते हैं ॥३५॥
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भावार्थ- पहले किस प्रकार की विशेष विवक्षा किये बिना ही मन, वचन और कापयोग में जीवस्थान आदि का विचार किया गया है; पर इस गाथा में कुछ विशेष विवक्षा करके । अर्थात् इस जगह प्रत्येक योग यथासम्भव अन्य योग से रहित लेकर उसमें जीवस्थान आदि दिखाये हैं । यथासम्भव कहने का मतलब यह है कि मनोयोग हो समय योगति विजय वचनकाय उपयोग सहचरित ही लिया जाता है। पर वचन तथा काययोग के विषय में यह अरत नहीं; वचनयोग कहीं काययोग रहित म मिलने पर मी द्वीन्द्रियादि में मनोयोग रहित मिल जाता है। इसलिये वह मनोयोग रहित लिया जाता है। काययोग एकेन्द्रिय में मन-वचन उभय योगरहित मिल जाता है। इससे वह वंसा हो लिया जाता है ।
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मनोयोग में अपर्याप्त और पर्याप्त संज्ञी, ये वो जीवस्थान हैं, अप नहीं; क्योंकि अन्य जीवस्थानों में मनः पर्याप्त द्रव्यमन आदि सामग्री न होने से मनयोग नहीं होता । मनोयोग में गुणस्थान तेरह है; क्योंकि चौदहवें गुणस्थान में कोई मो योग नहीं होता । मनोयोग पर्याप्त अवस्था - भावो है, इस कारण उसमें अपर्याप्त व्यवस्था-मायी कार्मण और औदारिकमिश्र, इन दो को छोड़ शेष तेरह योग होते हैं । यद्यपि केवलिसमुद्घात के समय पर्याप्त अवस्था में भी उक्त वो यौन होते हैं । तथापि उस समय प्रयोजन न होने के कारण केवलज्ञानो मनोद्रव्य को ग्रहण नहीं करते। इसलिये उस अवस्था में भी उक्त दो योग के साथ मनोयोग का साहचर्य नहीं घटता | मनवाले प्राणियों में सब प्रकार के बोध की शक्ति पायी जाती है; इस कारण मनायोग में बारह उपयोग कहे गये है ।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
१७वीं गाथा में मनोयोग में सिर्फ पर्याप्त संजी जीवस्थान माना है, सो वर्तमान-मनोयोग बालों को मनोयोगी मानकर । इस गाथा में मनोयोग में अपर्याप्त-पर्याप्त संनि-पन्धेन्द्रिय वो जीप स्थान माने हैं, सी वर्तमान-भाबी उमप मनोयोग बालों को मनोयोगी मानकर । मनोयोग सम्बम्पी गुगस्पान, योग और उपयोग के सम्बन्ध में कम से २२, २८, ३१वीं गाथा का जो मरतम्य है, इस जगह भी यही है। तथापि फिर से उल्लेख करने का मतलब सिर्फ मतान्तर को दिखामा है । मो. योग में जीवस्थान और योग विचारने में विषक्षा भिन्न-भिन्न की गयी है। जैसे--भागो मनोयोग वाले अपर्याप्त संनि-पञ्चेन्द्रिय को भी मनोयोगी भागार उसे मनोगोर में सिनः ! पर सोम के विषय में ऐसा नहीं किया है । जो योग मनोयोग के समकालीन हैं, उन्हीं को ममोयोग में गिना है। इसी से उसमें कामण और औदारिफमिश्र, ये हो योग नहीं गिमे हैं।
पवनयोग में जीवस्थान कहे गये हैं। वे ये हैं:-द्वीन्द्रिय, प्रोन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असति-पञ्चेन्द्रिय, ये चार पर्याप्त सथा अपर्याप्त । इस जगह वचनयोग, मनोयोग रहित लिया गया है, सो इन आठ जीवस्थानों में हो पाया जाता है। १७वीं गाथा में सामान्य वचनयोग लिया गया है । इसलिये उस गाथा में बननयोग में संक्षि पञ्चे. निद्रय बीमाधान मो गिमा गया है। सके सिवाय यह भी भिन्नता है कि उस गाथा में वर्तमान वचनयोग वाले हो वचनयोग के स्वामी विवक्षित है। पर इस गाथा में पर्तमान को तरह भावी वचनयोग वाले भी बचनयोग के स्वामी माने गये हैं। इसी कारण वचनयोग में बही पांच और यहां आठ जोषस्थान गिने गये हैं।
वधनयोग में पहला, दूसरा वो गुणस्थान, औदारिक, औवारिकमिश्र, कार्मण और असल्यामुषायवन, ये चार योग; तथा मतिअज्ञान: अत-अनाम, चीन मौर अत्रभुवंर्शन, ये चार उपयोग है।
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२२, २८ और ३१वीं गाथा में अनुक्रम से बचनयोग तेरह गुणस्थान, तेरह योग और बारह उपयोग माने गये हैं। इस भिन्नताका कारण नही है । अर्थात् वह वचनयोग सामान्यमात्र लिया गया है, पर इस गाया में विशेष— मनोयोग रहित । पूर्व में वचनयोग में समकालीन योग विवक्षित है इसलिये उसमें कार्बन- हारमिश्रये वो अपर्याप्त अवस्था भावी योग नहीं गिने गये हैं। परन्तु इस योग है। कारण और श्रीदारिमिश्र, अपर्याप्त अवस्था भावी होने के कारण, पर्याप्त अवस्था- मावी वचन योग के असम-कालीन है तथापि उक्त यो योग वालों को मजिध्यत् में वचनयोग होता है। इस कारण उसमें ये दो योग गिले गये है।
काययोग में सूक्ष्म और बम्बर मे दो पर्याप्त तथा अपर्याप्त फुल चार जीवस्थान, पहला और दूसरा हो गुणस्थान, औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रिय, क्रियमिश्र और कार्मण, ये पांच योग तथा महि-अज्ञानश्रुत- अज्ञान और भवन मे तीन उपयोग समझने चाहिये । १६, २२, २५ और ३६वीं गाया में चौवह जीवस्थान, तेरह गुणस्थान, पन्द्रह योग और बारह उपयोग, काययोग में बतलाये गये हैं । इस मत-मेज का तात्पर्य भी ऊपर के कथनानुसार है। अर्थात् यहाँ सामान्य काययोग को लेकर जोवस्थान आदि का विचार किया गया है. पर इस जगह विशेष । अर्थात् मनोयोग और वचनयोग, उनपर हित काययोग, जो एकेन्द्रिय मात्र में पाया जाता है, उसे लेकर ||३५||
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(४}-मागणाओं में लेश्या । छसु. लेसासु सठाणं, एगिदिअसंनिभूदगवणेसु । पढमा अउरो तिन्नि उ, नारयनिगलागिपवणेसु ॥३६॥
षट्सु लेश्यासु स्वस्थानमे केन्द्रियासज्ञिभूदकतनेषु । प्रथमाश्चतस्रस्तिनस्तु, मारकविकलानिपवनेषु ॥३३॥
.. अर्थ-छह लेण्यामार्गणाओ में अपना-अपना स्थान है । एकेन्द्रिय, असंशि-पञ्चेत्रिय, पृथ्वीकाय, जलकाय और बनस्पतिकाय, इन पाँच मागंणाओं में पहली बार लेश्याएँ हैं । नरकति, विकलेविय-त्रिक, अग्निकाय और वायुकाय, इन छह मार्गणाओं में पहली तीन लेश्याएं हैं ॥३६॥
: मावार्थ-छह लेश्याओं में अपना-अपना स्थान है, इसका मतलब म्ह है कि एक समय में एक जीव में एक ही लेश्या होती है, वो नहीं । क्योंकि छहों लेश्याएं समान कालकी अपेक्षा से आपस में विरुद्ध हैं। कृष्ण लेश्या वाले जीवों में कृष्ण लेश्या ही होती है । इसी प्रकार मागे मी समम लेना चाहिए ।
एकेन्द्रिय भावि उपर्युक्त पांच मार्गणाओं में कृष्ण से तेजः पर्यन्त चार लेश्याएं मानी जाती हैं । इनमें से पहली तीन तो भवप्रत्यय होने के कारण सबा हो पायी जा सकती हैं, पर तेजोलेश्या के सम्बन्ध में यह बात नहीं, वह सिर्फ अपर्याप्त अवस्था में पायी जाती है । इसका कारण यह है कि जब कोई तेजोलेश्या वाला जीब मरकर पृथ्वीकाय जलकाय या वनस्पतिकाय में जनमता है तब उसे कुछ काल तक पूर्व जन्म को मरण-कालीन तेजोलेश्या रहती है।
नरकगति आदि उपयुक्त छह मार्गणाओं के जीवों में ऐसे अशुभ परिणाम होते हैं, जिससे कि वे कृष्ण आधि तीन लेखाओं के सिवाय प्रम्य लेश्याओं के अधिकारी नहीं बनते ॥३६॥
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कर्मग्रन्थ भाग चार
( ६ ) - मार्गणाओं का अल्प - बहुत्व । [ आठ गाथाओं से ]
अहलाय सुलभकेवल - दुगि सुक्का लावि सेसठाणेसु । नरनिरयदेवतिरिया, थोवा दु असं स्वर्णतगुणा' ॥३७॥
यथारूपातसूक्ष्म केवल द्विके शुक्ला षडपि दोषस्थानेषु । नरनिरयदेवतिर्यञ्चः स्तोकव्यसख्यानन्तगुणाः ॥ ३७ ॥
अर्थ - यथाश्यातच्चारित्र, सूक्ष्मसंपरायचारित्र और केवल डिक, इस बार मागंगाओं में शुल्कलेश्या है; शेष मार्गास्थानों में छहों श्याएं होती है।
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[गतिमार्गणा का अल्प-बहुत्व:- ] मनुष्य सबसे कम हैं, नारक उससे असंख्यातगुण हैं, नारकों से देव असंख्यातगुण हैं और देवों से तिर्यञ्च अनन्तगुण हैं ।। ३७ ।।
भावार्थ - ययाख्यात आदि उपर्युक्त चार मार्गणाओं में परिणाम इतने शुद्ध होते हैं कि जिससे उनमें शुल्कलेश्या के सिवाय अन्य लेवा का संभव नहीं है। पूर्व गाथा में सत्रह और इस गाथा में यथास्यातचारित्र आदि चार, सब मिलाकर इक्कीस मार्गणाएं हुई।
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१- यहां से लेकर ४४वीं गाथा तक चौदह मार्गणामों में अल्प-बहुत्व का विचार है; वह प्रज्ञापना के अल्प- बहुत्व नामक तीसरे पद से उद्धृत है । है । उक्त पद में भागंणाओं के सिवाय और भी तेरह द्वारों में अल्पबहुत्व का विचार है । गति-विषयक अल्प-बहुत्व, प्रशापना के ११६ वें पृष्ठ पर है । इस अल्पबहुत्व का विशेष परिज्ञान करने के लिये इस गाथा को व्याख्या में मनुष्य आदि की सख्या दिखायी गयी है, जो अनुषोगद्वार में
वर्णित है: - मनुष्य संख्या, पृ० २०५ नारक - सख्या, पृ० १०६ असुरकुमार संख्या, पृ० २०० व्यन्तर सख्या, १०२०८, ज्योतिष्क- संख्या, पृ० २०८ वैमानिक संख्या | यहाँ के समान पञ्चसंग्रह में थोड़ा सा वर्णन है: -- व्यन्तर - संख्या, द्वा० २ ० १४; ज्योतिष्क - सख्या, द्वा० २, गा० १५ मनुष्य - संख्या, द्वा० २ ० २१ ।
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कर्मप्रन्य भाग चार
इनको छोड़कर शेष इकतालीस मार्गगानों में यहीं सेहयाएँ पायी जाती हैं। मेव मार्गणाएं मे हैं :
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१ देवगति १ मनुष्यगति, १ तिर्यञ्चगति, १ पञ्चेन्द्रियजाति, १ सकाय, ३ योग, ३ मे ४ कवाय, ४ ज्ञान ( मति आदि ), ३ अज्ञान, ३ चारित्र ( सामायिक, छेलोपस्थापनीय और परिहारबिशुद्ध ) १ देशविरति १ अविरति ३ दर्शन, १ सम्पत्व, १ अव्यश्व ३ सम्यक्त्व ( कि, क्षयोपशमिक और औपश्रमिक ), बन, १ सम्यमध्यास्य १ मिच्णात्व, १ सझिम १ पारख और १ अनाहारकत्व, कुल ४१ ।
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१ सासा
[मनुष्यों, नारकों देवों और तिर्यक्वों का परस्पर अल्प-बहु आदि की ऊपर कहा गया है, उसे ठीक-ठीक समझने के लिये मनुष्य संख्याशास्त्रोक्त' रीति के अनुसार दिखायी जाती है ]:
मनुष्य, अक्षम्य उन्तीस अङ्क-प्रमाण और उत्कृष्ट, असंख्यात होते हैं।
( क ) जघन्यः – मनुष्यों के गर्भज और संमून्छिन, ये बो में हैं इनमें से संमूच्छिम मनुष्य किसी समय बिलकुल ही नहीं रहते, केवल गर्भन रहते हैं । इसका कारण यह है कि संमूमि मनुष्यों की आयु, अन्तर्मुहूतं प्रमाण होती है । जिस समय संमूमि मनुष्योंकी उत्पत्ति में एक अन्तर्मुहूर्त से अधिक समय का अन्तर पड़ जाता है, उस समय, पहले के उत्पन्न हुए सभी संमूच्छिम मनुष्य मर चुकते हैं। इस प्रकार नये संमूमि मनुष्यों की उत्पत्ति न होने के समय तथा पहले उत्पन्न हुए सभी संमूच्छिम मनुष्यों के मर चुकने पर, गर्भम मनुष्य ही रह जाते हैं, जो कम से कम नीचे-लिखे उन्तीस अजूों के बराबर होते हैं । इसलिये मनुष्यों की कम से कम यही संख्या हुई ।
१ – अनुयोगवार, १० २०५ – २३८ ।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
पांचवें वर्ष के साथ छठे वर्ग को गगने से जो उन्तीस अङ्क होते हैं, ही यहाँ सेने चाहिये । जैसे:--२ को २ के साथ गुणो से ४ होते हैं, यह पहला वर्ग । ४ के साथ ४ को गुगने से १६ होते हैं, यह दूसरा वर्ग। १६ को १६ से गुमने पर २५६ होते हैं, यह तीसरा पर्ग। २५६ को २५६ से ग णमे पर ६५५३६ होते हैं, मह चौथा वर्ण । ६५५३६ को ६५५३६ से गुणमे पर ४२९४६६७२६६ होते हैं, यह पाचवा वर्ग । इसी पांचवें वर्ग को सङ्खया को उसी सजपा के सम्म गगने से १५४४६७४४०७३७०९५१६१६ होते हैं, यह छठा वर्ग । इस छठे मर्ग की संख्या को उपयुक्त पांच वर्ग की संख्या से गगने पर ७६२२८१६२५१४२६४३३७५६३५४३९५०३३६ होते हैं, ये उन्तीस अर' हए । अथवा १ का वूमा २, ३ का चूना ४. इस तरह पूर्व-पूर्व संख्या को, उत्तरोषा काय का दूना घरज से, ही उन्तीस भर होते हैं।
(3) उत्कृष्ट:-अब संमूरिजम ममुष्प पेवा होते हैं, तब एक साम अधिक से अधिक असंख्यात तक होते हैं, उसी समय मनुष्यों की उत्कृष्ट संख्या पायी जाती है । असंख्यात संख्या के असल्यास मेर हैं, इनमें से जो असंख्यात संपर मनुष्यों के लिये इष्ट है, उसका परिचय शास्त्र में काल' और क्षेत्र, दो प्रकार से किया गया है।
१--समान दो संख्या के गुणनफल को उस संख्या का धर्म कहते हैं । जैसे: -५ का वर्ग २५ ।
२-ये ही उन्तीस अङ्क. गर्भज-मनुष्य की संख्या के लिये अक्षरों के मंकेत द्वारा गोम्मटसार-जीवकाण्ड की १५७वीं गाथा मैं बसलाये हैं।
३-देखिये, परिशिष्ट थि ।'
४--कान से क्षेत्र अत्यन्त मुक्ष्म माना गया है । क्योंकि अंगुल-प्रमाण भूचि-श्रेणि के प्रदेशों की संख्या असंख्यात अवपिणी के ममयों के बरावर मानी हुई है।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
(१)मा:-असंख्या को अरे वापिणी हे हिम्ने समय होते हैं, मनुष्य अधिक से अधिक उतने पाये जा सकते हैं।
(२) क्षेत्र:-सात' रज्जु-प्रमाण घनीकृत लोक की अङ्ग लमान बुधि-गि के प्ररेषों के तीसरे वर्गमूल' को उन्हीं के प्रथम वर्गमूल के साय गणना, गणने पर जो संख्या प्राप्त हो, उसका संपूर्ण सूचि-श्रेणि-गत प्रदेशों में भाग देना, भाग वेने पर जो संख्या लष होती है, एक-कम वही संख्या मनुष्यों को उत्कृष्ट संख्या है। गह संख्या, अङ्गलमात्र सूचि-श्रणि के प्रवेश की संख्या, उनके तीसरे गमूल और प्रथम वर्गमूल की संख्या तथा संपूर्ण सूचि-णि के प्रवेशों की संख्या वस्तुतः अमंल्यात हो है, तथापि उक्त भाग--विषि से मनुष्यों की जो उत्कृष्ट संख्या विखायी गयी है, उसका कुछ ज्याल आने के लिये कल्पना करके इस प्रकार समझाया जा सकता है।
मान लीजिये कि संपूर्ण सूचि-श्रेणि के प्रवेश ३२०० ००० हैं और अलग मात्र सधि-णि के प्रदेश २५६ । २५६ का प्रथम वर्गमूल १६ और तीसरा वर्गमूल २ होता है। तीसरे वर्गमूल के साय, प्रथम वर्गमूल को गणने से ३२ होते हैं. ३२ का ३२०1000 में भाग वेने पर १००००० लब्ध होते हैं। इनमें से १ कम कर देने पर, शेष बचे ६६EE: । कल्पनानुसार यह संख्या, जो वस्तुतः असंख्यातरूप है, उसे मनुष्यों को उत्कृष्ट संख्या समानी चाहिये।
"सुहमो य होइ कालो, तत्तो सुहमयरं वइ खितं । अगलसेठीमित्तै, ओसप्पिणीउ असंखेना ॥३७।।"
-आवश्यक-नियुक्ति, पृ० ३१ । १-ज, घनीकृत लोक. सधि श्रेणि और प्रतर आदि का स्वरूप पांचवें मर्मग्रन्थ की ७वी गाथा से जान लेना चाहिये ।
२-जिम संख्या का वर्ग किया जाय, वह संख्या उग वर्ग का वर्ग
३- मनुष्य की यही संख्या इसी रीसि से गोम्मट सार-जीवकाण्ड की १५६ वी गाथा में बतलाया है ।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
काल से ये असंख्यात
1
नारक भी असंख्यात हैं, परन्तु नारकों की असंख्यात संख्या मनुष्यों की असंख्यात संख्या से असंख्यातगुनी अधिक है। नारकों को संख्या को शास्त्र में इस प्रकार बतलाया है: अवसर्पिणी और उत्सपिणों के समयों के मुख्य हैं। तथा क्षेत्र से सात रज्जु -प्रभाण घनीकृत लोक के अल मात्र प्रतर क्षेत्र में जितनी सूचि श्रेणियाँ होती हैं, उनके द्वितीय वर्गमूल को उन्हीं के प्रथम वर्गमूल के साथ गुणने पर जो गुणनफल हो उतनी सूचि श्रेणियों के प्रदेशों की संख्या और नारकों की संख्या बराबर होती है । इसकी कल्पना से इस प्रकार समझ सकते हैं । कल्पना कीजिये कि अङ्ग लमात्र प्रतर-क्षेत्र में २५६ सृष्टि श्रेणिय
हैं। इनका प्रथम वर्गमूल १६ हुआ और दूसरा ४ गुणने से ६४ हो । है । ये ६४ सूचि श्रेणिय श्रेणी के ३२००००० प्रदेशों के हिसाब से, ६४ २०४६००००० प्रवेश हुए, इतने ही नारक हैं ।
११६
१६ की ४ के साथ हुई। प्रत्येक सूचि अत्रि-श्रेणियों के
भवनपति देव असंख्यात हैं। इनमें से असुर कुमार का संख्या इस प्रकार बतलायी गयी है:- अङ्ग मात्र आकाश क्षेत्र के जिलने प्रदेश हैं, उनके प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश-प्रदेश आ सकते हैं, उतनी सूचि श्रेणियों के प्रवेशों के बराबर असुरकुमार की संख्या होती है । इसी प्रकार नागकुमार आदि अन्य सब भवनंपति देवों की भी संख्या समझ लेनी चाहिये ।
इस संख्या को समझने के लिये कल्पना कीजिये कि मङ्गलमात्र आकाश क्षेत्र में २५६ प्रवेश हैं । उनका प्रथम वर्गमूल होगा १६
१ - गोम्मटसार में दो हुई नारकों की संख्या, इस संख्या से नहीं मिलती। इसके लिये देखिये, जीवकाण्ड की १५२वीं गाथा |
२ -- गोम्मटसार में प्रत्येक निकाय को जुदा-जुदा संख्या न देकर सब भवनपतियों की संख्या एक साथ दिखायी है। इसके लिये देखिये, जीवकाण्ड की १६०वीं गाथा |
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फर्मग्रन्थ माग चार
१८का कल्पना से असंख्यातवा भाग २ मान लिया जाया तो २ अधि-धेणियों के प्रदेशों के बराबर असुरकुमार हैं। प्रत्येक सूधिगियों ३२०.०४० प्रवेशा कल्पना से माने गये हैं। सबमसार २ सचिश्रेणियों के ६४००००७ प्रवेश हए । पही संख्या असुरकुमार आदि प्रत्येक भवनपति को समममी चाहिये, जो कि वस्तुतः असं
ज्यन्तरनिकाय के देव भी असंख्यात हैं। इनमें से किसी एक प्रकार के पन्तर वेदों की संख्या का मान इस प्रकार बतलाया गया है। सर यात योजन-प्रमाण अधिषि के जितने प्रवेश हैं, उनसे धनीकृत क के
म र समय का प्रतीतो भाग किया जाय, भाग मे पर जितने प्रदेशा लब्ध होते हैं, प्रत्येक प्रकार के पम्तर देव उतने होते हैं।
इसे समझने के लिये कल्पना कीजिये कि सड़ायात पोजनप्रमाण सधि-णि के १०००००० प्रवेा हैं। प्रत्येक सूषि-श्रेणि के ३२००००० प्रदेशों की कल्पित संस्था के अनुसार, समप्र प्रतर के १०२४०००००००००० प्रवेश हुए । अब इस संख्या को १०००००० भाग देने पर १०२४०००० लग्न होते हैं । यही एक यन्तर निकायकी खेर क्या हुई । यह सङ्ख्या पासुतः असंख्यात है।
ज्योतिषी देवों की मसप्रख्यात सतया इस प्रकार मानी गयी है । २५६ असल-प्रमाण-श्रेणी के जितने प्रवेश होते हैं, उनसे समय प्रतर के प्रदेशों को माग बेमा, भाग देने से वो लम्ब हों, उतने ज्योतिषी देव' हैं ।
___ _ १--त्र्यन्तर का प्रमाग गोम्मटसार में यही जान पड़ता है, देखिये, जीवकाण्ड की १५६वी गाथा ।
२-ज्योतिषी देवों की संख्या गोम्मटसार में भिन्न है । देखियो जीवकाण्ड की १५६वीं गाथा ।
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कर्मग्रन्थ माग बार
इसकी भी कल्पना से इस प्रकार समझना चाहिये । २५६ वश होते हैं, उनसे समग्र प्रतर के कल्पित १०२४०००००००००० को भाग देना भागने से हुए १५६२५०००० | यहो मान ज्योतिषी देवों का समझना चाहिये |
अचि
में
वैमानिक देव, असङ्ख्यात हैं । इनकी असङ्ख्यात संख्या इस प्रकार बरसायी गयी है: - श्रङ्ग ुलमात्र आकश क्षेत्र के जितने प्रवेश हैं, उनके तीसरे वर्गमूल का धन' करने से जितने आकाश-प्रदेश हों, उतनी सूचि श्रेणियों के प्रवेशों के बराबर वैमानिकदेव' है ।
•
इसको कल्पना से इस प्रकार बतलाया जा सकता है: -- अङ्ग सभात्र आकाश के २५६ प्रदेश हैं । २५६ का तीसरा वर्गमूल २२ का चम
है । सुचि श्रेणियों के प्रवेश २५६०००० होते हैं। क्योंकि प्रत्येक सूचि श्रेणियों के प्रवेश, कल्पना से ३२००००० मान लिये गये हैं । यही संख्या वैमानिकों की संख्या समझनी चाहिये ।
भवनपति, ध्यन्तर ज्योतिषी और वैमानिक सब वेव मिलकर नारकों से असङ्ख्यातगुण होते हैं ।
वेवों से तिर्यञ्चों के अनन्तगुण होने का कारण यह है कि अनम्सकायिक वनस्पति जीव, जो संख्या में अनन्त हैं, वे भी तियंत्र हैं । क्योंकि वनस्पतिकायिक जीवों को तिर्यक्रचगतिनाम कर्म का उपय होता है ||३७||
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१२१
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१- किसी संख्या के वर्ग के साथ उस संख्या को गुणने से जो गुणनफल प्राप्त होता है, वह उस संख्या का घन है'। जैसे:--०४ का वर्ग १६ - उसके साथ ४ को गुणने से ६४ होता है । यही चार का घन है। २- सब वैमानिकों की संख्या गोम्मटसार में एक साथ न देकर
जुदा-जुदा दी है
-- जीव० गा० १६०–१६२ ।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
इन्द्रिय और कायमार्गणा का अल्प-बहुत्व:
पणचतिदएगिदि. थोवा तिन्नि अहिया अणंत गुणा । तस थोष असंखग्गो, भूजलनिल अहिय वर्ण णंता ॥३८॥ पञ्चचतुस्त्रिद्वयकान्द्रयाः, तांकास्मयोऽधका गुणाः । प्रसाःस्तोका असंख्या, अग्नयो भूजलानिला अधिना बना अनन्ता:।।३७ ।
अर्थ-पञ्चेनिमय जीव सबसे थोडे हैं । पञ्चेन्द्रियों से चतुरिन्द्रिय, पतुरिन्द्रयों से श्रीन्द्रिय और श्रीन्द्रियों से द्वीन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं । द्वीन्द्रियों से एकेन्द्रिय जोब अमन्तगुण हैं। .
सकायिक जीव अन्य सच काय के जीवों से शोड़े हैं । इनसे अग्मिकायिक जीव असनयात गुण हैं । अग्निकायिकों से पृथिवीकायिक, पृथिवीकायिकों से जलकायिक और जालकायकों से वायुकायिक विशेषाधिक हैं । धापुकायिकों से बनस्पतिकायिक अनन्तगण हैं ।।३।।
भावार्थ-असहपात कोटाकोटी योजन-प्रमाण सूचि-श्रेणी के जितने प्रदेश हैं, घनीकृत लोक को उतनी सूचि-णि घों के प्रबेशों के बराबर दोन्द्रिय जीव आगम में कहे गये हैं। श्रीन्द्रिय, चतुरिप्रिय और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च द्वीन्दिय के बराबर हो कहे गये हैं ।
१--यह अल्प-बहुल्व प्रज्ञापना में पृ. १२० --१३ तक है । गोम्मटसार की इन्द्रियमाणा में द्वीन्द्रिय स पश्चेन्द्रिय पर्यन्त का विशेषाधिकत्व यहाँ के समान वर्णित है ।
--जीवन गा० १५३--७८ । कायमार्गणा में तेजःकायिकआदि का भी विदोषाधिकत्व यहाँ के समान है ।
__ -- जीव गा० २०३ से आगे । २--एक संस्या अन्य संख्या से बड़ी होकार भी जब तक दूनी न हो; सब तक वह उसे 'विशेष्यधिक' कही जाती है । यथा ४ या की संस्था ३ से विशेषाधिक है, पर ६ की संख्या ३ से दूनी है, विशेषाधिक नहीं।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
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इसलिये यह शङ्का होती है कि जब आगम में द्वीन्द्रिय आवि जीवों की संख्या समान करे हुई है तब पचेन्द्रिय आणि जीवों का उपर्युक्त अल्प- बहुत्व कैसे घट सकता है ? · इसका समाधान यह है कि असंख्यात सङ्ख्या के असङ्खयात प्रकार है। इसलिये असंख्यात कोटाकोटी योजन- प्रमाण सूवि श्र ेणी' शब्द से सब जगह एक ही सात सङ्ख्या न लेकर भिन्न-भिन्न लेनी चाहिये । प न्द्रिय तिर्यों के परिमाण को असङ्ख्यात सङ्ख्या इतनी छोटी लो अश्ती है कि जिससे अन्य सब पञ्चेन्द्रियों को मिलाने पर भी कुल पञ्चेन्द्रिय जीव चतुरिन्द्रियों की अपेक्षा कम ही होते हैं । हरेन्द्रियों से एकेन्द्रिय जीव अनन्त्रण इसलिये कहे गये हैं कि साधारण वनस्प तिकाय के जीव अनन्त हैं, जो सभी एकेन्द्रिय है ।
सब प्रकार के स धनोकृम लोक के एक प्रतर के प्रदेशों के बराबर भी नहीं होते और केवल तेज. कायिक जीव असलयात लोकाकरण के प्रवेशों के बराबर होते हैं । इसी कारण बस सबसे बड़े और तेजः कायिक उनसे असङ्ख्यातग ुण माने जाते हैं | तेजः का विक, पृथिवीकायिक अलकायिक और वायुकायिक, ये सभी सामान्यरूप से असंख्यात लोकाकाश-प्रवेश-प्रमाण आगम में मागे गये हैं । तथापि इनके परिमाण सम्बन्धी असङ्खयरत सङ्ख्या भिन्न-भिन्न समझनी चाहिये। वायुकायिक जीवों से वनस्पतिकापिक इसलिये अनन्तगुण कहे गये हैं कि निगोद के जीव अनन्त लोकाकाश-प्रदेश प्रमाण हैं, जो वनस्पतिकायिक हैं ||३८||
१- अनुयोग द्वार. सूत्र, पु. २०३, २०४ ॥ २ -- अनुयोग द्वार, पृ० २.०
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वर्मग्रन्थ भाग चार
योग और वेदमागंणा का अल्प- बहत्व' |
मणवयणकाय जोगा, थोबा असंखगुण अनंतगुणा । पुरिसा थोवा इत्थी संखगुणानंतगुण कीवा ॥३६॥
मनोबचनकाययोगाः स्तोका असङ्खयगुणा अनन्तगुणाः ॥
पुरुषा: स्तोकाः स्त्रियः सङ्ख्यगुणा अनन्तगुणा कोल्वाः ॥१३६॥
अर्थ – मनोयोगवाले अन्य योगवालों से थोड़े हैं । यचनयोग वाले वचनयोग वालों से अनउनसे असंख्यातगुण और काययोगवाले
गण हैं ।
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पुरुष सबसे थोड़े हैं। स्त्रियां पुरुषों से सख्यातगुण और नपुंसक स्त्रियों से अनन्तगण हैं ||३६||
भावार्थ – मनोयोग वाले अन्य योगवालों से इसलिये थोड़े माने गये हैं कि मनोयोग संज्ञी जीवों में ही पाया जाता है। और संजी जोब अन्य सब जोवों से अल्प ही हैं । वचनयोग वाले मनोयोग वालों से असङ्खयगुण कहे गये हैं । इसका कारण यह है कि दोन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असं पचेन्द्रिय और संजि - पञ्चेन्द्रिय, ये सभी बचनयोग वाले हैं । काययोग वाले वचनयोगियों से अनन्तगुण इस अभिप्राय से कहे गये हैं कि मनोयोगी तथा वचनघोगी के अतिरिक्त एकेद्रिय भो काययोग घले है ।
तिर्यञ्च स्त्रियां तिर्यख पुरुषों से तीन गुनी और तोन अधिक होती
१ – यह अल्प-बहुत्व, प्रज्ञापना के १३४वें पुष्ट में है । गोम्मटसार में पन्द्रह योगों को लेकर संख्या का विचार किया है। देखिये, जीव० गा० २५८ - २६६ ।
वेद-विधक अल्पबहुत्व का विचार भी उसमें कुछ भिन्न प्रकार से है । देखिये, जीव० गाथा० २७३ - २५०
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है। मनुष्य स्त्रिय मनुष्य जाति के पुरुषों से सत्ताईसगी' और सताईस अधिक होती हैं । देवियों देवों से बसीसगनी' और पतीस afe होती हैं। इसी कारण पुरुषों से स्त्रियों संख्यातगुण मानी हुई हैं। एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय पर्यन्त सब जीव असंज्ञि पञ्चेन्द्रिय और नारक, ये सब नपुंसक ही हैं। इसी से नपुंसक स्त्रियों की अपेक्षा अनन्तगुण माने हुए हैं ॥ ३६ ॥
कषाय, ज्ञान, संयम और दर्शनमार्गणाओं का अल्प--बहुत्व:| तीन गाथाओं से !
माणी कोहो माई, लोहो अहिय मणनाणिनो थोया । ओहि अस खा महसुष असिम असख विभंगा ||४०||
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मानिनः क्रोधिनो मानिनो, लोभितोऽधिका मनोज्ञाननः स्तोकाः । अवश्रयोऽसंख्यामतिश्रुता, अधिकारसमा असङ्ख्या विभङ्गाः ॥४॥ अर्थ- मानकवायाले अन्य कषायवालों से थोड़े हैं। क्रोधी मानियों से विशेषाधिक हैं। मायावी क्रोधियों से विशेषरधिक है । लोभी मायावियों से विशेषाधिक हैं ।
मन: पर्यायज्ञानी अन्य सब जानियों से थोड़े हैं। अवधिज्ञानी मन: पर्यायज्ञानियों से असंख्यगुण हैं। मतिज्ञानी तथा श्रुतक्षानी आपस में तुल्य हैं । परन्तु अवधिज्ञानियों से विशेषाधिक ही है । विभङ्गज्ञानी शुतज्ञानवालों से असण हैं ॥ ४० ॥
भावार्थ- मान वाले कोष आदि अन्य कषाय वालों से कम हैं, इसका कारण यह है कि मान की स्थिति क्रोध आदि अन्य कषायकी स्थिति की अपेक्षा अल्प है। क्रोध मान की अपेक्षा अधिक देर तक ठहरता है । इसी से क्रोध वाले मानियों से अधिक हैं । माया को स्थिति क्रोध की स्थिति से अधिक है तथा वह क्रोधियों की अपेक्षा
१ - - देखिये, पञ्चसंग्रह द्वा० २, गा० ६५ ।
२ -- देखिये, पञ्चसंग्रह द्वा०२, २०६८ ।
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अधिक जीवों में पायी जाती है। इसी से मायावियों को क्रोधियों की अपेक्षा अधिक कहा है । मायाबियों से लोभियों को अधिक कहने का कारण यह है कि लोम का उदय दसवें गुणस्थान पर्यन्त रहता है, पर माया का उप नववें ग ुणस्थान तक ही है ।
जो जोब मनुष्य देहधारी, संयम वाले और अनेक लब्धि-सम्पन्न हों उनको हो मनःपर्यायज्ञान होता है । इसी से मनःपर्यायज्ञानो अन्य सब शादियों से अल्प हैं सम्यक्तवी कुछ मनुष्य तिर्यञ्चों को और सम्यकवो सब देव नारकों को अवधिज्ञान होता है। इसी कारण अज्ञानी मनः पर्यायशानियों से असंख्यगुण हैं। अवधिज्ञानियों के अतिरिक्त सभी सम्यक्तथी मनुष्य तिर्यञ्च मतिश्रुत ज्ञान वाले हैं । अतएव मति श्रुत ज्ञानी अवधिज्ञानियों से कुछ अधिक है । मति श्रुत बोगों, नियम से सहचारी हैं, इसी से मति श्रुत ज्ञान वाले आपस में मुल्य हैं। मति श्रुत-शानियों से विभङ्गज्ञानियों के सभ
का कारण यह है कि मिध्यादृष्टि वाले देव नारक, जो कि विभङ्गज्ञानी ही हैं, वे सम्यक्त्वी जीवों से असङ्ख्यातग ुण हैं || ४० ॥ केवलिणो णंतगुणा. महसूय अत्राणि नंतगुण तुल्ला ।
सुहमा
१२६
थोडा परिहार संख अहवाय संखगुणा ॥ १४१ ॥ केवलिनोऽनन्तगुणा, मतिश्रुताऽज्ञानिनोऽनन्तु गुणास्तुया । सूक्ष्मा: स्तोका: परिहासः संख्या यथास्याताः सरूपगुणाः ॥ १४१ ॥ अयं ---- केवलज्ञानी विभागज्ञानियों से अज्ञानी और भूत- अज्ञानी, ये दोनों आपस में ज्ञानियों से अनन्तगण हैं ।
अनन्तगुण है । मति
तुम हैं। परन्तु
केवल
सूक्ष्मसम्परायचारित्र वाले अन्य चारित्र वालों से अल्प हैं। परिहारविशुद्ध चारित्र वाले सूक्ष्मसम्पराय चारित्रियों से संस्थात गुण हैं । arrouin वारित्र वाले परिहार विशुद्ध चारित्रियों से संख्यात गुण है । भावार्थ – सिद्ध अनन्त हैं और वे सभी केवलज्ञानी हैं, इसी से केवलज्ञानी विभङ्गज्ञानियों से अनन्तगुण हैं । वनस्पतिक कायिक जीव
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सिद्धों से भी अनन्त गुण हैं और वे सभी
मति-अज्ञानी सधर
भुस-अज्ञानी हो हैं अत एष मति अज्ञानी तथा भुत अज्ञानी, घोनों का केवल ज्ञानियों से अनन्तगुण होना संगत है । मति और स ज्ञान की तरह मति और श्रुत- अज्ञान, नियम से सहचारी है, इसी से मति- अज्ञानी तथा श्रुत- अज्ञानी आपस में तुल्य है ।
सूक्ष्मसंपराय चारित्री उत्कृष्ट दो सौ से नौ सौ तक, परिहारविशुद्ध चारित्रो उत्कृष्ट वो हजार से नौ हजार तक और यथाख्यातचारित्र उत्कृष्ट वो करोड़ से नौ करोड़ तक हैं । अत एव इन तीनों प्रकार के चारित्रियों का उत्तरोतर संख्यात गुण गया है ।।४१।।
अल्प - बहुल्य माना
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समय संखा देस असंखगुण णंतगुण अजया । थोयअखदुता, ओहियण केवल अचषखू |४२॥
सामाथिका संख्या, देशा असंख्यगुणा अनन्तगुणा अथताः । ग्लोक।ऽसंमृष्णनन्दाप
अर्थ – छेवोपस्थापनीय चारित्र वाले यथाख्यात चारित्रियों से संख्यात गुण हैं। सामायिक चारित्र वाले देवोपस्थापनीय चारित्रियों से संस्पात गुण है। अधिरित वाले देशविरतों से अनन्त गुण हैं ।
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अवधिदर्शनी अन्य सब दर्शन वालों से है । चक्षुर्दशनी अधिवेशन वालों से असंख्शल गुण हैं । केवलदर्शनी अवंशेन वालों से अनन्तगुण हैं । अवशुर्दर्शनी केवल दर्शनियों से ही अनन्तगुण हैं । भावार्थ -- यथारुपात चरित्र वाले उत्कृष्ट वो करोड़ से नौ करोड़ तक होते हैं: छेदोपस्थापनीय चारित्र वाले उत्कृष्ट दो सौ करोड़ से नौ सौ करोड़ तक और सामाजिक चारित्र याने उत्कृष्ट दो हजार करोड़ से नौ हजार करोड़ तक पाये जाते हैं। इसी कारण ये उपर्युक्त रीति से संख्यातगुण माने गये हैं। तिर्यच भी बेशरित होते है; ऐसे तियंत्रच असंख्यात होते हैं । इसी से सामायिक चारित्रबालों से देशविरति वाले असंख्यातगुण कहे गये हैं । उक्त चारित्र
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बालों को छोड़ अभ्य सब जीव अविरत हैं, जिनमें अनन्तानन्त वनस्पतिकायिक जीवों का समावेश है। इसी अभिप्राय से अधिरत जीव देशविरति वालों की अपेक्षा अनन्तगुण माने गये हैं ।
देखों, नारको तथा कुछ मनुष्य तिर्यञ्चों को हो अवधिदर्शन होता है । इसी से अन्य वर्शन वालों की अपेक्षा अवधिदर्शनी अल्प है । सूर्यर्शन, चतुरिप्रिय, असंशि-पञ्चेन्द्रिय और संज्ञि-पचेत्रिय, इन तौमों प्रकार के जोवों में होता है। इसलिये चक्षुर्दर्शन वाले अवधिवर्शनियों की अपेक्षा असंख्यातगुण कहे गये हैं । सिद्ध अनन्त हैं और वे सभी केवलदर्शनी हैं, सी से उनकी संख्या चक्षुर्दर्शनियों की संख्या से अनन्तगुण है । अचशुदर्शन समी संसारी जीवों में होता है, जिनमें अकेले वनस्पतिकायिक जीव ही अनन्तानन्त है । इसी कारण अचक्षुर्दर्शन को केवलवर्शनियों से अनन्तगुण कहा है।
लेश्या आदि पांच मागणाओं का अल्प बहुत्व' | [ दो गाथाओं से 1]
पछाणविलेसा, थोवा दो संख गंत दो अहिया । अभवियर थोवणंता, सासण थायोवसम संखा ||४३|| पवचानुपूर्व्या लेश्याः स्तोका द्वे संख्ये अनन्ता अधिके । अमध्येतराः स्वोकानन्ताः, सासादना म्तोका उपशमाः संख्याः ॥४३॥
अर्थ - लेश्याओं का अल्पबहुत्व पचानुपूर्वी से पीछे की ओर से—जानना चाहिये । जैसे:-- शुल्कलेश्यावाले, अन्य सब लेश्यावालों से अल्प हैं । पालेश्याषाले शुल्कलेवयावालों से संख्यातगुण हैं। तेजोलेश्या वाले पद्मश्यावालों से संख्यातगुण हैं। तेजोलेश्यावालों से कापोतले श्यावाले अनन्तगुण हैं। कापोतलेश्यावालों से नीललेश्यावाले विशेषाधिक है। कृष्णले श्यावाले, नीललेश्यावालों से भी विशेषाधिक हैं । अभव्य जीव, भव्य जीवों से अल्प हैं । भव्य जीव अभय जीवों की अपेक्षा अनन्तगण हैं ।
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भव्य मार्गणा का
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१-- लेक्ष्या की अल्प बहुत्व प्रज्ञापना पू पू० १३६
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सासावनसम्यग्दृष्टिमाले, अन्य सब दृष्टिवालों से कम हैं। औपशमिकसम्यग्दष्टि वाले, सासाचन सम्पम्हष्टि वालों से संख्यातगुण हैं ।।४३||
भावार्थ--लान्तक देवलोक से लेकर अनुत्तरविमान तक के मामिकदेवों को तथा गर्भ-जन्य संख्यातवर्ष आयुवाले कुछ मनुष्य-सियञ्चों को शुल्कलेश्या होती है । पपलेश्या, सनत्कुमार से ब्रह्मलोक तक के वैमानिकयों को और गर्भ-जन्य संख्यात वर्ष आयु वाले कुछ मनुष्यतिर्यञ्चों को होती है। तेजोलेश्या, बादर पृथ्यो, जस और वनस्पतिकायिक जीवों को, कुछ पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च-मनुष्य, भवनति और व्यन्तरों को, ज्यों हो तथा ५-काम फारम के मालिकोंको होती है। सय पप्रवेश्या वाले मिलाकर सब शुल्कलेश्यावालों की अपेक्षा सेण्यातगण' हैं। इसी तरह सम तेजोलण्यावाले मिलाये जायें तो सब पयलेश्याबालों से संख्यातगण ही होते हैं । इसी से इनका • संज्ञिमार्गणा का पृ० १३६ और आहारकमार्गणा का पृ १३ पर है।
अल्प-बहुत्व पद में सम्यक्त्वमार्गणा का जो अल्प-बहुत्व पृ० १३६ पर है, वह संक्षिप्तमात्र है।
गोम्मटसार-जीवकाण्ड की ५३६ से लेवार ५४१ वी तक की गाथाओं में जो लेश्या का अत्म-बहुत्व द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि को लेकर बतलाया गवा है, वह कहीं-कहीं यहाँ से मिलता है और कहीं-कहीं नहीं मिलता ।
भव्यमार्गणा में अभव्य की संख्या उस में मंग्रन्थ की तरह जघन्ययुक्तानन्त कही हुई है।
___-जी गा० ५५६ । सम्यक्त्व, संज्ञी और आहारकामार्गणा का अल्प-बहुत्व उसमें वर्णित है।
-जी० गा. ६५६---६५८-६६२----६७० ।
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अल्प- बहुस्व संस्थालपण कहा है। कापोललेश्या, अनन्तवनस्पतिकाfre जीवों को होती है, इसी सबब से कापोसलेइयावाले तेजोलेश्याबालों से अनन्तगुण कहे गये हैं। नीललेश्या, कापोतलेश्या वालों से भी अधिक १- लान्तक से लेकर गोंको अपेक्ष सनत्कुमार से लेकर ब्रह्मलोक तक के वैमानिकदेव असंख्य गुण हैं । इसी प्रकार सनत्कुमार आदि के वैमानिक देवों की अपेक्षा केवल ज्योतिषदेव ही असंख्यात गुण है । अत एव यह शङ्का होतो है कि पद्मलेश्या वाले शुक्लेश्मा बालों से और तेजलिया वाले पंद्मलेश्या वालों से असंख्शतगुण न मानकर संख्यातगुण क्यो माने जाते हैं ?
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इसका समाधान इतना ही है कि पद्मलेश्या देव शुल्कलेल्या वाले देवों से असंख्यातगुण है सही, पर पद्मलेश्या वाले देवों की अपेक्षा शुक्ललेश्या वाले तियंत्र असंख्यातगुण हैं। इसी प्रकार पद्मलेश्या वाले देवों से तेजोलेश्या वाले देवों के असंख्यातगुण होने पर भी तेजलेश्या वाले देवों से पलेइमाबाले तिर्यञ्च असंख्यातगुण है । अत एव सब शुक्ललेश्या वालों से सब पद्मश्यावाले इनसे सब तेजोलेश्यावाले संख्यातगुण ही होते हैं । सारांश, केवल देवों की अपेक्षा शुक्ल आदि उक्त तीन लेपमाओं का अन्य बहुत्व विचारा जाता, तब तो असंख्यातगुण कहा जाता; परन्तु यह अन्य बहुत्व सामान्य नीवराशि को लेकर कहा गया है और पद्ममावाले देवों से शुक्ललेश्यावाले तियेवों की तथा तेजोलेश्या वाले देवों से पलेश्यावाले तिर्यों की संख्या इतनी बड़ी है; जिससे कि उक्त संख्यातगुण ही अल्प-बहुत घट सकता है । श्रीजयम मोसूर ने शुक्ललक्ष्या से तेजोलेश्या तक का अल्पबहुत्व असं यातगुण लिखा है; क्योंकि उन्होंने गाथा - गत 'दो संस्था' पद के स्थान में 'दोऽसंस्था' का पाठान्तर लेकर व्याख्या की है और अपने दबे में यह भी लिखा है कि किसी-किसी प्रति में 'दो संखा' का पाठान्तर है, जिसके अनु सार संख्यातगुण +1 अल्प-बहुत्व समझना चाहिये, जो सुझोंकी विचारणीय दे 'दोखा' यह पाान्तर वास्तविक नहीं है। 'दो सखा' पाठ ही तथ्य है । इसके अनुसार सख्यातगुण अल्प-बहुत्व का शङ्का समाधान पूर्वक विचार, सुज्ञ श्रीमलयगिरिसूरि ने प्रज्ञापना के अपबहुत्व तथा लेश्यापथ को अपनी वृत्ति में बहुत स्पष्ट रीति से किया है । पृ० १६३३ |
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जीवों में होती है। क्योंकि नीललेश्या कापोत की अपेक्षा क्लिष्टतर अध्यसायरूप और कृष्णलेइया नीललेदया से क्लिष्टतम अध्यवसाय रूप है । ए ता है कि लियऔर परिणाम वाले जीवों की संख्या उत्तरोत्तर अधिकाधिक ही होती है।
मध्य जोव, अभव्य जीवों की जीव 'जघन्ययुक्त' नामक चौयो जीव अनन्तानन्त हैं ।
अपेक्षा अनन्तगुण है; क्योंकि अमध्यअनन्तसंख्या प्रमाण हैं, पर अश्य
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औपशमिकसम्यक्य को स्थान कर जो जीव मिध्यात्व की ओर झुकते हैं, उन्हीं को सासारमसम्यक्तव होता है, दूसरों को नहीं । इसी से अन्य सब दृष्टिवालों से सासावन सम्यम्टष्टिवश्ले कम ही पाये जाते हैं। जितने जीवों को मपशमिकसम्यक्तव प्राप्त होता है, वे सभी उस सम्यक्तव को वमन कर मिध्यात्व के अभिमुख नहीं होते, किन्तु कुछ ही होते हैं; इसी से औपशमिकसम्यम से गिरने वालों की अपेक्षा उसमें स्थिर रहने वाले संस्थागण पाये जाते हैं ॥ ४३ ॥
मीसा संखा वेग, अस खगुण खइयमिच्छबु अनंता । सनियर थोव नंता - णहार थोवेयर असंखा
४४ ॥
मिश्राः सख्या वेदका, असंख्यगुणाः क्षायिकमिध्य द्वावनन्त । संज्ञीतरे स्वोकानन्ता, अनाहारकाः स्तोका इतरेऽसंस्थाः ।। ४४ ।। ओपशमिकसम्यष्टिवालों से संस्थात
अर्थ - मिरष्टिवलं,
जोब
गुण हैं। वेवक (क्षावापशमिक ) सम्यग्दष्टिवाले जीव, मिअरध्दिवालों से असंख्यातगुण हैं । क्षायिकसम्यग्दृष्टिवाले वालों से अनम्यगुण हैं। मिध्यादृष्टिवाले वाले जीवों से भरे अनन्तगण हैं ।
वेदकसम्यग्दृष्टिजीव, क्षायिक सम्यग्दष्टि
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संज्ञी जीव असंज्ञी जीवों को अपेक्षा कम हैं और असंती जोध, उनसे अनन्तगुण हैं । अनाहारक जीव आहारक जीवों की अपेक्षा कम हैं और आहारक जोय, उनसे असंख्यातगुण हैं ॥ ४४ ॥
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भावार्थ मिश्रदृष्टि पाने वाले जीव वरे प्रकार के हैं। एक तो वे, जो पहले गुणस्थान को छोड़कर मिश्रष्टि प्राप्त करते हैं और दूसरे वे, जो सम्यष्टि से च्युत होकर मिश्रष्टि प्राप्त करते हैं। इसी से मिश्ररष्टिवाले औपशमिकसम्यग्दष्टिबालों से संख्यातगुण हो जाते हैं । मिश्रष्टालों से क्षायोपशमिकसम्यमष्टिवालों के संख्यातग ुण होने का कारण यह है कि मित्रसम्यक्त्वको अपेक्षा क्षयोपशमिकसम्यक्व की स्थिति बहुत अधिक है: मिश्रसम्यक्त्व की उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की ही होती है, पर क्षायोपशमिकसम्यक्त्वको उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक छयासठ सागरोपमकी । क्षायिकसम्यमत्वक्षायोपशमिकसम्य स्त्रियों से अनन्तग ुण हैं; क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं और वे सब क्षाधिकसम्यक्त्व हो हैं । क्षायिकसम्यक्तिवयों से भी मिथ्यावियों के अनन्तगुण होने का कारण यह है कि सत्र वनस्पतिकाधिक जोय मिथ्यात्वो ही है और वे सिद्धों से भी अनन्तगुण है ।
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देव, नाक, गर्भज मनुष्य तथा गर्भज-तियंत्र हो संज्ञी हैं, शेष सब संसारी जीव असंज्ञी हैं, जिनमें अनन्त वनस्पतिकायिक जीवों का समावेश है। इसीलिये असंज्ञो जीव संज़ियों को अपेक्षा गुण कहे जाते हैं ।
अनन्त
और
सिद्ध
विग्रहगति में वर्तमान केवलिमुद्घात के तीसरे चौथे पाँच समय में वर्तमान, चौदहवें गुणस्थान में वर्तमान और ये सब जीव अनाहारक हैं; शेष सब आहारक हैं। इसी से अनाहारकों की अपेक्षा आहारक जीव असंख्यातगुण कहे जाते हैं। बनस्प तिकामिक जीव सिद्धों से भी अनन्तगण हैं और वे समो संसारी होने के कारण आहारक हैं। अन एव यह शङ्का होती है कि आहारक
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कर्मग्रन्थ भाग चार
ओव, अनाहारकों की अपेक्षा अनन्तमण होने चाहिये, असंख्य गुण कैसे ?
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इसका समाधान यह है कि एक-एक निगोद गोलक में अनन्त जीव होते हैं; इनका असंख्यात भाग प्रतिसमय मरता और विप्रगति में वर्तमान रहता है । ऊपर कहा गया है कि विग्रहगति में वर्तमान जीव अनाहारक हो होते हैं। ये अनाहारक इतने अधिक होते हैं, जिससे फुल आहारक जीव, कुल अनाहारकों की अपेक्षा अनन्तगण कभी नहीं होने पाते, किन्तु असंख्यातगुण ही रहते हैं ॥१४४॥
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द्वितीयाधिकार के परिशिष्ट ।
परिशिष्ट "ज" । पृष्ठ ५२, पङ्कित २३ के 'योगमार्गगा' वामन पर
तीन योगों के बाझ और आभ्यन्तर कारण दिखा कर उनकी व्याख्या राजवार्तिक में बहुत ही सपना की गई है। उसका सारांश इस प्रकार है: --
(वा) बाह्म और आभ्यन्तर कारणों से होने वाला जो मनन के अमिमुख आत्मा का प्रदेश पारम्पन्द, वह 'मनायांग है। Art, बाह्य कारण मनोवर्गणा का आलम्बन और आभ्यन्तर कारण वीर्यान्त रायक्रम का क्षयक्षयोपशम तथा नो-इन्द्रि यावरणकर्म का क्षय-क्षयोपशम (मनोनधि) है।
(ख) बाह्म और आम्यन्त र कारण-जन्य आत्मा का भाषाभिमुख प्रदेश परिम्पन्द घचन-योग है । इसका बाह्य कारण पुग्लविपाकी शारीरनामकर्म के उदय से होने वाला वचनवर्गणा का आलम्बन है और आभ्यन्तर कारण वीर्यान्तरायकर्म का क्षय-क्षयोपशम तथा मतिज्ञानावरण और अक्षरश्रुतशानावरण आदि कर्म वा क्षय-नयोपशम (वचनलब्धि) है।
(ग) बाह्म और आभ्यन्तर कारण-जन्य गमनादि-विषयक आत्मा का प्रदेश-परिस्पन्द 'काययोग' है। इसका बाह्य कारण किसी-न किसी प्रकार की शरीरवर्गणा का आलम्बन है और आभ्यन्तर कारण श्रीयन्तरायकर्म का क्षप-क्षयोपशम है।
यद्यपि तेरहवें और चौदहवें, इन दोनों गुणम्थानों के समय वीर्यान्तरायकर्म का अयरूप आभ्यन्तर कारण समान ही है, परन्तु वर्गणालम्बनरूप बाह्य कारण गमान नहीं है । अर्थात् वह तेरहवें गुणस्थान के समय पाया जाता है, पर चौदहवें गुणस्थान के ममय नहीं पाया जाता । इसी से तेरहवें गुणस्थान में योग-विधि होती है, चौदहवें नहीं। इसके लिये देखिये, तत्त्वार्थअध्याय ६. सु. १, राजनातिक १० ।
योग के विषय में पङ्का-समानानः
(क) यह शङ्का होती है कि मनोयोग और बधनयोग, काययोग ही हैं; क्योंकि इन दोनों योगों के समय , शरीर का व्यापार अवश्य रहता ही
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कर्मग्रन्थ भाग चार
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है और इन योगों के आलम्बनभूत मनोद्रव्य तथा भाषाद्रव्य का ग्रहण भी किसी न किसी प्रकार के शारीरिक-योग से ही होता है ।
"इसका समाधान यही है कि मनोयोग तथा वचनयोग, काययोग से जुदा नहीं है; किन्तु काययोग-विशेष ही है। जो काययोग मनन करने में सहायक होता है, बड़ी उस समय मनोयोग और जो काययोग, भाषा के बोलने में महकारी होता है, वही उस समय 'बच्चन्योग' माना गया है। सारांश यह है कि व्यवहार के लिये ही काययोग के तीन भेद किये हैं ।
(ख) यह भी शङ्का होती है कि उक्त रीति से श्वासोश्वास में सहायक होने वाले काययोगको 'श्वासोच्छ्वासयोग' कहना चाहिये और तीन की जगह चार योग मानने चाहिये ।
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इसका समाधान यह दिया गया है कि व्यवहार में जैसा भाषा का और मन का विशिष्ट प्रयोजन दीखता है, वैसा दवासोच्छ्वास और शरीर का प्रयोजन वैसा मन नहीं है, जैसा शरीर और मन वखन का इसी से तीन ही योग माने गये हैं ? इस विषय के विशेष विचार के लिये विशेषावश्यक भाष्य ०३५६- ३६४ तथा लोकप्रराश-सर्ग ३, श्लो० १३५४१३५५ के बीन का गद्य देखना चाहिये ।
द्रव्यमन, द्रव्यवचन और शरीर का स्वरूप:
(क) जो पुद्ग्ल मन बनने के योग्य हैं, जिनकी शास्त्र में मनोवगंणा' कहते हैं वे जब मनरूप में परिणत हो जाते हैं - विचार करने में सहायक हो सकें, ऐसी स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं सब उन्हें 'मन' कहते हैं । शरीर में द्रव्यमन के रहने का कोई खास स्थान तथा उसका नियत आकार श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में नहीं है । स्वेताम्बर - सम्प्रदाय के अनुसार द्रव्यमन को शरीर व्यापी और शरीराकार समझना चाहिये । दिगम्बरसम्प्रदाय में उसका स्थान "हृदय तथा आकार कमल कासा माना है। (ख) वचन रूप में परिणत एक प्रकार के पुद्गल, जिन्हें भाषावर्गणा कहते हैं, वे ही 'वचन' कहलाते हैं ।
(ग) जिससे चलना-फिरना, खाना-पीना आदि हो सकता है, जो सुख-दुःख भोगने का स्थान है और जो औदारिक, वैक्रिय आदि वर्गणाओ से बनता है, वह 'शरीर' कहलाता है ।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
परिशिष्ट "झ" ।
पृष्ठ ६५, पक्ति ८ के 'सम्यक्त्व' शव्दपर
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उसका स्वरूप, विशेष प्रकार से जानने के लिये निम्नलिखित कुछ बातों का विचार करना बहुत उपयोगी है :
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(१) सभ्यक्तय सहेतुक है या निर्हेतुक? (२) श्रामिक आदि भेदों का आधार क्या है ?
(३) औपशमिक और श्रयोपशमिक सम्यक् का आपस में अभ्यर तथा क्षायिक सभ्यता की विशेषता ।
(५)
(४) मा समाधान, विपादय और प्रदेशोदय का स्वरूप | और उपयमकी व्याख्या तथा खुलासाधार विचार | (१) - सम्यक परिणामक है या निर्हेतुक? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि उसको निर्हेतुक नहीं मान सकते; क्योंकि जो वस्तु निहतुक हो, वह सब काल में, सब जगह एक सी होनी चाहिये अथवा उसका अभाव होना चाहिये । सम्यक्तव-परिणाम, न वो सबमे समान है और न उसका अभाव है। इलिये उसे सहेतुक ही मानना चाहिये। सहेतुक मान लेने पर वह प्रश्न होता है कि उसका नियत हेतु क्या है; प्रवचन श्रवण, भगवत्पूजन आदि जो-जो बाह्य निमित्त माने जाते है. ये तो सम्यक्त्व के नियम हो ही नहीं सकते क्योंकि इन बाह्य निमित्तों के होते हुए भी. अभ क्यों की तरह अनेक मध्यों को सम्यक्तव परिणाम प्रकट होने में नियत कारण जीवका तथाविध भव्यत्व-नामक अनादि परिणाभिक स्वभाव विशेष ही है | जब इस परिणामिक मध्यत्व का परिपाक होता है, तमी सभ्यक्तवलाभ होता है। भव्यत्व परिणाम साध्य रोग के समान है। कोई साध्य रोग, स्वयमेव (बाह्य उपाय के बिना ही शान्त हो जाता है। किसी माध्य रोग के शान्त होने में बंध का उपचार भी दरकार है और कोई साध्य रोग ऐसा भी होता है, जो बहुत दिनों के बाद मिटता है। भव्यत्व-स्वभाव ऐसा ही है ! अनेक जीवों का मध्यत्व, वाय निमित्त के बिना ही पाक प्राप्त करता है । ऐसे भी जीव हैं, जिनके भव्यत्व स्वभाव का परिपाक होने में शास्त्र श्रवण जादि बाह्य निमित्तों की आवश्यकता पड़ती है। और अनेक जीवों का भव्यत्व गरिणाम दीर्घ काल व्यतीत हो चुकने पर स्वयं ही परिपाक प्राप्त करता है। शास्त्र श्रमण, अर्हत्पूजन आदि जो बाह्य निमित्त है, वे सहकारी मात्र है। उनके द्वारा कभी-कभी मध्यत्व का परिपाक होने में मदद मिलती है, इसी से व्यवहार में वे सभ्यक्तव के कारण माने गये है और उनके आलम्बन की आवश्यकता दिखायी जाती है। परन्तु निश्चयदृष्टि से तथाविध-भव्यत्व के विपाक ही सम्यवा
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कर्मग्रन्य भाग चार
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अव्यभिचारी (निश्चिन । कारण मानना चाहिये । इससे यास्त्रि-श्रवण, प्रतिमा-पूजन आदि बाह्य क्रियाओं की अनेकान्तिकता, जो अधिकारी भेद पर अवलम्बित है. उसका खुलासा हो जाता है । यही भाष, भगवान उमाम्वाति ने 'तनिसर्गादधिगमाद्धा' - तस्यार्थ-अ० १, सूत्र ३ से प्रकट लिया है और यही बात पश्चगह-द्वार १,गा. को मलयगिरि टीकामें भी है।
(2)- सम्यक्त्व गृण, प्रकट होने के आभ्यान्तर कारणों की जो विविधता है, कही क्षायोपमिक आदि भेदों का आधार है:-अनन्तानुबन्धि चतुष्क और दर्शनमोहनीय-त्रिका, इन सात प्रकृतियों का क्षयोपशम, क्षायोपश मिकमम्यवसा; उपम, औपशभिवसम्यक्त्या और क्षय, क्षायिकसम्यक्त्वका कारण है। तथा सम्यक्रन से गिरा कर मिथ्यात्व की ओर झुकानेवाला अनन्तानुबन्धी कपाय का उदग, सासादनसम्यक्रवका कारण और मिश्रमोहनीय का उदय, मिश्रसम्यल्पका कारण है । औपणमिकसम्यक्त्व में काललब्धि आदि अन्य क्या-२ निमित्त अपेक्षित हैं और वह किस-२ गति में निन-२ पापों से होता है, इसका विशेष वर्णन तथा क्षायिक और क्षायो-पशमिव सम्यक्त्वका वर्णन क्रमश:-तत्त्वार्थअ०२, मू०३के १ और २रे राजत्तिक में तथा सु० ८ और ५ के ये राजवतिक में है।
(E)- औपशमिकमम्यक्त के समय, दर्शनमोहनीय का किसी प्रकार का उदय नहीं होता; पर आयोयमिकमम्यक्त्व के समय, सम्यक्त्व मोहनीयका विपाकोदय और मिथ्यात्वमोहनीय का प्रदेशोदय होता है । इसी भिन्नता के कारण शास्त्र में औपगमिकसम्यकार को, 'भावसम्यक्त्त' और मायोपशामिन सम्यक्रनको, 'प्रत्र्यसम्यक्त्व' कहा है । इन दोनों सम्यक्त्वों से क्षायिकसम्यक्त्व विशिष्ट है क्योंकि वह स्थायी है और ये दोनों अस्थायी हैं।
(४-अह शङ्का होती है कि मोहनीयकर्म वातिकम है । वह सम्यक्त्व और चारित्रपर्याय का घात करता है, इसलिये सम्यक्त्वमोहनीय के विपाकोदय और मिथ्यात्वमोहनीय के प्रदेशोदय के समम, सम्पनत्य-परिणाम व्यक्त कैसे हो सकता है। इसका समाधान यह है कि राम्यवत्वमोहनीय, मोहनीयकर्म है सही, पर उसके दलिक निशुद्ध होते हैं, क्योंकि शुद्ध अध्यवसाय से जब मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के दलिकों का सर्वघाती रस नष्ट हो जाता है, तब वे ही एक थान रसवाले और द्विस्थान अतिमय रसवाले दलिफ 'सम्यक्त्वमोहनीय' कहलाते हैं । जैसे:-फांच आदि पारदर्शक वस्तुएँ नेत्र दर्शन-कार्य में रुकावट नहीं सतीं, वैसे ही मिथ्यात्वमोहनीय के शुद्ध पलिकों का पिाकोदय सम्यक्त्व-परिणाम के आविर्भाव में प्रतिबन्ध नहीं
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कर्मग्रन्थ-माग चार करता । अब रहा मिथ्यात्व का प्रदेशोदय, सो वह भी, सम्यक्त्व-परिणाम का प्रतिबन्धक नहीं होता; क्योंकि नीरस दलिकों का ही प्रदेशोदय होता है । जी दलिक, मन्द रसयाले हैं, उनका विषाकोदय भी, जब गुण का घात नहीं करता, तब नीरस दलिकों के प्रदेशोदय से गुण के धात होने की सम्भावना ही नहीं की जा सकती । देखिये, पञ्चसंग्रह-द्वार १, १५ गाथा की टीका में ग्यारहवें गुणस्थान की व्याख्या।
(५)-क्षयोपशम-जन्य पर्याय 'शायोपशामिक' और उपशम-जन्य पर्याय 'औपशमिक' कहलाता है। इसलिये किसी भी बायोपशिक और औपशामिक भाव का यथार्थ ज्ञान करने के लिये पहले क्षयोपशम और उपशमका ही स्वरूप जान लेना आवश्यक है । अतः इसका स्वरूप शास्त्रीय प्रक्रिया के अनुसार लिखा जाता है; ...
jोप में दो .....मामा म । 'क्षयोपशम' शब्द का मतलब, कर्म के क्षय और उपशम दोनों से है । क्षय का मतन्नय आत्मा से कर्म का विशिष्ट सम्बन्ध छट जाना और उपशम का मतलब कर्म का अपने स्वरूप में आत्मा के साथ संलग्न रह कर भी उसपर असर न डालना है । यह तो हुआ सामान्य अर्थ; पर उसका पारिभाषिक अर्थ कुछ अधिक है । बन्धावलिका पुर्ण हो जाने पर किसी विवक्षित कर्म का जब भयोपशम शुरू होता है, तब विवक्षित वर्तमान समय से आवलिका पर्यन्त के दलिक, जिन्हें उदयात्रलिका-प्राप्त या उदीर्ण-दलिक वाहते है, उनका तो प्रदेशोथम व विपाकोक्यद्वारा क्षय (अभाव) होता रहता है। और जो दलिक, विवक्षित वर्तमान समय से आपलिका तक में उदय पाने योग्य नहीं हैं जिन्हें उपयवलिका बहित या अनुदीर्ण दलिक कहते हैंउनका उपशम (विषाकोदय की योग्यता का अभाव या तीन रससे मन्द रस में परिणमन) हो जाता है, जिससे ये दलिक, अपनी उदयावलिका प्राप्त होने पर, प्रदेशोदय या मन्द विपाकोदपट्टारा क्षीण हो जाते हैं अर्थाद आत्मापर अपना फल प्रवट नहीं कर सकते या कम प्रकट करते हैं। ___ इस प्रकार आवलि' का पर्यन्त के उदय-प्राप्त कर्मदनिकों का प्रदेशोदय व विपाकोदय द्वारा क्षय और आवलिफा के बाद के उदय पाने योग्य कर्मदलको की विपाकोदयसम्बघिनी योग्यता का अभाव या तीन रस का मन्द रस में परिण मन होते रहने से कम का क्षयोपशम कहलाता है।
क्षयोपशम-योग्य कर्म:-अयोपशम, सब कमों का नहीं होता; सिर्फ घातिकर्मों का होता है। घातिकर्म के देशवाति और सर्वघाति, में दो भेद है। दोनों के क्षयोपशम में कुछ विभिन्नता है।
(क) जब देशवासिकम का क्षयोपशम प्रवृत्त होता है, तब उसके
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कर्मग्रन्थ भाग चार मन्द रस-युक्त कुछ दलिकों का विपात्रोदय, साथ ही रहता है । विपाकोवयप्राप्त दलिक, अच्य रस युक्त होने से स्वावार्य गुण का घात नहीं कर सकते इससे यह सिद्धान्त माना गया है कि देशघातिकर्म के क्षयोपशम के समय, विपाकोदय विरुद्ध नहीं हैं अथति वह क्षयोपशम के कार्य को--स्वावार्य गुण के विकास को रोक नहीं सकता। परन्तु मह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि देशघातिकर्म के विपाकोदय-मिश्रित क्षयोपशम के समय, उसका सर्वघाति-रस-पुक्त कोई भी दलिका, उदयमान नहीं होता । इससे यह सिद्धान्त मान लिया गया है कि जब, सर्वधाति-रस, शुद्ध-अभ्यवसाय से देशातिरूप में परिणत हो जाता है, तभी अर्थात् देशघाति-स्पर्घक के ही विपाकादय-काल में क्षयोपशम अवश्य प्रवृत्त होता है।
पातिकम की पच्चीस प्रकृतिमा देशघातिनी हैं, जिनमें से मतिज्ञानावरण, श्रुतशानावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण और पांच अन्तराय, इन आठ प्रकृतियों का क्षयोपशम तो सदा से ही प्रत्रत्त है; क्योंकि आवार्य मनिशान आदि पर्याय, अनादि काल से क्षायोपमिक रूप में रहते ही है। इसलिये, यह मानना चाहिये कि उक्त आट प्रकृत्तियों के देशघाति-रसस्पर्षक का ही उदय होता है, सर्वघाति-रसस्पर्धकका कभी नहीं।
अवधिज्ञानाबरण, मनःपर्यायज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण और भवधिदर्शनाबरण, इन चार प्रकृतियो का क्षयोपशम कादाचित्क (अनियत) है, अर्यात जव उनके सर्वचाति-रसम्पर्धक, देशवातिरूप में परिणत हो जाते हैं; तभी उनका क्षयोपशम होता है और जब सर्च याति-रसस्पर्धक नदयमानहोते हैं,तब अवधिज्ञान आदि का घात हो होता है। उक्त चार प्रकृतियों का क्षयोंपशम भी देशवाति-रसस्पर्षकके विपाक दय से मिश्रितही समझना चाहिये।
उक्त बारह के सिवाय शेष तेरह (चार संज्वलन और नौ नोकषाय) प्रकृतियाँ जो मोहनीय की हैं, व अघ्र बोदपिनी है। इसलिये जब उनका क्षयोपशम, प्रदेशोदयमात्र से युक्त होता है, तब तो वे स्वावार्य गुण का लेमा भी घात नहीं करतीं और न देशघातिनी ही मानी जाती है। पर जब उनका क्षयोपशम विपाकोदय से मिश्रित होता है, सब ने स्वावार्य गुण का कुछ घात करती हैं और देशघातिनी कहलाती है ।
(ख) घातिकम की बीस प्रकृतियां सर्वघातिनी है। इनमें से केवलज्ञानावरण और केवल दर्शनावरण, इन दो का तो क्षयोपशम होता ही नहीं; क्योंकि उनके दलिक कमी देशवाति-रसयुक्त बनते ही नहीं और न उनका विपाकोदय ही रोका जा सकता है । शेष अठारह प्रकृतियाँ ऐसी हैं, जिनका क्षयोपपाम हो सकता है; परन्तु यह बास, ध्यान में रखनी चाहिये कि देश
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वैसे घातिनी प्रकृतियों के क्षयोपशम के समय, जैसे विपाकोदय होता है। इन अठारह सर्वघातिनी प्रकृतियों के क्षयोपशम के समय नहीं होता, अर्थात् इन अठारह प्रकृतियों का क्षयोपशम, तभी सम्भव है, जब उनका प्रदेशोदय ही हो। इसलिये यह सिद्धान्तमाना है कि वपाकांदयवती प्रकृतियों का क्षयोपशम यदि होता है तो देशघातिनी ही का सर्वघातिनी का नहीं ।
अत एव उक्त अठारह प्रकृतियाँ, विपाकोदय के निरोध के योग्य मानी जाती हैं; क्योंकि उनके आवार्य गुणों का क्षायोपशमिक स्वरुप में व्यक्त होना माना गया है, जो विपाकोदय केनिरोध के सिवाय षट नहीं सकता।
(२) उपशमः - क्षयोपशम की व्याख्या में उपशस शब्द का जो अर्थ किया गया है, उससे औपशमिक के उपशम शब्द का अर्थ कुछ उदार है। अर्थात् क्षयोपशम के उपशम शब्द का अर्थ सिर्फ विपाकादयसम्बन्धिनी योग्यता का अभाव या तीव्र रस का मन्द रस में परिणमन होना है, पर औपशमिक के उपशम शब्द का अर्थ प्रदेशोदय और विपाकोदय दोनों का अभाव है; क्योंकि क्षयोपशम में कर्म का क्षय भी जारी रहता है, जो कम से कम प्रदेशोदय के सिवाय हो ही नहीं सकता । परन्तु उपवास में यह बात नहीं, जब कर्म का उपशम होता है, तभी से उसका क्षय रुक हो जाता है, अतएव उसके प्रदेशोदय होने की आवश्यकता ही नहीं रहती । इसी से उपशम अवस्था तभी मानी जाती है, जब कि अन्तरकरण के अन्तर्मुहूर्त "में उदय पाने के योग्य दलिकों को कुछ तो पहले ही भोग लिये जाते हैं और कुछ बलिक पीछे उदय पाने योग्य बना दिये जाते हैं, अर्थात् अन्तरकरण में वेद्य- दक्षिकों का अभाव होता है ।
अतएव क्षयोपशम और उपशम की संक्षिप्त व्याख्या इतनी ही की जाती है कि क्षयोपशम केनमय विपाकोदय या मन्द विपाकोदय होता है, पर उपशम के समय वह भी नहीं होता । यह नियम याद रखना चाहिये कि उपशम भी घाति का ही हो सकता है, सो भी सब धातिकर्म का नहीं किन्तु केवल मोहनीय कर्म का अर्थात् प्रदेश और विपाक दोनों प्रकार का उदय, यदि रोका जा सकता है तो मोहनीय कर्म का ही । इसके लिये श्रीयशोविजयजी कृत देखिये, नन्दी, सू० की टीका, पृ० ७७ कम्मपयडी, टीका, पृ० १३ पञ्च द्वा० १, गा० २९ को मलयगिरि व्याख्या सम्यक्त्व के स्वरूप, उत्पत्ति और भेद-प्रभेदादि का सविस्तार विचार देखने के लिये देखिये, लोक प्र०-सर्ग ३, श्लोक ५६६-७००।
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अन्य मार
परिशिष्ट "ट'। पृष्ठ ७४, पक्ति २१ के "सम्भव' शबएर
अठारह मार्गणा में अचक्षुदर्शन परिगणित है। अतएव उसमें भी पौदह जीवस्थान समलने चाहिये । परन्तु इस पर प्रश्न यह होता है कि अचक्षुर्दर्शन में जो अपर्याप्त जीवस्थान माने जाते हैं. सो क्या अपर्याप्तअवस्था में इन्द्रियपर्माप्ति पूर्ण होने के बात अचक्षुर्दर्शन मान कर या इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने के पहल भी अचक्षुर्दर्शन होता है। यह मान कर ?
यदि प्रथम पक्ष माना जाय तब तो ठीक है। क्योंकि इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद अपर्याप्त-अवस्था में ही चतुरिन्द्रियद्वारा सामान्य बोध मान करना जैसे:- वक्षुर्दर्शन में तीन अपर्याप्त जीवस्थान १७वीं गाथा में मसान्तर से बतलाये हुये है वैसे ही इन्द्रियपर्यास्ति पूर्ण होने के बाद अपर्याप्तअवस्था में चक्षुभिन्न इन्द्रिय द्वारा सामान्य बोध मान कर अचक्षुर्दर्शन में सात अपर्याप्त जीवस्थान घटाये जा सकते हैं।
परन्तु श्रीजय सोमसूरि ने इस गाथा के अपने टब में इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले भी अचक्षुर्दर्शन मान कर उसमें अपर्याप्त जीवस्थान माने हैं । और सिद्धान्त को आधार से बतलाया है कि विग्रहगति और कार्मणोग में अधिदर्शन रहित जीव को अचक्षुर्दशन होता है। इस पक्ष प्रश्न यह होता है कि इंन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले द्रव्येन्द्रिय न होने से अचक्षुदर्शन कैसे मानना ? इसका उत्तर दो तरह से दिया जा सकता है।
(१। द्रव्येन्द्रिय होने पर द्रव्य और भाव, उभय इन्द्रिय-जन्य उपयोग और द्रव्येन्द्रिय के अभाव में केवल' मावेन्द्रिय-जन्य उपयोग, इस तरह दो प्रकार का उपयोग है । विग्रहगति में और इन्द्रियपर्याप्ति होने के पहले, पहले प्रकार का उपयोग, नहीं हो सकता; पर दूसरे प्रकार का दर्शनात्मक सामान्य उपयोग माना जा सकता है। ऐसा मानने में तत्त्वार्थ-अल २, सू० ६ की वृत्तिका
"अपवेन्द्रियनिरपेक्षमेव तस्कस्यचिद्भवेद् यतः पृष्ठत उपसर्पन्तं स सुद्धपैवेन्द्रियव्यापारनिरपेक्ष पव्यक्तीति ।"
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१४२
कर्मग्रन्थ भाग्य चार यह कथन प्रमाण है । सारांश, इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले उपयोगात्मक अचक्षुर्दर्शन मान कर समाधान किया जा सकता है ।
(२) विग्रहमति में और इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले अचक्षुदर्शन माना जाता है, सो शक्तिरूप अर्थात् क्षयोपशमरूप, उपयोगरूप नहीं। यह समाधान, प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ की ४६वीं गाया की टीका के
"त्रयाणामप्यचक्षुर्वर्शनं तस्यानाहारकावस्यायामपि लब्धिमाधिस्याभ्युपगमात् ।"
इसउल्लेख के आधार पर दिया गया है।
प्रश्न--इन्द्रिय पर्यापित पूर्ण होने के पहले जैसे उपयोगरूप या क्षयोपशमरूप अचक्षुर्दर्शन माना जाता है, वैसे ही चक्षुर्देर्शन क्यों नहीं माना जाता?
उत्तर चक्षुर्दर्शन, नेत्ररूप विशेष इन्द्रिय-जन्य दर्शन को कहते हैं । ऐसा दर्शन उसी समय माना जाता है, जब कि द्रव्यनेत्र हो । अत एव चक्ष-दर्शन को इन्द्रियाप्ति पूर्ण होने के बाद ही माना है । अचक्षदर्शन किसी-एक इन्द्रिय-जन्य सामान्य उपयोग को नहीं कहते; किन्तु नेत्र भिन्न किसी द्रव्येन्द्रिय से होने वाले, द्रव्यमन से होने वाले या द्रव्येन्द्रिय तथा द्रव्यमन + अभाव में क्षयोपशममात्र से होने वाले सामान्य उपयोग को कहते हैं । इसी से अचक्षुर्दान को इन्द्रिय-पर्याप्ति पूर्ण होने के पहले और पीछे, दोनों अवस्थाओं में भाना है।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
परिशिष्ट "ठ" |
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पृष्ठ ७८, पक्कि ११ के अनाहारक' शव्वपर
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-
अनाहारक जीव दो प्रकार के होते हैं। छश्वस्थ और वीतराग । वीतराग में जो अशरीरी (मुक्त) हैं, वे सभी सदा अनाहारक ही हैं; परन्तु जो शरीर भारी है, वे केवल समुद्धात के तीसरे चौथे और पांचवें समय में ही अनाहारक होते हैं । उपस्थ जीव, अनाहारक तभी होते हैं जब वे विग्रहगति में वर्तमान हो ।
जन्मान्तर ग्रहण करने के लिये जीव को पूर्व-स्थान छोड़कर दूसरे स्थान में जाना पड़ता है। दूसरा स्थान पहले स्थान से विश्रेणि-पतित (वत्र रेखा) में हो, तब उसे वक्रगति करती पड़ती है। बक गति के सम्बन्ध में इस जगह तीन बातों पर विचार किया जाता है:
11
(१) वक्र - गति में विग्रह ( घुमाव ) की संख्प), (२) वक्र-पति का काल-परिमाण और (३) वक गति में अनाहारकत्व का काल मान ।
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(१ कोई उत्पत्ति स्थान ऐसा होता है कि जिसको बीच एक लिए करके ही प्राप्त कर लेता है। किसी स्थान के लिये दो विग्रह करने पडते हैं और किसी के लिये तीन मी नवीन उत्पत्ति स्थान से कितना ही विश्रेणि-पतित क्यों न हो, पर वह तीन विग्रह में तो अवश्य ही प्राप्त हो जाता है। इस विषय में दिगम्बर- साहित्य में विघारभेद नजर नहीं आता; क्योंकि"विग्रहवतो व संसारिणः प्राक् चतुभ्यः । - तत्त्वार्थ अ० २ ० २८ । इस सु० की सर्वार्थसिद्धि टीका में श्री पूज्यपादस्वामी ने अधिक से अधिक तीन विग्रहवाली गति का हो उल्लेख किया है । तथाः"एकं द्वौ श्रीवामा हारक
तत्त्वार्थ- अ० २. सूत्र ३० ॥ इस सूत्र के ६० राजबार्तिक में भट्टारक श्री अकल देव ने भीं अधिक से अधिक त्रि-विग्रह गति का ही समर्थन किया है । नेमिचन्द्र सिद्धान्तत भी गोम्मटसार जीव काण्ड की ६६६वीं गाथा में उक्त मत का ही निर्देश व रते हैं ।
अन्यों में इस विषय पर मतान्तर उल्लिखित पाया जाता है“विवती च संसारिणः चतुभ्यः " तत्वार्थ अ० २, सूत्र २२ । "एक हौवानाहारकः । " - तत्त्वार्थ अ० २, सू० ३० । वेताम्बर - प्रसिद्ध तत्त्वार्थ अ० २ के भाष्य में भगवान् उमास्वातिने तथा उसकी टीका में श्री सिद्ध सेन णि ने त्रि-विग्रहगति का उल्लेख किया है। साथ ही उक्त भाष्य की टीका में चतुविग्रह गति का मतान्तर भी दरसाया है । इस मतान्तर का उल्लेख बृहत्संग्रहणी की ३२५ वीं गाथा में और श्रीभगवती - शतक ७, उद्देश १ को सभा शतक १४, उद्देश १ की
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कर्मग्रन्थ माग चार टीका में भी है। किन्तु इस मतान्सर का जहाँ-कहीं उल्लेख है, वहाँ सब जगह यही लिखा है कि चतुविग्रहगति का निर्देश किसी मूल सूत्र में नहीं है। इससे जान पड़ता है कि ऐसी गति करने वाले जीव हो बहुत कम हैं। उक्त सूत्रों के माध्य में तो यह स्पष्ट लिखा है कि त्रि-विग्रह वाली गति का संभव ही नहीं है ।
"अविग्रहा एकfouहा द्विविप्रा विविग्रहा इत्येताश्चतुस्समयपविधागतयो भवन्ति परतो म सम्भवन्ति
भाष्य के इस कथन से तथा दिगम्बर-ग्रन्थों में अधिक से अधिक त्रि-विग्रह गति का ही निर्देश पाये जाने से और भगवती-टी आदि में जहाँ कहीं चतुविग्रहमति का मतान्तर है, वहीं सब जगह उमको अस्ता दिखायी जाने के कारण अधिक से अधिक तीन विग्रहबाली गतिही वा पक्ष बहुमान्य समझना चाहिये ।
J
(२) वक्र गति के काल-परिमाण के सम्बन्ध में यह नियम है किव क्रगति का समय वह कीअपेक्षा एक अधिक ही होता है । अर्थात् जिस गति में एक विग्रह हो, उसका काल-मान दो समय का, इस प्रकार दिविप्र गति का काल-मान तीन समयों का और त्रि-विग्रहगति का कालमान बार समयों का है। इस नियम में श्वेताम्बर दिगम्बर का कोई मत भेव नहीं 1 हाँ, ऊपर चतुविग्रहगति के मतान्तर का जो उल्लेख किया है, उसके अनुसार उस गति का काल यान पांच गमयों का बतलाया गया है । (३) विग्रहगति में अनाहारकत्व के बाल-मान का विचार व्यवहार और निश्चय, दो दृष्टियों से किया हुआ पाया जाता है । व्यवहारवादियों का अभिप्राय यह है कि पूर्व शरीर छोड़ने का समय, जो वक्रगति का प्रथम समय है, उसमें पूर्व शरीर- योग्य कुछ पुद्गल लामाहारद्वारा ग्रहण किये जाते हैं । बृहत्संग्रहणी गा० ३२६ तथा उसकी टीका; लोकल सगं ३. श्लोक, ११०७ से आगे । परन्तु निश्चयवादियों का अभिप्राय यह है कि पूर्व-शरीर छूटने के समय में अर्थात् वक्र-गति के प्रथम समय में न तो पूर्व-शरीर का ही सम्बन्ध है और न नया शरीर बना हैं; इसलिये उस समय किसी प्रकार के आहार का संभव नहीं । लोक० स० ३,लोक १११५ से आगे । व्यवहारवादी हो या निश्चयवादी. दोनों इस बात को बराबर मानते हैं कि वक्रगति का अन्तिम समय, जिसमें जीव नवीन स्थान में उत्पन्न होता है। उसमें अवश्य आहार ग्रहण होता है । व्यवहारनय के अनुसार अनाहारकत्व का काल मान इस प्रकार समझना चाहिये:
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एक विग्रहवाली गति, जिसको काल मर्यादा दो समय की है, उसके दोनों समय में जीव आहारक ही होता है; क्योंकि पहले समय में पूर्व
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कर्मग्रन्थ भाग चार शरीर-योग्य लोमाहार गहण किमानाता है और सारे समय में नवीन शरीरयोग्य आहार। दो विग्रहवाली गति, जो तीन समय की है और तीन घिग्रहवाली गति. जो चार समय की है, उसमें प्रथम तथा अन्तिम समय में आहारकत्व होने पर भी बीच के समय में अनाहारक-अवस्था पाची जाती है। अर्थात् नि-विग्रहगति के मध्य में एक समय तक और वि-विग्रह गति में प्रथम तथा अन्तिम समय को छोड़, बीच के दो समय पर्यन्त अनाहारक स्थिति रहती है । व्यवहारनय का यह मत कि विग्रह की अपेक्षा अनाहारकस्य का समर एक कम ही होता है, तत्त्वार्ष-अध्याय २ के ३१वें सूत्र में तथा उसके भाष्य और टीका में निर्दिष्ट है। साथ ही टीका में ध्यबहारनय के अनुसार उपयूक्त पांच समय-परिमाण पतविग्रहवति गति के मतान्तर को लेकर तीन समय का अनाहारकस्व मी बतलाया गया है । सारांश, म्यवहारनय की अपेक्षा से तीन समय का अनाहारकत्व, चतुर्विग्रहवती गति के मतान्तर से ही घट मकता है, अन्यथा नहीं । निश्चयष्टि के अनुसार यह बात नहीं है। उसके अनुसार तो जितने विग्रह उतने ही समय अनाहारकत्व के होते हैं । अत एव उस दृष्टि के अनुसार एक विग्रहवाली वक्रगति में एक समय, दो विग्रहवाली गति में दो समय और तीन विग्रहवाली गति में तीन समय अनाहारकत्व के समझने चाहिये । यह बात दिगम्बर-प्रमिस तत्वार्थ-अ० २ के ३० सूत्र तथा उसकी सर्वाथसिद्धि और राजवासिक-ट्रीका में है।
श्वेताम्बर-ग्रन्थों में चतुर्विग्रहवती गति के मतान्तर का उल्लेख है, उसको लेकर निवस्यष्टि से विचार किया जाय तो अनाहारकत्व के चार समय भी कहे जा सकते हैं।
सारांश, श्वेताम्बरीब सस्वार्थ-माष्य आदि में एक या दो समय के अनाहारकत्व का जो उल्लेख है, वह व्यवहारष्टि से और दिगम्बरीय तत्त्वार्थ आदि ग्रन्थों में जो एक, दो या तीन समय के अनाहारकत्व का उल्लेन है, वह निश्चयष्टि से । अत एव अनाहारकत्व के काल-मान के विषय में दोनों सम्प्रदाय में वास्तविक विरोष को अवकाश ही नहीं है।
प्रसङ्ग-बा. यह बात जानने योग्य है कि पूर्व-शरीर का परित्याग, पर-मवकी आय का उदय और गति (चाहे मज हो या बक्री, ये सीनों एक समय में होते हैं । विग्रहगति के दूसरे समय में पर-भव की बायु के सदय का कथन है, सो स्थल व्यवहारनय की अपेक्षा से-पूर्व-मव का
अन्तिम समय, जिसमें जीव विग्रहगति का अभिमुख हो जाता है. उसको • उपचार से विग्रहगति का प्रथम समय मानकर-समझना चाहिये ।
-बृहत्संग्रहणा, गा० ३२५, मलयगिरि-टीका ।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
परिशिष्ट "" | पृष्ठ ८५, पति ११ के 'अवमिवन' शब्द पर
अवधिदर्शन और गुणस्थान का सम्बन्ध विचारने के समय मुख्यतया दो बातें जानने की है, (१) पक्ष-भेद और (२). उनका तात्पर्य ।
- (१) पक्ष-भेद । प्रस्तुत विषय में मुख्य दो पक्ष हैं:-क) कार्मप्रन्थिक और (ख) संद्धान्तिक ।
(क। कामंग्रन्थिक-पक्ष भी दो हैं । इनमें से पहसा पक्ष चौथे आदि नौ गुणस्थानों में अधिदान मानता है। यह पक्ष, प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ की २६वी गाथा में निर्दिष्ट है, जो पहले तीन गुणस्थानों में अज्ञान मानने वाले को कोई ना , ही सरे आदि दस गुणस्थानों में अवधिदर्शन मानता है। यह पक्ष आगे की ४८वी गाथा में तथा प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ की ७०दी ब ७१वीं गाथा में निर्दिष्ट है, जो पहले दो गुणस्थान तक अशाम माननेवाले कार्मग्रथिकों को मान्य है। ये दोनो पक्ष, गोम्मटसार जीवकान की ६९० और ७०४वीं गाथा में हैं 1- इनमें से प्रथम पक्ष, तत्स्वार्थ-अ० १के वे सूत्र की सर्वार्थ सिद्धि में भी है । वह यह है:"मषिवर्शने असंयतसम्पष्टिगानि बीचकवायाम्सामि ।"
(ब) संढान्तिक पक्ष विल्कुल भिन्न है । वह पहले आधि बारह गुणस्थानों में अवधिदर्शन मामता है । जो भगवती-सूत्रसे मालूम होता है । इस पक्ष को श्रीमलयगिरिसूरि ने पञ्चसंग्रह-बार १ की ३५वी गाथा की टीका में तथाप्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्प की २९वीं गापाको टीका में स्पष्टता से दिखाया है।
"मोहिसणसणगारोपनलागं भंते । कि नामी ममानी ? गोयमा ! गाणी वि ममापी FRI जा नाणी ते अस्गामा तिण्णाणो, अस्थगइमा बजगाणी । मे तिग्णाची, ते पाभिभिवोहियणानी सुयगाणी ओहिणाणी । मे परणागी ते मामिणियोहिममानो मुपगागी ओहिणामी मगपग्जवषाणी । ने अपाणी हे पियमा महामण्णागी मुयमबाणी विमंगनाणी ।"
मगवती-शतक ८, उद्देश २। (२)-उनका (उक्त पक्षों का) तात्पर्यः--
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कर्मग्रन्थ भाव चार
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(क) पहले तीन गुणस्थानों में अज्ञान माननेवाले औरपहले दोगुणस्थानों में अज्ञान मानने वाले दोनों प्रकार के कार्मग्रन्थिक विद्वान अवधिज्ञान से अवधिदर्शन को अलग मानते हैं, पर विभङ्गशान से नहीं, वे कहते है किविशेष अवधि उपयोग से सामान्य अवधि उपयोग भिन्न है; इसलिये जिस प्रकार अवधि-उपयोग वाले सम्यक्त्वी में अवधिज्ञान और अवधिदर्शन, दोनों अलग-अलग हैं, इसी प्रकार अवधिउपयोग वाले अज्ञानी में श्री विभङ्गज्ञान और अवधिदर्शन, ये दोनों वस्तुतः भिन्न हैं सही, तथापि विभङ्गज्ञान और अवधिदर्शन, इन दोनों के पारस्परिक भेद की अविवक्षामात्र है। भेद विवक्षित न रखने का सवच दोनों का सादयमात्र है । अर्थात् जैसे विमङ्गज्ञान विषय का यथार्थ निश्चय नहीं कर सकता, वैसे ही अवधिदर्शन सामान्यरूप होनेके कारण विषय का निश्चय नहीं कर सकता ।
इस अभेदविवक्षा के कारण पहले मत के अनुसार चौथे आदि नो गुणस्थानों में और दूसरे मत के अनुसार तीसरे आदि इस गुणस्थानों में अवधिदर्शन समझना चाहिये ।
(ख) सैद्धान्तिक विद्वान विभङ्गज्ञान और अवधिदर्शन, दोनों के भेद की विवक्षा करते हैं, अभेद की नहीं । इसी कारण वे विभङ्गशानों में अनि मानते है । उनके मत से केवल पहले गुणस्थान में विभङ्गज्ञान का संभव है, दूसरे आदि में नहीं । इसलिये वे दूसरे आदि ग्यारह गुण-स्थानों में अवधिज्ञान के साथ और पहले गुणस्थान में, विभङ्गज्ञान के साथ अवधिदर्शन का साहचर्य मानकर पहले बारह गुणस्थानों में अवधिदर्शन मानते हैं। अवधिज्ञानी के और विभङ्गशानी के दर्शन में निराकारता अंश समान ही है। इसलिये विभङ्गशानी के दर्शन की 'विभङ्गदर्शन' ऐसी अलग संज्ञा न रखकर 'अवधिदर्शन' ही संज्ञा रखी है ।
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सारांश, करमेधिक पक्ष, विभङ्गकान और अवधिदर्शन इन दोनों के भेद की त्रिवक्षा नहीं करता और सैद्धान्तिक पक्ष करता है ।
— लोकप्रकाश सर्ग ३, श्लोक १०५७ से आगे । इस मतभेदका उल्लेख विशेषणवती ग्रन्थ में श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने किया है, जिस की सूचना प्रज्ञापना- पद १८, वृत्ति पु. ( कलकत्ता ) ५६६पर है।
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कर्मग्रन्थ भाग बार परिशिष्ट "ढ" । पृष्ठ ८६, पंक्ति २. के 'आहारक' शब पर
केवलजानी के आहार पर विचार ।] तेरहवें गुणस्थान के समय आहारकत्वका अङ्गोकार यहाँके समान दिगम्बरीय ग्रन्थों में हैं। -तत्त्वार्थ- १, सू०८की सर्वार्थसिद्धि । "माहारानुवादेम आहारफेषु मिग्याइष्टिपावनि सयोगकेवल्यन्तानि"
इसी मोम्मटसार-काइदी .:. भोरी गाथा भी इसके लिये देखने योग्य है।
उक्त गणेस्थानमें असातवेदनीयका उदय भी दोनों सम्प्रदायके ग्रन्थों (दुसरा कर्मग्रन्थ, गा० २२: कर्मकाण्ड, गा. २७१)में माना हुआ है । इसो सरह उस समय आहारसंज्ञा न होनेपर मी कार्मणशरीरनामकर्म के उदय से कर्मपुदग्लोंकी तरह औदारिकशरीरनामकर्मक उदय से औदारिक-
पुलों का ग्रहण दिगम्बरीय ग्रन्थ (लब्धिसार मा ६१४)में भी स्वीकृत है । आहारकत्वकी व्याख्या गोम्मटसार में इतनी अधिक स्पष्ट है कि जिससे केवलीद्वारा औदारिक, भाषा और मनोवर्गणा के पुदगल ग्रहण किये जाने के सम्बन्ध में कुछ भी सन्देह नहीं रहता (जीव. गा० ६६३-६६४) । औदारिक पुदगलोंका निरन्तर ग्रहण भी एक प्रकारका आहार है, जो 'लो माहार' कहलाता है। इस आहारके लिये जानेतक शरीरका निर्वाह और इसके अभावमें शरीरका अनि अर्थात योग-प्रवृत्ति पर्यन्त औवारिक पूगलोंका ग्रहण अन्य व्यतिरेकसे सिद्ध है। इस तरह केवलज्ञानीमें आहारकत्व, उसका कारण असातवेदनीयका उदय और औदारिक पुद्गलों का ग्रहण, दोनों सम्प्रदायको समानरूपसे मान्य है। दोनों सम्प्रदाय की यह विचार-ममता इतनी अधिक है कि इसकेसामने कबलाहारका प्रश्न विषारसीलोंकी दृष्टि में आप ही आप हल हो जाता है।
केवलीजानी कवलाहारको ग्रहण नहीं करते, ऐसा माननेवाले भी उनकेद्राग अन्य मूक्ष्म औदारिफ पुग्लोंका ग्रहण किया जाना निर्विवाद मानते ही हैं। जिनके मतमें केवलज्ञानी कवलाहार ग्रहण करते हैं। इसके मत से वह स्थूल औदारिक पुद्ग्लके सिवाय और कुछ भी नहीं हैं । इस प्रकार कवालाहार माननेवाले-न माननेवासे उभयके मन में केबलशानी के द्वारा जिसी-न-किसी प्रकारके औदारिक पुदालों का ग्रहण किया जाना समान है। ऐसी शामें कबलाहार के प्रश्नको विरोध का साबन बनाना अर्थ-हीन है।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
परिशिष्ट ""। पृष्ठ ६६, पंक्ति २० के 'राष्टिवाद' ग्यपर-- [स्त्रीको दृष्टिवाव नामक बारहवां अङ्क पढ़नेका निषेधहै, इसपर विचार ।]
[समानता:-व्यवहार और शास्त्र, ये दोनों, शारीरिक और अध्या. त्मिक-विकासमें स्त्रीको पुरुषके समान सिद्ध करते हैं। कुमारी ताराबाईका शरीरिक-दलमें प्रो. राममूतिसेकम न होना, विदुषी ऐनी बीसेन्टका विचार व धक्तत्व-शक्तिमेंअन्य किसी विचारक वक्ता-पुरुषसे कम न होना एवं विदुपी सरोजिनी नायडका कवित्व-शक्ति में किसी प्रसिद्ध पुरुष-कविसे कम न होना, इस बात का प्रमाण है कि समान साधन और अवसर मिलनेगर स्त्री भी पुरुष जितनी योग्यता प्राप्त कर सकती हैं । श्वेताम्बर-आचार्योने *त्रीको पुरुष के बराबर योग्य मानकर उसे कैवल्य व मोक्षकी अर्थात शारीरिक और आध्यामिक पूर्ण विकास विभाग किया है। इसके लिये देखिरी, प्रज्ञापना-सू०७, पृ० १८; नन्दी-सू० २१, पृ० १३०११ ।
इस विषयमें मत-भेद रखने वाले दिनम्बर-आचार्यों के विपयमें उन्होंने बहुत-कुछ लिखा है। इसलिये देखिये, नन्दी-टीका, पृ०१३१/१-१३३/१; प्रज्ञापना-टीका, २०-२२/१; प. शास्त्रवासिमुच्चय-टीका, पृ०४२५-४३०।
___ आलङ्कारिक पण्डित राजोखरने मध्यस्थ भावपूर्वक स्त्रीजातिको पुरुप जातिके तुल्य बतलाश है,
"पुरुषषत् योषितोऽपि कविमवेयुः । संस्कारो हात्मनि समति न स्त्रणं पौरुषं पा विभागमपेक्षते । भूपन्ने सपने ब. राजपुग्यो महामात्यदुहितरी गणिकाः कौतुकिभार्याश्च शास्त्रप्रतियुद्धाः कवयश्च ।"
-काव्यमीमांसा-अध्याय १० । विरोध:-स्त्रीको दृष्टिवादवे अध्ययनका जो निषेध किया है, इसमें दो तरहसे बिगेव आता है:-(१)तर्क-दृष्टि से और (२) शास्त्रोक्त मर्यादासे ।
(१!-एक और स्त्रीको केवलज्ञानं व मोक्ष तककी अधिकारिणो मानना और दूसरी ओर उसे दृष्टियादके अध्ययन केलिमे-श्रुतज्ञान-विदोषके लियेअयोग्य बतलाना, ऐसा विरुद्ध जान पड़ता है, जैसे किसी को रत्न सौंपकर कहना कि तुम कौड़ी की रक्षा नहीं कर सकते।
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१५०/
कर्म ग्रन्थ भाग चार (२) - दृष्टिवाद के अध्ययनका निषेध करनेसे शास्त्र कथित कार्य-कारण भावकी मर्यादा भी बाधित हो जाती है । जैसे:-पहले पाच प्राप्त किये बिना केवलज्ञान प्राप्त नहीं होता; पूर्व के ज्ञानके बिना शुल्कध्यानके प्रथम दो पद प्राप्त नहीं होते और 'पूर्व' दृष्टिवादका एक हिस्सा है । यह मर्यादा शास्त्रमें निर्विवाद स्वीकृत है ।
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"शुल्के व पूर्वविदः ।
तत्वार्थ अ० ६, सू० ३६ । इस कारण दृष्टिवादके अध्ययनकी अनधिकारिणी स्त्री को केवलमान की अधिकारिणी मान लेना स्पष्ट विरुद्ध जान पड़ता है ।
दृष्टिवाद के अनाधिकार के कारणोंके विषय में दो पक्ष हैं:
(क) पहला पक्ष, श्रीजिनभद्रमणि क्षमाश्रमण आदिका है। इस पक्ष में स्त्री तुच्छ, अभिमान, इन्द्रिय चाञ्चल्य, मति-मान्य आदि मानसिक दोष दिखाकर उसको दृष्टिवादके अध्ययनका निषेध दिया है। इसके लिये "देखिये, विशे० भा०, ५५२वीं गाथा ।
(ख) दूसरा पक्ष, श्रीभद्रसूरि आदिका है। इस पक्ष में अशुद्धिरूप शारीरिक दोष दिखाकर उसका निषेध किया है। थथा:
कथं द्वादशाङ्गप्रतिषेषः ? तथाविषविप्र तसो दोवात् ।” 'ललितविस्तरा, पु०, '' [नयष्टि से विरोधका परिहार:- ]रष्टिवादके अनधिकारसे स्त्रीको केवलज्ञानके पाने में जो कार्य-कारण- भावका विशेष दीखता है वह वस्तुतः विरोध नहीं है; क्योंकि शास्त्र, स्त्रीमें दृष्टिवादके अर्थ शानकी योग्यता मानता है; निषेध सिर्फ शाब्दिक अध्ययनका है ।
श्रेणिपति तु कामगर्भवद्भावतो भावोऽद्धि एवं ।"
- अतिविस्तरा तथा इसकी श्रीमुनिचन्द्रसूरि-कृत पञ्जिका, पु० १११ । तप भावना आदि जब ज्ञानावरणीयका क्षयोपशम तीव्र हो जाता है, तब स्त्री शाब्दिक अध्ययन के सिवाय ही दृष्टिवादका सम्पूर्ण अर्थ-ज्ञान कर लेती है और शुल्कध्यानके दो पाद पाकर केवलमानको भी पा लेती है"यदि च 'शास्त्रयोगागम्यसामय्यं योगः वसेय माध्दतिसूक्ष्मेण् विशिष्टक्षयोपशमप्रभमप्रभदियोगता पूर्वधरस्यैव बोवातरिकेसद्भावा
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कर्मग्रन्थ भाग चार दानशुल्कध्यानहय प्राप्तः केवलावाप्ति क्रमेण मुक्तिप्राप्तिरिति न दोषः,अपयनमन्तरेणापि भावतः पूर्ववित्वसं भवात्, इति विभाथ्यते. तदा निग्रन्थीनाप्रमेव विसयसंमचे दोषाभाया !
-शास्त्रवा० ४२६ । - मह नियम नहीं है कि गुरु-मुख से शाब्दिक-आध्ययन बिना किये अर्थशान न हो । अनेक लोग ऐसे देखे जाते हैं, जो किसी से बिना पने ही मनन चिन्तन द्वारा अपने अभीष्ट विषयका गहरा ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं।
___ अब रहा शाब्दिक-अध्ययनका निषेध, सो इसपर अनेक तर्क-वितर्क उत्पन्न होते हैं। यषा-जिसमें अर्थ-ज्ञानकी योग्यता मान ली जाय, उसको सिर्फ शाब्दिक-अध्ययनके लिये अयोग्य बतलाना क्या संगत है? शब्द, अर्थशानका साधनमात्र है। तप, भावना आदि अन्य साधनोंसे जो अर्थ-ज्ञान संपादन कर सकता है, वह उस ज्ञान को शब्द द्वारा संपादन करने के लिय अयोग्य है, यह कहना कहांतक संगत है? शारिदका अध्ययन के निषेत्रनिता तुच्छत्व अभिमान आदि जो मानसिक-दोष दिखाये जाते हैं, वे क्या पुरुष नानिमें नहीं होते? यदि विशिष्ट पुरुषों में उक्त दोषों का अभाव होने के कारण पुरुष सामान्यकेलिये शाब्दिक-अध्ययनका निषेध नहीं किया है तो क्या पुरुष तुल्य विशिष्ट स्त्रियोंका संभव नहीं है? यदि असंभव होता तो स्त्रीमोक्षका वर्णन क्यों किया आता? शामिदक-अध्ययन के लिये जो शारीरिक-दोषींकी संभावना की गयी है, वह भी क्या सब स्त्रियों को लागू पड़ती है? यदि कुछ स्त्रियों को लाग् पड़ती है तो क्या कुछ पुरुषों में भी शारीरिक-अशुद्धिकी संभावना नहीं है। ऐसी दशामें पुरुषजातिको छोड़ स्त्रीजाति के लिये शाब्दिकअध्ययनका निषेध मिस अभिप्रायसे किया है? इन तकोंके सम्बन्धमें संक्षेपमें इतना ही कहना है कि मानसिक या शारीरिक-दोष दिखाकर शाब्दिकअध्ययनका जो निषेष दिया गया है. यह प्रयिक जान पड़ता है, अपति विशिष्ट स्त्रियों के लिये अध्ययनका निषेध नहीं है। इसके समर्थन में यह कहा जा सकता है कि जब विशिष्ट स्त्रियां, ष्टि-वादका अर्थ-जान, दीतरागमाव, केवलज्ञान और मोक्ष तक पाने में समर्थ हो सकती हैं, तो फिर उनमें मानसिवदोषोंकी संभावना ही क्या है? तथा वद्ध अप्रमत्त और परमपवित्र आचारवाली स्त्रियों में शारीरिक अशुद्धि कैसे बतलायी जा सकती है। जिनको दृष्टिवादके अध्ययन के लिये योग्य समझा जाता है. वे पुरुष भी, जैसे:स्थूलभद्र, दुबंलिका पुष्यमित्र आदि नुम्छत्व; स्मृति-दोष आदि कारणों से रष्टिवादकी रक्षा न कर सके।
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कर्मरम्प भाग चार "तेग चितियं भोगणोणं दिस वरिसे मित्ति सीहरूषं मिउम्बई।"
-आवश्यक वृत्ति,प०६६८/१ । "सतो शरिपरि दुलियपूरसमित्तो हम सायनारियो दिण्णो, ततो सो कईवि विवसे वायणं दमण आयरियमुवदिती भगइमम बायणं वेतस्स नासति, मंच सण्णायघरे नाणुरहिय, अतो मम अरंतस्स नवमं पुग्वं नासिहित, ताहे आपरिया चिति-जइ ताक एयरस परमहाविस्स एवं सरंतस्स नासह अन्नस्स मिरन वेष ।"
आवश्मफवत्ति, १० ३०८ । ऐसी वस्तु-स्थिति होने पर भी स्त्रियोंको ही अध्ययनका निषेध क्यों किया गया? इस प्रपनका उत र दो तरह से विधा जा सकता है:-१) ममान मामग्री मिलने पर भी पुरुषों के मुकाबिलेमें स्त्रियोंका कम संख्यामें योग्य होना और (२) ऐतिहासिक-परिस्थति ।
(१)-जिन पश्चिमीय देशोंमें स्त्रियों को पढ़ने आदिकी सामग्री पुरुषों के समान प्राप्त होती है, वहांका इतिहास देखनेसे यही जान पड़ता है कि स्त्रियां पुरुषोंके तुल्य हो सकती हैं सही, पर योग्य व्यक्तियोंकी संस्था, स्त्री जाति की अपेक्षा पुरुष जाति में अधिक पायी जाती है।
(२)-कुदकुन्द-आचार्य सरीखे प्रतिपादक दिगम्बर-आचार्गाने स्त्री जातिको शारीरिक और मानसिक-दोषके कारण दीक्षा तकके लिये अयोग्य ठहराया।
सिंगम्मि यरपोणं, पणतरे पाहिकाखदेसम्म । मगियो सुहमो कानो, तासं कह हो पयज्मा ॥"
षट्पाहुइ-सूत्रपाहृष्ट गा० २४-२५ और वैदिक विद्वानोंने शारीरिका-शुद्धि को अग्र-स्थान देकर स्त्री और। शुद्र जातिको सामान्यतः वाध्ययन के लिये अनधिकारी यतलाया:"स्त्रीशूको नापीयरता"
इन विपक्षी सम्प्रदायोंका इतना असर पड़ा कि उससे प्रभावित होकर पुरुषजातिके समान स्त्रीजातिको योग्यता मानते हुए भी वेताम्बर-आचार्य उसे विदोष-अध्ययन के लिये अपोग्य बतलाने लगे होंगे।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
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ग्यारह अङ्ग आदि पढ़ने का अधिकार मानते हुए भी सिर्फ बारहवें अङ्ग निषेध का सबब वह भी जान पड़ता है कि दृष्टिवादका व्यवहार में महत्व बना रहे । उस समय विशेषतया शारीरिक शुद्धिपूर्वक पढ़ने में वेद आदि ग्रन्थोंकी महत्ता समझी जाती थी । ष्ट्रा इसलिये व्यवहारदृष्टिसे उसकी महता रखनेकेलिये अन्य बड़े पड़ोसी समाज का अनुकरण कर लेना स्वाभाविक है। इस कारण पारमार्थिक इष्टि से स्त्री को संपूर्णतया योग्य मानते हुए भी आचार्योंने व्यवहारकिदृष्टिसे शारीरिकअशुद्धिका खयालकर उसको शाब्दिक अध्ययनमात्रके लिये अयोग्य बतलाया होगा।
भगवान् गौतमबुद्धने स्त्रीजातिको भिक्षुपद के लिये अयोग्य निर्धारित किया था परन्तु भगवान् महावीरने तो प्रथम से ही उसको पुरुषके समान मिक्षुपदकी अधिकारिणी निश्चित किया था । इसी से जनशासन में चतुविध सङ्घ प्रथमसे ही स्थापित है और साधु तथा श्रावकों की अपेक्षा साध्वियों तथा श्राविकाओं की संख्या आरम्भ से ही अधिक रही है परन्तु अपने प्रधान शिष्य "आनन्द के आग्रह बुद्ध भगवान्ने जब स्त्रियोंको भिक्षु पद दिया, तब उनकी संख्या धीरे-धीरे बहुत बड़ी और कुछ शताब्दियों के बाद अशिक्षा कुप्रबन्ध आदि कई कारणों से उनमें बहुत कुछ आचार भ्रंश हुआ, जिससे कि बौद्ध-मष एक तरह से दूषित समझा जाने लगा। सम्भव है। इस परिस्थितिका जैन-सम्प्रदायपर मौ कुछ असर पड़ा हो, जिससे दिगम्बर-आछाने तो स्त्रीको भिक्षुपदके लिये ही अयोग्य कर दिया हो और श्वेताम्बर आचार्योंने ऐसा न करके स्त्रीजातिका उच्च अधिकार कायम रखते हुए भी दुर्बलता, इन्द्रिय-चपलता आदि दोषोंको उस जाति में विशेषरूप से दिखाया हो; क्योंकि सहचर-समाजोंके व्यवहारोंका एक दूसरेपर प्रभाव पड़ना अनिचार्य है।
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कर्मग्रन्थ भाग चार परिशिष्ट "थ"। - पाठ १०१, पक्ति १२के 'भावार्थ परइस जगह चक्षुर्दर्शनमें तेरह योग माने गये हैं, पर श्रीमलयगिरिजीने उसमें ग्यारह पोग बतलाये हैं। कार्मण, औदारिवामित्र, वैत्रियभिश्न और. आहारकमिध, चार योग छोड़ दिये हैं।
-पश्चा० १ की १२वी गाथाकी टीका। ग्यारह माननेका तात्पर्य यह है कि जैसे अपरित-अवस्थामें चक्षदर्शन न होनेमे उममें कार्मण और औदारिकभिश्र, ये दो अपर्याप्त-अवस्था-भावी योग नहीं होते, वैसे ही क्रियमित्र या आहारकमिश्न-काययोग रहता है, तब तक अर्थात् वैक्रियशरीर या आहारकशरीर अपूर्ण हो तब तक चक्षुर्दशन नहीं होता,इसलिये उसमें वक्रियमिश्र और आहारकमिथ-योग भी न माननेचाहिये। . इसपर यह शङ्का हो सकती है कि अपर्याप्त-अवस्था में इन्द्रिमप्राप्ति पूर्ण बन जानेके बाद १७वीं गाया में उल्लिखित मतान्तर के अनुसार यदि चक्षुदर्शन मान लिया जाय तो उसमें जौदारिवामिश्चकाययोग, जो कि अपपर्याप्त-अवस्था-भावी है, उरा का अभाव कैसे माना जा सकता है।
इस शसाका समाधान यह किया जा सकता है कि पञ्चमंग्रहमें एक ऐमा मतान्तर है, जो कि अपर्याप्त-अवस्थामें शरीरपर्याप्त पूर्ण न बन जाये तब तब मिधयोग मामना है, बन जाने के बाद नहीं मानता । पंञ्चद्वा० १की ७वी गाथा की टीका। इस मत के अनुसार अपर्याप्त अवस्थामें जब पक्षुदर्शन होता है तब मिश्रयोग न होनेके कारण चक्षुर्दर्शन में औदारिकमिश्रकाययोगका वर्जन विरुद्ध नहीं है।
इस जगह मनःपर्याय ज्ञानमें तेरह योग माने हए हैं, जिनमें आहारक द्विकका समावेश है। पर गोम्मटमार-कर्मकाण्ड यह नहीं मानता; क्योंकि, उसमें लिखा है कि परिहारविशुद्ध चारित्र और मन:पर्यायज्ञानके समय आहारकशरीर तथा आहारका-अङ्गोपाङ्गनामकर्मका उदय नहीं होता ...कर्मकाण्ड गा० ३२४ । जब तक आहारका-द्विकका उदय ने हो, तब तक आहारकशरीर रन नहीं जा सकता और उसकी रचनाके सिवाय आहारकमिश्र और आहारक, ये दो योग अगम्भन है। इससे सिद्ध है कि पोम्मटसार मनःपर्यायज्ञानमें दो आहारकयोग महीमानता, इसी बासकी पुष्टि जीवकाण्डकी ७२८वीं गाथासे भी होती है । उमका मतलब इतना ही है कि मनःपर्यायज्ञान, परिहा रविशुद्धसंयम प्रथमोशमसम्यक्रन और आहार कद्विक, इन भावों में से किसी एफके प्राप्त होनेपर शेष भाव प्राप्त नहीं होते !
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कर्मग्रन्थ भाग चार
१४.
परिशिष्ट "६"। पु०.१०४, पंक्ति के 'केवलिसमुसात' वाच पर-- [फेलिसमुद्धात के सम्बन्धको कुछ बातोंका विचार:--]
(क) पूर्वभावी क्रिया-केवनिसमुद्धात रचनेके पहले एक विशेष क्रिया की जाती है, जो शुभयोगरूप है, जिसकी स्थिति अन्तर्मुहूत्त प्रमाण है और जिसका कार्य उदयालिका में कर्मदालकोंका निक्षेप करना है। इस क्रियाविशेषको 'आमोजिककाकरण' कहते हैं । मोक्षकी ओर आवजित (झुके हुए) आत्माकद्वारा किये जानके कारण इसको 'आवभितकरण' कहते हैं । और सब केवलज्ञानियोंक द्वारा अवश्य किये जाने के कारण इसको 'आवश्पककरण भी कहते हैं । श्वेताम्बर-साहित्ममें आयोजिकाकरण आदि तीनों संज्ञायें प्रसिद्ध हैं।-बिशे. आ०, गा० ३०५०, ५५; तथा पञ्च द्वा० १. गा०१६ की टीका।
दिगम्बर-साहित्यमें सिर्फ 'आवजितकरण' संज्ञा प्रसिद्ध है । लक्षण भी उसमें स्पष्ट है
"हेडा वंहस्संतो'-मुहत्तमानस्जि हवे करणं । तं च समुग्धावस्य य, अहिमुहमावो जिणिवस्स ।'
-लब्धिसार, गा० ११७ । स्त्र ) वे वलिागुतालका प्रयोजन और विधान-समय:
जब वेदनीय आदि अधातिव की स्थिति तथा दलिक, आयुकर्मकी स्थिति तथा दलिय से अधिक हों तद उनको आपसमें बराबर करने के लिये केवलिस मुद्धात करना पड़ता है । इसका विधान, अन्तर्मुहूर्त -प्रमाण आयु बाकी रहने के समय होता है।
(ग) स्वामी--- केवलज्ञानी ही केवलि समुद्धातका रचते हैं। (घ) काल-मान-कैलिसमुद्धातका काल-मान आठ समयका है।
(ड) प्रक्रिया-प्रथ पमय में आत्माक प्रदेशोंको शरीरसे बाहर . निकालकर फैला दिया जाता है । उस समय उनका आकार, दण्ड जैसा बनता है । आत्मप्रदेशोंका यह दण्ड, ऊँचाई में लोकक ऊपर से नीचे तक,
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१५४
कर्मग्रन्थ भाग चार
अर्थात् चौदह रज्जु-परिमाण होता है, परन्तु उसकी मोटाई सिर्फ शरीरक बराबर होती है । दूसरे समयमें उक्त दण्डको पूर्व-पविश्वम या उत्तर दक्षिण फैलाकर उसका आकार, कपाट ( किवाड जैसा बनाया जाता है 1 तीसरे समयमें कपाटकर आत्म- प्रदेशोंको मन्याकार बनाया जाता है, अर्थात् पूर्वपश्चिम, उत्तर-दक्षिण. दोनों तरफ फैलाने से उनका बाकार रई ( मथनी ) का सा बन जाता है । चौधे समय में विदिशाओं के खाली भागोंको आरम प्रदेशोंसे पूर्ण करके उनसे सम्पूर्ण लोकको व्याप्त किया जाता है | पांचवें समय में आत्माके लोक-व्यापी प्रदेशों को सहरण क्रिया द्वारा फिर मन्याकार बनाया जाता है। छठे समय में भन्याकारसे कपाटाकार बना लिया जाता है। सातवें समय में आत्म-प्रदेश फिर दण्डरूप बनाये जाते हैं और आठवें समय में उनको असली स्थिति में - शरीरस्थ किया जाता है । (च) जैन- दृष्टिके अनुसार आत्म व्यापकता को सङ्गतिः - उपनिषद् भगवद्गीता आदि ग्रन्थोंमें आत्मा की व्यापकताका वर्णन किया है। "विश्वचसुरत विश्वतोमुलो विश्वतो बहुत विश्वतस्य ।" - श्वेताश्वतरोपनिषद् ३-३, ११-१५
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सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽभिमुखं ।
सर्वत श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥" - भगवद्गीता, १३ १३ । जैन-दष्टि के अनुसार यह वर्णन अर्थवाद है, अर्थात् आत्माकी महता व प्रशशाका सूचक है । इस अर्थवादका आधार केवलिमुद्धात के चौथे समय में आमाका लोक-व्यापी बनना हैं । यहीं बात उपाध्याय श्रीयशोविजयजी ने शास्त्र वार्ता समुच्चयके ३३५ वें पृष्ठपर निर्दिष्ट की है।
जैसे वेदनीय आदि कमको शीघ्र भोगने के लिये समुद्धात क्रिया मानी जाती है, वैसे ही पातञ्जल योगदर्शन में 'बहुकाय निर्माणक्रिया' मानी है, जिसको तस्वसाक्षात्कर्त्ता योगी, सोपक्रम - कर्म शीघ्र भोगने के लिये करता है। -पाद ३, सू० २२का भाष्य तथा वृत्ति; पाद ४, सूत्र ४का भाष्य तथा वृत्ति ।
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कर्मग्रन्य भाग चार
परिशिष्ट "" ! १० ११७, पंक्ति १८के 'काल' शब्दपर--
"काल के सम्बन्धमें जैन और वैदिक, दोनों दर्शनों में करीब ढाई हजार वर्ष पहलेसे दो पक्ष चले आते हैं। श्वेताम्बर-ग्रन्थों में दोनों पक्ष वर्णित हैं । दिगम्बर-ग्रन्थों में एक ही पक्ष नजर आता है।
[१) पहला पक्ष, कालको स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानता । वह मानता है कि जीव और अजीव-द्रव्यका पर्याय-प्रवाह ही 'काल' है । इस पक्ष के अनुसार जीवाजीव-न ट्यका पर्याय-परिणमन ही उपचारसे काल माना जाता है। इसलिये वस्तुतः जीव और अजीयको ही काल-द्रव्य समझना चाहिये वह उनसे अलग तत्त्व नहीं है। यह पक्ष ‘जी गाभिन आदि में है।
__ आगमके बादके ग्रन्थोंमें, जैसे:-तत्त्वार्थसूत्र में वाचक' उमास्वातिने हात्रिशिकामे श्री सिद्धसेन दिवाकरने, विशेषावश्यक-माध्वमें श्रीजिनभद्रगणि समाश्रमणने, धर्मसंग्रहणी में श्रीहरिभद्र मूरिने, योगशास्त्र में, श्रीहेमचन्द्रसूरिने द्रव्य-गुण-पर्यायके रास में थी उपाध्याय प्रशोविजयजीने, लोकप्रकाश में श्रीविनयविजयजी ने और नयचक्रसार तथा आगमसारमें थीदवचन्द्रजीने आगम-गत उक्त दोनों पक्षोंका उल्लेख किया है। दिगम्बर सम्प्रदाय में सिर्फ दूसरे पक्षका स्वीकार है, जो सबसे पहिले बीकुन्दकुन्दाचार्यके ग्रन्थों मे मिलता है । इसके बाद पूज्यपादस्वामी. भट्टारक श्रीअकल देव, विद्यानन्दस्वामी, नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती और बनारसीदास आदिने भी उस एक ही पक्षका उल्लेख किया है।
पहले 'पक्षका तात्पर्यः---पहला पक्ष कहता है कि समय, आवलिका, मुईत, दिन-रात आदि जो व्यवहार, काल-साध्य बतलाये जाते हैं या नवी. नता-पुगणता, जोष्टता कनिष्ठता आदि जो अवस्थाएँ, काल-साध्य बतलायी जाती हैं, वे सब क्रिया-विशेष (पर्याय-विशेष) के ही संकेत हैं । जैसे:जीब मा अजीवका जो पर्याय, अविभाज्य है, अर्थात् बुद्धिसे भी जिकसा दूसरा हिस्सा नहीं हो सकता, उस आखिरी अतिसूक्ष्म पर्यायको 'समय'
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कर्मग्रम्य भाग चार
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कहते हैं। ऐसे असंख्यात पर्यायकि पुञ्जको 'भावलिका' कहते है । अनेक बालिकाओं को मुर्हत और तीस मुर्हत को दिन रात' कहते हैं। दो पर्यायों मैंसे जो पहले हुआ हो, वह 'पुराण' और जो पीछेसे हुआ हो, वह 'नवीन' कहलाता है दो जीवधारियोंमें से जो पीछे से जनमा हो, वह 'कनिष्ट' और जो पहिले जनमा हो, वह 'ज्येष्ठ' कहलाता है । इस प्रकार विचार करने से यही जान पड़ता है कि समय आवलिका आदि सब व्यवहार और नवीनता आदि सब व्यवहार और नवीनता आदि मंत्र अवस्थाएँ, विशेष विशेष प्रकार के प्रयायों को ही अर्थात् निविभाग पर्याय और उनके छोटे-बड़े बुद्धि-कल्पित समूहों के ही संकेत है। पर्याय, यह जीव अजीवको किया है, जो किसी तत्त्वान्तरकी प्रेरणाके सिवाय ही हुआ करती हैं । अर्थात् जीव अजीब दोनों अपने-अपने गर्भावरूपमें अ.प ही फिर उमा करते हैं वस्तुतः जीव अजीव पर्याय पुञ्जको हो काल कहना चाहिये | काल कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है ।
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दूसरे पक्ष का तात्प - जिम प्रकार जीव-पुद्ग्ल में गति स्थिति करने का स्वभाव होनेपर भी उस कार्य के लिये विभिनकारणरूपसे धर्म-अस्तिकाय तत्त्व माने जाते हैं। इसी प्रकार जीव अजीव पर्याय परिणमनक) स्वभाव होनेपर भी उसके लिये निमित्तकारणरूपसे काल-द्रव्य मानना चाहिये । यदि निमित्तकारणरूपसे काल न माना जाय तो धर्म अस्तिकाय और अधर्मअस्तिकाय मानने में बोई युक्ति नहीं ।
दूसरे पक्ष में मत भेदः --- कालको स्वतन्त्र द्रव्य माननेवालोंमें भा उसके स्वरूप के सम्बन्ध में दो मत हैं ।
(१) कालद्रव्य, मनुष्य-क्षेत्रमात्र में ज्योतिष चक्र के गति क्षेत्र में वर्तमान है 1 वह मनुष्य-क्षेत्र प्रभाग होकर भी सम्पूर्ण लोकके परिवर्तनोंका निमित्त बनता है । काल, अपना कार्य, ज्योतिष चक्रको गतिकी मदद करता है । इसलिये मनुष्य क्षेत्र से बाहर कालद्रव्य न माननार उसे मनुष्य-क्षेत्र - प्रमाण ही मानना युक्त है। यह मत धर्मग्रहणी आदि श्वेताम्बर पन्थों में है !
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कर्मग्रन्थ भाग चार
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(२) कालद्रव्य, मनुष्य क्षेत्रमात्र नहीं है किन्तु का है। वह लोक व्यापी होकर भी धर्म-अस्तिकायकी तरह स्कन्ध नहीं है; किन्तु अणुरूप है। इसके अणुओंकी संख्या लोकाकाठमके प्रदेशों से बराबर है । वे अणु गतिहीन होनेसे जहाँ तहाँ अर्थात् लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर स्थित रहते हैं इनका कोई स्कन्ध नहीं बनता। इस कारण इनमें तिर्यक प्रचल ( स्कन्ध होनेकी शक्ति नहीं है । इसी सबब से कालद्रव्यको अस्तिकायमें नहीं गिना है । तिर्यक प्रचय न होनेपर भी ऊर्ध्व प्रचय है । इससे प्रत्येक काल - अणु में लगातार पर्याय हुआ करते हैं। ये ही पर्याय समय' कहलाते हैं। एक-एक काल-अणुके अनन्त समय पर्याय समझने चाहिये । समय- पर्याय ही अन्य द्रव्योंके प्रयायोंका निमित्तकारण है। नवीनसा-पुराणता जयेष्ठता- कनिष्ठता आदि सब अवस्थाएँ, काल अणुके समय प्रवाह की बदौलत ही समझनी सहिये। पुद्ग्ल-परमाणुको लोक आकास के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक मन्दगतिसे जाने में जितनी देर होती है, उतनी देर में काल अणुका एक समय-पर्याय व्यक्त होता है । अर्थात् समय-पर्याय और एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तककी परमाणुकी मन्द गति, इन दोनों का परिमाण बराबर है । यह मन्तव्य दिगम्बरोंमें हैं ।
वस्तुस्थिति क्या है: - निश्चय दृष्टि से देखा जाए तो कालको अलग द्रव्य माननेकी को कोई जरूरत नहीं है। उसे जीवजीवके पर्यायरूप मानने से ही सब कार्य व सव व्यवहार उपपन्न हो जाते हैं। इसलिये यही पक्ष, तात्त्विक है, अन्य पक्ष, व्यावहारिक व औपचारिक हैं । कालको मनुष्य क्षेत्र प्रमाण माननेका पक्ष स्थूल लोक व्यवहारपर निर्भर है। और उसे अणुरूप माननेका पक्ष औपचारिक है, ऐसा स्वीकार न किया जाय तो यह प्रश्न होता है कि जब मनुष्य क्षेत्र से बाहर भी नवत्त्व पुराणत्व आदि माव होते हैं, तब फिर कालको मनुष्य क्षेत्र में ही कैसे माना जा सकता है? दूसरे यह मानने में क्या युक्ति है कि काल, ज्योतिष चक्के संचारको अपेक्षा रखता है ? यदि अपेक्षा रखता भी हो तो क्या वह लोक-व्यापी होकर ज्योतिषचक्र संचारकी मदद नहीं ले सकता ? इसलिये उसको मनुष्य क्षेत्र प्रमाण मानने की कल्पना, स्थूल लोक व्यवहारपर निर्भर है— कालको अनुरूप मानने की कल्पना औपचारिक है। प्रत्येक पुद्ग्ल- परमाणुको ही उपचार से
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काला रामझना चाहिये और कालाशुके अप्रदेशत्व तरह कर लेनी चाहिये ।
कर्म ग्रन्थ भाग चार
कथनको सङ्गति इसी
ऐसा न मानकर कालाणुको स्वतन्त्र माननेमें प्रश्न यह होता है कि यदि काल स्वतन्त्र द्रव्य माना जाता है तो फिर वह धर्म-अस्तिकायकी तरह स्कन्धरूप क्यों नहीं माना जाता है ? इसके सिवाय एक यह भी प्रश्न है कि जीव अजीव पर्याय में तो निमित्तकरण समय पर्याय है। पर समयपर्याय में निमित्तकारण क्या है ? यदि वह स्वाभाविक होनेसे अन्य निमित्त की अपेक्षा नहीं रखता तो फिर जीव-अजीव पर्याय भी स्वाभाविक क्यों माने जायँ ? यदि रामय-पर्याय वास्ते अन्य निमित्तकी कल्पना की जाय तो अनवस्था आती है। इसलिये अणु- पक्षको औपचारिक मानना ही ठीक है। वैदिक दर्शन में कालका स्वरूपः वैदिकदर्शनों में भी कालके सम्बन्ध में मुख्य दो पक्ष हैं । वैशेषिक दर्शन - अ० २ ० २, मूत्र ६– १० तथा न्यायदर्शन, कालको सर्व व्यापी स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं । सांख्य-अ ०२, सूत्र १२ योग तथा वेदान्त आदि दर्शन-कालको स्वतन्त्र द्रव्य न मानकर उसे प्रकृति-पुरुष ( जड़-चेतन) का ही रूप मानते हैं । यह दूसरा पक्ष, निश्चय दष्टि-मूलक है और पहला पक्ष व्यवहार मूलक |
जैन दर्शन में जिसको 'समय' और दर्शनान्तरोंमें जिसको 'क्षण' कहा है। उसका स्वरूप जानने के लिये तथा 'काल' नामक कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, वह केवल लौकिक दृष्टिवानोंकी व्यववहार निर्वाहके लिये क्षनानुक्रम के विषय में की हुई कल्पनामात्र है। इस बात को स्पष्ट समझने के लिये योगदर्शन पा० ३ ० ५२० भाध्य देखना चाहिये। उक्त भाष्य में कालसंबन्धी
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जो विचार है, वही निश्चय-दृष्टि-मूलक; अत एव तात्विक जान पड़ता है। विज्ञानकी सम्मतिः- :- अ ज कल विज्ञानकी गति सस्य दिशाकी ओर | इसलिये काल-मभ्बन्धी विचारोंको उस दृष्टि के अनुसार भी देखना चाहिये । वैज्ञानिक लोग भी कालको दिशा की तरह काल्पनिक मानते हैं, वास्तविक नहीं |
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अत सब तरह से विचार करनेपर यही निश्चय होता है कि कालको अलग स्वतन्त्र द्वन्य माननेमें छतर प्रमाण नहीं है ।
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वनाथ नग च।
(३)-गण स्थानाधिकार ।।
(१)- गणस्थानो में विस्थान' । सम्वजियठाण मिच्छे. सग सासणि पण आज्ज सन्निदुर्ग ।
संमे सन्नी दुबिहो. सेसेसु संपज्जत्तो ।। ४५ ।। सर्वाणि जीवस्थानानि मिथ्या ये..प्स मासादनं पनापर्याप्ताः सज्ञिनिकम् । राम्पत्ये शो द्विविधः, शेपेष जिपर्याप्त; || ४५ ।।
अर्थ- मिथ्यात्वगुण स्थान में सब जीस्थान हैं । सासावन में पांच अपर्याप्त । बाबर एफस्त्रिय, द्वात्रिय, त्रीन्द्रिघ, चतुरिन्द्रिय और असजि-पञ्चेन्द्रिय तथा दो संज्ञी । अपति और पर्याप्त कुल सात जोवस्थान हैं । अविरतसम्यपिट गुणस्थान में वो सजी ( अपर्याप्त और पर्याप्त | जीवस्थान हैं । उक्त सोम के सिवाय शेष ग्यारह गुणस्थानों में पर्याप्त संनोजीवस्यान है ।। ४५ ॥
१- गुणस्थान में जवस्थान वा जो विचार यहाँ है, गोम्मटगार में उससे भिन्न प्रकार का है । उसमें दूसरे, छठे और तेरहवें गुणस्थान में अपर्याप्त संज्ञी, ये दो जीनस्थान माने गए हैं। - जीव०, गा० ६६८ |
गोम्मटसार का यह वर्णन, अपेक्षाकृत है । कर्मकाण्ड की ११३वीं गाथा में अपर्याप्त एकेन्द्रिय, दीन्द्रिय आदि को दूसरे गणस्थान का अधिकारी मानकर उनको जीवाड़ में पहले गुणस्थानमात्र का अधिकारी कहा है; सो द्वितीय गणस्थानवती अपर्याप्त एकेन्द्रिय आदि जीवों की अल्पता की अपेक्षा से । छठे गुणस्थान के अधिकारी को अपर्याप्त कहा है। सो आहारकमिश्नकाययोग की अपेक्षा से। -जीवकाण्ड, गा० १२६ ।
तेरहवें गुणस्थान के अधिकारी मयोगी के चली को अपर्याप्त कहा है, शो योग की अपूर्णता की अपेक्षा से । -जीवकाण्ड, गा० १२५ ।
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अपंगाध माग मार
भाषा - एकेन्द्रियादि सब प्रकार से संसारी जीव मित्यावी पाये जाते हैं। इसलिये पहले गुणस्थान में सब जोवस्थान कहे गये हैं।
दुसरे गणस्थान में सात जीवस्थान ऊपर कहे गये हैं, उनमें छह अपर्याप्त हैं, जो सभी करण-अपर्याप्त समझने चाहिये, क्योंकि लविध-अपर्याप्त जीय, पहले गुणस्थानघाले ही होते हैं।
चौथे गुणस्थान में अपर्याप्त संजी कहे गये हैं, सो भी उक्त कारगसे करण-अपर्याप्त हो समझने चाहिये।
पर्याप्त संज्ञी के सिवाय अन्य किसी प्रकार के जीव में ऐसे परिणाम नहीं होते, जिनसे वे पहले, दूसरे और चौथ को छोड़कर शेष ग्यारह गुणस्थानों को पा सके । इसीलिये इन ग्यारह गुणस्थानों में केवल पर्याप्त संजी जीवस्थान माना गया है ।। ४५ ।।
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कर्मनन्थ मार चार
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(2)-गुणवानों में योश' ।
[ दो माथाओं से ]
मिश्छदुगअजइ जोगा,-हारगृणा अपुग्वपणगे उ । मवइ जरलं सबिउं.-स्वमीसि सविउवद्ग देसे ॥४६॥
मिथ्यात्वविकायते योगा, आहारकद्विकोना अपूर्वपञ्चके तु ।
मनावच औदारिकं सर्वक्रिम मिश्रे सर्वकिद्विक दशे ।। ४६ ।। ___ अर्थ- मिथ्यात्व, सासायन और अविरतसम्याष्टिगुणस्थाममें आहारक-दिक को छोड़कर तेरह योग हैं । अपूर्वकरण से लेकर पांच गुणस्थानो मे चार मन के, चार वचन के और एक औवारिक, ये नौ योग हैं । मिश्रगणस्थान में उक्त नौ तथा एक वैश्यि, ये इस योग है । देशविरतगणस्थाम में उपत नौ तथा वैकिप-द्विक, कुल ग्यारह योग हैं ।। ४६ ।।
भावार्थ- पहले, दूसरे और चौथे गुणस्थान में तेरह योग इस प्रकार हैं:-कार्मणयांग, विग्रहगति में तथा उत्पति के प्रथम समय में; पनियमिन और शौचारिकमिथ, ये दो गोग उत्पत्ति के प्रथम समय के अनन्तर अपर्याप्त अवस्था में और पार भन के, चार बच्चन के, एक मोवारिक तथा एक वे क्रिय, ये दस योग पर्याप्त-अवस्था में | माहारक और आहारफमिश्र, ये दो योग चारित्र-सापेक्ष होने के कारण उमस तीन गुणस्थानों में नहीं होते।
१-- गुणस्थानों में योग-विषयक विचार जैसा यहाँ है, वैसा ही पंचसंग्रह द्वा० १, गा० १६--१८ तथा प्राचीन चतुर्ध कर्म ग्रन्थ, गा० ६६-- ६६ में है।
गोम्मटसार में कुछ विवार-भेद है। उत्तन पान और सात गुण. स्थान में नौ और छठ गुणस्थान में ग्यारह योग माने हैं । --जी०,गा ०७०३ ।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
मत्त-अवस्था-मावी है। इसलिये उसमें छठे गणस्थान वाले तेरह योगों में से उक्त दो योनी छोड़कर मर रोग लगे हैं : बैंक्रियशरीर या आहारक शरीर बना लेने पर अप्रमत्त-अवस्था का भी संभव हैं। इसलिये अप्रमत गणस्थान के योगों में बैंपिकाययोग और आहारककाययोग की गणना है।
सयोगिकेवलो को केवलिसमुद्घात के समय कामण और औदारिकमिश्न, ये वो मोग, अन्य सब समय में औचारिककाययोग, अनुप्सरविमानवासी चेव आदि के प्रश्न का मन से उत्तर देने के समय बो मनोयोग और देशना के देने समय दो प्रचन योग होते हैं। इससे सेरहवें गण स्थान में सात योग माजे गये हैं।
केवली भगवान् सब योगों का निरोष करके अयोगि-अवस्था प्राप्त करते हैं। इसीलिये चौदहवे गुण स्थान में योगों का अभाव है ॥४७ ।।
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वर्मग्रन्थ भाग चार
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( ३ ) - गुणस्थानों में उपयोग' |
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तिअनरणदुदंसाहम, दुगे अजद बेसि नातं ते मोसि मीसा समणा, जयाइ केवलद अंगे ॥ ४८ ॥
व्यज्ञान द्रिदर्शमादिमद्धिकेऽयते देशे शानदर्शनत्रिकम् । ते मिश्र मिश्राः समनमो यत्तादिषु केवलद्विकमन्तष्टिके ॥४८॥
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अर्थ- मध्यात्व और सासावन, इन दो गुणस्थानों में तीन अज्ञान और दो दर्शन ये पाँच उपयोग हैं | अविरतसभ्य दृष्टि, वेशविति इन वो गुणस्थानों में सीन ज्ञान, लीन वन मे छह उपयोग हैं। मिश्रगुणस्थान में भोज्ञान तीन वर्शन ये छह उपयोग हैं, पर ज्ञान मिश्रित, अज्ञान मिश्रित होते हैं । प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणमोहनीय तक सात गुणस्थानों में उक्त छह और मनः पर्यायशान, ये सात उपयोग हैं । सयोगिकेवली और अयोग केवली इन वो गुणस्थानों में केवलज्ञान और कंबल वर्शन, ये वो उपयोग हैं ॥४८॥
भावार्थ- पहले और दूसरे गुणस्थान में सम्यक् का अभाव है। इसीसे उनमें सम्यक्त्व के सहचारी पाँच ज्ञान, अवषिर्शन और केवलर्शन, ये सात उपयोग नहीं होते, शेष पाँच होते हैं ।
चौथे और पांचवें गुणस्थान में मिध्यात्व न होने से तीन अझ न सर्वविति न होने से मनः पर्यायज्ञान और घातिकर्म का अभाव म होने से केवल विक, ये कुल छह उपयोग नही होते, शेष छह होते हैं।
१ - यह विषय पञ्चसंग्रह द्वा० १ की १६ -- २०वीं, प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ को ७०-७१वीं और गोम्मटसार- जीवकाण्ड को ७०४वीं - गाथा में है ।
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'सरे गए 1न में भी दोन म और तेन दशंग, ये ही मह उपयोग है । पर इष्टि, पश्चित अशुद्धा उभयरूप होने के नाण जान, अनान-मिश्रित होता है।
छठे से बारहवे तक सात गुणस्थानो में मिवात हा कारण अज्ञान-त्रिक नहीं है और तिकर्म का क्षय न होने के कारण क्षेत्रस्न - हिक नहीं है । इस तरह पनि छोड़कर शेष मात उपयोग उनमें समझने चाहिये।
सेरहमें और चौदहवें गणस्थान में घानिकर्म न होने से छमस्थअवस्था-मावो दम उपयोग नहीं होते. सिर्फ क्षेत्रलमान और केवलवर्शन, ये वो ही उपयोग होते है, 11४८t
सिद्धान्त के कुछ मन्तव्य ।
सासणभावे नाणं, विउवगाहारगे उरलमिस्सं। . नेगिविसु सासाणो, नेहा हिमयं सुयमयं पि ॥४६॥ सामादनभाने ज्ञान, वेविकाहारक औदारिकाभिश्रम् । नैकेन्द्रियेसु सासादनं, नेहाधिवृतं श्रुनमतमपि ।।४।।
अर्य--सासाबन अवस्था में सम्यग्ज्ञान, बैंक्रियशरीर तथा आहारक शरीर बनाने के समय मौवारिकमिश्र काययोग और एकेन्द्रिय जीदों में सासादन गुणस्थान का अभाव, ये तीन बातें यपि सिद्धान्त सम्मत हैं तथापि इस प्रन्थ में इनका अधिकार नहीं है 11४६५
भावार्थ-कुछ विषयों पर सिद्धान्त और फर्मग्रन्य का मत-भेट चला भाता है। इनमें से तीन विषय इस गाथा में प्रश्रकार ने दिखाये हैं:--
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कर्मग्रन्थ भाग चार
(क) सिसाम्स' में दूसरे गणस्थान के समय मति, श्रुत आदिको ज्ञान माना है, अजान मही । इससे उलटा कर्मपन्य में अज्ञान भामा है, अमान नहीं । सिद्धान्त का अभिप्राय यह है कि पूसरे गुणस्पान में वर्तमान जीव पद्यपि मिश्यास्त्र के संमुख है, पर मिण्यारवी मही; उसमें सम्यक्त्व का अंश होने से कुछ विशुद्धि हैं। इसलिये उसके शाम को ज्ञान मानना चाहिये । कर्मप्रन्थ का आशय यह है कि द्वितीय गुणास्थामवर्ती जीव मिथ्यात्वी न सही, पर वह मिथ्यात्व के अभिमुख है। इसलिये उसके परिणाम में मालिन्य अधिक होता है। इससे उसके ज्ञान को अज्ञान कहना चाहिये ।
१--भगवती में वीन्द्रियों को ज्ञानी भी कहा है। इस कथन से यह प्रमाणित होता है कि सासादन-अवस्था में ज्ञान मान करके ही सिद्धान्ती दीन्द्रियों को शानी कहते हैं। क्योंकि उनमें दूसरे से आगे सब गुणस्थानों का अभाव ही है। पञ्चेन्द्रियों को ज्ञानी कहा है, उस समर्थन सो तीसरे, चौथे आदि गुणस्थानों की अपेक्षा से भी किया जा सकता है। पर द्वीन्द्रियों में तीसरे आदि गुणस्थानों का अभाव होने के कारण सिर्फ सासादन गुणस्थान की अपेक्षा से ही शामित्व घटाया जा सकता है। यह बात प्रज्ञापना-टीका में स्पष्ट लिखी हुई है । उसमें कहा है कि द्वीन्द्रिय को दो ज्ञान कैसे घट सकते हैं ? उसर--उसको अपर्याप्सअवस्था में सासादनगुणस्थान होता है, इस अपेक्षा से दो शान घट सकते हैं ।
बेइंतियाणं भंते । कि नाणी अनाणी ? गोयमा ! णाणो वि अण्णाणी वि । जे नाणी ते नियमा पुनाणी । तं जहा - आमिणिमोहिपनाणी सुयणाणी । जे अण्णाणी ते वि नियमा तुअन्नाणी । पहामा अन्नाणी सुयअन्नाणी य ।" --भगवती शतक ८० २।
"बेवियरस वो णाणा कहं लम्भति ? अण्णा, सासायणं पन्च तस्सापज्जत पस्स दो गाणा लति ।"
-प्रशापना टीका । दूसरे गुणस्थान के समय कर्मग्रन्थ के मतानुसार अजान माना जाता है, सो २० तथा ४८वी गाथा से स्पष्ट है । गोम्मटसार में कार्मअधिक ही मत है। इसके लिये देखिये, जीवकाण्ड की ६८६ सथा ५०४ वों गाथा ।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
(ख) सिद्धान्त' का मानना है कि लब्धि द्वारा वैक्रिय और आहारक- शरीर बनाते समय औदारिक मिश्र काययोग होता है; पर त्यागते समय क्रम से वैकिय मिश्र और आहारकमित्र होता है। इसके स्थान में कर्मग्रन्थ का मानना है कि उक्त दोनों शरीर बनाते तथा त्याग्रले समय क्रम से क्रियमिश्र और आहारक मिश्रयोग हो होता है, मौवारिक मिश्र नहीं । सिद्धान्त का आशय यह है कि लब्धि से क्रिय या आहारक-वशरीर बनाया जाता है, उस समय इन शरीरों के योग्य पुवरल, औदारिक शरहेर के द्वारा ही प्रण किये जाते हैं, इसलिये औवारिक शरीर की प्रधानता होने के कारण उक्त दोनों शरीर बनाते समय औदारिक मिश्रकामयोग का व्यवहार करना चाहिये । परन्तु परित्याग के समय औवारिक शरीर को प्रधानता नहीं रहती । उस समय क्रिय या माहारक शरीर का ही व्यापार मुख्य होने के कारण वैक्रियमिश्र तथा आहारकमिश्र का व्यवहार करना चाहिये । फार्मम्पिक-मत का लास्पयं इतना ही है कि चाहे व्यापार किसी शरीर का प्रधान हो, पर औवारिक शरीर जन्म- सिद्ध है और देत्रिय या आहारक- शरीर सम्धि जन्य है; इसलिये विशिष्ट -जय शरीर की प्रधानता को ध्यान में रखकर आरम्भ और
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१- यह मत प्रशापना के इस उल्लेख से स्पष्ट है:
ओरालिय सरी एकायव्ययोगे मोरालियमीससरीरम्पयोगे लेज वियसरी कयिप्ययोगे आहारकसरीरकायप्पओगे आहारकमीससरीरकाययोगे ।" पद० १६ तथा उसकी टीका, पृ० ३१७ कर्मग्रन्थ का मत तो ४६ और ४७वीं गाथा में पांचवें और छठे गुणस्थान में क्रम से ग्यारह और तेरह योग दिनाये है, इसीसे स्पष्ट है । गोम्मटसार का मतक मंग्रन्थ के समान हो जान पड़ता है; क्योंकि उसमें पाँचवें और छठे किसी गुणस्थान में बोदारिक मिश्रकाययोग नहीं माना है। देखिये. जीवकाण्ड की ७०३री गाथा |
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कर्मग्रन्थ माग चार
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परित्याग, दोनों समय पक्रियमिष और माहारकमिश्र का भ्यबहार करना चाहिये, मोवारिकभित्र का नहीं।
(ग)--सिद्धान्ती', एफेन्द्रियों में सासाटनगुणस्थान को नहीं मानते, पर कामप्रन्यिक मानते है।
उक्त विषयों के दिमाग विषारों में जो कहीं नहीं -म :--
(१)--सिवान्ती, अवधिवर्शन को पहले बारह गुणस्पानों में मामले है, पर कार्मपन्थिक उसे धोखे से बारहवं तक मौ गुणस्थानों में, (२) सिद्धान्त में प्रन्थि-मेव के मनन्तर बायोपमिकसम्यक्तवा का होना मामा गया है, किन्तु कर्मग्रन्थ में औपचामिकसम्यक्तव का होना ॥४६॥
१--भगवती, प्रशापना और जीवाभिगमसूत्र में एकेन्द्रियों को अशानी हो कहा है। इससे सिद्ध है कि उनमें सासादन-भाष सिद्धाम्ससम्मत नहीं है । यदि सम्मत होता तो द्वीन्द्रिय आदि की तरह एकेन्द्रियों को भी ज्ञानी कहते ।
'एगिबियाणं भंते । कि माणी अमाणो? गोयमा ! मो नम्णी, नियमा मन्त्राणी।"
-- भगवती-श० ८, उ० २ । एकेन्द्रिय मे सासादन-भाव मानने का कार्मग्रन्थिक-मव पञ्चसंग्रह में निदिष्ट है। यथा:
'इगिविगिलेसु जयतं' इत्यादि । --द्वा० १, गा० २८ |
दिगम्बर-संप्रदाय में मैद्धान्तिक और कार्मग्रन्थिक दोनों मत संगृहीत हैं । कर्मकाण्ड की ११३ से ११५ तक की गाथा देखने से एकेन्द्रियों में सासादन-भाव का स्वीकार स्पष्ट मालूम होता है । तत्त्वार्थ, अ० १ के ८वें सूत्र की सर्वार्थसिद्धि में तथा जीवकाण्ड की ६७७वीं गाथा में सैद्धान्तिक मत है।
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कर्मग्रन्थ माग चार
( ४ - ५ ) - गुणस्थानों में लेश्या तथा बन्ध हेतु । छसु सब्बा सेउतिगं. इगि छसु सुक्का अयोगि अल्लेसा । बंधस्स मिच्छ अविरइ, कसायजो गत्ति च हेउ ॥५०॥
षट्सु सर्वास्तेजस्त्रमेकस्मिन् षट्सु शुक्लाऽयोगिनोलेश्याः ।
स्य मिध्यात्वाविरतिकृष्णाययोगा इति चत्वारो हेतवः ||१०| अर्थ - पहले छह गुणस्थानों में छह लेश्याएँ हैं। एक ( सातवें ख़ै गुणस्थान मानने के सम्बन्ध में दो मत चले आते हैं। पहला मत पहले चार गुणस्थानों में छह लेश्याएँ और दूसरा मत पहले छह गुणस्थानों में छह लेश्याएँ मानता है। पहला मत संग्रह - द्वा० १ गा० ३० प्राचीन बन्धस्वामित्व, गा० ४०; नवीन बन्धस्वामित्व गा० २५; सर्वार्थसिद्धि, पृ० २४ और गोम्मटसार - जीवकाण्ड, गा० ७०३ रोके भावार्थ में है। दूसरा मत प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा०७३ में तथा महाँ है । दोनों मत अपेक्षाकृत है, अत: इनमें कुछभी विरोध नहीं है। पहले मत का आशय यह है कि छहों प्रकार की द्रव्यलेश्यावालों को चौथा गुणस्थान प्राप्त होता है, पर पाँचवाँ या छठा गुणस्थान सिर्फ तीन शुभ द्रव्यमवालों की। इसलिये गुणस्थान प्राप्ति के समय वर्तमान द्रवधदया की अपेक्षा से चौथे गुणस्थान पर्यन्त छह लेक्ष्याएँ माननी चाहिये और पाँचवे और छठे में तीन ही ।
दूसरे मत का आशय यह है कि यद्यपि छहों लेश्याओं के समय चौथा गुणस्थान और तीन शुभ द्रव्यलेमाओं के समय पात्र और छठा गुणस्थान प्राप्त होता है परन्तु प्राप्त होने के बाद चौथे, पांचवें और छठे, तीनों गुणस्थानवालों में छहों द्रव्य लेश्याएं पायी जाती हैं। इसलिये गुणस्थानप्राप्ति के उत्तर-काल में वर्तमान द्रव्यलेश्याओं को अपेक्षा से छठे गुणस्थान पर्यन्त छह लेश्याएं मानी जाती है ।
►
इस जगह यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि चौथा पांच और छठा गुणस्थान प्राप्त होने के समय भावलेदया तो शुभ ही होती है, अशुभ नहीं, पर प्राप्त होने के बाद भावलेश्या भी अशुभ हो सकती है ।
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"सम्म सुयं सब्बा सु. लहइ सुद्धासु तीसु य चरितं । पुषपण्णगो पुग, अण्णवरोए उ लेसाए । "
- आवश्यक नियुक्ति, गा० ८२२ ।
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कर्मप्रत्य भाग चार
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शुरुकलेश्या है । चोरहवें
गुणस्थान में तेजः पद्म और शुल्क, ये तीन लेयाएं हैं। आठवें से लेकर तेरहवें तक छह गुणस्थानों में केवल गुणस्थान में कोई भी लेश्या नहीं है । बम्ध हेतु कर्म-बम्ध के चार हेतु हैं । ३ कयाय और ४ योग ॥ ५० ॥ भावार्थ प्रत्येक ले
१ मिथ्यात्व २ अविरति
व्ययसायस्थान ( संहकेश - मिश्रित
असंतपरिणाम ) रूप है। इसलिये उसके. तरेव्र तीव्रतर तीव्रतम, मन्द मच्चतर मन्दतम, आदि उतने ही मेब समझने चाहिये। अत एव कृष्ण आदि अशुभ लेश्याओं को के गुणस्थान में अतिमन्दतम और पहले गुणस्थान में अतितीव्रतम माम
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फर छह गुणस्थानों तक उनका सम्बन्ध कहा गया है। सातवें गुणस्थान में जातं तथा रोड-ध्यान न होने के कारण परिणाम इतने विशुद्ध रहते हैं, जिससे उस गुणस्थान में अशुभ लेश्याएं सर्वथा महा होतो; किन्तु तीन शुभ लेश्याएं ही होती हूं। पहले गुणस्थान में तेज और पद्य लेश्या को अतिमन्बतम और सातवें गुणस्थान में अति
इसका विवेचन श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने भाष्य की २७४१ ले४२ तक की गाथाओं में, श्रीहरिभद्रसूरि ने अपनी टीका में और मलधारी श्रामचन्द्रसूरि न भाष्यवृत्ति में विस्तारपूर्वक किया है। इस विषय के लिये लोकप्रकाश के ३रे सगं क ३१३ से ३२३ तक के श्लोक द्रष्टव्य है ।
चौथा गुणस्थान प्राप्त होने के समय ब्रव्यलेश्या शुभ और अशुभ, दोनों मानी जाती हैं और भावलेश्या शुभ ही । इसलिये यह शङ्का होती है 1 कि क्या अशुभ द्रव्यलेश्यावालों को भी शुभ भावलेश्या होती है ?
इसका समाधान यह है कि द्रव्यलक्ष्या और भावलेश्या के सम्बन्ध में यह नियम नहीं है कि दोनों समान ही होनी चाहिये, क्योंकि यद्यपि मनुष्य तिपत्र, जिनकी द्रव्यलेच्या अस्थिर होती है, उनमे तो जैसी द्रव्यलेश्या वैसी हां भावलेश्या होती है । पर देवतारक, जिनकी द्रव्यलेश्या अवस्थित स्थिर) मानी गयी है, उनके विषय में इससे उलटा है। अर्थात् नारकों में दया के होते हुए भी भाबलेश्या शुभ हो सकती है। इसी प्रकार शुभ द्रव्यश्यावाले देवों में भावलेश्या अशुभ भी हो सकती हैं | इस बात को खुलासे से समझने के लिये प्रज्ञापना का १७ वाँ पद तथा उसकी टीका देखनी चाहिये ।
अशुभ
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कर्मग्रन्थ भाग चार तीव्रतम इसी प्रकार शुल्कलेश्या को भी पहले गुणस्थान में मतिमम और तेरहवें में अतितीव्रतम मानकर उपर्युक्त रीति से गुणस्थानों में उनका सम्बन्ध बतलाया है!
चार बन्ध- हेतु' -- (१) 'मिम्याश्व' मात्मा का वह परिणाम है, जो
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१- ये ही बार बन्ध हेतु पञ्चसंग्रह - द्वा० ४ की १ ली गाथा तथा फर्मकाण्ड की ७८६वीं गाया में है। यद्यपि तत्त्वार्थ के वें अध्याय के १ ले सूत्र में उक्त चार हेतुओं के अतिरिक्त प्रमाद को भी बन्धहेतु माना है, परन्तु उसका समावेश अविरति कषाय आदि हेतुओं में हो जाता है । जैसे:- विषय सेवम रूप प्रमाद, अविरति और सब्धि प्रयोगरूप प्रमाद, योग है। वस्तुतः कषाय और योग, ये दो ही बम्ध हेतु समझने चाहिये; मिध्यात्व और अविरति कषाय के ही अन्तर्गत हैं । इसी अभिप्राय से पांचवें कर्मग्रन्थ की गाथा में दो ही बन्धहेतु माने गये हैं ।
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इस जगह कर्म-बन्ध के सामान्य हेतु दिखाये हैं, सामान्यभयदृष्टि से ; अत एव उन्हें अन्तरङ्ग हेतु समझना चाहिये । पहले कर्मग्रन्थ की ५४ से ६१ तक गाथाओं में; तत्वार्थ के ६ अध्याय के ११ से २६ तक के सूत्र में तथा कर्म काण्ड की ८०० से ८१० तक की गाथाओं में हर एक कर्म के अलग-अलग बन्धहेतु कहे हुए हैं, सो व्यवहारदृष्टि से अत एष उन्हें बहिरङ्ग हेतु समझना चाहिये ।
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शङ्का - प्रत्येक समय में आयु के सिवाय सात कर्मों का बाँधा जाना प्रज्ञापना के २४वें पद में कहा गया है, इसलिये शान, ज्ञानी आदि परद्वेष या उनका निहृव करते समय भी ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय की तरह अन्य कर्मों का बन्ध होता ही है। इस अवस्था में 'तत्वदोषनिहृय' अदि तत्त्वार्थ के ६ अध्याय के ११ से २६ तक के सूत्रों मे कहे हुए आस्रव, ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय आदि कर्म के विशेष हेतु कैसे जा सकते हैं ?
समाधान-तत्प्रदोषनिव आदि आस्रवों को प्रत्येक कर्म का जो विशेष हेतु कहा है, सो अनुभागबन्ध की अपेक्षा से, प्रकृतिबन्ध की अपेक्षा से नहीं । अर्थात् किसी भी आस्तव के सेवन के समय प्रकृतिबन्ध सब प्रकार का होता है | अनुभागबन्ध में फर्क है । जैसे: ज्ञान, ज्ञानी, ज्ञानोपकरण आदि पर प्रदूष करने के समय ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय की तरह अन्य प्रकृतिओं का बन्ध होता है, पर उस समय अनुभागबन्ध विशेषरूप से ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीयकर्म का ही होता है । सारांश, विशेष हेतुओं का विभाग अनुभागबन्ध को अपेक्षा से किया गया है, प्रकृति-बन्ध की अपेक्षा से नहीं । -सत्वार्थ अ १०६, सू० २७ की सर्वार्थ सिद्धि ।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
१७५
मिध्यात्वमोहनीय कर्म के उदय से होता है और जिससे वाह संशय आणि घोष पैदा होते हैं । (२) 'अविरति वह परिणाम है, जो अश्यायामावरणकषाय के उदय से होता है और जो चारित्र को रोकता है । ( ३ ) 'कवाय', वह परिणाम है, जो चारित्र मोहनीय के उदय से होता है और जिससे क्षमा, विनय, सरलता, संतोष, गम्भीरता आदि गुण प्रगट होने नहीं पाते या बहुत कम प्रमाण में प्रकट होते हैं। (४) 'योग', आत्म-प्रवेशों के परिस्पन्द ( चाञ्चल्य-j) को कहते हैं, जो मन, वचन या शरीर के योग्य पुवग्लों के आलम्बन से होता है ।। ५० ।। बन्ध-हेतुओं के उत्तरमेव तथा गुणस्थानों में मूल बन्ध हेतु' । [ दो गाथाओं से । ]
अभिगहियमभिगमन। पचमिच्छ वार अविर, मणरकणानियम छजियहो ॥५१॥ अभिग्रहिकमनाभिग्रहिकामनिवेशिक सांशयिकमनाभोगम् । पञ्च मिथ्यात्वति द्वादशाविरतयो, मनःकरणानियमः षड्जीवबधः ॥ ३५११० अर्थ- मिस्पारण के पश्च भेव है: -१ आभिग्रहिक, २. अनभिहिक ३ आमिनिवेशिक ४. सांशयिक और अनाश्रोत ।
अविरति के बारह मे है । अंसे:-मन और पाँच इन्द्रियों, इन घर को नियम में न रखना, ये छह सभा पृथ्वीकाय आदि छह कार्यों का वध करना, ये छह ५१
१ - यह विषय पञ्चसंग्रह द्वा० ४ की २ से ४ तक की गाथाओं में तथा गोम्मटमार कर्मकाण्ड की ७८६ से ७८८ तक की गाथाओं में है । गोम्मटसार में मिध्यात्व के १ एकान्त, २ विपरीत ३ वैनयिक ४ सांशयिक और ५ अज्ञान ये पाँच प्रकार हैं ।
अविरति के लिये जोवकाण्ड की २६ तथा ४७७वीं गाया और कषाय व योग के लिये क्रमशः उसको कषाय व योगमागंणा देखनी चाहिये । तस्वार्थ के वें अध्याय के १ले सूत्र के भाष्य में मिथ्यात्व के अभिगृहीत और अनमिगृहीत, ये दो ही भेद हैं ।
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कर्म ग्रन्थ माग चार भावार्थ ---- १) सत्वको परीक्षा किये बिना ही किसी एक सिद्धान्त का पक्षपात करके अन्य पक्ष का लम्बन करना 'अभिवाहिकमिग्याए" है। (२१ गण-दोष को परीक्षा बिना किये हो सब पक्षों को मराबर समझना 'अनामिहिकामयात्व है ।१३अपये पन हो मसत्य जानकर भी उसकी स्थापना करने के लिये दुरभिनिवेष (दुराग्रह) करना आभिनिवेक्षिकमिथ्यात्व' है। (४। ऐसा व होगा या अन्य
१-.सम्यवस्वी कदागि अपरीक्षित सिद्धान्त का पक्षपात नहीं करता अत एव जो व्यक्ति तत्त्व-परीक्षापूर्वक किसी-एक पक्ष को मानकर अन्य पक्ष का खण्डन करता है। बह अभिग्रहिक' नहीं है । जो फूलाचार मान से अपने को जैन (सम्यक्त्वी) मानकर तत्त्व की परीक्षा नहीं करता, वह नाम से "जैन' परन्तु बस्ततः 'अभिरा हिका मिथ्यात्वी है। भाषनुष मुनि आदि की साह तत्त्व-परीक्षा करने में स्वयं असमर्थ लोग यदि गीताथं (यथार्थ-परीक्षक) के अाधित हों तो उन्हें 'अभिमहिकमिथ्यात्वी' नहीं समझना क्योंकि गीतार्थ यथार्थ-परीक्षक) के आश्रित रहने से मिथ्या पक्षपाल का संभव नहीं रहता। धर्म संग्रह पृ० १०
२-यह. मन्द बुमि वाले व परीक्षा करने में असमर्थ साधारण लोगों में पाया जाता है ऐसे लोग अकसर कहा करते हैं कि सब धर्म बराबर है
३-सिर्फ उपयोग न रहने के कारण या मार्ग-दर्शक की गलती के कारण, जिसकी श्रद्धा विपरीत हो जाती है, यह 'अभिनिवेशिका मिथ्याची' नहीं है। क्योंकि यथार्थ-वक्ता मिलने पर उमका श्रद्धा सास्विस . बन जाती है, अर्थात् यथार्थ-वक्ता मिलने पर भी श्रद्धा का विपरीत मना रहतां दुरभिनिवेश है । यद्यपि श्रीसिद्धसेन दिवाकर, श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि आचायों ने अपने-अपने पक्ष का समर्थन करके बहतकुछ कहा है तथापि उन्हें 'आभिनिवेशिकमिश्यात्वी' नहीं कह सते; क्योंकि उन्होंने अविच्छिन्न प्रावनिक परंपरा के आधार पर शास्त्रतात्पर्य को अपने-अपने पक्ष के अनुकूल समझकर अपने-अपने पक्ष का समर्थन किया है, पक्षपात से नहीं । इसके विपरीत जमालि गोष्टामाहिल आदि ने शास्त्र-तात्पर्य को स्व-पक्ष के प्रतिकूल जानते हुए भी निजपक्ष का समर्थन किया; इसलिये वे 'आभिनिवेशिक' कहे जाते हैं।
--धर्म०, पृ. ४० ।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
१७
प्रकारका
और धर्म के
में संदेह-शोल बने रहना 'सांशयिकमिध्यात्व" है । (५) विचार व विशेष ज्ञान का अभाव अर्थात् मोह को प्रगाढतम अवस्था 'अगाभोग मिध्यात्व" है । हम पाँच में से अभिग्रहिक और अनामिहिक, ये दो मिथ्यात्व गुरु हैं और शेष तीन लघुः क्योंकि ये दोनों विपर्यास रूप न होने से तीव्र केल्लाके कारण है और शेष तीन विपर्यास रूप होने तीव्र केल्दाके कारण नहीं हैं।
मन को अपने विषय में स्वष्टस्यतापूर्वक प्रवृत्ति करने देना मनअविरति है। इसी प्रकार त्वचा, जिल्हा आदि पाँच इन्द्रियों की अविरति को भी समझ लेना चाहिये । पृथ्वी कायिक जीवों की हिसा करना पृथ्वीका अविरति है। शेष पाँच कार्यों की अविरति को इसी प्रकार समझ लेना चाहिये। ये बारह अविरतियाँ मुख्य है । सृषरवाद- अविरति अदत्त दान- अविरति आदि सब अविरतियों का समा वेश इम बारह में ही हो जाता है ।
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मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का औधिक परिणाम ही मुख्यतया मिथ्यात्व कहलाता है । परन्तु इस जगह उससे होते बोली अभिग्रहिक आदि बाह्य प्रवृत्तिओं को मिध्यात्व कहा है सो कार्य-कारण के भेद की विवक्षा न करके इसी तरह अविरति एक प्रकार का काथा
१- - सूक्ष्म विषयों का संशय उच्च कोटि के साधुओं में भी पाया जाता है, पर वह मिथ्यात्वरूप नहीं है, वोंकि अन्ततः -
"समेव सञ्चं णीसंकं जं जिर्णोहि पवेष्टयं ।”
इत्यादि भावना से आगम को प्रमाण मानकर ऐसे संशयों का निवर्तन किया जाता है। इसलिये जो संशय, आगम- प्रामाण्य के द्वारा भी निवृत्त नहीं होता, वह अन्ततः अनाचार का उत्पादक होने के कारण मिथ्यात्व रूप हैं | - धर्म संग्रह पृ
२- यह एकेन्द्रिय आदि क्षुद्रतम जन्तुओं में और मूह प्राणियों में -- श्रसंप्रह, पृ०
होता है।
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५
कर्मग्रन्थ भाग चार
पिक परिणाम ही है, परन्तु कारण से कार्य को भिन्न न मानकर इस जगह मनोऽसंयम आदि को अविरति कहा है। देखा जाता है कि मन आदि का असंयम या जोव हिंसा ये सब कषाय- अन्य ही हैं । ५१ ॥
१७८
नव सोल कसाया पन - र जोग इस उत्तरा उ सगवन्ना । इगचउपण लिंग, शेसु चउतिदुगपञ्चओ बंधो ।। ५२ ।। नव षोडश कशायाः पञ्चदश योगा इत्युत्तरास्तु सप्तपञ्चाशत् । एकचतुष्पञ्चत्रिगुणेषु चतुस्त्रि हो कप्रत्ययो बन्धः ॥४२॥
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अर्थ — कषाय के नौ और सोलह कुल पच्चीस भेव हैं। योग के पन्द्रह मेव हैं। इस प्रकार सब मिलाकर बन्धहेतुओं के उत्तर मे सत्तावन होते हैं।
एक (पहले) गुणस्थान में चारों हेतुओं से बन्ध होता है । दूसरे से पचिये तक चार गुणस्थानों में तीन हेतुओं से छठे से वसवें तक पाँच गुणस्थानों में वो हेतुओं से और ग्यारहवें से तेरहवें तक तीन गुण स्थानों में एक हेतु से बन्ध होता है ||५२||
अनन्तानुबन्धो
भावार्थ- हास्य, रति आदि नौ नोकलाय और क्रोष आदि सोलह कषाय हैं, जो पहले कर्मग्रन्थ में कड़े जा चुके हैं । कवाय के सहचारी तथा उत्तेजक होने के कारण हास्य आदि नो कहलाते 'नोकषाय' हैं पर हैं वे कषाय ही ।
पन्द्रह योगों का विस्तारपूर्वक वर्णन पहिले २४वी गाथा में हो चुका है । पचीस कषाय, पन्द्रह योग और पूर्व गाषा में कहे हुए पाँच मिध्यात्व तथा बारह अविरतियां, ये सब मिलाकर सत्तावन बन्धहेतु हुए
गुणस्थानों में मूलबन्ध हेतु ।
पहले गुणस्थान के समय मिध्यात्व आfa aारों हेतु पाये जाते इसलिये उस समय होने वाले कर्म वष में
वे धारों कारण हैं ।
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कर्मग्रन्य भाग चार
दूसरे मावि चार गुणस्थानों में मिथ्यात्योदय के सिवाय अग्य सब हेतु रहते हैं। इससे उस समय होने वाले कर्मबन्ध में सीन कारण माने जाते हैं। छठे आदि पांच गुणस्थानों में मिथ्या रख की तरह अवि. रति भी नहीं है। इसलिये उस समय होने वाले कर्म:मन्ध में कवाय और योग, ये वो ही हेतु माने आते हैं। ग्यारहवें आदि तीन गुणस्थानों में कषाय भी नही होता, इस कारण उस समय होने वाले बन्ध में सिर्फ योग ही कारण माना जाता है। चौवहमें गणस्थान में योग का मी अमाव हो जाता है। अत एक उसमें बन्ध का एक भी कारण नहीं रहता ॥५२।।
एक सौ बीस प्रकृतियों के यथासंभव मूल बन्ध हेतु' । चउमिछमिच्छविरई,-पच्चईया सायसोलपणतीसा । जोग विणु तिरस्वईया,-हारगजिणयज्ज सेसाओ ॥५३।।
चतुमिथ्यामिथ्याविरतिप्रत्ययका सातषोडशपञ्चविंशतः । योगान् विना त्रिप्रत्यायिका आहारवाजिनवजशेषाः ।।५।।
अर्थ-सातवेदनीयका बन्ध मिथ्यात्व आदि चारों हेतुओं से होता है । नरक-निक आबि सोलह प्रकृतियों का बन्ध मिण्यास्थमात्रसे होता है। तिर्यञ्च-त्रिक आदि पंतीस प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्व
और अबिरसि, इन दो हेतुओं से होता है । तीर्थङ्कर और आधारकद्विक को छोड़कर शेष सब । ज्ञानाथ रणीय आदि पंसठ) प्रकृतियों का बन्ध, मिण्यारव, अचिगति और कषाय, इन तीन हेतुओं से होता है ॥५३।।
भावार्थ-बन्ध-योग्य प्रकृतियाँ एक सौ बीस हैं । इनमें से सातवेदनीय का बध चतुर्हेतुक (पारों हेतुओं से होने वाला। कहा गया है । सो इस अपेक्षा से कि वह पहले गुणस्थान में मिथ्यात्व से, वूसरे आदि चार गुणस्थानों में अविरति से, छठे आदि चार गुणस्थानों में
१-खिये, परिशिष्ट प ।'
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कर्म ग्रन्थ भाग गर
पाप से और ग्यारहवं आदि तीन गुणस्थानों में योग से होता है । इस तरह तेरह गुणस्थानों में उसके सब मिलाकर चार हेतु होते हैं।
नरक-त्रिक, जाति-मतुष्क, स्थायर-चतुष्क, हुण्डसंस्थान, आतपनामफर्म, सेवात महमन, नपुसकवेर और मिथ्यात्व, इन सोलह प्रजातियों का बन्ध मिथ्यात्व-हेतुफ इसलिये कहा गया है कि ये प्रकतिमि महाले गुणमान में गांधी जानी हैं।
तियंजन-निक स्त्यानखि-त्रिक, बुभंग-त्रिक, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, मध्यम संस्थान-चतुष्क, मध्यम संहनन-चतुष्क, नीचगोत्र, उग्रीतनामफर्म, अशुभबिहायोगति, स्त्रीवेद, वर्षभनाराघसंहनन, मनुष्यत्रिक, अप्रत्याख्यानावरग-चतुष्क और औदारिक-द्विक, इन पैसोस प्रकृतियों का बम्प बिन्हेतुक है; क्योंकि ये प्रकृतियो पहले गुषस्थान में मिथ्यात्व से और दूसरे आदि यथासंभव अगले गुणस्थानों में अविरति बांधी जाती हैं।
सातवेदनीय, नरक-त्रिक आदि उक्त सोलह, तिर्यञ्च निक आवि उक्त पैंतीस तथा तीर्थङ्कर नामकर्म और आहारक-तिक, इन पचपन प्रकृतियों को एक सौ घोस में से घटा थेने पर सह शेष पचती हैं। इन पैसठ प्रकृतियों का बन्ध त्रि-हेतुफ इस अपेक्षा से समझना चाहिये कि यह पहले गुणस्थान में मिथ्यास्य से, दूसरे आदि चार गुणस्थानों में अधिरति से और छ आदि चार गुणस्थानों में कषाघ से होता है ।
यद्यपि मिथ्यात्व के समय ओवरति आदि अगले तीन हेतु, अधिरति के समय कषाय आवि अगले दो हेतु और कषाब के समय घोगरूप हेतु अवश्य पाया जाता है । तथापि पहले गणस्यान में मिथ्यात्वकी, दूसरे आदि चार गगस्थानों में अधिरतिको और छठे आदि चार गणस्थानों में कषाय की प्रधानता तथा अन्य हेलुओं को अप्रधानता है। इस कारण इन ग स्थानों में क्रमशः केवल मिथ्यात्व, अविरति ब कवाय को बन्ध-हेतु कहा है।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
१८१ इस जगह तीर्थरनामकर्म के बन्ध का कारण सिर्फ सम्यक्तन और माहारक-द्विक के बन्ध का कारण सिर्फ संयम विवक्षित है। इसलिये इन तीन प्रकृतियों की गणना कषाय-हेसुक प्रकृतियों से नहीं की है ॥५३॥ गुणस्थानों में उत्तर बन्ध-हेतुओं का सामान्य तथा
विशेष वर्णन' ।
[ पाँच गाथाओं से ] पणपन्न पन तियछहि-अचत्त गणचत्त छचउद्गवीसा । सोलस बस नव नव स,-त्त हेउणो न उ अजोगिमि ॥५४॥ १-पञ्चसंग्रह-द्वार ४ की १६वीं गाथा में
सेसा उ फसाएटिं।" इस पद से तीर्थङ्करनामकर्म और आहारक-दिक, इन तीन प्रकृतियों को कषाय-हेतुक माना है तथा अगाजी की २०वी माया में सम्याव को तीर्थ टारनामकर्म का और संयम का आहारक-द्विक का विशेष हेतु कहा है। तत्वार्थ-अ० हवें के १ ले सूत्र की सर्वार्थसिद्धि में भी ईन तीन प्रकृतियों को कराय-हेत्तक माना है। परन्तु श्रीदेवेन्द्रसूरि ने इन तीन प्रकृतियों के बन्ध' को कषाय-हतक नहीं कहा । उसका तात्पर्य सिर्फ विशेष हेतु दिखाने का जान पड़ता है, कषाय के निषेध का नहीं क्योंकि सब कर्म के प्रकृति और प्रदेश-बन्ध में योग की तथा स्थिति और अनुभाग-बन्ध में कषाय की कारणता निविबाद सिद्ध है। इसका विशेष विचार, पञ्चसंग्रह-द्वार की २.वी गाथा की थीमलयगिरि-टीका में देखने योग्य है।
२-यह विषय, पञ्चसंग्रह-द्वार ४ की ५वीं गाथा में तथा गोम्मटमार कर्मकाण्ड की ७८६ ओर ७६०वी गाथा में हैं।
उत्तर बन्ध हेतु. के सामान्य और विशेष, ये दो भेद हैं । किसी एक गुणस्थान में वर्तमान संपूर्ण जीवों में युगपत् पाये जाने वाले बन्न-हेत. 'सामान्य' और एक जीव में युगपत पाये जाने वाले बन्ध-हेत 'विशेष' कहलाते है । प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ की ७७वी गाथा में और इस जगह सामान्य-उत्तर बन्ध-हेत का वर्णन है। परन्तु पन्धसंग्रह और गोम्मटसार में सामान्य और विशेष, दोनों प्रकार के बन्ध-हेतुओं का । पञ्चसंग्रह की टीका में यह विषम बहुत स्पष्टता से रामझाया है । विशेष उत्तर बन्ध-हेत का वर्णन अति विस्तृत और गम्भीर है ।
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१८२
कर्मग्रन्थ भाग चार - पञ्चपञ्चाशत् पञ्चाशत् त्रिवाधिक चत्वारिमादेकोन चत्वारिंशत् षट्चतु
विविंशतिः। षोडश दश नव नव सप्त हेतवो नत्वयोगिनि ।। ५४ ॥
अर्थ-पहले गुणस्थान में पचपन मन्त्र-हेतु हैं, दूसरे में पचास, तीसरे में तेतालीस, चौथे में छयालीस, पांचवे में उन्तालीस, छठे में सम्बोस, सातवे में चौमास, भय में बाईश में में सोलह, बसन में वस, ग्यारहवें और बारहवें में नौ तथा सेरहवें में सात बन्ध-हेतु हैं, चौवह म गस्थान में बन्ध हेतु नहीं हैं ।।५४।।
पणपन्न मिच्छि हारग,-दुगूण सासाणि पनमिच्छ विणा । मिस्सदुगकमअणविणु, तिचत मोसे अह छमत्ता ।।५५॥ सवृमिस्सकम अजए, अविरइकम्मुरलमीसविकसाये । भुत्तुगुणचत बेसे, छपीस साहर पमत्त ॥५६॥ अविरइइगारतिकसा,-यवज्ज अपमति मीसदुगरहिया ।
चउवीस अपुटवे पुण, दुवीस अविउवियाहारा ॥५७।। पञ्चपञ्चाशन्मिथ्यात्व आहारकद्धि कोनाः सासादने पदमिथ्यात्वानि विना । मिद्विककामगाऽनाविना, त्रिचत्यारिमान्मिश्रेज्य षट्चत्वारिंशत् ॥५५॥ सद्विमित्रकर्मा अयतेऽविरतिकमौदारि कमियीद्वतीय कपायान् । मुक्त्व कोनचत्वारिणद्देशे, पदिशतिः साहारदिका: प्रमसे ॥५६॥ अविरत्येकादशकतृतीय कषायवर्जा अप्रमते मिश्रद्विकरहिता । चतुर्विशतिर पूर्व पुनःकिंशतिरक्रियाहाराः ॥५७.
अर्य-मिष्याष्टिगणस्थान में आहारक-हक को छोड़कर पचपन बन्ध-हेतु हैं । साक्षावनगणस्थान में पांच मिग्यात्व के सिवाय पचास सम्ध-हेतु हैं । मिष्टिग णस्थान में औवारिकमिय, अनियमिश्र,
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कर्मग्रन्थ माग चार
कार्मण और अनन्तानुबन्धि चतुष्क, इन सात को छोड़कर तेतालीस बध- हेतु है ।
१८३
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अविरतसम्य दृष्टिगुणस्थान में पूर्वोक्त तेतालीस तथा कार्मण, औवारिकमित्र और वेक्रियमिश्र ये सोम, कुल छ्यालीस बन्ध-हेतु है । देशविरतिगुण स्थान में कार्मण, औवारिकमिश्र, त्रस अविरति और अप्रत्याख्यानावरण-चतुष्क इन सात के सिवाय शेष उत्तालीस बम्ध हेतु हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ग्यारह अविरतियां, वरण- तुक, इन पन्द्रह को छोड़कर उक्त उन्तालीस में से चौबीस तथा आहारक- द्विक, कुल छबीस बश्ब हेतु हैं
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प्रत्यारूपाना
अप्रमत्त संयतगुणस्थान में पूर्वोक्त छजोस में से मिश्र विक (वैक्तिय मिश्र और आहारकमिश्र) के सिवाय शेष चौब्बीस बन्ध हेतु हैं । अपूर्वकरणगुणस्थान में वैकियकाययोग और आहारककाययोग को छोड़कर बाईस हेतु है ।। ५५|| ||२६|| ||५७||
मावार्थ - ५१ और ५२वीं गाथा में सत्तावन उत्तर बन्ध हेतु कहे गये हैं। इनमें से आहारक- द्विकके सिवाय शेष पचपन बन्धहेतु पहले गुणस्थान में पाये जाते हैं । आहारक-द्विक संयम-सापेक्ष है और इस गुणस्थान में संयम नहीं होता ।
का अभाव है, इसलिये इसमें आहारक-द्वि क
दूसरे गुणस्थान में पांचों मिध्यात्व नहीं हैं. इसी से उनको छोड़कर शेष पचास हेतु कहे गये हैं। तीसरे गृणस्थान में अनन्तानुबन्धिagoक नहीं है, क्योंकि उसका उदय दूसरे गुणस्थान तक ही है तथा इस गुणस्थान के समय मृत्यु न होने के कारण अपर्याप्त अवस्था भावी फार्मण, औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र, ये तीन योग भी नहीं होते । इस प्रकार तीसरे गुणस्थान में सात बन्ध-हेतु घट जाने से उक्त पचास में से शेष तेतालीस हेतु हैं ।
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कर्मग्रन्थ मार्ग चार
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चौथा गुणस्थान अपर्याप्त व्यवस्था में भी पापा जाता है; इसलिये इसमें अपर्याप्त अवस्था भावी कार्मण, औदारिकमिध और वैक्रिय मिश्र छन तोन योगों का सम्म है। तीसरे गुणस्थान सम्बन्धी ता लोस और ये तीन योग कुल छयालीस बन्ध-हेतु चौथे गुणस्थान में समझने चाहिये । अप्रत्यास्थानावरण- चतुष्या सौथे हो उदयमान रहता है, आगे नहीं । इस कारण वह मैं नहीं पाया जाता । पचिणां गुणस्थान देशविरति रूप स- हिंसा पत्रस- अधिरति नहीं है तथा यह गुणस्थान पर्याप्त अवस्था भावी है। इस कारण
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गुणस्थान तक पांचवें गुणस्थान होने से इसमें केल भावी
कार्मण और औदारिक मिश्र, ये दो योग भी नहीं होते। इस तरह चौथे गुणस्थान सम्बन्धी दपालीस हेतुओं में से उक्त सात के सिवाय शेव दम्मालोस बन्ध हेतु पनि गुणस्थान में हैं । इम उम्तालीस हेसुओं में चैकि पमिश्र काययोग शामिल है, पर वह अपर्याप्त अवस्था भावी नहीं, किन्तु क्रियलब्धि जन्य जो पर्याप्त अवस्था में ही होता है । पाँच स्थान के समय संकल्प- अन्य स-हिंसा का सम्भव हो नहीं है । आरम्भ-जन्य अस हिंसा का संभव है सही, पर बहुत कम इस लिये आरम्भ जन्य अति अल्प अस हिंसा की विवक्षा न करके उन्हालीम हेतुओं में वस-अविरसि की गणना नहीं की है।
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छठा गुणस्थान सर्वविरतिरूप है। इसलिये इसमें शेष ग्यारह अविरतियाँ नहीं होती। इसमें प्रत्याख्यानावरण कषाय असुष्क, जिसका उदय पाँचों गुणस्थान पर्यन्त ही रहता है, नहीं होता। इस तरह पांचवें गणस्थान-सम्बन्धी उत्तानोस हेतुकों में से पन्द्रह घटा बेने पर रोज चौबोस रहते हैं। ये चौबीस तथा आहारक-द्वि फ, फुल छब्बीस हेतु छठे गुणस्थान में हैं। इस गुणस्थान में चतुर्दशपूवं चारो मुनि आहारकलब्धि के प्रयोग द्वारा श्राहारकशरीर रखते हैं इससे छबीस हेतुओं में आहारक-विक परिगणित है ।
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पर्मग्रन्थ भाग चार
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क्रियशरीरके प्रारम्भ और परित्यागके समय वैक्रियमिभ तथा माहारकशरीरके भारम्भ और परित्यागके समय माहारकमिभ-योग होता है, पर उस समय प्रभस-भाव होने के कारण सातवां गुणवान नहीं होता। इस कारण इस गुणस्थानके पन्ध हेतुभोंमें ये दो योग नहीं गिने गये हैं।
वैफ्रियशरीरबालेको वैकियकाययोग और आहारकशरीरपालेको माहारककाययोग होता है। ये दो शरीरवाले अधिकसे अधिक सातवें गुणवानके ही अधिकारी है। आगेके गुणस्थानोंके नहीं। इस कारण पाळचे गुणस्थानके बन्ध-तुमोमें इन दो योगोंको नहीं गिना है ॥५५, ५६, ५७॥ मछहास सोल यायरि, सुहमे दस धेयसंजलणति विषा। वीणुवसति प्रलोभा, सजोगि पुष्बुस सगजोगा ॥२८॥
अपहागः पोडश बादरे, सूक्मे दश बेरसंज्वलननिकादिना । क्षीणोपशान्तेऽलोभाः, सयोगिनि पूर्वोक्तास्ससयोगाः ॥१८॥
अर्थ----अनिवृसिथाररसंपरायगुस्थान में हास्य पटकके सिवाय पूर्वोक वाईसमेसे शेष सोलह हेतु है। सूक्ष्मसंपरायगुणयाममें तीमवेद और तीन संव्यसन (लोमको मेड़कर)के सिवाय इस हेतु है। उपशान्तमोह तथा क्षीणमोह-गुस्थानों में संज्वखमलोभके सिवाय मी हेतु तथा सयोगिकेवलीगुणसानमै सास हेतु है जो सभी पोगरूप हैं। ___ भावार्थ-हास्य-पदकका उदय आठवेसे भागेके गुणस्थानों में नहीं होता; इसलिये उसे छोड़कर आठवे गुणस्थानके वासि तुओंमें से शेष सोलह देतु भौचे गुणस्थानमें समझने चाहिये। .. तीन वेद तथा संज्वलन-क्रोध, मान और माया, इन छहका उदय नौधै गुणस्थान तक ही होता है, इस कारण इन्हें छोड़कर शेष दस हेतु दस गुणहानमै कहे गये हैं।
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कर्मग्रन्थ-भाग चार
संज्वलनलोभका उदय दसवें गुणवान तक ही रहता रखलिये इसके सिवाय उक वसमेंसे शेष नौ हेतु ग्यारहवे तथा बारह गुणस्थानमै पाये जाते हैं। नौ हेतु ये हैं: बार मनोयोग, खार बचनयोग और एक औदारिफकाययोग।
मेरहवं गुणस्थान में सात हेतु है:-सस्य और असत्यामुषमनोयोग, सत्य और असत्यामृषषचनयोग, औदारिककाययोग, धौदारिकमिअकाफ्योग तथा कार्मणकाययोग !
चौदहवं गुणस्थान में योगका अमाय है इसलिये इसमें बन्ध-हेतु सर्वथा नहीं है || ५ ॥
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कर्मग्रन्थ माग चार
(६)-गुणस्थानोंमें बन्छ । अपमसंता सत्त-हमीसअपुष्वधायरा सत्त । पंधइ पस्सुहुमो ए,-मुथरिमा पंधगाजोगी ॥६॥
मप्रमचाम्सारसप्ताष्टान् मिभापूर्वबादरासप्त । बभाति षट् च सूक्ष्म एकमुपरिवना अबन्धकोऽयोगी ॥५॥ अर्थ-अप्रमत्तगुणवान पर्यन्त सास या माठ प्रकृतिधोका बन्ध होता है। मिश्र, अपूर्षकरण और अनिवृत्तिवादर-गुलखानमें सारा प्रकृसिनोका, सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानमें छह प्रकृतिौका और उपशान्तमोह आदि तीन गुणसानोंमें एक प्रकृतिका पन्ध होता है। अयोगिकेवलीगुणस्थानमें बन्ध नहीं होता MER ___ भावार्थ-तीसरेके सिवाय पहिलेसे लेकर सात तकके छह गुणवानोंमें मुल कर्मप्रकृतियाँ सात या भाठ बाँधी जाती है। आयु बाँधने के समय पाठका और उसे न बाँधनेके समय सातका पन्ध समझना चाहिये।
तीसरे, पाठये और नौ गुणस्वाममें मायुका बन्ध न होनेके कारण सातका ही बन्ध होता है। पाठघे और नौवे गुणस्थानमें परिणाम इतने अधिक विशुभ हो जाते हैं कि जिससे उनमें पायु. बन्ध-योग्य परिणाम ही नही रहते और तीसरे गुस्थानका खभाव ही ऐसा है कि उसमें पायुका पन्ध नहीं होता।
दसवें गुणवानमें भायु और मोहनीयका बम्ध न होने के कारण पहका बन्ध माना जाता है। परिणाम प्रसिविराद्ध हो जामेसे आयु.
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-यहा मे दरवी गाथा तकका विषय, पञ्चसंग्रहके ५३ भारती २, ३री और ५वं. गापामै ।
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कर्मग्रन्य भाग पार
का बन्ध और बादरकपायोक्य न होनेसे मोहनीयका बन्ध उसमें
वर्जित है। ... ग्यारहवें आदि तीन गुणस्थानों में केवल सातवेदनीयका बन्ध __ होता है। क्योंकि उनमें कवायोदय सर्वथा न होनेसे अन्य प्रकृतिका बन्ध असंभव है।
सारांश यह है कि तीसरे, आठवें और नौ गुणस्थानमें सातका हो पन्धखान: पहले, दूसरे, चौथे, पाँच, छठे और सातवें गुणवाममें सातका तथा 'प्राटका अन्धस्थान: इसमें छहका बन्धस्मान और ग्यारहवें, बारहवें और तेरहर्षे गुणपानमें एकका बन्धस्थान होता है ॥६॥
1---15 विमार, नन्दोमबकी भी गाथाको श्रीमलयगिरिंसिक ४१ने पसपर है।
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कर्मग्रन्य भाग पार
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(७-८)-गुणस्थानोंमें सत्ता तथा उदय । मासुहमं संतुदये, अट्ट वि मोह विणु सत्स स्वीमि । घउ चरिमदुगे अट्ठ उ, संते उपसंति सत्तुदए ॥६०॥
माम सदुदयेऽष्टापि मोई विना सप्त वीणे ।
चत्वारि चरमद्रिकेऽष्ट तु, सत्युपशान्ते सतोदये ॥६॥ अर्थ-सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान पर्यन्त आठ कर्मकी सत्ता तथा भास कर्मका उदय है। क्षोणमोहगुणस्थान में सत्ता और उदय, दोनों सात काँके है । सयोगिकेचली और प्रयोगिफेयली-गुणस्थानमें सत्ता
और उदय चार कमौके हैं। उपसान्तमोगुणस्थानमें सत्ता आठ कर्मको और उदय सात कर्मका है ॥१०॥
भाषा---पहले दस गुणस्थानों सत्ता-गत तथा उदयमान आठ कर्म पाये जाते हैं। ग्यारहवें गुणम्यानमें मोहनीयकर्म सप्ता-रत रहता है, पर उदयमान नहीं, इसलिये उसमें सत्ता माठ कर्मकी
और उदय सात कर्मका है। पारा गुणस्थानमें माननीयदर्म सर्यथा नष्ट हो जाता है, इसलिये सच्चा और उदय दानी सात कर्म के हैं। लेरहये और चौदहवें गुणस्थानमें सत्ता-गत और उदयमान चार मासिकर्म ही हैं।
सारांश यह है कि ससास्थान पहले ग्यारह गुणम्पानों में पाठका. बारहवें में सातका और तेरहवे और चौवहमें चारका है तथा उदय स्मान पहले इस गुणस्थानोमें आठका, ग्यारह और पारस्में सात. का और तेरहवें और चौवहय में चारका है ||१०||
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कर्मग्रन्थ भाग यार
( ९ ) - गुणस्थानों में उदीरणा । [ दो गायासे ॥]
उरंति पमसंता, सगट्ठ भीसह वेयचाउ षिणा । बग अपमसाइ तो, छ पंच सुमो पणुबसंतो ॥ ६१ ॥
उदीरयन्ति प्रमान्ताः सप्ताष्टानि मिश्रोऽष्ट वेदायुषी बिना शान्तः ॥३९॥
मप्रमादयस्ततः, षट् पञ्च सूक्ष्मः
अर्थ--प्रमत्तगुणस्थान पर्यन्त सात या आठ कर्मकी उदारणा होती है। मिश्रगुणस्थानमें आठ कर्मकी, अप्रमत्त, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिवादर इन तीन गुणस्थानों में वेदनीय तथा आयुके सिवाय छह कर्म की सूक्ष्म पराय गुणस्थान में छह या पाँच कर्म की और उपशान्तमोगुणस्थानमें पाँच कर्मकी उदीरणा होती है ॥६२॥
भाषार्थ - उदीरणाका विचार समझने के लिये यह नियम ध्यानमें रखना चाहिये कि जो कर्म उदयमान हो उसीको उदीरणा होती हैं, अनुदयमानकी नहीं। उदयमान कर्म प्रालिका प्रमाण शेष रहता है, उस समय उसकी उदीरणा रुक जाती है।
तीसरेको छोड़ प्रथमसे छठे तक के पहले पाँच गुणस्थानों में लात या आठ फर्मको उदीरणा होती है। आयुकी उदीरणा न होने के समय सात कर्म की और होनेके समय आठ कर्मको समझनी चाहिये । उक नियमके अनुसार भायुकी उदीरणा उस समय रुक जाती है, जिस समय वर्तमान भयकी प्रायु भाषतिका प्रमास शेष रहती है। यद्यपि वर्तमान-भवीय आयुके प्राथलिकामात्र बाकी रहनेके समय परभीय मायुकी स्थिति आवलिकाले अधिक होती है तथापि अनु
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कभंगाच भाग पार
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नयमान होने के कारण उसकी उदीरणा उस नियम के अनुसार नहीं होती।
तीसरे गुणसानमें मात्र कर्मको ही उदीरणा मानी जाती है, क्योंकि इस गुणस्थानमें मृत्यु नहीं होती। इस कारण मायुको अन्तिम मावलिकामें, जब कि उदीरणा रुक जाती है, इस गुणस्थानका संभव ही नहीं है।
सार, साय बौधौ गुणवाा की धारणा होती है, भायु और वेदनीय कर्मकी नहीं। इसका कारण यह है कि इन शे फोकी उदीरणाकेलिये जैसे अध्यवसाय भावश्यक है, उक्त तीन गुणस्थानों में अतिविशुद्धि होने के कारण बैसे मध्यवसाय नहीं होते।
दसवें गुणस्थानमें वह अथवा पाँच कर्मकी उदारणा होती है। मायु और वेदनीयको उदीरणा न होने के समय छह कर्मको तथा उक्त यो कर्म और मोहनीयकी उदीरणा न होने के समय पाँचकी समझना चाहिये । मोहनीयको उदीरणा यशम गुणवानकी अन्तिम प्रावलि कामें रुक जाती है। सो इसलिये कि उस समय इसको स्पिति भावलिका प्रमाण शेष रहती है। ___ म्यारधि गुणस्थानमें श्रायु, वेदनीय योर मोहनीर की उदारणा न होने के कारण पाँचकी उदारणा होती है। इस गुणस्थानमै रवयमाम न होने के कारण मोहनीयको वीरणा निषिद है
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कमेपन्य भाप पार
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(१०)-गुणस्थानोंमें अल्प-बहुत्वं ।
[दो गायामोंसे ।] पण दो खीण दु जोगी,-गुदीरगु भजोगि यशेष उपसंता। * संखगुण खीण सुहमा,-नियहीअव सम अहिया ॥२॥
पर ट्रे क्षोणो दे योग्यनुदारोऽयोगी स्तोका उपशान्ताः । संध्यगुणा: शीयाः सूक्ष्माऽनित्यपूर्वाः समा आईकाः ॥ ६२॥ अर्थ-जोख मोहगुणस्थानमै पाँच या दो फर्मकी उदारणा है और सोगिकेवलीगुणस्थानमै सिर्फ दो कर्मकी । अयोगिकेवखीगुरगम्यान में उदीरणाका मारा है।।
उपशान्तमोहगुणस्थान पर्ती जीव सबसे थोड़े हैं। णमोहगुणस्थान-वी जीव उनसे संस्थातगुण हैं । सूश्मसंपराय, अनिवृत्तिादर
और अपूर्वकरण, इन तीन गुणस्थानों में धनमान औव क्षीणमोहगुणस्थानवालोले विशेषाधिक है, पर आपस में तुरूप है ॥६॥
भाषाय-बारहने गुणस्थानमें अन्तिम श्रावलिकाको छोड़कर अन्य सथ समय में भायु, वेदनीय और मोहनीयके सिवाय पाँच कर्मशी उदीरणा होती रहती है। अन्तिम प्राधािकामशानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय की स्थिति प्रालिका प्रमाण शेष रहती है। इसलिये उस समय उनकी उदीरणा सक जातीहै। शेष दो (नाम और गोश) की उदीरणा रहती है।
तेरहवं गुणस्थाममें चार अधातिकर्म ही शेप रहते हैं। इनमेसे आयु और वेदनीयकी उदारणा तो पहले से हो सकी हुई है। इसी कारण इस गुणस्थानमें दो कर्मको उदीरणा मानी गई है।
१-या विषय, पचभ प्रह- २का ८० और ८१ वा वाधा है गोम्मटसार जीवकः ३२२से १२८ तकको माथा भौमे कुछ भित्रस्पसे है।
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कर्मग्रम्ब-भाग चार
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चौदहवें गुणवान योगका प्रभाव है। योग के सिवाय ददौरा नहीं हो सकती, इस कारण इसमें उदीरणाका प्रभाव है।
सारांश पर है कि तीसरे गुणस्थान में आठहीका उदीरणालान, पहले, दूसरे, खोये, पाँच और छठे सातका तथा अडका, सातवेंसे पोकर दसवें गुणस्थानको एक अवलिका बाकी रहे तब तक छहका, दसकी अन्तिम आवलिकासे बारहवे गुणस्थानको धरम मावलिका शेष रहे तब तक पाँचका और बारहवेंकी परम भाथलिकाले तेरहवें गुणसाम के अन्त तक दोका उदीरणास्थान पाया आता है।
अल्प बहुत्व |
म्यारहवे गुणस्थानया से जीव अन्य प्रत्येक गुणस्थानवाले जीवोंसे अल्प है, क्योंकि वे प्रतिपद्यमान ( किसी विवक्षित समयमें उस अवस्थाको पानेवाले) चौमन और प्रतिपक्ष (किसी विवक्षित समयके पहिलेले उस अवस्थाको पाये हुए) एक दो या तीन आदि पाये आते हैं। बारहवे गुणस्थानवाले प्रतिपद्यमान उत्कृष्ट एक सौ आठ और पूर्वप्रतिपक्ष शत-पृथक्त्व (दो सीसे नौ सौ तक) पाये जाते हैं, इसलिये ये ग्यारहवें गुरुस्थानवालोंसे संस्थातगुरु कहे गये हैं। उपशमश्रेणिके प्रतिपद्यमान जीध उत्कृष्ट चौवन और पूर्वप्रतिपक्ष एक, दो, तीन आदि तथा क्षपकक्षेविके प्रतिपद्यमान उत्कृष्ट एक सौ आठ और पूर्वप्रतिपन्न शत- पृथक्त्व माने गये हैं । उभय श्रेणिषाले सभी आठवें, नौवें और दसवे गुणस्थानमें वर्तमान होते हैं। इसलिये इन तीनों गुणस्थानाले जीव भापसमें समान है किन्तु बारहवें गुणभानवालोंकी अपेक्षा विशेषअधिक हैं ।॥ ६२ ॥ जोगिअपमतइयरे, संखगुपा देससासणामांसा । भविश्य अजोगिमिषा, भसंस्ख चउरो दुवे ता ॥ ६३॥
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कर्मनाय भाग चार
योग्यप्रमखतर!:, संख्यगुणा देशमासादमिश्राः । मषिरता अयोगिर्मिग्यास्वनि मसंख्यारमत्वारों द्वापनन्ती ।।१॥ अर्थ-सयोगिफेवलो, अपमस और ममसगुणस्थानकाले जीष पूर्व-पूर्व से संन्यातगुण हैं। पेशविरति, सासादन, मिश्र और अविरतसम्यग्रधि-गुणस्थानषाले जीव पूर्ष-पूर्वसे प्रसंगातगुण हैं। अयोपिकवली और मिथ्याधि-गुणसानघाले जीव पूर्व-पूर्वसे अनन्तगुण हैं ॥६॥
भावार्थ-तेरह गुणसानवालेभाठ गुणवामवालोले संक्यातगुण इसलिये कहे गये हैं कि ये जवन्य दो करोड़ और उत्कृष्ट नौ करोड़ होते हैं । सात गुणसानघाले दो हजार करोड़ पाये जाते हैं। इसलिये ये सयोगिकेलियोसे संख्यातगुण हैं। छठे गुणस्थानवाले नौ हजार करोड़ शक हो जाते हैं। इसी कारण उन्हें सात गुणसारपालोंसे संख्यातगुण माना है। असंशयाव गर्भज-तिर्यश्चमी देशविरति पा लेते हैं, इसलिये गाँच गुणस्थानवाले छठे गुणस्थामवालों से असंख्यातगुण हो जाते हैं। दूसरे गुणवानवाले देशविरतिक्षालोंसे प्रसंक्यातगुण कहे गये हैं। इसका कारण यह है कि देशविराति, तिर्य-मनुष्य दो गतिमें की होती है, पर सासादनसम्यक्त्व चारों गतिमें । सासादनसम्यक्त्व और मिथरष्टि. ये दोनों पद्यपि चारों गतिमें होते हैं परन्तु सालानसम्यक्त्वको अपेक्षा मिश्राधिका काल-मान प्रसंस्थासगुण अधिक है। इस कारण मिश्ररष्टियाले सासा. दनसम्यक्त्वियोकी अपेक्षा असंख्यातगुण होते हैं। खौथा गुणसान पारों गतिमें सदा ही पाया जाता है और उसका काल-मान भी पास अधिक है, अत एय बोये गुणस्थानयासे तीसरे गुणस्थानवालोंसे मसंख्यातगुण होते हैं। यपपि भवस्थ भयोगी, अपकशिवालोके परावर अर्थात् शत-पृथक्त्या प्रमाणही है तथापि प्रभवस्थ प्रयोगी
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कर्मग्रम्प भाग पार
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(सिख) अनन्त है, इसीले प्रयोगिकेवली जीप चौधेगुणस्थानघालोंसे अनन्तगुण कहे गये हैं। साधारण घनस्पतिकायिक जीध सिखोंसे भी अनन्तगुण है और वे सभी मिथ्याटि है। इसीसे मिथ्याधि. थाले बौदह गुणस्थानवालीसे मनम्तगुण हैं।
पहला, चौथा, पौषों, छठा, सातों और सेरहवाँ, ये छह गुणस्थान खोकमै लगानीमाये जाते हैं, रोग सार गुनयान कड़ी गड़ी भी पाये जाते; पाये जाते हैं तब भी उनमें वर्तमान जीवोंकी संख्या कमी जघन्य और कभी उस्कृष्ट रहती है। ऊपर कहा दुमा भल्प-बहुत्व उत्कृष्ट संख्याकी अपेक्षासे समझना चाहिये, अघन्य संख्याको अपे. शासे नहीं, क्योकि अन्य संख्याके समय जीवोंका प्रमाण उपर्युक अल्प-बहुत्वके विपरीत भी हो जाता है। उदाहरणार्थ, कभी ग्यारह गुणस्थानवाले बारह गुणस्थानबालोसे अधिक भी हो जाते है। सारांश, उपर्युक्त भल्प-बहुत्य सषगुणस्थानों में जीवों के उत्प-संख्यक पाये जानेके समय ही घट सकता है ॥६॥
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फर्मग्रन्थ भाग चार
छह भाव और उनके भेदं ।
पाँच गाथाओंसे ! उपसमलपमीसोदय, परिणामा दुनवट्ठारगवीसा । तिय भय संनिवाइय, संमं चरण पढममावे॥ ४ ॥
उपशमक्षयमिभोदयपरिणाम निघाष्टादशेकविंशत्यः। भयो मेदास्तानिपातिकः, सम्यक्ष चरणं प्रथममाये ॥१॥ प्रथं-औपशमिक, शायिक, मिश्र (क्षायोपशमिक), औषयिक और पारिवामिक, ये पाँच मूल भाव हैं। इनके क्रमशः दो, मौ, अठारह, रकीस और तीन मेड हैं। छठा भाव सांनिपातिक है। पहले (ौपशामिक) भाषके सम्यक्स्प और चारित्र,ये दो भेद हैं ॥६३०
भावार्थ-भाष, पर्यायको कहते हैं। अजीयका पर्याय अजीवका भाष और जीवका पर्याय जीवका भाव है। इस गाया जीवके माष दिखाये हैं। ये मूल भाव पाँच हैं।
१-प्रौपशर्मिक-भान यह है, जो उपशमसे होता है। प्रदेश और विपाक, दोनों प्रकार के कर्मोदयका रुक जाना उपशम है।
-ज्ञायिक-भाव वह है, ओ कर्मका सर्वथा क्षय हो जाने पर प्रगट होता है।
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१-- HTHEt, अनुयोगदाफे ११३ से १२७ सबके परमे; तस्वार्थ-अ.के रसे उतक्के सत्रमें तया सत्रान-निकी १०वी गापा नशा उसको सका है। वसंघर-
ताको मोगाषामे मा २को ३गे गाथाकी टीका तथा समार्थ विचार-सारोबारको ५२से ५७ बाकी गाथाभौम नामका विग्तारपूर्वक वर्णन है।
गोम्मटमार कर्मकाण्ड में हम विषयका 'भावधूलिका नानक क सास प्रकरण है। भावों भेद-उमेद साध उसको १५ से १९ समको माया परे। भागे उसमें को सराय भामाशा रिसाये।
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कर्मग्रन्प भाग भार
-मायोपथमिक-माव क्षयोपशमसे प्रगट होता है। कर्मके उप. यावलि-अषिष्ट मम्द रसस्पर्धकका पाय और अनुदयमान रसस्पधककी सर्वासिनी विपाक-शक्तिका निरोध या देण्यातिलपमें परिखमन प तीन शक्तिका मन्द शक्तिरूपमें परिणमम ( उपशम), क्षयो
४-ौदायिक-भाष कर्मक उदयसे होनेवाला पर्याय है।
५-पारिणामिक-भाव स्वमायने ही स्वरूपमें परिणत होते रहना है।
एक-एक मायको 'मूलभाष और दो या दास अधिक मिले हुए माचौको 'सामिपातिकमाव' समझना चाहिये ।
भावोंके उत्तर भेद:--ौपशामिक-भावके सम्यक्त्व और चारित्र ये दो ही मेद है। (१) मगन्तानुबन्धि-चतुष्कके शयापशम या उपशम
और दर्शनमोहनीयकर्मके उपशमसे जो तत्व-कचि-याक भात्यपरिणाम प्रगट होता है, यह 'श्रीपशर्मिकसम्यक्त्व है। (२) चारित्रमोहनीयकी पचीस प्रकृतियोंके उपशमसे व्यक्त होनेवाला स्थिरतात्मक परिणाम 'औपमिकचारिश है। यही म्यारहवं गुणस्थानमें प्राप्त होनेवाला 'यथास्थातचारित्र' है। भोपशमिक-भाव सादि-सान्त है ॥६॥ पीए केवलजुयलं, संमं दाणाहलद्धि पण धरणं । तइए सेसुरमोगा, पण लदी सम्मविरइदुगं ।। ६५ ।। दिचीये केवळ युगलं, सम्यग् दानादिलब्धयः पञ्च चरणम् । तृतीये शेषोपयोगाः, पञ्य सम्पयः सम्यगपिरतिदिकम् ॥ १५ ॥
अर्थ-दूसरे (क्षायिक-भाषके केषता-द्विक, सम्यक्रव, दाम मावि पांच सब्धियाँ और बारित्र, ये मौ मेद है। तीसरे (क्षायोपशमिक-)
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कर्मेद्र भाग चार
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भावके केवल द्विकको छोड़कर शेष दस उपयोग, दान आदि पाँच abar, सम्यक्त्व और धिरति-द्विक, ये अठारह भेद हैं ॥ ६५ ॥ भाषार्थ -- क्षायिक भावके नौ मे हैं। केकी केवलदर्शन, ये दो मात्र क्रमले केवलज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरणीय कर्मके सर्वथा जय हो जानेसे प्रगट होते हैं। दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य, ये पाँच लब्धियाँ क्रमशः दानान्तराय, सामान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय-कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने से प्रगट होती है। सम्यक्स्थ, अनम्तानुबन्धिचतुष्क और दर्शनमोहनीयके सर्वथा क्षय हो जानेसे व्यक्त होता है। चारित्र, चारित्रमोहनीय कर्मको सब प्रकृतियोंका सर्वथा क्षय हो जानेपर प्रगट होता है। यही बारहवे गुणस्थानमें प्राप्त होनेवाला 'यथाख्यात चारित्र' है। सभी क्षायिक-भाव कर्म-दाय-अन्य होने के कारण 'सावि' और कर्मसे फिर आवृत न हो सकने के कारण अनन्त हैं। क्षायोपशमिक-भाव के अठारह भेद हैं। जैसे:- बारह उपयो गौसे केवल द्विकको छोड़कर शेष दस उपयोग, दान आदि पाँच सन्धि, सम्यक्त्व और देशविरति तथा सर्वविरति चारित्र । मतिज्ञान-मति- अज्ञान, मतिज्ञानावरणीयके क्षयोपशम से श्रुतज्ञाम-श्रुत महान, श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से; अवधिज्ञान-विभङ्गज्ञान, अधिकामावरणीय कर्मके दक्षयोपशमसेः मनः पर्यायान, मनःपर्यायज्ञानावरणीयकर्मके क्षयोपशम से और चतुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन और अवधिदर्शन, क्रमसे चच्तुर्दर्शनावरणीय अचतुर्दर्शनावरणीय और अवधिदर्शनावरणीयकर्म के क्षयोपशमसे प्रगट होते हैं। दान आदि पाँच सब्धियाँ दानान्तराय आदि पाँच प्रकारके अन्तरायकर्म के दयोपचमसे होती है। अनन्तानुवन्धकपाय और दर्शनमोहनीय के क्षयोपशुमसे सम्यक्त्व होता है । श्रप्रत्याख्यानावरणीय कषायके क्षयोपशुमसे देशविरतिका आविर्भाव होता है और प्रत्याययानाघर
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कर्मग्रन्थ भाग चार
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णौयकषायके क्षयोपशम से सर्वविरतिका। मति अज्ञान आदि क्षायोपशमिक-भाष अभय के अनादि-अनन्त और विज्ञान प्रादि-सान्त है । मतिज्ञान आदि भाव भव्यके सावि-साम्त और दान आदि लब्धियाँ तथा अजुदर्शन अनादि साम्स हैं ॥ ६५ ॥
अन्नायमसिद्धता, संजमलेसा कसाग्रगइवेया । मिच्छ्रं तुरिए भब्बा, भव्वत्तजियन्स परिणामे || ३६ || अज्ञानमसिद्धत्वाऽवमलश्याकमा गतिवेदाः ।
मिष्याणं तु भव्याऽभव्यस्वजीवत्वानि परिणामे ॥ ६६ ॥
अर्थ- महान, असित्य, असंयम, लेश्या, कषाय, गति, वेद और मिथ्यात्य, ये भेद चौथे (औवधिक) भावके हैं। मध्यत्व, अभव्यत्व और जीवत्व, ये पारिणामिक-भाव है ॥६६॥
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भावार्थ- श्रीदयिक भाव के इकील भेद है। जैसे :- महान, असि त्व असंयम, इ लेश्याएँ, चार कपाय, चार गतियाँ, तीन वेद और मिथ्यात्व | अज्ञान का मतलब ज्ञानका अभाव और मिथ्याज्ञान दोनोंसे है । हानका अभाव शामावरणीयकर्म के उदयका और मिउपादान मिथ्यात्वमोहनीय कर्मके उदयका फल है। इसलिये दोनों प्रकारका अज्ञान औधिक है। असिद्धत्व, संसारावस्थाको कहते हैं। यह, आठ
१ - निद्रा, सुख, दुःख, हास्य, शरीर आदि असंख्यात भाव जो भिन्न-भिन्न कर्मके उदय से होते हैं, वे सभी कौटिक है, स्थापि इस जगह श्रीमति आदि पूर्वाचार्योंके कथनका अनु सरण करके स्थूल दृष्टि औयिक भाव बताये है।
यहाँ
२ – मति शान, श्रुत-तान और विज्ञानको पिछली गाथामै खायोपशमिक भीर कि कहा है। क्षायोपशनिक इस अपेक्षा से कहा है कि ये उपयोग मतिज्ञानावरणीय आदि कर्म के क्षयोपशम-जन्य है और दकि इस अपेक्षा से कहा है कि इनकी भाका कारण मिध्यालमोहनीय कर्मका हृदय है।
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कर्मनन्य भाग पार
---------... .. . कर्मके उदयका फल है। प्रसंगम, पिरतिका अभाव है। यह अप्रत्यानपानापरणीपकपायके उदयका परिणाम है। मत-भेदसे पाके तीन स्वरूप है:-(१) कापापिक-परिणाम, (२) कर्म-परिणति और (३) योगपरिणाम। ये तीनों प्रौदयिक ही हैं, क्योंकि काषायिक परिणाम कवायके उदयका, कम-परिणत कर्म के उदयका और योग-परिणाम शूरीरनामकर्म के पदयका कला है । कषाय, कायमोहनीयकर्मके उदयसे होता है। गतियाँ गतिमामकर्मके उदय-जन्य हैं। इध्य और भाय बोनों प्रकार का वेद औदायिक है । प्राकृतिकप द्रव्यद म्योपासनामकर्मके उदयसे और अभिलावारूप भाषवेद दमोहनीयके उदयसे होता है। मिथ्यात्य, अविवेकपूर्ण गादतम मोह है, जो मिथ्यात्वमोहनीयकर्म के उदयका परिणाम है। मोदयिक-भाय अभव्यके अनादि-मनन्त और मन्यके बहुधा अनादि-सान्त है।
जीवत्य, भव्यत्व और अभव्यत्व, ये तीन पारिवामिक-भाव है। प्राण धारण करना जीवत्व है। यह भाष संसारी और सिद्ध सब जीवों में मौजूद होने के कारण भव्यत्व और प्रभव्यत्वकी अपेक्षा व्यापक (अधिक-देश-स्थायी) है । भव्यत्व सिर्फ भव्य जीपों में और प्रभव्यत्व सिर्फ अमव्य जोधों में है। पारिणामिक-माव अनादि-अनन्त है।
पाँच भाषों के सब मिलाकर पन भेद होते हैं:---श्रीपशमिकके दो, क्षायिकके नौ, कायोपशमिकके अठारह, मौदयिकके इकोस और पारिणामिकके तीन !६६६॥ चउ चउगईसुमीसग, परिणामुदपहिं पर सखइएहिं। उपसमजुएहि वा घड़, केवलि परिणामुद्यखहए ॥६॥ खगपरिणामे सिद्धा, नराण पणजोगुवसमसेहीए। इय पनर संनिवाइय, भेया वीसं असंभाविणो ॥१८॥
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कर्मग्रन्थ भाग चार
चत्वारश्चतुर्गतिषु मिश्रकपरिणामोद मत्वारः मापकैः । उपद्यमयुतां चस्कारः, केवली परिणामोदनाविके ॥१ शवपरिणामे सिद्धा, नराणां पञ्चभोग उपशमष्याम् । इति पञ्चदश सांनिपातिक्रमेदा विंशविरमविनः ॥ ६८ ॥
अर्थ-लायोपशमिक, पारिणामिक और प्रौदबिक, इन सीन भावका त्रिक-संयोगरूप सांनिपातिक-भाव र गतिमें पाये जाने के कारण चार प्रकारका है। उक्त तीन और एक शाबिक, इन चार भावका चतुः संयोगरूप सांनिपातिक-भाष तथा उक्त तीन और एक औपशमिक इन चारका चतुः- संयोगरूप सांनिपातिक भाव बार गतिमें होता है। इसलिये वे दो सांनिपातिक-भाव भी चार-चार प्रकारके हैं। पारिग्रामिण, औदधिक श्रीराधिका त्रिक-संयोगरूप लांनिपातिक भाव सिर्फ शरीरधारी केवलानीको होता है। ज्ञायिक और पारिणामिकका द्विक संयोगरूप सांनिपातिक-भाव सिर्फ सिद्ध जीवों में पाया जाता है । पाँचों भावका पश्च संयोगरूप सांनिपातिक-भाव, उपभ्रमश्रेणिवाले मनुष्योंमें ही होता है । रीतिसे छह सांनिपातिक भावोंके पंद्रह भेद होते हैं। शेष बीस सांनिपातिक भाव संभवी अर्थात् शुन्य है । ६७॥६८॥
उ
י
૨૦
भावार्थ - श्रपशमिक आदि पांच भाषोमैसे दो, तीन, चार या पाँच भावोंके मिलने पर सांनिपातिक-भाव होता है। दो माधोके मेलले होनेवाला सांनिपातिक 'द्विक-संयोग', तीन भाषौके मेलसे होनेवाला 'त्रिक संयोग', चार भावो के मेल से होनेवाला 'चतुस्संयोग और पाँव भावके मेलसे होनेवाला 'पञ्च-संयोग' कहलाता है। द्विक-संयोगके दस भेद:
१ - औपशमिक + क्षायिक ।
२- श्रपशमिक + क्षायोपशमिक |
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३ श्रपशमिक + औौदधिक ।
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४- श्रीपयमिक + पारिणामिक ५ - क्षायिक + क्षायोपशमिक । ६- क्षायिक + श्रदयिक | - क्षायिक + पारिणामिक | - क्षायोपशमिक + मौयिक । है--- क्षायोपशमिक पारिमिक १० - मौदयिक + पारिणामिक |
कर्मग्रम्य भाग बार
त्रिक संयोग के दस भेद:
१-- श्रपशमिक + क्षायिक + क्षायोपशमिक । २- श्रपशमिक + क्षायिक + श्रीयिक | ३- औपशमिक + क्षायिक + पारिणामिक । ४ - भौपशमिक + क्षायोपशमिक + औौदयिक ५- ओपशमिक + क्षायोपशमिक + पारिणामिक | ६ - औपशमिक + इयिक + पारिणामिक | ७ -- क्षायिक + क्षायोपशमिक + श्रवचिक ।
-- क्षायिक + क्षायोपशमिक + पारिणामिक | -- क्षायिक + श्रदयिक + पारिणामिक । १०- क्षायोपशमिक + पारिणामिक + औदपि ।
चतुः संयोग के पाँच भेद:
१-- श्रपशमिक + क्षायिक + क्षायोपशमिक + श्रदयिक २- प्रपशमिक + क्षायिक + क्षायोपशमिक + पारिणामिक ३- श्रपशमिक + क्षायिक + अधिक + पारिणामिक ।
४ -- औपशमिक + क्षायोपशमिक + प्रदयिक + पारिणामिक । ५- क्षायिक + क्षायोपशमिक + श्रदयिक + पारिश्रामिक ।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
पश्च-संयोगका एक भेदः - १-औपशमिक+क्षायिक+क्षायोपशामिक +ौदायिक + पारिणामिक
सब मिलाकर सोनिपातिक-भाष के छुम्बीस भेद हुए । इमसे जो छह भेद जीयों में पाये जाते हैं, उन्हींकोनिदो गाथाश्रामे दिखाया है।
त्रिष-संयोगके उक्त दल भेदों मेसे दसवाँ भेद, ओक्षायोपशमिक, पारिरणामिक और श्रीदयिक मेलसे पता है, वह चारों गति में पाया आता है । सो इस प्रकार:--बारोगतिके जीवोम क्षायोपशामिक-भाष भावेन्द्रिय शादिरूप, पारिवामिक-भाव जीवत्व भादिरूप और औद: यिक-भाय कागय श्रादिरूप है। इस तरह इस त्रिक-संयोगके गति. रूप स्थान-मेवप्ले धार भेद gए ।
चतुः-संयोग के उक्त गाँध भेड़ोंमेंसे पाँचों भेष चारों गतिमें पाया जाना है. इसलिये इसके भी स्थान-भेदसे चार भेद होते हैं। चारों गनिमें क्षायिक-भाव क्षायिकसम्यस्त्वरूप, क्षायोपशामक भाष भायेन्द्रिय श्रादिरूप, परिणामिका-भाव जीवत्व शादिरूप और औदायिक-भाष काय श्रादिरूप है।
तुः संयोगके पाँच भेदोम चौधा भेद चारों गतिमें पाया जाता है। चारों गति औपशासिक-भाव सम्यक्त्वरूप, क्षायोपशमिकभाष भावेन्द्रिय प्रादिरूप, पारिणामिक-माय जीयत्व आविरूप और श्रीवधिक गाव काय आदिमाप समझना चाहिये । इस धतुः संयोग सांनिपानिकके भी गतिका हान-भेदसे चार भेद हुए।
त्रिक-संयोगके उत्त मस भेदोंमेंस जीवों द सिर्फ भवस्य केवलियों होताइसलिये वह एक ही प्रकारका है। केवलियों में धारिणामिन-भाव जीवत्व श्रादिरूष, प्रौदायिक-भाव गलि साविकर
और क्षायिक मात्र केवलज्ञान प्राधिकार है। ___विक-संयोगके उक्त दस भेदोंमें से सातवाँ भेद सिर्फ सिद्ध जीवोंमें पाये जाने के कारण एक ही प्रकारका है। सियों में पारिणामिक
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कर्मग्रभ्थ भाग चार
રાય
भाव जीवत्व आदिरूप भीर क्षायिक-भाव केवलज्ञान आदिरूप है । पञ्च- संयोगरूप सांनिपातिक-भाव सिर्फ उपशममेदिवाले मतुहोता है। इस कारण वह एक ही प्रकारका है: उपशमश्रेणिवाले मनुष्योंमें शायिक-भाव सम्ययरूप
-
रूप, क्षायोपशमिक-भाव भावेन्द्रिय शादिरूप, पारिणामिक-भाव जीवत्व आदिरूप और मौदयिक भाव लेश्या आविरूप है।
इस प्रकार जो हह सांनिपातिक-भाव संभववाले हैं. इनके ऊपर हिके अनुसार साम-मेसे सब मिलाकर पन्द्रह भेद होते हैं ॥ ६७ ॥ ६८ ॥ कर्मके और धर्मास्तिकाय आदि अजीवद्रव्यों भाष । मोहेब समो मीसो, वडवाइस अट्ठकंमसु च सेसा । धम्माइ पारिणामिय, मावे संधा उदाए षि ॥ ६६ ॥ मोह एवं शमो मिति यष्टकर्मसु च शेषाः 1
धर्मादि पारिणामिकमा स्कन्धा उदयेऽपि ॥ ६९ ॥
अर्थ - श्रीपशमिक-भाव मोहनीय कर्म के ही होता है। मिश्र (क्षायोपशमिक) भाव चार घातिकमौके ही होता है। शेष तीन (ज्ञायिक, पारिणामिक और भौदयिक) भाव भाड़ों कर्मके होते हैं।
धर्मास्तिकाय आदि अजीवद्रव्यके पारिणामिक-भाव है किन्तु पुत्रल-स्कन्धके श्रदयिक और पारिणामिक, ये दो भाव हैं ॥ ६६ ॥ भावार्थ -- कर्मके सम्बन्धमें औपशमिकं आदि भाषका मतलब
१ – कर्मके भात्र, पचसंग्रह-द्वा० रेकी २५वी गाथामैवति है। २ - ० पशमिक शब्द के दो अर्थ है:
(?) कर्मको उपशम आदि अवस्थायें ही औपशमिक आदि भाव है। यह अर्थ कर्मके. भोला पड़ता है।
(२) कर्मका उपशम आदि अवस्थाओंसे होनेवाले पर्याय औपशमिक आदि भाव जोके भावों लागू पड़ता है, जो ६४ और ६६वी गाथामे बतलाये है
है।
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कर्मग्रन्थ माग पार
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बसकी अवस्था-विशेषोसे है। जैसे:- फर्म की उपग्राम अवस्था उसका श्रीपथमिक-भाव, क्षयोपशम अवस्था क्षायोपशमिक-भाव, जयअवस्था क्षायिक-भाष, उदय-अवस्था मदविक-भाष और परिभ्रमनअवस्था पारिणामिक-भाष है।
उपश्रम-अवस्था मोहनीयकर्मके सिवाय अन्य कमकी नहीं होती? इसलिये औपशमिक-भाष मोहनीयकर्मका ही कहा गया है। कबोपशुम चार घातिकर्मका ही होता है: इस कारण क्षायोपशमिक-भाव शालिकका ही माना गया है। विशेषता इतनी है कि केवलवानाधरणीय और केवलदर्शनावरणीय, इन दो धातिकर्म-प्रकृतिओोंके विपाकोदयका निरोधन होनेके कारण इनका क्षयोपशम नहीं होता । ज्ञायिक, पारिणामिक और औदयिक, ये तीन भाष घाठो कर्मके है: क्योंकि क्षय, परिणमन और उदय, ये तीन अवस्थाएँ आठो कर्म की होती हैं। सारांश यह है कि मोहनीयकर्मके पाँचों भाव, मोहनीयके सिवाय सीन घातिकर्मके चार भाव और चार भघातिकर्म के तीन भाष हैं । अजीवद्रव्यके भाष ।
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, श्राकाशास्तिकाय, काल और पुछवास्तिकाय, ये पाँच श्रजीवद्रव्य हैं। पुनास्तिकायके सिवाय शेष चार अजीवद्रव्योंके पारिणामिक-भाव ही होता है। धर्मास्तिकाय, जीव- पुत्रलोकी गतिमें सहायक बननेरूप अपने कार्यमें अनादि कालसे परिक्षत हुआ करता है। अधर्मास्तिकाय, स्थितिमै सहा
१- परियामिक शब्दका 'स्वरूप परिणमन', यह यक ही अर्थ है, जो सब में लागू ता है। जैसे:- कर्मका भी प्रदेशों के साथ विशिष्ट सम्बन्ध होना या द्रव्य, तंत्र, छाल और भाव आदि भिन्न-भिन्न निर्मित पाकर भनेकरूपमें संकान्त (परिवर्तित होते रहना कर्मका पारियाद है। जीवका परिणमन श्रीवत्वरूपमें भव्वस्वरूप में या अभ्रभ्यत्वरूप में स्वतः बने रहना है। इसी स्तिका आदि द्रव्य समझ लेना चाहिये।
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बनेरूप कार्य में; आकाशास्तिकाय, अवकाश देनेरूप कार्य में और काल, समय-यांवरूप स्व-कार्यमें यमादि कालसे परिणमन Pा करता है। पुन प्रत्यके शरिणामिक और औदायिक, ये दो भाव है। परमाणु-पुढलकर तो केवल पारिणामिक-भाव है; पर स्कस्वरूप पुनसके पारिवामिक और औदायिक, ये दो भाव हैं। स्कन्धोंमैं भी घणु कादि सादि स्कन्ध पारिणामिक-भाषघाले ही हैं, लेकिन प्रौदारिक आदि शरीररूष स्कन्ध पारिणामिक-श्रीवयिक दो भाष. वाले हैं। क्योंकि ये स्व-स्व-रूपमें परिणत होते रहने के कारण पारिणामिक-भाषवाले और औदारिक आदि शरीरनामफर्मके उदय-जम्य होने के कारण औदायिक-भाववाले हैं।
पुलद्रव्य के दो भाव कहे हुए हैं, सो कर्म-पुङ्गलसे भिन्न पुलके समझने चाहिये । कर्म-पुनसके तो औपशमिक आदि पाँचों भाष , मो ऊपर बतलाये गये हैं ॥
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--::-:
(११)-गुणस्थानोंमें मूल भावं ।
( एक जीवकी अपेक्षासे ।) संमाइषउमु लिग चउ, भावा च पणुषसामगुवसंते । बउ खीणापुब्ध तिमि लेसगुपट्टापगेगजिए॥७०||
सम्पमादिचतुर्यु प्रयश्चस्वारी, भावाचत्वारः पञ्चोपशमनोपशान्ते । चत्वारः क्षीमाऽपूर्व प्रय:, शेषगुणस्थानक एकजीवे || .. ॥
अर्थ-पक जीघको सम्माधि आदि खार गुणवानोंमें सीम या चार भाव होते हैं। उपरामक (नौ और दसवें) और उपशान्त (ग्यार. इ) गुणस्थानमें चार या पाँच भाव होते हैं। कोएमोह तथा पूर्व
----- .. .- ... . ...--.. १-देखिये, परिशिष्ट 'क'
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करण-गुसस्थानमें चार भाष होते हैं और शेष सब गुणस्थानों में तीन भाव ॥७॥
भावार्थ'-चौथे, पाँचवे, छठे और सातये, इन चार गुणस्यानोमें तीन या चार भाव हैं। तीम भाष ये हैं:-(१) श्रीवयिका-मनुम्ब मादिगति; (२) पारिणामिकः-श्रीवत्व आदि मौर।) सायोपशमिय:भाषेन्द्रिय, सम्पत्य आदि । ये तीन भाष झायोपशमिकसम्यावके समय पाये जाते हैं। परन्तु जप क्षायिक या औपथमिक सम्यक्त हो, तब इन दोमेंसे कोई-पक सम्यक्त्व तथा उक्त तीन, इस प्रकार बार भाव समझने चाहिये।
नौधे, दसवे और ग्यारहवे, इन तीन गुणस्थानोंमें चार या पाँच भाष पाये जाते हैं। चार भाव उस समय, जबकि प्रोपरामिडसम्यक्त्वी अोष पशमणिवाला हो । चार भावमें तीन तो उसकी और चौथा औपशमिक-सम्यक्त्व य चारित्र। पौध उकाल चौधा क्षायिकसम्यक्त्व और पाँचौं प्रौपरामिकचारित्र।
पाठवे और बारहये, इन दो गुणस्थानों में चार भाव होते हैं। पाठ में उक्त तीन और औपशमिक और क्षायिक, इन दो से कोई एक सम्यक्त्व, ये चार भाव समझने चाहिये। बारहवेमें उक्त तीन और चौथा शामिकसम्यक्त्व व क्षायिकषारित्र, ये चार भाव।
शेष पाँच (पहलो, दूसरे, तीसरे, सेरह और बौदहये) गुणस्थानों में तीन भाष हैं। पहले, दूसरे और तीसरे गुणस्थानमें छीवयिकः मनुष्य प्रावि गति; पारिणामिकः-जीवश्वमादि और क्षायो. पशमिका भावेन्द्रिय भादि, ये तीन भाष हैं। तेरहवे और चौवह गुणस्थानमें मौदपिका-मनुष्यत्व: पारिणामिका--जीवस्व और सायिकः-चान प्रापि, ये तीम भाव है ।।७०||
....... .. . .. .. . . . . -- १-२ परिशिष्ट ।
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( १२ ) - संख्याका विचारं ।
(dwr marià 1] संख्याके भेद-प्रभेद |
कर्मच-मान भार
संविवेगमसंं, परिसजुसनियपयजुधं तिविहं । एवमपि तिहा, जहन्नमज्भुकासा सब्बे ॥ ७१ ॥
संयमेवमेकम संख्यं परिश्रयुक्तनिजपदयुतं विविधम् ।
,
एथमनन्तमपि वा अधन्यमध्योत्कृष्टानि वर्षाणि ॥ ७१ ॥
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अर्थ-संक्यात एक है। असंख्यातके तीन भेद हैं: - (१) परीश, (२) युक्त और (३) निजपदयुक्त अर्थात् असंख्यातासंस्थात | इसी तरह अनन्तके भी तीन भेद है। इन सबके जयम्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये तीन-तीन भेद है ॥ ७१ ॥
भावार्थ -- शास्त्र संस्था तीन प्रकारकी एसओ (१) सध्या, (२) असंख्यात और (३) श्रमन्त । संख्यातका एक प्रकार, असंख्यातके तीन और अनन्तके तीन, इस तरह संख्याके कुल सात भेद हैं। प्रत्येक भेदके जयम्य, मध्यम और उत्कृष्ट-रूपसे तीन-तीन भेद करने
१
1
१- संख्या-विषयक विचार, मनुयोग-द्वारके २३४ से लेकर २४१ ४ त और लोकप्रकारा- वर्ग १ १२२ से लेकर १२ लोक तक में है। अनुयोगद्वार सूत्रने सैद्धा शिक-मत है। उसकी ठीकामै मलभारी श्रीमद्रसूरिने कामे अधिक मत्रका भी उल्लेख किया है। लोकप्रकाशमै दोनों मत संग्रहीत है।
श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्
गतिविरचिता त्रिलोकसारको १३से लेबर ५१ की गाथाओं में संख्याका विचार है। उसमें पम्प स्थानमें 'कुण्ड' शब्द प्रयुक्त है; गन भी कुछ जुड़े से । उसका वन कार्य पम्बिक -मवसे मिलता है।
'संस्था' शब्द गौद्ध-साहित्य में है, जिसका अर्थ '१'के अपर एक सी बाली जितनी संख्या है। इसकेलिये देखिये, जिसका पाली अँगरेजी कोषका ५१ पुत्र
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कमाथ-भाग चार
२०॥
L
पर बीस मेव होते हैं। सो इस प्रकार:-(१) अपन्य संश्यात, (२) मध्यम संख्यात और (6) उस्कृष्ट संख्याता (जपन्य परीचा. संख्यात, (५) मध्यम परीचासंख्यात और.(६)
उ परीचासंख्यात, (७) अबस्य युकासंख्यात, (मध्यम युकासंख्यात और (8) उत्कृष्ट शुशासंख्यास, (१०) अधन्य असंख्यातासंख्यात, १.१) मध्यम प्रसंख्यातासंक्यात और (१२) उत्कृष्ट मसंख्यातासंण्यात, (१३) अधम्य परीत्तानन्त, (१४) मध्यमपरीत्तानन्त और (११) उत्कृष्ट परीसामन्त, (१६) जघन्य युक्तानम्त, (१७) मध्यम युक्तानन्त और (१८) उत्कृष्ट युकानम्तः (18) जघन्य अनन्तानन्त, (२०) मध्यम अनन्तानन्त और (२१) उस्कए श्रनम्तानन्त ॥७१॥
संख्यासके तीन भेदोंका स्वरूप । बहु संखिज्ज हुचिय, प्रमो परं मजिझम तुजा गुरुभं । जबूझीष नमान्य, पारूबवार इमं.।। ७२ ।।
छघु संख्येयं विषाइतः परं मध्यमन्तु यावद्गुर कम् । कम्ब्हापप्रमाकचतुष्पस्यप्ररूपणयेदम् ॥ ७ ॥
अर्थ-चोकी ही संख्या लघु (जधन्य) संख्यात है। इससे मागे सीनसे लेकर उत्कृष्ट संण्यात तककी सरसंख्याएँ मध्यम संन्यात है। उत्कृष्ट संख्यातका स्वरूप जम्बूद्वीप-प्रमाण पल्योंके निरूपणसे आना जाता है ॥२॥
भावार्य संख्याका मतलब भेद (पार्थक्य)से है अर्थात् जिसमें मेष प्रतीत हो, वही संख्या है। एकमे मेद प्रतीत नहीं होता। इस लिये सबसे कम होनेपर भी एकको जघन्य संख्यात मही कहा। पार्थयकी प्रतीति को माविमें होती है। इसलिये ही संख्या है। इनमैसे दोकी संख्या अधम्म संख्यात और तीनसे क्षेकर का
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कर्मग्रन्थ भाग चार
संक्यात तक बीचकी सब संख्याएँ मध्यम संख्यात है। शास्त्र में उत्कृष्ट संपातका स्वरूप जानने के लिये पल्यौकी कल्पना है, जो अयली गापामि दिखायी है .
पल्यों के नाम तथा प्रमाण । पहाणवाहियसला,ग-पडिसलागामहासलागक्खा। जायणसहमोगाढा, सवेश्यता ससिहभारिया ॥७३॥
पक्ष्या अनयस्थितशला कामातशळाकामदाशलाकाख्याः । योजनसलायगादा:, स्वेदिकासा: सजिलभृताः ।।७।।
अर्ध-चार पल्यके माम क्रमशः प्रनवस्थित, शलाका, प्रतिशलाका और महाशलाका है। चारों पल्य गहराई में एक हजार योजन और ऊँमाई में अम्यूनीषकी पावर धेदिका पर्यन्त अर्थात् साढ़े पाठ योजन प्रमाण समझामे चाहिये। इन्हें शिखा पर्यन्त सरसोंसे पूर्ण करने का विधान है ॥ ३॥
भावार्थ-शास्त्रमें सत् और असत् दो प्रकारको कल्पना होतो है। ओ कार्य में परिणत को शासके, वह सत्कल्पना,और जो किसी पस्तुका स्वरूप समझने में उपयोगीमात्र, पर कार्य में परिसवन की जा सके, वह 'असरकराना पस्योंका विचार मसरकल्पना है; इसका प्रयोजन उत्कृष्ट संपातका स्वरूप समझानामात्र है।
शाखम पल्प पार कहे गये हैं:-(१) ममवस्थित, (२) शलाका, (१) प्रतिशलाका और (४) महाशाखाका । इनकी लम्बाई-चौड़ाई अम्म्द्वीप पावर--एक-एक लाख योजनकी, गहराई एक हजार पोजन की भौर ऊँचाई पद्मपर बेदिका-प्रमाण अर्थात् साढे पाठ योजनकी कही हुई है। पत्यकी गहराई तथा ऊँचाई मेडको समतल भूमिसे समझना चाहिये । सारांश, ये काशित पल्प तामे शिक्षा तकमें १०० योजन लिये जाते हैं।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
अनवस्थितपत्य अनेक बनते हैं। इन सबकी लम्बाई-चौड़ाई एकसी नहीं है। पहला अनवस्थित (मूलानवस्थित) की लम्बाईश्रीडाई लाख योजनको और आगे के सथ अनवस्थित ( उतरामध स्थित) की लम्बाई-चौड़ाई अधिकाधिक है। जैसे:- अम्बूद्वीपप्रमाण धानवस्थित पल्यको सरसोंसे भर देना और अम्बूबीपसे लेकर भागेके हर एक द्वीपमें तथा समुद्रम उन सरसोंमेंसे एकपकको डालने जाना । इस प्रकार डालते डालते जिस द्वीपमें या जिस समुद्र में मूलानयस्थित पत्य खाली हो जाय, जम्बूद्वीप (भूलस्थान) से उस द्वीप या उस समुद्र तकी लम्बाई-चौड़ाईवाला मया पल्य बना लिया जाय । यही पहला उत्तरानवस्थित है । इस पत्यमेकर और मक एकको आगे प्रत्येक द्वीपमें तथा समुद्र डालते जाना । डालतेडालते जिस द्वीपमें या जिस समुद्र में इस पहले उत्तरानस्थितपल्य के सब सर्षप समाप्त हो जायँ, मूल स्थान (जम्बूदीप) से उस सर्षप समाप्ति-कारक द्वीप या समुद्र पर्यन्त लम्बा-चौड़ा पल्य फिरसे बना होना, यह दूसरा उत्तरान्धस्थितपत्य है ।
इसे भी सर्पपोंसे भर देना श्रीर के प्रत्येक द्वोपमें तथा समुद्र में एक-एक सर्पपको डालने जाना। ऐसा करनेसे दूसरे उत्तरानवस्थितपय के सर्वपोकी समाप्ति जिस द्वीप में या जिस समुद्रमें हो आप, मूल स्थानसे उस सर्पव समाप्ति-कारक द्वीप या समुद्र पर्यम्त विस्तृत पल्य फिरसे बनाना यह तीसरा उसरानवस्थितपल्य है। इसको भी सर्पपोंसे भरना तथा भागेके द्वीप, समुद्र में एक-एक सर्वप डालकर खाली करना। फिर मूल स्थानसे सर्पप समाप्ति कारक द्वीप या समुद्र पर्यन्त विस्तृत पश्य बना लेना और उसे भी सर्व पोसे भरना तथा उक्त विधिके अनुसार काली करना। इस प्रकार जितने उत्तरानवस्थितपल्य बनाये जाते हैं.
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कमग्रम्प भाग चार
वे सभी प्रमाणमें पूर्व-पूर्वकी अपेक्षा बड़े-बड़े ही होते जाते हैं। परिमाणको अनिश्चितताके कारण इन पल्यौका नाम. 'भगवस्थित' रममा गया है। यह ध्यान रखना चाहिये कि कामवस्थितपल्य खम्बाई-चौड़ाईम अनियत होनेपर भी ऊँचाईमै नियत ही मर्याद १०० योजन मान लिये आते हैं।
अमवस्थितपल्योको कहाँ तक बनाना ? इसका खुलासा मागेको गाधाओसे हो जायगा।
मत्येक अनवस्थितपल्यके वाली हो जानेपर पक-एक सर्षप सलाकापल्य में डाल दिया जाता है। अर्थात् शलाका पल्यौ डाले गये सर्वयोंकी संख्यासे यही जाना जाता है कि इतनी वफ़ा असरामवस्थितपल्य बाबी हुए।
हर एक शलाकापल्यके खाली होने के समय पकनरक सर्षप प्रतिशलाकापल्पमें डाला जाता है। प्रतिशलाकापल्यके सर्षको संख्यासे यह विदित होता है कि तिमी बार शलाकापस्य मरा गया और साली हुआ।
प्रतिशलाकापल्यके एक-एक बार मर जामे और बाली हो जानेपर एक-एक सर्षप महाशलाकापल्यमै सल दिया जाता है, जिससे यह माना जा सकता है कि इतनी दफा प्रतिशलाकापल्य भरा गया और बाली किया गया । ७३ ॥
___ पल्पोंके भरने भादिकी विधि । तादीवुदाहिम इषि, कसरिसवं खिपि प निहिए परमे। पदम व तदन्तं चिय, पुष भरिए तंमि तह जीणे ॥७it सिप्पा मबागपडे, सरिसबो इप सबागलक्षणं । पुभो पीयो प तमो, पुचि पि व तमि उद्धरिए ॥७॥
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कर्मपन्य भाग चार
सीधे सलाह बम, एवं नाति मी तरह। सहिंताय तेदिया, तुरिजाकिर फुडा परो १७॥
वायदोपोषिकवर्षप शिपया निहिते प्रपमे । प्रथममिव तदन्तमेव पुनर्मते तस्मिन्तपा लीये ॥ ४ ॥ लिप्यते शलाकापल्ले एकस्सर्षप हांत शकालपणेन । पूर्णा दिलीयम ततः पूर्वदिप तस्मिन्नुद्धृते ॥ ४५ ॥ सोणे शलाका तृतीये एवं प्रथभेदिताय भर ।
तेस्तृतीयं च तुर्ग यायाल स्फुटामत्वारः ।। ७६ ॥ मर्य-पूर्ण भगवस्थितपल्यमेंसे एक-एक सर्षप प्रीप-समुदमें राखना चाहिये, जिस शीप या समुद्र में सर्षप समाप्त हो जायें, ग्स दीप या समुद्र पर्यन्त विस्तीर्णं नया अमवस्थितपस्प बनाकर उसे सर्वपोंसे भरना चाहिये।
इनमेले एक एक सर्षप द्वीप-समुद्री सतमेपर जब मनस्पितपल्य खाली हो जाय, तब शलाकापल्यमें एक सर्वप शलमाचाहिये। इस तरह एक-एक सर्वप डालनेसे जय दूसरा शनाकापल्य मर जाय, तब उसे पूर्वकी तरह उठाना चाहिये।
उठाकर उसमेंसे एक-एक सर्षप निकालकर उसे खाली करमा और मतिशलाकामें एक सर्षप डालना चाहिये। इस प्रकार अनपस्थितसे शलाकाको और अनवस्थित-शलाका बोनौसे तीसरे (प्रतिशलाका)को और पहले तीन पल्यसे चौथे ( महाशलाका) पल्यको भर देना चाहिये। इस तरह चारों पल्पोको परिपूर्ण भर देना चाहिये ||७४-७६६
भावार्य:--सबसे पहिले साक्ष-योजन-प्रमाण मूत भगवविधतपस्यको सपंपोसे भरना और उन सर्वपोमेसे पक-एक सर्पपको
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वर्मग्रन्थ भाग बार
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जम्बूद्वीप आदि प्रत्येक द्वीप तथा समुद्र में डालना चाहिये, इस रीति से एक-एक सर्वध बालमेसे जिस द्वीप या समुद्रमै मूल श्रमवस्थितपस्य बिलकुल खाली हो जाय, जम्बूद्वीपसे (मूल स्थानसे) इस सर्व समाप्ति कारक द्वीप या समुद्र तक लम्बा-चौड़ा नया पत्य बना होना चाहिये जो ऊँचाईमें पहले पत्यर्क बराबर ही हो । फिर इस उत्तरानवस्थित पल्पको सर्वपोंसे भर देना और एक-एक सपको आगे के द्वीप समुद्र डालना चाहिये। इस प्रकार एकएक सर्प निकालने से जब यह पल्य भी खाली हो जाय, तय इस प्रथम उत्तरानवस्थितपल्वके खाली हो जानेका सूचक एक सर्वप शलाका नामके पत्यमें डालना । जिस द्वीपमें या जिस समुद्र में प्रथम उतरानस्थित खाली हो जाय, मूल स्थान (जम्बूद्वीपसे) उस द्वीप या समुद्र तक विस्तीर्ण श्रनवस्थितपल्प फिर बनाना तथा उसे सर्पपोसे भरकर आगे के द्वीप समुद्र में एक-एक सप डालना चाहिये | उसके बिलकुल खाली हो जानेपर समाप्ति-सुक एक सर्षप शलाकापल्यमें फिरले डालना चाहिये । इस तरह जिस द्वीपमें या जिस समुद्र में अन्तिम सर्वध डाला गया हो, मूल स्थान से उस सर्व समाप्ति कारक द्वीप या समुद्र तक विस्तीर्ण एकएक अनवस्थितस्य प्रनाते जाना और उसे सर्वपोसे भर कर उरु विधि अनुसार खाली करते जाना और एक-एक अनवस्थितपत्यके खाली हो चुकनेपर एक-एक सर्पप शलाकापल्यमे डालते जाना । ऐसा करने से जब शलाकापल्य सर्पपासे पूर्ण हो जाय, मूल स्थानले अन्तिम सर्पपधाले स्थान तक विस्तीर्ण अनवस्थितपत्य बनाकर उसे सर्वपोसे भर देना चाहिये। इससे अब तक अस्थिपत्य और शलाकापल्य सर्षपसे भर गये। इन दो से शलाकापल्यको उटाना और उसके सर्पपोमेंसे एक-एक सर्वपको उक्त विधिके अनुसार आके द्वीप- समुद्र में डालना चाहिये। एक
तय
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कर्मग्रन्थ भाग चार
ENG
एक सर्वच निकालने से जब शलाकापल्य बिलकुल बाली हो जाय, राय शलाकापल्य के काली हो आमेका सूचक एक सय प्रतिशलाकापल्पमें डालना चाहिये। श्रम तक से
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पड़ा है, शलाकापल्य खाली हो चुका है और प्रतिशलाकापल्यम एक सप पड़ा हुआ है।
इसके पश्चात् अभवस्थितपण्यके एक-एक सर्वदको आगे द्वीप समुद्र में डालकर उसे खाली कर देना चाहिये और उसके खाली हो चुकनेका सुबक एक सर्व पूर्व की तरह शलाकापल्यमे, जां खाली हो गया है, डालना चाहिये। इस प्रकार मूल स्थानसे अन्तिम सर्वपवाले स्थान तक विस्तीर्ण नया-नया अनवस्थितपत्य बनाते जाना चाहिये और उसे सर्षपसे भरकर उक्त विधिके कानुसार खाली करते जाना चाहिये । तथा प्रत्येक अनवस्थितपत्यके खाली हो चुकनेवर एक-एक सर्व शलाकापल्यमें डालते जाना चाहिये। ऐसा करने से अय शलाकापल्य सर्पपोंस फिरसे भर आय, तब जिस स्थान में अन्तिम सर्षप पड़ा हो, मूल स्थान से उस स्थान तक विस्तीर्णं अनवस्थितपयको बनाकर उसे भी सर्वप भर देना चाहिये। अब तक में अनवस्थित और शलाका, ये दो पल्य भरे हुए हैं और प्रतिशला कापल्यमें एक सर्वप है ।
शलाका पत्यको पूर्व विधि के अनुसार फिर से खाली कर देना चाहिये और उसके खाली हो चुकनेपर एक सर्षप प्रतिशलाकापत्य में रखना चाहिये। अब तक स्पिल्य भरा हुआ है, शलाकापल्य खाली है और प्रतिशलाकापल्यमें दो सर्वत्र पढ़े हुए हैं।
इसके आगे फिर भी पूर्वोक्तः विधिके अनुसार अनवस्थितपत्यको खाली करना और एक-एक सर्षपको शलाकागत्य में डालना चाहिये। इस प्रकार शलाकापल्यको बार-बार भर कर उत विधिके
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कर्मग्रन्य भाग पार
अनुसारजाली करने जाना पवा बाली हो जानेकर खूफ एक एक सप प्रतिमाकापत्य में सलवे जाना चाहिये। बचपक सपके डालनेले मतियताकापल्य भी पूर्व नगर, तबाक प्रक्रिया के अनुसार अमरस्थितपस्यद्वारा शनाकापस्वको मरणा और पीछे नमवस्थितपल्लाको भी मर रखना चाहिये। अबतको अनस्थित, एखाका और प्रतिशलाका, ये सीन पल्प मर गये हैं। हममेले प्रतियलाकाको उठाकर उसके सर्पपीछे एक-पक सपको भागेके द्वीप-समुद्र में बाखमा बाहिये। प्रविशनाकारल्यरेखाली हो चुकनेपर एक वर्षप जो प्रतियताकापस्याको समातिका सूचक है, इसको महाशलाकापल्यमें सलना चाहिये। अब तक अनवस्थित तथा शलाका पल्प भरे पड़े ६ प्रविशाखाकापल्प साक्षी है और महाशताकापल्पमें एक सर्षप पड़ा हुआ है।
इस मनन्तर शलाकापल्यको बाली कर पक सर्वप मतिमलाकापल्यमें डालना और मलयास्थितपल्यको खाली कर शलाकापस्यमें एक सर्षप साखना चाहिये । इस प्रकार नया-मया मनवस्थितपल्प बनाकर उसे सर्वपोसे भरकर तथा उक विधिक अनुसार उसे खाखीकर एक-एक सागवारा शाखाकापल्यको भरना चाहिये। हर एक शलाकापल्यके खाली हो खुकमेपर एक-एक सर्वर प्रतिशलाकारल्यमे डालामा चाहिये । प्रतिशखाकापल्य भर खानेके बाद अनवस्थितद्वारा शलाकापल्य भर लेना और प्रन्समें अनवस्थितपल्प मी भर देना चाहिये । अब तकमे पहले तीन पल्य भर गये हैं और चौथेमें एक वर्षप है। फिर प्रतिशलाकापल्यको उक रीतिसे सालो करना और महाशलाकापल्यमें एक सर्षप डालना चाहिये। भर तकमें पहले दो पल्प पूर्ण है । प्रतिशलाकापल्य वाली है और महायताकापल्यमें दो सपंप हैं। इस रह प्रतिशखाकाद्वारा महाशवाकाको भर देना चाहिये।
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कर्मग्रन्थ भाग बार
२१७
जब भर
इस प्रकार पूर्व-पूर्व पल्य के खाली हो जाने के समय डाले गये एक-एक सर्वप से क्रमश: चौथा तीसरा और दूसरा प जाय तब अनवस्थितपस्थ, जो कि मूल स्थान से अतिम सर्षपवाले द्वीप या समुद्र तक लम्बा-चौड़ा बनाया सपों से भर देना चाहिये। इस क्रम से उस भरे जाने ७४-७६ !!
जाता है, उसको भी चारों पल्प सर्वपों से ठसा
सर्व परिपूर्ण पत्यों का उपयोग । पढमतिन्लुरिया वीषदही पल्लच उसरिसवा य । सम्वो वि एगराती. रूवणी परमसंखिज्जं ॥ ७७ ॥ प्रथमात्रिपल्योद्धृता द्वीपोदधयः पल्यचतुः सर्षपाव । सकराशी, रूमान परमसंख्येयम् ।। ७७ ।।
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अर्थ - जितने द्वोप- समुद्रों में एक-एक सर्षप डालने से पहले तीन पत्य खाली हो गये हैं वे सब द्रोपममुत्र और परिपूर्ण चार पल्पों के मप इन दोनों को संख्या मिलाने से जो संख्या है, एक कम वही संख्या उत्कृष्ट संस्थात है ॥७७॥
मार्थ अनवस्थित, गलाका और प्रतिशलामा पत्य को बारबार संबंधों से भर कर उन हो खाली करने को जो विधि ऊपर दिलाई गई है. उसके अनुसार जितने द्वीपों में तथा जितने समुद्रों में एक-एक सर्वप पड़ा हुआ है, उन सब द्वीपों को तथा सब समुद्रकी संख्या में चारों पल्य के भरे हुए सर्वपों को संख्या मिला देन से जो संख्या होती है, एक कम यही संख्या उत्कृष्ट संख्यात है ।
उत्कृष्ट संख्यात और जघन्य संख्यात, इन बो के बीच को सब संख्गत को मध्यम संपात समझना चाहिये । शास्त्र म जहाँ-कहीं संख्यात शब्द का व्यवहार हुआ है, वहाँ सब जगह मध्यम संख्यात से ही मतलब है ॥ ७७ ॥
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२१८.
कर्मग्रन्थ भाग चार
असंख्यात और अनन्त का स्वरूप । [ बो गाथाओं से । ]
वयं तु परिता-संखं लहू अस्स रासि अभासे । जुसासंखिज्जं लघु, आवलियासमयपरिमाणं ॥७८॥ रूपयुतं तु परीक्षासंख्यं लध्वस्य राशेरभ्यासे । युक्तासंख्येयं लघु, आवलिकासमयपरिमाणम् ॥७॥ अर्थ - उत्कृष्ट रूप स अवश्य परीता संख्यात होता है। जधम्म परीता संख्यान का अभ्यास करने से जघन्य युक्तासंख्यात होता है । जघन्य युक्तासंध्यास ही एक आवलिका के समयों का परिणाम है ||७||
मावार्थ - उत्कृष्ट संख्यात में एक संख्या मिलाने से जघन्य परीक्षासंख्यात होता है । अर्थात् एक-एक सर्वप डाले हुए द्वीपसमुद्रों की और चार पदों सर्वपों की मिली हुई संपूर्ण संख्या ही परीत्तासंख्यात है ।
घ
जघन्य परीक्षा संख्या का अभ्यास करने पर जो संख्या
५
१- दिगम्बर शास्त्रों में भी 'रूप' शब्द एक संख्या के अर्थ में प्रयुक्त है । जैसे:-- जीवाण्ड की १०७ तथा ११०वीं गाया आदि तथा प्रवचनसार-शयाधिकार की ७४वीं गाया की टीका
२ -- जिस संख्या का अभ्यास करना हो, उसके अङ्ग को उतनी दफा लिखकर परस्पर गुणना अर्थात् प्रथम अङ्ग को दूसरे के साथ गुणना और जो गुणन - फल आवे, उसको तीसरे अङ्ग के साथ गुणना, इसके गुणन - फल को अगले अझ के साथ इस प्रकार पूर्व - पूर्व गुणनफल को अगले अगले अङ्ग के साथ गुणना, अन्त में जो गुणनफल प्राप्त हो, वहीं विवक्षित संख्या का अभ्यास है । उदाहरणार्थ- ५ का अभ्यास ११२५ है । इसकी विधि इस प्रकार है: --५ को पांच दफा लिखना:-- ५ ५ ५, ५, ५ । पहले भू को दूसरे ५ के साथ गुणने से २५ हुए, २५ को तीसरे ५ के साथ गुणने से १२५, १२५ को चौथे ५ के साथ गुणने से ६२५, ६२५ को पाँचवें ५ के साथ गुणने से ३१२५ हुए। - अनुयोगद्वार - टीका, पृ० ३१६ ।
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कर्मग्रन्थ मार्ग चार
२१६
बानी है, वह जघन्य युक्तासंख्यात है । शास्त्र में आवलिका के समयको असंख्यात कहा है, सो जघन्य युक्तासंख्यात समझना चाहिये । ए कम जवन्य युक्तासंस्थास को उत्कृष्ट परीक्षासंख्यात तथा जघन्य परीत्तासंख्यात और उत्कुष्ट परीसासंख्यात के बीच की सब संख्याओं को मध्यम परीसासंख्यात जानमा नाहिये ।। ७८ ॥
वितिचउपंचमगुणणे, कमा सगासंख पढमचउसत्ता । नंतर ते रूवजुया, मज्सा रूकूण गुरु पच्छा ॥७६॥ द्वितीयतृकायचतुमगनका सन्ता अनन्तास्ते रूपयुता मध्या रूपोता गुरवः पश्चात् ||३६||
अर्थ – दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवे मूल मेद अभ्यास रने पर अनुक्रम से सातवाँ असंख्यात और पहला, खोया और सात अनन्त होते हैं। एक सी मिलाने पर ये ही संख्याएँ मध्यम संख्या और एक संख्या कम करने पर पीछे को उत्कृष्ट संख्या । होती है ॥ ७६ ॥
भावार्थ - पिछलो गाथा में असंख्वार के चार भेदों का स्वरूप बतलाया गया है । अब उसक शेष मेवों का तथा अनन्त के सब मेवों का स्वरूप लिखा जाता है ।
असंख्यात और अनन्त के मूल-मेव जीन-तोन है, जो मिलने से छह होते हैं। जैसे - ( १ ) परोतासात (२ (३) असंख्यातासख्यात (४) परीतानन्त, और (६) अनन्तानन्त । असंख्पात के तीनों और उत्कृष्ट भेद करने से नी और इस तरह अनन्त के भो नी उसर
युक्कासंत और (५) सुस्कान स
के जघन्य मध्यम
मेव होते हैं, जो ७१ वीं गावा में दिखाये हुए हैं ।
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कर्म ग्रन्थ भाग नार
उक्त छह मूल भेजों में से दूसरे का अर्थात् युक्तासंख्यात का अभ्यास करने से नौ उत्तर मेवों में से सातवा असंस्थात अर्थात् जघन्य असंख्यात संख्यात होता है । जघन्य असख्यातासंख्यात में से एक घटाने पर पीछे का उत्कृष्ट मेव अर्थात् उत्कृष्ट युक्तासंख्यात होता है । जघन्य युक्तासख्यात और उत्कृष्ट युक्तासंख्यात के बीच की सब संस्थाएं मध्यम युक्त संख्यात है ।
२२०
उक्त छह मूल मेवों में से तीसरे का अर्थात् असंख्याता संख्यात कर अभ्यास करने से अमन्त के भी उत्तर भेदों में से प्रथम अनन्त अर्थात् जघन्य परीशानम्स होता है। जधन्य परीतानन में से एक संख्या घटाने पर उत्कृष्ट असंख्य तारारूपास होता है । जघन्य असंख्यातासंख्यात और उत्कृष्ट असंख्यात संख्यात के बीच की सब संख्याएँ मध्यम असंख्यात संख्यात हैं ।
चौये मूल मेद का अर्थात् परीक्षानन्तका अभ्यास करने से अनन्त का चौथा उत्तर मेव अर्थात् जघन्य युक्तानन्त होता है । एक कम जघन्य युक्तानन्त उत्कृष्ट परीक्षानन्त है । जघन्य परीसानन्त यथा उत्कृष्ट परीतानगल के बीच को सब सख्याएँ मध्यम शान हैं ।
पाँस मूल भव कर अर्थात् युक्तानन्त का अभ्यास करने से अनन्तका सातों उत्तर मेव अर्थात् जघन्य अन्तानन्त होता है। इसमें से एक कम करने पर उत्कृष्ट युक्तानन्त होता है । जघन्य युक्तानन्त मौर वस्कृष्ट युक्तान्त के बीच की सब सख्याएँ मध्यम मुक्तानन्त है। अन्य अमरतामन्त के आगे को सब संख्याएँ मध्यम अनन्तानन्त ही है; क्योंकि सिद्धान्त' मत के अनुसार उत्कृष्ट अनन्तानन्त नहीं माना
भाला ॥ ७२ ॥
१ -- अनुयोगद्वार, पृ० तथा २४१ ।
५३१
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कर्मग्रन्थ भाग चार
असंख्यात तथा अनन्त के भेवों के विषय में
___ कार्मग्रन्थिक मत । इय सुत्तत्तं अन्ने, वग्गियमिक्कसि चउत्थयमसखं । होइ असंलाखं, लहु रूपजयं तु तं ममं ।। ८०॥ रूवूणमाइमं गुरु तिवगिगडं तं इमे. इस खेबे । लोगाकासपएसा धम्माधम्मेगजियवेसा ॥१॥ ठिइ बंधज्झवसाया, अभागा जोगमछेयलिभाया । दुह य समाण समया पसेयनियोयए खिवसु ॥२॥ पुण रवि तंमिति वग्गिय, पारत्तणंत सह तस्स रासीणं । अब्भासे लहु जुत्ता, पतं अभध्वजियपमाणं ॥३॥ तत्वग्गेपुण जायइ, गंतात लहु तं च तिक्खुत्तो । बग्गसु तह वि ने तं हो, इणत खेवे खिवसु छ इमे ॥४॥ सिद्धा निगोयजीवा, वणस्सई कालपुमाला चेव । सन्धमलोगनहं पुण, तिग्गिलं केवलदुगंमि ॥६५॥ खित्ते गंताणतं, हवेइ जिट्ट तु ववहरई मम्झं । इंसुहमवियारी, लिहिओ देविवसूरोहि ॥५६॥ इति सूत्रोक्त मन्ये बगिलं लच्चतुर्थकमसंख्यम् । भक्त्यसंस्पासंख्यं लघु रूपयुतं तु तन्मध्यम् ।। ८ ।। रूपानमादिम शुरू त्रिवयित्वा तदिमान दश क्षेपान् । नोककाश प्रदेशा धमाधमक जीवप्रदेशाः ।। ८१ ।। स्थि बन्धाव्यवसाया अनुभ।गा योगच्छेदपरिभागाः । द्वयोश्च समयोः ममयाः प्रत्येक निगोदकाः क्षिप ||२|| पुनरपि तास्मरित्रवेंगित परीतानन्तं लघु तस्य राशीनाम् । अभ्यासे लघु युतानन्तमभयजीव प्रमाणम् ॥५३॥ ५-ये ही इस क्षेग त्रिलोकसारकी ४३ से ४४ तक की गाथाओंमें निर्दिष्ट है . २-ये ही छह शेप त्रिसीकसारको ४६षीं गाथामें वर्णित हैं ।
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२२२
तदमें पुनर्जीवितेऽनन्तानन्तं लघु तच्च त्रिकृत्वः । वयस्य तथापि न तमनन्तक्षेपान् क्षिप षडिमान् ॥६॥ सिद्धा निगोदजीवर वनस्पतिः कालपुद्ग्लाश्चैव । सर्व मलोकनभः पुनस्त्रियं गयित्वा केवलद्विकं ॥ ८५॥ क्षिप्तेऽनन्तानन्त भवति ज्येष्ठं तु व्यवहरति मध्यम् । इति सूक्ष्मर्थ विचारो लिखितो देवेन्द्रसूरिभिः ॥८६॥
भान हर
अर्थ-पीछे सूत्रानुसारी मत कहा गया है। अब अन्य आचार्यो का मत कहा जाता है । चतुर्य असंख्यात अर्थात् जघन्य युक्ता संख्यात का एक मश्र वर्ग करने से जधन्य असंख्याता संख्यात होता है । मघण्य असंख्याता संख्यात में एक संख्या मिलाने से मध्यम असंख्यात संख्यात होता है ||८०||
अधन्य असंख्याता संख्यात में से एक संख्या घटा वो जाय तो पीछे का गुरु अर्थात् उत्कृष्ट युक्तासंख्यात होता है । जन्य असंमाता संख्यात का तीन बार वर्ग कर मोघे लिखो दस' असंख्यात
-
१ – किसी संख्या का तीन बार वर्ग करना हो तो उस संख्य का वर्ग करना, वर्ग-जन्य संस्था का वर्ग करता और वर्ग-जन्य संख्या का भी वर्ग करना । उदाहरणार्थं ५ का तीन बार वर्ग करना हो तो ५ का वर्ग २५, २५ का वर्ग ६२५, ६२५ का वर्ग ३६०६२५) मह पाँच का तीन बार वर्ग हुआ । २ --- लोकाकाश, धर्मास्तिकाय, इन चारों के प्रदेश असंख्यात असंख्यात आपस में तुल्य है ।
अधर्मास्तिकाय और एक जीव,
ज्ञानावरणीय आदि प्रत्येक कर्म की स्थिति के जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त समय-भेद से असंख्यात भेद है । जैसे- ज्ञानावरणीय की जधन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण और उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटी सागरोपमप्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त से एक समय अधि दो समय अत्रिक, तीन समम अधिक, इस तरह एक-एक समय बढ़ते बढ़ते एक समय कम तीस कोटाकोटी सागरोपम तक की सब स्थितियाँ मध्यम है । अन्तर्मुहूर्त और सीस
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कर्मग्रन्थ भाग पार
२२३ संख्यायें उसमें मिलाना । (१) लोकाकाश के प्रदेश, (२) धर्मास्तिसागरोपम के बीच में असख्यात समयों का असर है। इसलिये अघन्य और उत्कृष्ट स्थिति एक एक प्रकार की होने पर भी उसमें मध्यम स्थितियाँ मिलाने से ज्ञानावरणीय की स्थिति के असंख्यात भेद होते हैं । अन्य कर्मों की स्थिति के विषय में भी इसी सरह समझ लेना चाहिये । हर एक स्थिति के अन्ध में कारणभूत अध्यवसायों की संख्या असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर कहीं हुई हैं । __"पइटिइसंखलोगसमा ।" —ा. ५५,देवेन्द्रसूरि-कृत पञ्चम कर्मग्रन्थ । इस जगह सब स्थिति-बन्धनो कारणभूत अध्यवसायों कीसंख्या विवक्षित है।
अनुभाग अर्थात् रसका कारण काषायिक परिणाम है। कापायिक परिणाम अर्थात् अध्यवसायके तीव, तीव्रतर, तीअसम, मन्द, मन्दतर मन्दतम आदि रूप से असंख्यात भेद हैं । एक-एक भाषापिक परिणाम से एक-एक अनुभाग-स्थान का बन्ध होता है क्योंकि एक काषायिक परिणाम से गृहीत कर्म परमाणओं के रस-म्पर्थकों को ही शास्त्र में अनुभाग बन्ध. कहा है। देखिये कम्मपयटी की ३१ वी गाथा श्रीयशोविजयजी-कृत टीका। इमलिये काषायिक परिणाम-जन्य अनुभाग स्थान भी काायिक परिणाम के तुल्य अर्थात् असंख्यात ही है। प्रसंगतः यह बात जाननी चाहिये कि प्रत्येक स्थिति-बन्ध में असंख्षात अनुभाग-स्थान होते है। क्योंकि जितने अध्यवसाय उतने ही अनुभागस्थान होते हैं और प्रत्येक स्थिति-बन्ध में कारणभूत अध्यवसाय असंख्यात लोकाकाशप्रदेश-प्रमाण हैं।
योग के निविभाग अंश असंख्यात है। जिम अंश का विभाग केवलज्ञान से भी न किया जा सके.उसको निविभाग अंश कहते हैं 1 इस जगह निगोद से संशी पर्यन्त सब जीवों के मोग,सम्बन्धी निमिाग अंशोंकीसंस्माइष्ट है।
जिस शरीर का स्वामी एक ही जीव हो, वह 'प्रत्येक शरीर' है। प्रत्येक शरीर असंख्यात है। क्योंकि पृथ्वी कायिक से लेकर उसकायिक पर्यंन्त सब प्रकार के प्रत्येक जीव मिलाने से असंख्यात ही है।
जिस एक शरीर के धारण करने वाले अनन्त जीव हों बहा 'निगोद शरीर' । ऐसे निगोदशरीर असंख्यात ही है
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कर्मग्रन्थ भाग चार
कहा के प्रदेश ३ अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, ४) एक पदीय के प्रदेश (५) रिथिति--अन्ध-जनक अध्यवसाय स्थान. (६) अनुमान विशेष, (७) योग के निर्विभाग अंश (८) अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी, इन दी काल के समय, (e) प्रत्येक शरीर और (१० निगोवशरीर ||१२|| उक्त वस संख्याएं मिलाकर फिर उसका लोन बार वर्ग करना । वर्ग करने से अन्य परीतानन्त होता है । जघन्य परीसानन्त का अभ्यास करने से जधन्य युक्तानश्त होता है। यह अभय जीवों का परिमाण है ।।३।।
२२४
२)
(काणिक जीव
·
1
उसका अर्थात् जघन्य युस्कानन्त का वर्गे करने से जघन्य अनन्तानगल होता है । जघन्य अनन्तानन्त का तीन बार वर्ग करना लेकिन इतने से ही वह उत्कष्ट अनश्तामन्त नहीं बनता। इसलिये तीन बार वर्ग करके उसमें नीचे लिखी छह अनन्त संख्याएँ मिलामा ॥४ (1) सिद्ध (४) तीनों काल के समय ( ५ संपूर्ण पुदगल - परमाणु और ( ३ ) समय आकाश के प्रवेश, इन छह की अनन्त संख्याओं को मिलाकर फिर से तीन बार षगं करना और उसमें केवल कके पर्यायों की सख्या' को मिलान | शास्त्र में अनन्तानन्त का व्यवहार किया जाता है, सो मध्यम अनन्तानन्त का जधन्य पर उत्कष्ट का नहीं । इस सूक्ष्मार्थ विचार नामक प्रकरण को श्री देवेन्द्र भूरि ने लिखा है ॥६५॥८६॥
)
भावार्थ- गा० ७१ से ७६ तक में संख्या का वर्णन किया है, सो संज्ञातिक मत के अनुसार अब कार्मग्रन्थिक मत के अनुसार वर्णन किया जाता है । संख्या के इक्कीस मेवों में से पहले सात भेवो के स्वरूप के विषय में सैद्धान्तिक और फार्मग्रन्थिक आचार्यो का कोई मतभेव नहीं है: अठ आदि सब मेवों के स्वरूप के विषय में मतभेद है ।
१- मुलके 'अलोक' पदसे लोक अलोक दोनो प्रकार का आवश विवक्षित है ।
२ - ज्ञेयपर्याय अनन्त होने से ज्ञानपर्याय भी अनन्त है ।
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कर्म ग्रन्थ भाग चार
कामं प्रम्बिक अफकाई कि जयका वर्ग करने से अधग्य असंख्यातासंस्थात होता है । जघन्य असंख्याता संख्यात का तीन बार वर्ग करना और उसमें लोकाकाश-प्रदेश आदि की उपर्युक्त इस असंख्यात सख्याएँ मिलाना | मिलकर फिर तीन बार वर्ग करना । वर्ग करने से जो संख्या होती है, वह अन्य परीतानन्त है ।
२२५
जघन्य परीतानन्त का अभ्यास करने से जघन्य युक्तानम्स होता है। शास्त्र में अमच्य जीव अनन्त कहे गये हैं, सो जघन्य युक्तायन्स समाचाहिये ।
अधम्य युक्तानन्त का एक बार वर्ग करने से जघन्य अनन्तानन्त होता है । जघन्य अनन्तानन्त का तीन बार वर्गकर उसमें सिद्ध आदि की उपर्युक्त छह संख्याएं मिलाना चाहिये। फिर उसका तीम बार वर्ग करके उसमें केवलशान और केवलदर्शन के संपूर्ण पर्यायों की संख्या को मिलाना चाहिये । मिलाने से जो सख्या होती है, वह
'उत्कृष्ट अनन्तानन्त' है ।
मध्यम या उत्कृष्ट संध्या का स्वरूप जानने की रीति में संज्ञान्तिक और कार्मप्रस्थिकों में मत-मेद नहीं है, पर ७६ वीं तथा द गाथा में बतलाये हुए दोनों मत के अनुसार जघम्य असंख्याता ख्यान का स्वरूप भिन्न-भिन्न हो जाता है। अर्थात् सैद्धान्तिकमत से जघन्य युक्ता संख्यात का अभ्यास करने पर जधन्य असंख्यात सं रूपात बनता है और कार्मग्रन्थिकमत से जघन्य युक्तासंस्थांत का वर्ग करने पर जघन्य असंख्यातासंख्यात बनता है। इसलिये मध्यम
मुश्यासंख्यात, उत्कृष्ट युक्तासंख्यात आदि आगे की सब मध्यम और
उत्कृष्ट संख्याओं का स्वरूप भिन्न-मिश्र यम
जाता है। जन्घय असं
युक्तासंख्यात होता है ।
स्थाला संख्यात में से एक घटाने पर उत्कृष्ट जघन्य युक्तासंख्यास और उत्कृष्ट युक्तासंख्या के बीच की सब
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कर्मम्य माग बार
मध्यमख्यात है। उसी प्रकार आगे जो किसी घस्य संख्या में से एक घटाने पर उसके पीछे की उत्कृष्ट संख्या बनती है और जघन्य में एक वो आदि की संख्या मिलाने से उसके सजातो उत्कृष्ट तक की बीच की संख्याएँ मध्यम होती हैं ।
सभी जघन्य और सभी उत्कृष्ट संख्याएँ एक-एक प्रकार की हैं; परन्तु मध्यम संख्याएँ एक प्रकार की नहीं हैं। मध्यम संख्यात संख्यात भेद, मध्यम असंख्यात के असंख्यात भेद और मध्यम अनन्त के अनन्त भेव हैं क्योंयि जघन्य या उत्कृष्ट संख्या का मतलब किसी एक नियत संख्या से हो है, पर मध्यम के विषय में यह बात नहीं । जघम्य और उत्कृष्ट संख्या के बीच संख्यात इकाइयाँ हैं, जय और उस्कृष्ट असंख्यात के बीच अर्शल्पात इकाइयाँ हैं एवं neru और उत्कृष्ट अनन्त के बीच अनन्त इकाइयां हैं, जो क्रमशः ' मध्यम वयात 'मध्यम असंख्यात' और 'मध्यम अनग्न' कहलाती है ।
शास्त्र में जहाँ-कहीं अनश्वानन्त का व्यवहार किया गया यह सब जगह मध्यम अनन्तानन्त से ही मतलब है ।
! उपसंगर इस प्रकरण का नाम "सूक्ष्मार्थं विचार" रखता है; कि इसमें अनेक सूक्ष्म विषयों पर विचार प्रगट किये गये हैं ।
२२६
-:
क्यों
८६ ।
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कर्मग्रन्थ भाग पा.
२२७
वृतीयाधिकारके परिशिष्ट।
परिशिष्ट "प"
पृष्ठ १७६, पक्ति १. के 'मूल बन्ध-हेतु पर
यह विषय पञ्चसंग्रह द्वा० ४ की १६ और २० बों गाथा में है, किन्तु उसके वर्णनमें महा की अपेक्षा कुछ भेद है। उसमें १६ प्रकृविवों के अन्धको मिथ्यात्व- हेतुक. पैतीस प्रकृतियों के बन्ध को अविरति, हेतुफा, अरसाठ प्रकृतियों के बन्धको कषाय-हतुक और सातवेदनीय के बचको योग-हेतुक कहा है। यह फैघन अन्वय-व्यातरंक, उभय-मूलक काय-कारण-भावको को लेकर किया गया है जैसे-मिथ्यात्व के सद्भाव में सोलहका बन्ध और उसके अमाव में सोलह के बन्धका अभाव होता है, इसलिय सोलह के बन्धका अन्वरव्यतिरेक मिथ्यात्वक साथ घट सकता है । इसी प्रकार पैतीसके बन्धका अविरतिक साथ, अरसठक बन्धका कषाय के साथ और सातवेदनीय के बन्ध का योग के साथ अन्यत्र-व्यतिरेक समझना चाहिये ।
परन्तु इस जगह केवल अन्वय मुलक कार्य-कारण-भावको लेकर बन्ध का वर्णन किया है, व्यतिरेक को विवक्षा नहीं की है। इसी से यहां का वर्णन पञ्चसग्रह के वर्णन से भिन्न मालूम पड़ता है। अन्वयः-जैसे, मिथ्यात्वक समय,अविरतिके समक, कषायके समय और योग के समय सातवेयनीय का बन्ध अवश्य होता है, इसी प्रकार मिथ्यात्व के समय सोलह का बन्ध, मिथ्यात्व के समय तथा अविरति के समय पैतीस का बन्न और मिथ्यात्व के समय, अविरति क समय तथा कषाय के समय दोष प्रकृतियों का बन्ध अवश्य होता है। इस अन्वयमाभ को थिय में रखकर श्रीदेवेन्द्रसूरि ने एक, सोलह, पतीस और अरसट के बन्छ को क्रमशः चतुहेतुक, एक-हेतुक, द्वि हेतुक और त्रि हेतुक कहा है . उक्त चारों बन्धों का व्यतिरेक तं पञ्चसंग्नह के वर्णनानुगार केवल एक एक हेतु के साथ पट सकता है। पश्यसंग्रह और यहां की वर्णन-शैली मे भेद है, तात्पर्य में नहीं ।
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कर्मग्रन्थ माग धार
तत्वार्थ अ ८ सू० १ में बन्ध के हेतु पाँच कहे हुए है, उसके अनुसार अ० ६ सू. १ को सर्वार्थ सिद्धि में उसर प्रकृतियों के और बन्ध हेतु के कार्य-कारपा-मात्र का विचार किया है। उसमें सोलह के बन्ध को मिथ्यात्व-हेतुक, उन्सालीस के बन्ध को अविति-हतुक, छह के बन्धको प्रमावहेतुक, अदावन के बन्ध को कषाय-हेतुक और एक के बन्ध को योग हेतुक बतलाया है । अविरति के अनन्तानुवन्धिकषाय-जन्य, अप्रत्यानावरण कषाय अन्य और प्रत्याख्यानाधरणकषाय-जन्य, ये तीन भेद किये है । प्रथम विरातको पच्चीस के प्रधान मोदा के. और तीसरी को हार के बन्धका का कारण दिवाकर कुल उत्तालीम के बन्ध को अबिरति हेतुक कहा है। पंचसंग्रह में जिन अरसद प्रकृतियों के बन्ध को कषाय हेतुक माना है उनमें से चार के बन्धको प्रत्याख्यातावरणकषाय-जन्य अविरति हेतुक और छह के बन्ध को प्रमाद-हेतुक सर्वार्थ सिद्धि में बतलाया है; इसलिये उसमें कषाय-हे.तुक बन्धवाली अट्टावन प्रकृतियाँ ही कही हुई हैं।
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कर्मग्रन्थ भाग पार
परिशिष्ट "फ”। पृष्ठ २०६, पक्कि १४के मल माब' पर
गुणस्थानों में एक-जीवाश्रित भावोंकी संख्या जैसी इस गाथा में है, वैसी ही पञ्चसग्रहके द्वार २को ६४वी गाथामें है; परन्तु इस गाथा की टीका और टवामें तथा पञ्चसग्रहको उक्त गाथा की टीका में थोड़ासा व्याख्या-भेद है।
टोका-टवेमें 'उपशमक' 'जएकान्स' दो पदोंसे नौवा, दसों और ग्यारहवां, ये तीन गुणस्थान ग्रहण किये गये हैं और 'अपूर्व' पदसे आठवा गुणस्थानमात्र । नौवें भाटिनीन गुणस्थानों में उपयोग : ति पलामक. सभ्यक्त्वीको या क्षायिकमभ्यवत्वीको वारिश्र औपशमिक माना है । आठवें गुणस्थानमें औपशमिक या क्षायिक किसी सम्यक्त्यमालेको औषमिकचारित्र इष्ट नहीं है, किन्तु क्षायोपशमिक । इसका प्रमाण गाथामें 'अपूर्व शब्दका अलग ग्रहण करना है। क्योंकि यदि आटवें गुणस्थानमें भी औपशमिकचारित्र इष्ट होता तो 'अपूर्व' शाब्द अलग ग्रहण न करके उपशमक शब्दसे ही नौ आदि गुणस्थानकी सरह आठवेंका भी सूधन किया जाता । नौवें और दसवें गुणस्थानके अपकणि-गत-जीव-सम्बन्धी माबोंका व चारित्र का उल्लेख टोका या टबे में नहीं है ।
पञ्चसंग्रहकी टीकामें श्रीमलगिरिने 'उपशमक' 'उपशान्त' पद से आठवें से ग्यारहये तक उपशमश्रेणिवाले चार गुणस्थान और 'अपूर्व' तथा 'श्रीण' पदसे आठवां, नौवा, दसवां और बारहवां, ये क्षपकश्रेणिवाले चार गुणस्थान ग्रहण किये हैं। उपशमणिबाले उक्त वारों गुणस्थान में उन्होंने औपशमिक चारित्र माना है, पर क्षपकणिवाले चारों गुणस्थानके वारित्रके सम्बन्धमें कुछ उल्लेख नहीं किया है। ___ग्यारहवें गुणस्थानमें सम्पूर्ण मोहनीयका उपशम हो जानेके कारण सिर्फ औपमिकचारित्र हैं। नौवें और दसवें गुणस्थानमें ओपशमिक क्षायोपशमिक दो चारित्र हैं; क्योंकि इन दो गुणस्थानों में चारित्रमोहनीयकी कुछ प्रकृतियाँ उपशान्त होती हैं, सब नहीं । उपशान्त प्रकृतियोंकी अपेक्षासे औपमिक
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कर्मग्रन्थ भाग चार
अपेक्षा
पारि समझना
और अनुपशान्त प्रकृति चाहिये । यद्यपि यह बात इस प्रकार स्पष्टतासेनहीं कही गई है परन्तु पञ्च० द्वा० ३की २५वीं गाया की टीका देखने से इस विषय में कुछ भी नहीं रहता, क्योंकि उसमें सूक्ष्मसंपरायचा रिक्को, जो दसवें गुणस्थान में ही होता है, क्षायोपशमिक कहा हैं ।
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उपशमश्रेणिनाले आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थान में चारित्रमोहनीय उपशमका आरम्भ या कुछ प्रकृतियों का उपशम होनेके कारण ओरशमिवारित्र जैसे पञ्चसंग्रह टीका माना गया है, वैसे ही क्षपकश्रेणिवाले आठ आदि तीनों गुणस्थानों में चारित्र मोहनीयके क्षयका आरम्भ या कुछ प्रकृतिका क्षय होने के कारण क्षायिकचारित्र माननेमें कोई विरोध नहीं दीख पड़ता ।
गोम्मटसारमें उपशमणिवाले आठवें आदि चारों गुणस्थान में चारित्र ओपशमिक ही माना है और क्षायोपशमिका स्पष्ट निषेध किया है इसी तरह क्षपकश्रेणिवाले चार गुणस्थानों में क्षायिक चारित्र ही मानकर क्षायोपशमिकका निषेध किया हैं । यह बात कर्मकाण्ड की ८४५ और ६४६वीं गाथाओं के देखनेसे स्पष्ट हो जाती है ।
H
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कर्मग्रन्थ भाग चार
परिशिष्ट ""! पृष्ठ २०७, पंक्ति ३ के 'भावार्ष' शास परयह विचार एक जीवमें किंगी विवक्षित समय में पाये जानेवाले भावोंका है।
एक जीवमें भिन्न-भिन्न समयमें पाये जाने वाले भाव और अनेक जीव में एक समय में या मिन्न भिन्न समय में पाये जानेवाले भाव प्रसङ्ग-वश लिखे जाते हैं। पहले तीन गुणस्थानोमें औदायिक, क्षामोपशमिक और पारिणामिक, ये तीन भाव चौथेसे ग्यारहवें तक आठ गुणस्थानों में पात्रो भाव बारहखें गुणस्थानमें औपशमिकके सिवाय चार भाव और तेरहवे तथा चौदहवें गुणस्थानमें औपमिक-क्षायोपशामिकके सिवाय तीन भाव होते हैं।
अनेक जीवों की अपेक्षासे गुणस्थानोंमें भावों के उत्तर भेद--
सायोपमिक--पहले दो गुणस्थानोंमें तीन अजान ना आदि दो दर्शन, दान आदि पाँच लब्धियां, ये १० तीसरे में तीन ज्ञान, तीन दर्शन, मिश्रष्टि, पांच लब्धियां, ये १२; चौधे में तीसरे गुणस्थान बाले १२ किन्तु मिश्रमिटके म्यानमें सम्यक्त्व ; पान्य में पो गुणस्थानवाले बारह तथा देशविर ति, कूल १३, छठे. सातवे में उक्त तेरह में से देश-विरतिको घटाकर उनमें सर्वविरति और मन:पर्यवज्ञान मिलानेसे १४, आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थानमें उक्त चौदहमेंसे सम्यक्त्वके सिवाय शेष १३; ग्यारह बारहमें मुणस्थानमें उक्त तेरह में से बारिश्रको छोड़कर शेष १२ क्षयोपशामक भाव हैं। तेरहवें और चौदहवें में क्षायोपमिकभाव नहीं हैं।
औदयिक - पहले गुणस्थानमें अज्ञान आदि २१: दूसरे में मिथ्यात्वके सिवाय २०; तीसरे-चौमें अज्ञानको छोड़ १६, पांचवें में देवगति, नारकगति के सिवाय उक्त उभीस मेंसे शेष १७. छठेमें तिर्यञ्च गति और असंयम पटाकर १५; मातवे में कृष्ण आदि तीन लेश्याओंको छोड़कर उक्त पन्द्रहमेसे शेष १२; आठने नौवें में तेज: और. ५६-लेल्या सिवाय १०; दसवें में क्रोध मान, माया और तीन वेदके सिवाय उक्त दसमेंसे शेष ४; ग्यारहवे, बारहवें और तेरहवें गणस्थान में सवलनलोभको छोड शेष ३ और चौदहवें गुणस्थान में शुल्क नेश्याके सिवाय तीनमेसे मनुष्पगति और असिद्धत्व, ये दो औवायिकभाय है। ___क्षायिक-पहले तीन गुणस्थानों में शामियाभाव नहीं है। चौथेसे ग्यारहवें तक आस गुणस्थानों में सम्पत्य, बारहवें में सम्यक्त्व और चारित्र दो और तेरहवें चौदहवें दो गुणस्थानों में नो क्षायिकभाव हैं।
औपरामिक-पहले तीन और बारहवें आदि तीन, इन छह गुणस्थानों में औपशमिकभाव नहीं है । । चौथेसे आठवें तक पाँच गुणस्थानों में सम्यक्रम,
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कर्मग्रन्थ भाग चार नौवेसे ग्यारहवें तक तीन गुणस्थानों में मम्यक्त्व और चारित्र, ग्रे दी औप. शमिभाव है।
पारिणामिक-पहले गुणस्थान में जीवत्व आदि तीनों; दुसरसे बारहवें तक ग्यारह गुणस्थानों में जीवत्व. भव्यत्व, दो और तेरहवें-चौदहवें में जीवत्व ही पारिगामिभान है । भब्यत्त अनादि-सान्त है। क्योंकि सिद्धअवस्था में उसका अमात्र हो जाता हैं। घातिकर्मक्षय होने के बाद मिड-अवस्था प्राप्त होने में बहुत बिलम्ब नहीं लगता; इस अपेक्षासे तेरह-चौदहवं गुणास्थान में भव्यत्व पूर्वाचार्यान नहीं माना है।
गोम्मटसार-कर्मका? की २० से ७५ तक की गाथाओंमें स्थानगत तथा गद-गत सणवारा भावों का बहुत विस्तारपूर्वक वर्णन किया है ।
एक-जीनाथित भावीके उत्तर भेद:
क्षायोपशामक--पहले दो गुणस्थान में मति-श्रुत दो या विमङ्गसहित तीन अज्ञान, अन्नक्षु एक या चक्षु-अवक्षु दो दर्शन', दान आति पांच लब्धियां सीमरे में दो या तीन शान, दो या तीन दर्शन, मिश्रष्टि, पांच लब्धियों चौथे में दो या तीन ज्ञान, अपर्याप्त-अवस्था में अचक्ष एक या अवधि सहित दो दर्शन और पर्याप्त-अवस्था, दो तीन दर्शन, सम्यक्त्व, पाँच सबिधयाँ पाचवे में दो या तीन शान, दो या तीन दर्शन- सम्यनतव- देशविरतिः पांच ल'ब्धयों; छठे सातवे में दो तीन या मनःपर्यापपर्यन्त चार झान, दो या तीन दर्मग, सम्यक्त्व, चारिम, पांच लब्धियों; आठवें नौ और दसवें में सम्यक्त्वको छोड़ छठे और सात गुणस्थाननाले सब क्षायोपशमिक भाध । ग्यारहवें-बारहमें में चारित्रको छोड दसवें गुणस्थानवाले सब भाव । ___औदयिकः-गहले गुणस्थानमें अज्ञान, असिद्धत्व, असंयम, एक लेश्या एक कषाय, एक गति, एक वेद और मिथ्वाल ; दूसरे में मिथ्यात्यकी छोड पहने गुणस्थानवाले सब ओदयिक तीसरे, चौथे और पांच घे में अज्ञान को छोड़ दूसरेवाले,सब छठेसे लेकर नौवें तकम झसंयमके सिवाय पाषषाले सम्ब दसवें में वेदके सिवाय नौवाले मब; ग्यारहवें-बारहवेंमें कषाय के सिवाय दसवाले सब ; तेरहवें में असिद्धब, लेश्या और गति; चौदहवें में गति और असिस्त्र ।
सायिक चौथमे ग्यारहवं गुणस्थान तक में सम्यक्त्व; और चारित्र दो और सेरहवें चौदहवें में-नौ क्षायिकमाव।।
औपशमिक---ौयेसे आठवें तक सम्यक्त्वं नौवेसे ग्यारहवें तक सम्यक्त्व और चारित्र। ___पारिणामिका-पहले में तीनों; दूसरेसे बारहवें तक मैं जीवस्व और भव्यत्व दो; तेरहवें और चौदहमें में एक जीवत्व ।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
... परिशिष्ट न०११
श्वेताम्बरोय तथा दिगम्बरीय संप्रदाय के [कुछ] समान
तथा असमान मन्तव्य ।
( क ) निश्चय और व्यवहार-दृष्टि से जीव शस्त्र की व्याख्या धोनों संत्रवाय में तुल्य है । पृष्ठ-४ । इस सम्बन्ध में जीवकाण्ड का 'शमाधिकार' प्रकरण और उसको टीका देखने योग्य है ।
मार्गणास्थान शब्द की व्याश्या वोनों सांप्रदाय में समान है। पृष्ठ-४।
गुणस्थान राव की वारूपा शैली फर्मग्रन्थ और जोशकाज में भिलसी है, पर उसमें सात्त्विक अर्थ-भेद नहीं है । पृ०-४ ।
उपयोग का स्वरूप दोनों सम्प्रदायों में समान माना गया है। पृ०-५ ।
कर्मग्रन्थ में अपर्याप्त संजी को तीन गुणस्थाम माने हैं, किन्तु गोम्मटसार में पांच माने हैं । इस प्रकार दोनों का संस्थाविषयक मलमेव हैं, तथापि वह अपेक्षाकृत है, इसलिये वास्तविक दृष्टि से उसमें समानता ही है । पृ.-१२ ।
केवलज्ञानी के विषय में संशित्व तथा असंशिस्व का व्यवहार दोनों संप्रदाय के शास्त्रों में समान है। पृ.-१३ ।।
वायुकाय के पारीर की ध्वजाकारता दोनों संप्रदाय को मान्य है । पृ०-२०॥
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कर्म ग्रन्थ भाग चार छाद्मस्थिक उपयोगों का काल-मान अन्तमुंहत्त-प्रमाण दोनों संप्रवायों को मान्य है। पृ०-२०, नोट ।
भावलेश्या के सम्बन्ध की स्वरूप, दृष्टान्त आदि अनेक बाते दोनों सम्प्रदाय में तुल्य है । पृ०-३३ ।
चौदह मार्गणाओं का अर्थ दोनों सम्प्रदाय में समान है तथा जनकी मस गाथाएं भी एकसी हैं। पृ०-४७, नोट ।
सम्यक्तव की व्याख्या दोनों सम्यदाय में तुल्य है। पृ०-५०, नोट ।
ध्याख्या कुछ मिन्नसी होने पर भी आहार के स्वरूप में दोनों सम्प्रदाय का तात्विक भव नहीं है। क्वेताम्बर-ग्रन्थों में सर्वत्र आहारके तीन मेव हैं और दिगम्बर-मन्थों में कहीं छह भेद भी मिलते हैं । पृ०-५०, नोट।
परिहारविशुद्धसंघम का अधिकारी कितनी उम्रका होना चाहिये, उसमें कितना ज्ञान आवश्यक है और वह संग्रम किसके समीप ग्रहण किया जा सकता और उसमें बिहार आदि का कालनियम कैसा है, इत्यादि उसके सम्बन्ध को ना दोनों सम्प्रदाय में बहुत अंशों में समान हैं। पृ०-५१, नोट 1
मायिकसम्यक्तव जिनकालिक मनुष्यों को होता है, यह बात दोनो सम्प्रदाय को इष्ट है । पृ०-६६, नोट ।
केवली में द्रव्यमान का सम्बन्ध दोनों सम्प्रदायों में इष्ट है। पृ०-१०१, मोट।
मिश्रसम्यारष्टि गुणस्थानों में मति आदि उपयोगों की जान-अज्ञान उभयरूपता गोम्मटसार में भी है। पृ०-१०३, नोट ।
गर्भज मनुष्यों की संख्या के सूचक उन्तीस अङ्ग दोनों सम्प्रदाय में दुल्य हैं । पृ०-११७, नोट ।
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कर्म ग्रन्थमाग बार
इन्द्रियमार्गणा में बोन्द्रिय आदि का और कायमार्गणा में सेव:काय आदि का विशेषाधिश्व बोनों सम्प्रदाय में समान १८ है। पृ०-१२२, नोट ।
चक्रगति में विग्रहों की संख्या दोनों सम्प्रदाय में समान है । फिर भी श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में कहीं-कहीं जो चार विग्रहों का मतान्सर पाया जाता है, वह दिगम्बरीय अन्धों में देखने में नहीं आया। तथा बपति का कान-मान बोनों सम्प्रदाय में तुल्य है। पक्राति में आनाहारकत्व का काल-मान, व्यवहार और निश्चय, वो दृष्टियों से विचारा जाता है। इसमें से व्यवहार-रष्टि के अनुसार श्वेताम्बर-प्रसिद्ध तस्वार्थमें विचार है और निश्चय-दृष्टि के अनुसार दिगम्बर-प्रसिद्ध तत्त्वार्य में विचार है । अत एव इस विषय में भी दोनों सम्प्रदाय का वास्तविक मतमेव नहीं है । पृ.-१४३ । ___ अवधिवशन में गुणस्थानों की संख्या के विषय में सैद्धान्तिक एक और कासयधिक दो, ऐसे जो तीन पक्ष हैं, उनमें से कार्मपन्थिक दोनों ही पक्ष दिगम्बरोय ग्रन्थों में मिलते हैं । पृ०-१४६ ।
केवलज्ञानी में आहारकत्व, आहारका कारण असातवेदनीय का उदय और औदारिक पुगलों का ग्रहण, ये तोनों बातें दोनों प्तम्प्रदाय में समान मान्य हैं । पृ.-१४८ ।
गुणस्थान में जीवस्थान का विचार गोम्मटसार में कर्मग्रन्थ की अपेक्षा कुछ भिन्न जान पड़ता है । पर वह अपेक्षाकृत होने से वस्तुतः कर्मप्रभ्य के समान ही है । पृ०-१६१, नोट ।
गुणस्थान में उपयोग को संख्या फर्मग्रन्थ और गोम्मट सार में तुल्य है । पृ०-१६७, नोट ।
एकेन्द्रिय में सासाबनभाव मानने और न मानने वाले, ऐसे जो
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कर्मग्रन्थ माग चा
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वो पक्ष श्वेताम्बर-ग्रन्थों में हैं, विगम्बर-प्रन्थों में भी हैं। पृ० - १७१.
मोट ।
श्वेताम्बर - प्रन्थों में जो कहीं कर्मबन्ध के पार हेतु कहीं वो हेतु और कहीं पाँच हेतु कहे हुए हैं; दिगम्बर-ग्रन्थों में मो वे सब वर्णित हैं। पृ०-१७४, लोट |
बन्ध-हेतुओं के उत्तर मेव आदि दोन संप्रवाप में समान है । पृ० - १७५, नोट ।
सामान्य तथा विशेष बन्ध-हेतुओं का विकार दोनों संप्रदाय प्रत्यों में है । पृ०-१८१, नोट ।
एक संख्या के अर्थ में रूप शब्द दोनों सम्प्रदाय के ग्रन्थों में
मिलता है। पृ० - २१८ नोट
कर्मग्रन्थ में वर्णित वस तथा छह क्षेत्र त्रिलोकसार में भी हैं पृ०-२२१, नोट ।
उत्तर प्रकृतियों के भूल बम्ध हेतु का विचार जो सर्वार्थसिद्धि में है, वह पञ्चसंग्रह में किये हुए विचार से कुछ मिला होने पर भी वस्तुत: उसके समान ही है । पृ० - २२७ ।
कर्मग्रन्थ तथा पञ्चसंग्रह में एक-जीवाश्रित भावों का जो विचार है, गोम्मटसार में बहुत अंशो में उसके
समान हो वर्णन है ।
पृ०
२२६ ।
-
( ख )
इतर-ग्रन्थों में तेजःकस्य को वैक्रिय शरीर का कथन नहीं है, पर दिगम्बरन्थों में है । पृ० १६ नोट
J
श्वेताम्बर संप्रदाय की अपेक्षा दिगम्बर संप्रदाय में संज्ञि असंजी का वह कुछ मिल हैं। तथा श्वेताम्बर धन्यों में हेतुभावोपदेशिकी
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समग्रन्ध भाग चार
રા
आदि संज्ञाओं का विस्तृत वर्णम है, पर दिगम्बर-अन्यों में नहीं है । पृ०-१६
श्वेताम्बर-शास्त्र प्रसिद्ध करणपर्याप्त शष्य के स्थान में विगम्यरशास्त्र में नित्यपर्याप्त शब्द है। ध्याल्या भी दोनो शब्दो की कुछ भित है। पृ०-४१।
श्वेताम्बर-मन्थो में केवलज्ञान तथा केथलदर्शन का कमावित्व, सहमाविश्व और अमेव, ये तीन पक्ष हैं, परन्तु दिगम्बर-मन्थो में सहभारित्व का एक ही पक्ष है। पृ०-४३ ।
लेश्या तथा आयु के बन्धाबन्ध को अपेक्षा से कषाय के जो चौमह और बोस भेद गोम्मटसार में हैं, वे श्वेताम्बर-मन्यो में नहीं देखे पये | पृ -- ५५, नोट ।
अपर्याप्त-अवस्था में औपशमिकसम्मक्तव पाये जाने और न पाये जाने के सम्बन्ध में दो पक्ष श्वेताम्बर-प्राथो में है, परन्तु गोम्मरसार में उक्त वो में से पहिला पक्ष ही है। पृ०-७०, चोट ।
अज्ञान-त्रिक में गणस्थानो की संख्या के सम्बन्ध में बो पक्ष फर्मप्रन्थ में मिलते हैं, परन्तु गोम्मरसार में एक ही पक्ष है । पृ०-८२, नोट
गोम्मटसार में नारको की संख्या कर्मप्रन्थ-वणित संख्या से भिन्न छ। पृ० - ११६, नोट।
यमन का आकार तथा स्थान दिगम्बर संप्रदाय में श्वेताम्बर को अपेक्षा भिन्न प्रकार का माना है और तीन योगो के बाहाभ्यन्सर कारणो का वर्णन राजवातिक में बहुत स्पष्ट किया है । पृ०-१३४ ।
मनःपर्यापमान के योगो की संख्या दोनो सम्प्रवाय में तुल्य नहीं है। पृ०-१५४ ।
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कर्मग्रन्थ भाग भार
श्वेताम्बर पन्थों में जिस अर्थ के लिये आयोजिकाकरण आवजितकरण और आवश्यककरण, ऐसी तीन संज्ञाएँ मिलती हैं, दिगम्बरग्रन्थों में उस अर्थ के लिये सिर्फ आजतकरण, यह एक संख्या है | पृ० - १५५ ।
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माना है और श्वेताम्बराम्थों में काल को स्वतन्त्र अथ्य मो raft भी । किन्तु दिगम्बर-ग्रन्थों में उसको स्वतन्त्र हो माना है। स्वतन्त्र पक्ष में भी काल का स्वरूप दोनों संप्रदाय के ग्रन्थों में एकसा नहीं है। पृ०-१५७ ।
feat-feat गुणस्थानों में योगों की संख्या गोम्मटसार में कर्मप्रत्थ की अपेक्षा मित्र है । पृ० १६३, मोट ।
दूसरे गुणस्थान के समय ज्ञान तथा अज्ञान मानने वाले ऐसे यो पक्ष इवेताम्बर-ग्रन्थों में हैं, परन्तु गोम्मटसार में सिर्फ दूसरा पक्ष ०-१६६, नोट |
गुणस्थानों में लेश्या की संख्या के संबन्ध में श्वेताम्बर-ग्रन्थों में दो पक्ष है और दिगम्बर-प्रभ्यों में सिर्फ एक पक्ष है । पृ० १७२, नोट ।
[ जीव सम्यक्तवसहित मरकर स्त्रीरूप में पैं नहीं होता, यह बात दिगम्बर संप्रदाय को मान्य है, परन्तु वेताम्बर संप्रदाय को यह मन्तव्य इष्ट नहीं हो सकता; क्योंकि उसमें भगवान् महिलनाथ का स्त्रीव तथा सम्यक्तवसहित उत्पन्न होना माना गया है । ]
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कमग्रन्म भाग पर
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परिशिष्ट नं० २ ।
काभग्रन्थिकों और संद्धान्तिकों का मत-भेद 1
सूक्ष्म एकेन्द्रिम आदि वस जीवस्थानों में तीन उपयोगों का कथाम कार्मग्रन्थिक मत का फलित है। सैद्धान्तिक मत के अनुसार तो छह जोवस्थामों में ही तीन उपयोग फलित होते हैं और वीन्द्रिय आदि शेष चार जोवस्थानों में पांच उपयोग फलित होते हैं । '०-२२, नोट।
अवधिवन में गुणस्थानों को संख्या के संबन्ध में कार्मग्यिकों तथा संवान्तिकों का मत-भेद है। कार्मग्रन्थिक उसमें नो तथा यस गुणस्थाम मानते हैं और सैद्धान्तिक उसमें बारह गुणस्थान मानते हैं । पृ०-१४६ ।
सैद्धान्तिक दूसरे गुणस्थान में मान मामते हैं, पर कार्मग्रन्थिक उसमें अज्ञान मानते हैं । पृ०-१६६, नोट ।
क्रिय तथा आहारक-शरीर बनाते और त्यागते समय कौन सा योग मानना चाहिये, इस विषय में कामपन्थिको का और सवान्सिकोका मत-मेव है । १०-१७०, नोट ।
सिद्धान्ती एकेन्निय में सासादनमाव नहीं मानते, पर फार्मग्रन्थिक मानते हैं । १०-१७१, नोट ।
पग्थिभेद के अनन्तर कौन सा सम्यक्त होता है, इस विषय में सिवान्त तथा कर्मप्रन्थ का मत-भेद है । पृ०-१७१ ।
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कर्मचन्त्य भाग बार
२४०
परिशिष्ट नं० ३।
चौथा कर्मग्रन्थ तथा पञ्चसंग्रह ।
जीवस्थामो में योग का विचार पञ्चसंग्रह में भी है । पृ०१५, नोट।
अपर्याप्त जीवस्थान के योगो के संबन्ध का मत-भेव जो इस कर्म प्रग्य में है, वह पञ्चांग्रह को धीमा में विस्तारपर्वक है । प०- १६ ।
जीवस्थान में उपयोगों का विचार पञ्चसाह में भो है । ५।२०, नोट ।
कर्मग्रन्थ कारने विमङ्गज्ञान में वो जीवस्थानो का और पञ्चसंग्रह काग्ने एक जीवस्थान का उल्लेख किया है । प०-६८, नोट ।
अपर्याप्त-अवस्था में औपशमिकसम्यक्तष पाया जा सकता है, यह बात पञ्चपह में भी है । पृ-७० नोट ।
पुरुषो से स्त्रियो को सख्या अधिक होने का वर्णन पांग्रह में है। पु०-१२५, नोट ।
पञ्चाग्रह में मी गुणस्थानो को लेकर लेकर योगो का विचार है। पु. १६३, नोट ।
गुणस्थान में उपयोग का वर्णम पञ्चसंग्रह में है । पृ०-१६७, नोट ।
बन्ध-हेतुभो के उत्तर भेव तथा गुणस्थानो में मूल बम-हेतुओका विचार पञ्चांग्रह में है । पु०-१७५, नोट ।
सामान्य तथा विशेष बन्ध-हेतुभो का वर्णन पञ्चसंग्रह में विस्तृत है । पृ०-१८१, नोट ।
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कर्मग्रन्थ भाग चार
२४१
गुणस्थानों में बन्ध, उबय आदि का विचार पन्धसंग्रह में है। पृ०-१८७, नोट । गुणस्थानों में अल्प-महत्व का विचार पञ्चसंग्रह में है। पृ-१६२,नोट ।
कर्म के भाव पञ्चसंप्र-ए में हैं। १०. २०४, पोट ।
उस सिओं संबई का विचार कर्मग्रन्थ और पञ्चसंग्रह में भिन्न-भिन्न शैली फर है । १०२२७ ।
एक जीवाश्रित भावों की संख्या मूल कर्मग्रन्थ तथा मूल पञ्चसंग्रह में भिन्न नहीं है, किन्तु वोनों व्याख्यानों में देखने योग्य घोड़ा सा विचार मेन है । पृ०-२२६ ।
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क्रर्मग्रन्थ भाग चार
परिशिष्ट नं० ४ ।
कुछ
ध्यान देने योग्य विशेष- विशेष स्थल | जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान का पारस्परिक अस्तर | पूँ० - ४ ।
परभव की आयु बाँधने का समय विभाग अधिकारी-क्षेत्र के अनुसाथ किस दिशा का है। पु०-२४ नोट | उदीरणा किस प्रकार के कर्म की होती है और वह कब तक हो सकती है ? इस विषय का नियम । पृ०-२६, नोट |
व्य-लेवा के स्वरूप के सम्बन्ध में बाशय क्या है ? मावलेश्या क्या वस्तु है दर्शन में तथा गोशालक के मत में लेश्या के इत्यादि का विचार । पृ०-३३
कितने पक्ष हैं ? उन सबका और महाभारत में योग, स्थान में कैसी कल्पना है ?
J
शास्त्र में एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय आदि जो इन्द्रिय सापेक्ष प्राणियों का विभाग है वह किस अपेक्षा से ? तथा इत्रिय के कितने मेव प्रमेव है और उनका क्या स्वरूप है ? इत्यादि का विचार । पृ० ३६ ।
संज्ञा का तथा उसके मेव प्रभेदों का स्वरूप और संज्ञित्व तथा असंत्वि के व्यवहार का नियामक क्या है ? इत्यादि पर विचार पृ० ३८ ।
अपर्याप्त तथा पर्याप्त और उसके मेव आदि का स्वरुप तथा पर्याप्ति का स्वरूप पृ०-४० ।
केवल शरम तथा केवलवन के क्रमभाषित्व, सहमाथित्व और
अमेव इन तीन पक्षों को मुख्य-मुख्य बलीले तथा उक्त तीन पक्ष
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किस-किस नयको अपेक्षा से है ? इत्यादि का वर्णन । दृ०-४३
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नामंग्रन्थ भाग चार
बोलने तथा सुनने की शक्ति नहोने पर मी एकेन्द्रिय में भूत-उपयोग स्वीकार किया जाता है, सो किस तरह ? इस पर विचार । पु.-४५ ।
पुरुष व्यक्ति में स्त्री-योग्य और स्त्री व्यक्ति में पुरुष-योग्य भाव पाये जाते हैं और कभी तो किमी एक हो व्यक्ति में स्त्री-पुरुष रोगों के बाह्याभ्यन्तर लक्षण होते हैं। इसके विश्वस्त सवत । पृ.-५३, नोट ।
श्रावकों की वर" का विस्था नहीं की है, उसका खुलासा । १०-६१, नोट।
मन:पर्याय उपयोग को कोई आचार्य पर्शनरूप भी मानते है, इसका प्रमाण । ५० ६२, नोट ।
जाति मध्य किसको कहते हैं ? इसका खुलासा | पृ०-६५, नोट |
औपमिकसम्यक्तत्र में वो जीयस्थान मानने वाले और एक जीवस्थान मानने वाले माचार्य अपने-अपने पक्ष की पुष्टि के लिये अपर्याप्त-अवस्था में औपशमिकसभ्यक्तब पाये जाने और न पाये जाने के विषय में क्या क्या युक्ति देते हैं ? इसका सविस्तर वर्णन । पुर-७०, नोट।
समूचिछम मनुष्यों की उत्पत्ति के क्षेत्र और स्याम तथा उनकी आयु और योग्यता जानने के लिये आगमिक-प्रमाण । पृ०-७, भोट ।
स्वर्ग से छयुत होकर वेव किन स्थानों में पैदा होते है ? इसका कथन । पृ० ---७३. नोट ।
घाईर्शन में कोई तीन हो जीवस्थान मानते हैं और कोई छ । यह मत-मेव इन्द्रियपर्याप्ति की भिन्न-भिन्न व्याख्याओं पर निर्भर है। इसका सप्रमाण कथन । पु०-७६, नोट ।
फर्मग्रन्य में असंज्ञो पञ्चेन्द्रिय को स्त्री और पुरुष, ये बो देव
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________________
कामनाथ भाग चार
१४४
माने हैं और सिद्धान्त में एक नपुसक, सो किस अपेक्षा से ? इसका प्रमाण 1 पृ०-७, मोट ।
महाम-निक में दो गुणस्थान मानने वालों का तथा तीन गुणस्थान मानने वालों का प्राशय क्या है ? इसका खुलासा । पृ. १२ ।
कम आदि तीन अशुम लेश्यामों में छह गुणस्थान इस कर्मप्रम्प में माने हुए और पनसंग्रह आदि प्रन्यों में उक्त तीन लेश्या
में चार गुणस्थान माने हैं। सो किस अपेक्षा से ? इसका प्रमाणपूर्वक बुलासा 1 पृ०-८८।
जग मरण के समय ग्यारह गुणस्थान पाये जाने का कयन है। सब विग्रहगति में तीन ही गुणस्थान कैसे माने गये ? इसका खुलासा । पू०-८६।
स्त्रोवेव में तेरह योगों का तया वेव सामान्य में बाग्छ उपयोगों का और नौ गुणस्थानों का जो कपन है, सोय और भाव में से किस-किस प्रकार के क्षेत्र को लेने से घट सकता है ? इसका खुलासा । पु०-६७, मोट ।
जपामसम्पवरव के योगो में भीवारिकमिश्रयोग का परिंगणन है, सो किस तरह सम्भव है ? इसका खुलासा । पृ०-६।।
मार्गणाओं में श्री अल्पाबहुत्व का विचार कर्मग्रन्थ में है, यह आगम भावि किम प्राचीन प्रन्यो में है ? इसकी सूचना । पु०-१५, नोट । काल की अपेक्षा क्षेत्र की को सूक्ष्मता का सप्रमाण कथन । पृ०-१७७ नोट
शुल्क, पन और तेमो-लेक्ष्यावालों के संख्यातगुण अल्प-यात्य पर शास-समाधान तथा उस विषय में व्याकार का, मन्तव्य । पु०-१३० नोट
सीन योगों का स्वरूप तथा उनके ब्राह्म-आभ्यन्तर कारणो का स्पष्ट कपन और योगों की संख्या के विषय में शङ्का-समाधान तथा द्रव्यमम, प्रध्यापन और शरीर का स्वरूप । पृ०-१३४, ।
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________________
कर्मग्रन्थ भाग चार
आपस में अन्तर
सम्यक्त्व सहेतुक है या निर्हेतुक ? क्षायोपशमिक आवि मेवों का आधार, औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का क्षायिक सम्यगवीकी उन दोनों से विशेषता, कुछ काकोक्य और प्रदेश का स्वरुप क्षयोपशम तथा व्याख्या एवं अन्य प्रासङ्गिक विचार 19 - १३६ ।
शङ्कर- समाधान, उपशम-शब्द की
अपर्याप्त अवस्था में इन्द्रियपर्याप्त पूर्ण होने के पहिले चलूशन नहीं माने जाने और चक्षुर्दर्शन माने जाने पर प्रमाण पूर्वक विचार । १०- १४१ ।
२४५
वक्रगति के सम्बन्ध में तीन बातों पर सविस्तार:- (१) वक्रगतिके विग्रहों को संख्या (२) वक्रगति का काल-मान और (३) वक्षगति में अनाहारकल्प काल मान । पु०-१४३ |
अवधिदर्शन में गुणस्थानों की संख्या के विषय में पक्षमेव तथा प्रत्येक पक्ष का तात्पर्य अर्थात् विभङ्गज्ञान से अवधिदर्शन का भेदाभेव । पु० - १४६ ।
श्वेताम्बर दिगम्बर संप्रदाय में कबलाहार विषयक मतभेद का समन्वय । पु० - १०८
केवल ज्ञान प्राप्त कर सकने वाली स्त्रीजाति के लिये श्रुतज्ञानविशेष का अर्थात् दृष्टिबाव के अध्ययन कर निषेध करना, यह एक प्रकार से विरोध है । इस सम्बन्ध में विचार तथा नय-दृष्टि से विरोध का परिहार | पृ० – १४६ ।
क्षुदंर्शन के योगों में से औदारिकमिश्रयोग का वर्जन किया है, सो किस तरह सम्भव है ? इस विषय पर विचार | पु०-१६४ ।
केवलिमुद्धात सम्बन्धी अनेक विषयों का वर्णन उपनिषदों में तथा गीता में जो आत्मा की व्यापकता का वर्णन है, उसका प्रेम-दृष्टि से मिलान और केवलिमुद्धात जैसी क्रिया का वर्णन अन्य किस दर्शन में हैं ? इसकी सूचना |०-१५ ।
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________________
२४६
कर्मग्रन्थ भाग चार
जग वर्शन में तथा जनेत र-वर्शन में कालका स्वरू किस-किस प्रकार का माना है ? तथा उसका प्रास्तविक स्वरूप कैसा मामना चाहिये ? इसका प्रमाण पूर्वक विचार । पृ.-१२७ ।
छह सेल्या का सम्बन्ध चार गुणस्थान तक मानना चाहिये या छह गुण स्पान तक? इस सम्बन्ध में जो पक्ष है, उनका माय तथा शुभ भाग लेश्या के अशुभ पलेया और अशुभ वन्य लेश्या के समय शुभ मावलेपया, इस प्रकार लेश्याओं की विषमता किन जीयो में होती है ? इत्यादि विचार । पू.---१७२- नोट ।
कमबन्ध के हेतुओं की भिन्न-भिन्न संख्या सभा उसके सम्बन्ध में कुछ विशेष ऊहापोह । पृ०-१७४, नोट ।
आमिग्रहिक, अनामिनहिक और आमिनिषेशिक-मिथ्यात्व का शास्त्रीय खुलासा । पृ०-१७६, मोट ।
तीर्थ करनामकर्म और सहारक-द्विक, इन तीन प्रकृतियों के बन्ध को कहो कषाय-हेतुक कहा है और कहीं तीर्थकरनामकर्म के अग्ष को सम्पपस्यहेतुक तथा आहारक-द्विकके बन्ध को संयम-हेतुक, सो किस अपेक्षा से ? इसका खुलासा पृ०-१८१, नोट ।
छह भाव और उनके भेजों का वर्णन अन्यत्र कहां-कहाँ मिन्नता है ? इसकी सूचमा । १०-१६६, नोट ।
मति आदि अज्ञानी को कहीं बायोपशमिक और कहीं औरयिक कहा है, सो किस अपेक्षा से ? इसका खुलासा । पृ०-१६६, नोट ।।
संख्या का विचार अन्यत्र कहाँ-कहाँ किस-किस प्रकार है ? इसका निवेश 1 पृ०-२०८, नोट ।
युगपर तथा भिन्न-भिन्न समय में एक या अनेक जीवाश्मित पाये जाने काले भाव और अनेक जीवो को अपेक्षा से गुणस्थानों में मावों के उत्तर मेव । पु-२३१ ।
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________________
कर्म : न्थ भाग चार
अनुवाद गत पारिभाषिक शब्ों का कोष |
अनुवादगत पारिभाषिकशब्दों का कोष
शब्द |
पङ्क्ति ।
शब्द | पृष्ठ |
अ
अछामस्थिकयथास्यात
[ अध्यवसाय ] अनुभवसंज्ञ ।
[ अनुभाग ]
[अनुभागबन्धस्थान]
अन्तरकरण
[ अन्तर्मुहूर्त [ [ अपवर्तनावरण]
| अबाधाकाल ]
अभवस्थ अयोगी
असत्कल्पना
आ ।
[आदेश ]
आयोजिकाकरण
[आयंबिल ] आवजितकरण
[आवलिका ]
आवश्यककरण
इ ।
वरवर सामायिक
पङ्क्ति ।
६१ २०
२२३ १३
३८
२२३ १३
१६
..
१४० मैं
२८
१
૬ २
६ १
१६४ २५
२१० १७
ܡ
ex
१५५
६०
१
१५५ ६
३१ १
१५५ ७
५७ २३
पृ० ।
उ ।
उत्कृष्ट अनन्तानन्त
उत्कृष्ट असंख्याता
सख्यात
उत्कृष्ट परीस नित उत्कृष्ट परीता संख्यात
उत्कृष्ट युक्ता मन्ल
उत्कृष्ट युक्तासंख्पात
उत्कृष्ट संख्यात
उदयस्थान उरेरणास्थान
उपकरणेन्द्रिय
उपक्षम
उपशमश्रेणिभावोओपशमिकसम्यवश्व
[ओच ] ओषसंज्ञा
ऊ ।
[ उतासामान्य ]
ऊर्ध्वप्रचय
२४७
ओ ।
२२५ ११
२२०
२२० १५
२१६
३
२२० १६
२२० २
२१७ १६
२८ *
२८
३
३७ १२
१३६ २७
६६ ३
१४
ar
१५८ २५
४ १६ ३६ १५
Page #319
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________________
२४८
शायद ।
पृष्ठ |
औ ।
औपपातिकशरीर
श्रमिक trafafta
करण
करण- अपर्याप्त
करणपर्याप्त
[कषायिक परिणाम]
क्षायोपशम
क्षयोपशमिक
1
(धन) [धनीकृत लोक ]
ग।
परिभवजन्य औपश
मिकसम्पवश्व
गसि
घ ।
६२ १३
१३८ १
१६७ १४
छायस्थिकयथाक्यात
छ।
पङ्क्ति '
जघन्य अनन्तान ह जघन्य असंख्यात
संस्थात
GT I
४१ १०
४०
४१ १३
२२३ १३
१३८ ४
१३८ १
८
६५ १३
८१ १०
१२९ १
११८ ४
६१ १५
२२० १८
२२०
१
शव ।
पाड़ित ।
पृष्ठ | जघन्य परोतागश्त
२२०
७
जघन्य परीतासंख्यात २१५ ११
जघन्य युक्तानन्त
२२० १३
जघन्ययुक्त संख्यात्र
२१८ १५
जघन्य संख्यात
२०६ २४
[जाति भव्य ] [जीवसमास]
ज्ञानसंज्ञा
कर्मग्रन्थ भाग चार
तिर्यक्प्रचय
[तिर्यक्सामान्य]]
द्रव्यप्राण
द्रव्यमन
ब्रव्य लेश्या
धीर्घकालोपदेशिकी
संज्ञा
त ।
--=*
द्रव्यवचन
[द्रव्यवेद ]
[ द्रव्यसम्यक्त्व ]
द्रव्येन्द्रिय
{ ३ ८ ३
द ।
६५ ર્
५
३८ २२
दृष्टिवादोषपेशिकी संज्ञा ३८२६
३
१३५ १३
મ
१६
१
१५
३५ ५
१५८ २३
३ १६
"
३३
१३५
५३
१७३ १६
३६ २०
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________________
कर्म ग्रन्थ भागमा
२४९
शब्य पृष्ठ । पंक्ति
त , शरद । । शरद ।
पृष्ठ । पंक्ति । अशोदय
१३७ १६ [निगोदशरीर] २२३ २८ निरतिधारछेदोपस्था
[बन्ध न करण] पनीयसंयम ५८ २१ बन्धस्थान [निर्जर।] [निविभाग अंश] २२२ २२
भवप्रत्यय
११४ १५ निविशमानकपरिहार
भवस्थ-अयोगी १६४ २४ विशुबसंयम ६० २०
भाव निविष्टकायिकपरिहार
भावाराण विशुद्धसंयम
६० २१
भावलेश्या ३३ १८ निलि-अपर्याप्त ४१ २ [भाववेद] ५३ १ निवृत्तीन्द्रिय
[भावसम्यक्त्व १३७ १७ निश्चयमरण
८६ १७ भावेन्द्रिय नोकषाय १७६ १७
म । मध्यम अनन्तानन्त २२० २२ मध्यम असंख्याता
संख्यात २२० १० पर्याप्ति
४१ २१
मध्यम परीत्तानन्त २२० १५ [पल्योषम]
मध्यम परीत्तासंख्यात२१६ ४ [पूर्व]
मध्यम युक्तानन्त २२० २० पूर्वप्रतिपन्न
मध्यमयुक्तासंल्यात २२० ५ [प्रतर]
मध्यम संख्यात २१७ २२ प्रतियनमान १६३ १२ [प्रत्येकशरीर २२३ २५ प्रथमोपशमसम्यक्त्व ६६ १ | यावत्कथितसामायिक ५८ ६
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________________
कर्मप्रन्प भाग चार
२५०
पृष्ठ । पंक्ति । |
शाद ।
पृष्ठ ! पंक्ति
शरद ।
रि]
११८ ४ |
शासपृथक्त्व शरीर
व ।
लब्धि-अपर्याप्त
सरकल्पना २१० १५ लब्धिनस
ससास्थान
२७ २५ सब्धिपर्याप्त ४० १०
[समय]
२६१ विषप्रत्ययशरीर ६२ १५
सरामसंयम १४ २४ लब्धौन्द्रिय ३७ १४
|सागरोपम] २८ ६ [लवसत्तम देव] ७१ ११
सातिचारछेवोपस्थापलिङ्गभारीर
नीयसंयम
[सामान्य] पक्रगति
१४४ १५
[सामान्य बन्ध-हेतु] १८११३ [वर्ग
११७ १
सूक्ष्मशरीर [वर्गमूल]
[सूचिश्रेणि विग्रह
१४३ १०
[संक्रम] विपाकोषय १३७ १५
[संक्रमणकरण] विशुध्यमानसूक्ष्म
संक्लिश्यमानकसूक्ष्मसांपरायसंयम ६१ ६
संपरायसंयम ६१ ५ [विशेष]
[संक्षेप] [विशेष बन्ध-हेतु] १८१ १४
संज्ञा [विशेषाधिक]
[स्थितकल्पी] [विस्तार]
स्थितारिपतकल्पी] [विस्वा]
६२ ३ भाविक व्यावहारिकमरण ८९ १५ ! हेतुवावोपदेशिकोशा ३८ १५
x xnx a
w
-
Page #322
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________________
चौथे कर्मग्रन्थ ला कोष !
----
काय भाग बार
गाथाङ्क। प्राकृत । संस्कृत।
हिन्दी। ७२-अओपर
अतःपर
इससे अगाड़ी।
'संयोगकेवलो' और 'अयोग४८-अंतदुग
अन्तविक
केवली' नामके अन्तके को-सेर
(हवा और चौदहवाँ गुणस्थान । ४७--अंताइम
अन्ताद्विम
अखीरका और शुरूका । २३, २८-अंतिम
अन्तिम
अखीरका। ७३-अक्खा
आल्या
नाम । ३६, ३८-अग्गि
अग्नि
अग्निकायिका-नामक जीच-विशेष १२,१६,२०,२५,
T'अचक्षुर्दर्शन' नामक वर्शन
अचक्षुष ३२,४२-अचक्खु
Lविशेष [६२-६] ४८--अछहास
अषटहास
यह हास्यादि को छोड़कर । १-[ ]इस कोष्ठ के अन्दरके अङ्क, पृष्ठ और पंक्तियों के अङ्ग हैं, उस जगह उन शब्दोंका विशेष अर्थ उल्लिखित है।
२५१
Page #323
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________________
प्रा० ।
सं० ।
शान
मा०। ३,१२.१६,२०,२१,२३ अजय २६,३०.४२,४६,४८.५६/ ४७.५०,५४,५६ } -अजो(यो गिन्,
५२- अज्झवसाय ७-२,८-३२,२,३५,
अयत' -नामक चोथा गुणस्थान सिया उत्तर मामा-विशेष !६२-१] चौदहवें गुणस्थानवाला जीव । परिणामों के दर्जे।
अयोगिन्
अध्यवसाय
अष्ट
-अट्ठ (ड)
आठ।
५६,६०-२.६१२
अष्टकर्म अष्टादवा
६६-अट्टकम्म ६४-अट्ठार ५५-अण
अन
७३---अणवडिय
अनवस्थित
आठ कर्म। अठारह।
'अनन्तानुबन्धा-नामक कषाय1 विशेष । [अनवस्थित' नामक पल्य-वि। शेष ।[२११-४] [ 'अनाहारक नामक उत्तर मार्ग। णा विशेष । विशेषता-रहित । [६३-५] ('अनाभिग्रहिक' नामक मिथ्यात्व-विशेष । [१७६-६]
१८.२३,२४,३४,४४---अणहार
अनाहार
कर्मग्रन्थ भाम चार
१२- अणागार
अनाकार
५१-अणभिगहिय
अनाभिग्राहक
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
गा०॥
प्रा० ।
सं० ।
५१-अणाभोग ८२-अणुभाग
अनाभोग अनुभाग
हि । ( "अनाभोग'-नाम मिथ्यात्वविशेष। [७७-२] 'अनुभाग' नामक बन्ध-विशेष ।
फर्मग्रन्थ भाग चार
अनन्त
'अनन्त' नामक संख्या-विशेष ।
४४-२,६३,७१, -अणंत
७६.८३.८४ ३७,३८.३६-२,)
अनन्तगुण
अनन्तानन्त
अधर्म-देश अज्ञान
८४,८६ -- अणंताणंत
५१-अधम्मदेस ६,११,२६,३०.६६-अना (ग्लाण
२०.३२-अनातिग
६२--अनियहि
अन्ततगुना। इ'अनन्तानन्त' नामक संख्या
विशेष । 'अधर्म' नामक द्रव्य के प्रवेश । मिथ्या ज्ञान । 'कुमति', 'कुश्रुति' और 'विभङ्कनामक तीन अज्ञान। 'अनिपुत्तिबावरसंपराय' नामक । नौवाँ गुणस्थान। { 'वायुकायिक' नामक मोमविशेष । [५२-१६]
अज्ञान त्रिक
अनिवृत्ति
१०,३८-- अनिल .
अनिल
२५३
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
गा
।
प्रा.। ६२-अनुवीरगु ४,३५,५०-अन्न
३३--अन्नाणमीस
सं० । अमुदीरक अन्य अज्ञानमिव
हि। 'उदीरणा'न करनेवाला जोव।
और दूसरे । अज्ञान-मिश्रित ज्ञान।
'अपर्याप्त'-नामक जीव-विशेष । 1[११-२]
२, ३, ४–अपजत्त
अपर्याप्त
अपर्याप्त
३,४,६,७,१५.
-अपज्ज १८-२,४५, ५७,६१.६३-अपमत
अप्रमत्त
अप्रमत्त' नामक सातवाँ गुणस्थान । 'अप्रमत'नामक सातवाँ गुणस्थान तक।
५६--अपमत्त
अप्रमत्तान्त
५७.५६,६२,७०-अपुत्व
अपूर्व
( 'अपूर्वकरण' नामक आठवां गुणस्थान ।
कर्भमन्य भाग चार
४६-अपुश्वपणग
अपूर्वपञ्चक
रण-नामक आठवसे लेकर बारहवं तक पाँच गुणस्थान
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--------------------------------------------------------------------------
________________
गा।
प्राः |
हि।
१-अप्पबहू ५६-अबंधग
अल्पबहु अबन्धक
कर्मग्रन्थ भाग चार
७८,८३-आभास
अभ्यास
अभव्य
अभब्येतर
१९.२६.३२-अभव(व्य)
४३-अमवियर ८३ - अभवजिय ६६-अभवत्त ५१-अभिगहिर
अभव्यजीव अभब्यत्व
कम और ज्यादाः [७-४] । बन्धन करनेवाला जीव-विशेष । 'अभ्यास' नामक गणितका संफेतविशेष [२१८-१८] । सिद्ध न होनेवाला जीव-विशेष ( अभव्य' और 'भक्ष्य' नामक
जीव विशेष । 'अभव्य नामक जीव-विशेष । अभव्यत्व' नामक मार्गणा विशेष । 'आभिपहिक,नामक मिथ्यात्व। विशेष [१७६-४)। ('आभिनिवेशिक-नामक मिथ्या
त्व-विशेष [१७६-७] । अलोफाकाश । लोमको छोड़कर। लेण्या-रहित।
आभिग्रहिक
५१-अभिनिवेसिय
४-अलोगनह ८५-अलोम ५०-अल्लेसा
आभिनिवेशिक अलोकनमस् अलोभ अलेक्य
२५५
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
गा। . प्रा०
११-अवहि ३७,८३ - अवि
५७-अविउवियाहार
सं० । अवधि अपि
૨૬
अक्रियाहार अविरति अविरत
५०,५१,५६,५७-अविरह
६३-अविरय
हि.. 'अधिज्ञान' नामक ज्ञान विशेष 11५६-११] भी
यक्रिय' और 'आहारक-नामक १ काययोग विशेषको छोड़कर । पार्यों से विरक्त न होना। चौथे गुणस्थानवाला जोय । । 'असत्यमृष' नामक मन तथा । वचनयोग-विशेष [६१-३] . 'असिद्धत्व'-नामक औदायिक
भाय विशेष [१९६-१७] । मनरहित जीव [१०-१६] ।
२४-असच्चमोस
असत्यमृष
असिद्धत्व
६६-असिद्धत्त २,३,१५-२,२३,1
असंज्ञी
२७,३२,३६ -अस(स्स)न्नि
३८,४०-२,४२, ४४,६३,७१.८०
कर्मरन्थ भाग चार
असंख्य
'असंख्य'-नामक गणना-विशेष ।
८०-असंखासंख
असंख्यासंख्य
('असंख्यासंख्यनामक गणना7 विशेष ।
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--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रा० ३७,३६,४२,४४- असंख गुण
हि.
सं० असंख्यगुण असंयम
६६-अजम
[२००-१] 25-असंभविन्
कर्मग्रन्थ भाग चार
असंभविन् अथ यथाख्यात
असंख्यात गुना । 'असंयम'-नामक औदायिक भाव विशेष । न हो सकनेवाली बात । प्रारम्भमें। 'ययाख्यात' नामक चरिल विशेष । अधिकार में आया हुआ। ज्यादा
१२,२०,२६.३३ अहवाय ३७,४१ [६१-१२]
४६--अहिाय ३८.२.४०.६२--अहिय
अधिकृत अधिक
१.२१.२.६११
६८.७०/-आइई
प्रथम
८१-आष्टमा ४८ -आइमा
आदि आदिम आदिमद्विक
६१-आउ ७८-आलिया
प्राथमिक। पहिले दो--पहिला और दूसरा गुणस्थान । 'आयुष्-नामक कर्म-विशेष । 'आलिका'-नामक कालका भाग विशष ।
आयुष्
आबालिका
२५७
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________________
ग०
प्र०
स०
२५८
६०-आसुटुम
आसूक्ष्म
६.१६ २२२४.) आहार (ग) १५.३१,४६५३ ) [५०-६,६२-२५] आहार (क)
२६४६.४७/_आहार (-ग) आहार (-2)
४७-आहारमोस
आहारकमिश्र
'सूक्ष्मसंपण्य' नामक दसवें गणस्यान तक। 'आहारक' नामक मार्गणा, शरीर तथा कर्म-विशेष। 'आहारक' और 'आहारक मिश्र' . नामक योग-विशेष । 'आहारक मिश्र' नामक काययोगविशेष । 'आहारक' और 'अनाहारक' नामक दो मार्गणा विशेष । इन्द्रिय' नामक मार्गणा-विशेष । एक बार। ग्यारह । एक-एक । एक तथा 'एकेन्द्रिय नामक जोवजाति विशेष ।
आहारेतर
१४-आहारेयर
[६८-१३] E-इंदिय[४-१] ८०-इक्कसि २२.५७--इक्का(गार
७४--इक्किक १०,१६,२७.)
इन्द्रिय सकृत एकादश एकक
कर्मरत्व भाग चार
३२,५०,
इग[५२-
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
गा.
प्र०
स०
५२--गगुण ५२-इगपञ्चम
एकगुण एकप्रत्ययक
पहिला गुणस्थान । एक कारणसे होनेवाला बन्धविशेष ।
कर्मग्रन्थ भाग चार
एकविंशति
६४-इगमीत
१८-इतो ११.२६,३९-इत्यि [५३.१५]
स्त्री
इवम्
यहाँ से । 'स्त्रायेद' नामक वेद-विशेष । यह इनको इसका इनमें
इमान्
८१,५४
७९-२५
अस्स
अस्थ
एतु
२४.५२,६८)
इति
७५.८०ES-इय
इतर
४४,४७.६३. -इयर
२,४६-इह
समाप्त और इस प्रकार । उन्टा-प्रतिपक्षी। यहाँ ।
२६.३६.४६,५२.
२५६
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
गार
-
प्रा०
२६०
६१ -उइरति
उदीरयन्ति उदित होते हैं। ७१--उक्कस्स
उत्कृष्ट सबसे बड़ा । ५२-उत्तर
उत्तर
अवान्तर विशेष तथा 'औदयिक
नामक भाव विशेष । ७.८.६०-२.६७-२, उदय (इक) उदय 'उदय' नामक कर्मोको अवस्था६६, ६.१.१६७-६,
विशेष । २०५-२] ७८,--उदीरणा [६] उदोरणा 'उदीरणा' नामक काँकी अव
स्था विशेष । ७५.७७---उरिअ उद्धरित निकाल लेना । ४,५,२४,२६ तरल[६३-८]
'औदारिक' नामक काय योग
औदारिक ४६.४७)
विशेष । २६.२७.२८ - उरलदुग औदारिक द्विक 'औदारिक' और 'औदारिकमिश्र'
नामक काययोग विशेष । ४.२८,२६.) उरलमोस (मिस्स) औदारिकमिय 'औदारिकमिश्रयोग' नामक काय
४६.५६.5 (-जोग) योग) योग-विशेष १,५,३०,३५.६५.-उपओग [५-८] उपयोग 'उपयोग' नामक मार्गणा-विशेष १-क्रियापद शब्द विभक्ति-सहित रक्स गर है ।
कर्मग्रन्य भाग चार
Page #332
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________________
गा०
प्रा०
सं०
हि.
५६.७०-उरिम
उपरिम कपर का। १३,२२,२६,३४1_उवशम[६५-६, उपशम उपशम-नामक सम्यक्त्व तथा ४६.६४.६७.5 १६६-२४,२०५.१]
भाव-विशेष । ६९-उपसमसेहो उपशम श्रेणी 'उपशम श्रेणि' नामक श्रेणि-विशेष। ७०-उवसामग
नौयां और इसा गुणस्थान ।
'उपशान्त मोह' नामक ग्यारहवाँ ६२, ७०,5
उपशान्त
गुणस्थान ।
कर्मग्रन्थ भाग चार
५८.६०.६१.१-उवसंत
२६-२,२७,३१,४६.-ऊण
ऊन
५५.७७,७६.८१,
८.५६.७०,७१.७५-एग
५१-एगजियवेस ७७-एगरासी
एक एकजीवदेश एकराशि
एक। एक जीवके प्रदेश । एक समुदाय। एक इन्द्रिययाला जीव-विशेष ।
२.१५.३६,३८,४४-ए(इ)गिदि
एकेन्द्रिय
२.१५.३६,३८,४६-१०-११]
६६५-एव
एव
हो। इस प्रकार ।
२६१
७१,७६-एवं
एवम्
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
गा
७३ – ओगाढ
- ओहिबुग
१४,२१.२५-..
प्रा०
३४ - ओहिदस १२,४०, ४२ – ओहो | ६३-१]
२.३५,७६ - कम
२४-२,२७,२६-२.) २६.४७,५४, ५६ -२
६,११,१६,२५. ३१.५०, २०, ५७, ५२.६६.
- फम्म (ण)
[ --- काय [४६-१२]
१३ - काक [ ६४-६ ] ६,३५,३६ - काय [४६-३]
सं०
ओ
अवगाढ
अधिकि
अवधिदर्शन
अवधि
क
कार्मण
कषाय
कापोत
काय
गहराई
'अवधिज्ञान' और 'अवधिदर्शन'
नामक को उपमार्गणा - विशेष । 'अवधिदर्शन' नामक दर्शन- विशेष |
'अवधिदर्शन' तथा 'अवधिज्ञान' ।
बारी-बारी ।
'कार्मणशरीर' नामक योग तथा शरीर विशेष ।
hatr नामक मार्गणा विशेष तथा
कवाय
'कापोत' नामक लेश्या - विशेष । 'काय' नामक मार्ग तथा योग ।
विशेष 1
२६२
कर्मग्रन्थ भाग चार
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
गॉ०
TO
सं०
८५ काल
काल
किम
१३- किण्हा [ ६३-१६ ] कृष्णा १- किम् ७६ - किर ३६ - कीव
किल
क्लीब
११,४२ - केवल [ ५६-१६] केवल
६५ - केवल जुयल
६,१७,११,२८,} ३१,३३,३७,४८,केवलदु (ग)
८५.
१२- केवलदंसणा ६३-३] ४१.६७ - केवलिन्
११-कोह [ ५५-२] ४०- कोहिन्
केवल युगल
केवलद्विक
केवलदर्शन
केवलिन्
क्रोध
क्रोधिन्
'काल' नामक द्रव्य - विशेष | 'कृष्णा' नामक लेश्या - विशेष ।
कुछ । पादपूत्यर्थ 'नपुंसकवेद' नामक उपमार्गणा विशेष | 'केवलज्ञान' नामक ज्ञान विशेषतथा 'केवलदर्शन' नामक दर्शनविशेष |
"
11
'केवलदर्शन' नामक दर्शन-विशेष | केवलज्ञानो भगवान् ।
'क्रोध' नामक कषाय विशेष । क्रोधवाला जोव ।
A
4
कर्मग्रन्थ माग चार
22
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
गा
प्राक
२६४
ख
क्षायिक क्षायिक
१३-खइग[६६-१२] २२,३३,४४.६७-२ -ख/-इय[१९६
६४.६-७ १६,२०५२
७५-खवण
६-खित ७५-खिप्पड़
७४--खिबिय ८१.८४--खिवसु
क्षेपण क्षिप्त क्षिप्यते वित्वा
'क्षायिक'-नामक सम्यक्त्व विशेष । 'क्षायिक'-नामक सम्यक्त्व तथा
मिशेल । हालना। द्वाना हुआ। डाला जाता है। डालकर । डालो। 'क्षीणमोह' नामक बारहवां गुणस्थान तथा नष्ट । 'क्षेप' नामक संख्या-विशेष । पुरग्लों का समूह ।
क्षिय
५५.६०६२२-१-बीग
क्षीण
७०,७४.७५,७६
८१.८४-खेसले)ब
क्षेप
स्कन्ध
ग
कर्मग्रन्थ भाग चार
६.६६---ाइ [४७-११]
१६-गइतस
गति गतित्रस
गति'नामक मार्गणा-विशेष । 'तेज.काय' और 'वायुकाय'-नामक स्थावर-विशेष ।
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्मग्रन्य माम चार
गा०
प्रा० ३,१८,२३,३५,५२-गुण
५४,५६-गुपचत्त १,७०-गुणठाण(ग)
[४७] . ७६-गुणण ७२,७६.८१ - गुरु-अ)
गुण
गुणस्थान । एकोनचत्वारिंशत उन्तालोस । गुणस्थान(क) गुणस्थान ।
गुणन
गुणा करना। उस्कृष्ट ।
गुरु(क)
और, फिर ।
२३.६६,८४,८५-च २,५,७,१०,१५,
१८.१६,२०-२, २१,२७,३०,३४२,३५-३,३८,५०,
५२,६०,६७-३.1 ७०-४,७७,७६-२
६६-चउगई
चतुर
चार ।
चतुर्गति
'मनुष्यगति', "देवगति', 'तिर्यग्गति' और 'नरकगति'-नामक चार गतियाँ।
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
गा.
स
हि.
प्रा० ६६-चउघाइन्
चतुर्थक
-चउत्थत
२-चजदस ५२,५३-चउपच्च
७२-चऊपल्लपरुवणा ८,३६,६३.७६-चऊर
६,३२-घरिदि
५४,५७ - चवीस ६-२,१२,१७.१
चतुतिन् 'ज्ञातवरण', 'दर्शनावरण', 'मोह
नोय' और 'अंन्तराय-नामक चार कर्म ।
चौथा । चतुर्दश चौदह । चतुःप्रत्ययक लार कारणों से होनेवाला बन्ध
विशेष । चतुष्पल्यप्ररूपणा चार 'पल्यों का वर्णन । चतुर
चार । चतुरिन्द्रिय चार इन्द्रियोंगाला जोव-विशेष । चतुविशति चौबीस । चक्षुष 'चक्षुर्दर्शन' नामक दर्शन-विशेष । चरित्र 'चारित्र'। चरिम
अखीरका ।
२०,२८,३४-चच [६२-४]
६४६५-चरण १६ १७,१८,२०
-चरम २१,२२,२७
कर्मग्रन्थ भाग चार
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
गा.
प्रा० ६०-चरिमदुग
सं. चरिमद्धिक
अलके दो (तेरहवों और चौदहवां . गूणस्थान ।)
कर्मयन्य भाग चार
७४-विध
४,८-२,१७,१८ २३,२७,३६३७.
" ४६,६१,५०-२॥
-छ (वक,ग)
षट् (क)
१०-छक्काय [५१-१] षट्काय पांच स्थावर' और एक 'स',
इस तरह छह काय । ५५-छचत्त
षट्चत्वारिंशत् छयालीस । ५१-छजियवह षड्जीववध. पाँच 'स्थाधर' और एक 'प्रस' इस [१७७-१०]
तरह छह प्रकार के मोवों का वध । ७.२४-छलेस षड्लेश्या कृष्ण, नील, कापोत, पोत, पद्म
और शुक्ल' नामक छह लेश्याएं । ५४-५६-छवीस
छब्बीस । ५४-छहिमचत्त षडधिकचत्वा- छयालीस ।
रिशत
२६७
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
गा०
सं०
प्रा० १२,२१,२८,४२-~छेअ [५८-१२]
'छेदोपस्थानीय, नामक संयम.. विशेष ।
यत
४८.जय १०.३८-जण ११३
१०-जलण [५२-१६] ज्वलन
७१-जहान
जघन्य ७२,७६-जा
यावत् ८४-जायद
जायते ३५.७०-जिअ (य) जीव १,२,४५-जिअ(ग)ठाण३-१] जीवस्थान
३०-जिअलक्षण जीवलक्षण ८६-जिट्ठ
ज्येष्ठ १,५३-जिण
जित
छठा गुणस्थान । 'स्मान-नालक स्थावर जीव । विशेष अम्निकाय-नामक स्थावर जीवविशेष । सबसे छोटा। जबतक । होता है। जीव । 'जीवस्थान'। जीव का लक्षण । बड़ा। राग-द्वेष को जीतनेवाला।
कर्मयम्य-भाग चार
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रा० सं० ६६--जियत्त[२०० १४] जीवत्व
'जीवत्व' नामक पारिणामिक । भाव विशेष
कर्मनाथ भाग वार
सुन युक्त युक्तासंख्यात
सहित । सहित । 'युवतासंस्पात' नामक संख्याविशेष ।
३,१५,२७ ६७,--(यो ७६,७६. ७१.८३---जुत्त ७८ - जुत्तासंखिज्ज
[२१८-१५] १,६२२,२४,३१॥ ३६,४६,५०.५२,-जोग (अ) (य) ५३,५८.६८) [५-११, ६-६]
१२ -जोगळ्य ६२६३--जोगिन
७३ --जोयणसहस ७२--जंबूद्वीवपमाणय
योग
'योग'-नामक मार्गणा-विशेष ।
योगच्छव
यांग क नावभाग अंश । योगिन तेरहवें गुणस्थानवाला जीव । योचनसहन हजार योजन।। जम्बूद्वीपप्रमाणक 'जम्बू-नामक द्वीपके बराबर ।
३७-ठान ५२--ठिइबंध
स्थान स्थितिबन्ध
गुणस्थान या मार्गणास्थान । कम-अन्धकी काल-मर्यादा ।
२६६
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
गा०
प्रा०
सं
२७०
त
ततीय
६५,७६-२-तइय ७४,७५.०३-सस्मि
३-सस्स
तस्मिन् तस्य
तोसरा। उसमें । उसका ।
१८.२६,२७-२-तब ते
उनके द्वारा।
२६,४७,४८,७९
७६-२-तेहिं (हि) ५.३३,८०.८१८
तत
६१.७५-तओ
७४ तदंत
ततः तवन्त
उससे उसके आखिर में। काय-योग-नामक योग-विशेष ।
सतु (योग)
तण (-जोग) १०.१६,२५. [५३-४-१६४-१३।।
४-तण पज्ज ८४-तथ्वग्ग
तनुपर्याप्त तद्ग
'पर्याप्त' शरीर। उसका वर्ग ।
कमग्रन्थ माग धार
१०.१६,१६,२५
तस [५२-२०]
अस
'स'नामक जीव-विशेष
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
गा०प्र०
सं०.
हि.
तथा तावत्
उसो प्रकार। तबतक।
७४,८४-तह
७४-ता २.७.२० २१.३०॥ ३२.३३,३८.४८, ५२.५७.७०.७७. -ति (ग) ७६.३४,३५.३६ ।
३८.७०)
कर्मरन्थ भाग चार
सीन।
३२,३३,४८,-त्रिअनाण
यज्ञान 'कुमति', 'कुश्रुत' और 'विमङ्ग
नामक अज्ञान। ८४ --तिपखुत्तो त्रिकृत्व तीन बार । ५५. तिचत्त
त्रिचत्वारिंशत
तेंतालीस । ५२,५३ . तिपच्च
निप्रत्ययक तीन कारणों से होनेवाला बन्ध
विशेष। १०.१७.६४-तिय गइ)[५२-६] त्रिक तीन, तीन इन्द्रियोंयाला जीव
विशेष। ५४-तियहिअचत्त
त्रिकाधिकचत्वा ततालीस । रिंशत्
२७१
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रा०
२७२
१०,१६,१६.२६/ _तिरि ।-य) (गई।
३०,३७ [५१-१७] ८१,८५-तिवागि
८३-तिवग्गिय ७१-तिविह
७१-तिहा ७२,८०,८६-तु ६६,७६-तुरिय
४१-तुल्ल ५० तेउतिग
सं० तिर्यञ्च (-गति) तिर्यग्गति' नामक गति-विशेष । त्रिम्गितुम तोन धार वर्ग करने के लिये। त्रिमिगत तीन बार वग किया हुआ । विविध तीन प्रकार विधा
तोन प्रकार।
तो
तुरीय
तुल्य
तेजत्रिक
चौथा । बराबर । "सेजः', 'पर' और शुक्ल' ये तीन लेश्याएं। 'तेज' नामक लेश्या-विशेष । तेरह । समाप्त तथा इस प्रकार ।
१३,१५-तेऊ [६४-१२] २६.३५-२.७,२२-तेर (स)
११.५०-ति
तेजः त्रयोदशन
कर्मग्रन्थ भाग चार
स्थावर
१५.२७.३२-यावर
१५-यो
'स्थावर' नामक जीयों की जाति विशेष 'स्त्रो वेद,नामक मार्गणा-विशेष ।
स्त्री
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
गा०
३७,३८-२,३६-) २.४०, ४१.४२ -- थोव ४३-३, ४४-२.६३१
STO
१६.३६ - दम
६,१६,२०,३१.६ - दस
५४. ५८६११
६५ - दाणाइलद्धि
७४,७७- दीक्षुदही
६-२.८ १५-२.१८) १६-२,२०,२१.
२३-२ ३५-२,३७, । - चु(ना) ३८, ४२, ४४, ४७ । ६२-२,६४,८२ !
१६.३२ - दुअनाम
सं०
स्तोक
दक
दश
द
宿
hr
दाना दिलब्धि
द्वीपोदधि
व्यज्ञान
थोड़ा
'जलकाय' नामक स्थावरजीव
विशेष |
दस
दान आदि पांच लब्धियां । द्वीप और समुद्र ।
बो ।
'मत्यज्ञान' और 'ताज्ञान' नामक वो अज्ञान ।
कमग्रन्थ भाग चार
२७३
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
गॉ०
ято
५२ - दुपच्चअ
३० - दुकेवल
५४, ५७ - दु (ग) बीस - दुच्चिय ५६ – दुमिहस
७२-
४५- दुविह ३२,४८ - बुदंस (-१)
३७- देव
८६- देवदरि
१२,१७,२२.२६ ॥ ३३,४२,४६, ४८, ६– बेस ( -जय )
VC.E3
[६१-२३]
सं० विप्रत्ययक
द्विकेवल
द्वाविंशति
द्वावेव
ਵਿਸ਼ਿਆ
द्विविध
द्विदर्श (न)
देव
देवेन्द्रसूरि
देश
हि०
दो कारणों से होनेवाला बन्ध
विशेष |
'केवलज्ञान' और 'केवसदर्शन'
नामक उपयोग-विशेष । बाईस।
दो ही ।
'औदारिक मिश्र' और वैक्रियमिश्र,
नामक योग - विशेष |
दो तरह से ।
'चक्षुर्दर्शन' और 'अचक्षुर्दर्शन'नामक दर्शन- विशेष 1
बेवगति ।
देवेन्द्रसूरि ( इस ग्रन्थ के कर्त्ता ) ।
देशविरति' नामक पाँचवाँ गुणस्थान ।
૪
कर्मग्रन्थ भाग चार
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
गा०
प्राo
४२ - नय
२१.३५, ४३-२,६२- दो
६,६, ३०.३४.४८-२- दस ( ग ) १४६-२०]
३२- दसणग
३३.४८ - दस ( - ) तिग
८१ - धम्मदेस
६६ - धम्म
४७.४६-२, ५४.६४ - न
११, १६, २५ - पु (पु ं) (स)
[५३-१६]
नमिय
सं०
नयन
द्वि
दर्शन
'दर्शनद्विक
दर्शनत्रिक
घ
धर्मदेश
धर्मादि
न
न
नपुंसक
नित्वा
हि० 'चक्षुर्दर्शन' नामक उपयोग - विशेष ।
दो ।
'दर्शन' नामक उपयोग-विशेष । चक्षुदंर्शन' और अवक्षुर्दर्शन'नामक दर्शन- विशेष । 'चक्षुर्दर्शन और 'अचक्षुर्दर्शन' और अवधिदर्शन' नामक दर्शनविशेष |
'धर्म' नामक द्रव्य के
'धर्म' नामक अजीव
नहीं ।
नपुंसक
नमस्कार करके |
प्रदेश ।
द्रव्य - विशेष ।
कर्मग्रस्थ भाग चार
२७५
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
सं०
Jio
प्रा० ३१---नवणेवर
नयनतर
नर
११.१५,१५,१६. ME) नर[५३-१५] .
नर २५.३१.३७.६८)
१०,२५–नरगइ[५१.१५] नरगति
'यक्षदर्शन' और अचक्षुर्दर्शन'नामक उपयोग-विशेष । 'पुरुषवेद' और 'मनुष्यगति'नामक मार्गणा-विशेष तथा मनुष्य । 'मनुष्यगति' नामक उपमार्गणाविशेष । 'नरकगति' नामक उपमार्गणाविशेष ।
१४.१६,२६-नरय
नरक
२०,२१,२६.३० ३३,५२,५४-२.-नव
६४)
नव
नौ ।
६,३०.३४-नाण[४६-१६]
ज्ञान
ज्ञान और सम्यग्ज्ञान ।
२,४६)
३३-४८-नाणतिग
ज्ञानधिक
'मतिज्ञान', 'क्षतज्ञान' और 'अवधिज्ञान' नामक तीन ज्ञान,विशेष । निगोद' नामक जीव-विशेष ।
६५-निगोयजोय
निगोदजीय
कर्मग्रन्थ भाग भार
७४--निट्टिय
निष्ठित
पूरा हो जाना ।
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
मा.
निजद्विक
मा. ३३ मिजदुग
७१-निवपबाय १०,३०,३६,३५-नि(ना)रय(-गइ)
[५१.१८] १५-नीका [३४-१]
नजारभुत निरगति
सपने दो। अपने पक्ष । 'नरकवि नामक गति-विशेष । 'भीमा' नामक लेश्या-विशेष।
कर्मनाय भान पार
नीला
पश्चात
७९--पच्छा
४३-परपुपुब्धि २,३,५-२,६,८, पखा(ज)(-1)
पश्चानुपी पर्वात
फिर। पीके कमसे। 'पत' नामक जीव-विशेष ।
-
२४--पलियर
पर्यावर
'पर्यात' और 'अपर्याप्त' नामक
आप विशेष। 'प्रविनाका' नामक पल्लविशेष
प्रविमाका
७३ --पविसलामा ३,१५,२०, [२१२-१६] २३.२,१८,१६, ,
प्रथम
पहिला
........
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
भा.
सं. १६,२३-पढमतिमा प्रथमविश्या पहिली चीन (कृष्ण, नील और
कापोत) लेश्याएँ। ६४--पढमभाव
प्रबमभाद पहिला (ोपामिक) भाष । १५,१९,३०.३१, -पण
पाँच। २,६८,५००
५३-पणतीस पत्रिंशत् पैतीस। ५४,५५-पणपत्र
पचपन। १०,१८,१९,२५,३१--पणिवि [५२-१०] पन्द्रिय पाँच इन्द्रियावाला जीव ।
८२-पत्तेयनिगोयल प्रत्येकानगोवक 'प्रत्यकनिमो' नामक जीव-विशेष ५२,६८--पनर
पन्द्रह। पचाक्षत् पचास । प्रमच
'प्रमत्त' नामक छठा गुणस्थान । ६१-पम०
प्रमचान्त 'प्रम' नामक छठे गुणस्थान तक। ८५--पमाण
प्रमाण
प्रमाण । १३,१४–पम्हा [६४-१०
'पया' नामक दवा-विशेष।
।
outORE
कर्मग्रन्थ भाग चार
पा
:
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्मप्रन्य माग बार
गा. प्रा.
सं. ४५-परमसंखिन परमसंख्येय
'उत्कृष्टसंख्याव-नामक संख्या
विशेष। ६४,६६,६७-२,६८–परिणाम [१९७-३, परिणाम 'पारिणामिक' नामक भाव-विशेष।।
२०५-२] ०१.८३- परित्तपत परित्तानन्द
'परिचानन्द' नामक संख्या-विशेष।। ४१,७८--परित्तासंस
परिचासंख्या 'परिचासंय' नामक संख्या-विशेष
[२१८-११] १२.२१.२९,४१- परिहार [१९-७] परिहार 'परिहारविशुद्ध' नामक संयम
विशेष। ८२-पढिभाग
परिमाग निर्विमागी बंश। ७२,७७२-पल्ल
पल्य
'पक्ष्य' नामक प्रमाण-विशेष । २७,३६-पषण
'वायुकाय' नामक जीव-विशेष । ६९–पारिणामियमाव पारिणामिकमाव 'पारिणामिक' नामक माय विशेष! ४९,७१,५५---पि
अपि
मी। ८५-पुग्गछ
'पुद्रम' नामक द्रव्य-विशेष! ५.७४८३,८४,८५--पुण
किर।
२७५
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
पा.
१९--पुरिम ७५-पुषि
५८--पुच ८,२७,६१--पंच ४९-पंचम
पत्रम २--परिपि[१०.१७] पपेन्द्रिय
'पुरुषवेद' नामक उपमार्गणा-विशेष पहिला। पहिले कहा एखा। पाँच। पाँचा। पाँच इन्द्रियोंबाला और।
स्पष्ट।
र
१८,५९/
पायर [१०.३]
५,१५,२०,३०, --बार(स)
स्ट और मनिषिवार' नामक नौका गुणस्थान । बारह। यो (हीन्द्रिय जीप) और दूसरा।।
कर्मग्रन्प भाग चार
द्वादश द्वि, द्वितीय
२,१०,३२,०५-विस-य)
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
गा.
सं०
५६-विकसाय
द्वितीयकवाय
६५,७५,७६-पीय(य) २८ .[.१६
५९--पर
द्वितीय
'थप्रस्वास्पानावरण'नामकक. बाप-विशेष। दूसरा। कर्मबन्ध । पॉपवा है।
कर्मग्रन्थ-भाग चार
मासि
मर
परिक्ष
७६-मासु
७४-मरिय ९,२५,७४-मब(ब)
[४९-२४]] १३,१६- भविबियर
भरो। मराया। 'भव्य' मामक जीवोंकावर्ग:विशेष
RE
मध्यवर
१,७०-भाष [७.५]
५-मास
'भय और पाम्य' नामक जीवों
वर्ग:पिसेष। श्रीदों के परिणाम । 'असत्या मृ'-मामक वन-योग
भाष
વરી
.
.
.
.
.
.
.
.
.
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-----
प्रा. १०,१९,३६,३८-भू [५२-१४]
१४,६४,६८-मेष
पुग्धीकाय। प्रकार।
भेद
११,१४,२१,
मा(नाण)
मति (मान)
'मसिनामकहान-विशेष।
-
-
४१-मनमाण
मस्यज्ञान
'मस्पहान' नामक समान विशेष। --मग्गणठाण ४-३] मार्गणास्थान
'मागंणास्थान'। २३-भगणा
मागण्या 'मार्गणास्थान'। ७१,७९,८०,८५-मझ
मध्यम ७२-मझिम
मध्यम १०,१५,२४,२८.1 २,२९,३५,३९, मण(जाग [५२. मन:(-योग) 'मनोयोग' नामक योग-विशेष। ४६,४७१२४,५६.१४,१३४.६] ५१-मणकरणानियम मनःकरणानियम 'मन' और 'इन्द्रियों को मर्यादाके
अन्दर न रखना। ११,६,१७,२१,
मनोज्ञान 'मन:पर्य' नामक शान-विशेष ।
कर्मग्रन्थ भाग पार
१७७-८] २८,३०,५८४-मणनाण
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनःपर्यवसान'वाला जीव । 'मानकषाय और मानी हुई मात। 'महाशखाका' नामक पल्य-विशेष।
कर्मग्रभ्य भाग चार
४०-माणनामिन मनोमानिम् ११,४९-भय [५५.३] मद, मत ७३-महासळागा महासकाका [२१२-२०]
माबिन् १०-माणिन्
मानिन ११-भाग [५६-१]
माया ४४,४५,५०,५१, --मिच्छ [६७.२१] मिध्यात्व
माषाकषायवाले आव। मानकषाववाले औष। 'मायाकषाय'।
'मिध्यात्व' नामक पहिला गुणस्थान |
५३-मिच्छविरमपाइन मिध्यात्वापिरति- 'मिध्यात्व' और 'अविरतिस
प्रत्ययक
उत्पन्न होनेवाला बन्धनविशेष । १२,१४-मिजादुग मिथ्यात्वद्विक 'मिथ्यात्व' और 'सास्वाइन' नामक
पहिला और दूसरा गुणस्थान । १२--मिलिग मिच्यास्वत्रिक मिथ्यात्व'वास्वादन' और 'मिस
दहि' नामक वीन गुणस्थान ।
म
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
मा.
५३ मिसापचाइब मिथ्यात्वमस्वयक 'मिध्वाब' से होनेवाला बम्ब
विशेष। ५५,५७-मिस्त्र(मीस)ग मिश्री 'बीपारिकमिश और वैकियमिभ'
नामक योगमंच। १३,१५,२४-२, मीसग) [६८, मिम(क) बीसरा गुणस्थान, बोग-विशेष, २१,१३.४४,४६, ९०.२०,९१-२२,
अज्ञान, सम्यक्त्व-विशेष और १८-२,५५,५९, १३.१.१९५५.५:
माक्-
पिका ६१,६३,६४,६५, २०५-२)
छोड़कर। ६०,६९-मोह
'मोहनीव-नामक कर्म-विशेष।
६९J
१,१०,१३,२२॥
और।
कर्मयम्ब नाग बार
५५ दिन
रदिन।
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मा०
७८,८३- रासि
७७, ७८,७९-२, }
७८-२,८०,८३
२,८४ / लड्डु
६५-- बड़ी
(4) [२१८-१६]
७२--- लडुसंखिल
१,९,३१,३६, ४३, ६६
८६-विहिव
--
[२०९-२४]
[५-१३, ४९-२२] गागापरस
८१
११, २० -- लोभ [५६-२] ४० - डोमिन्
राशि
रूप
छन्धि
खघु
लघुसंस्थेय
चिखित
केश्वा
ढोकाकाशप्रदेश
लोम
कोमिन
समूह |
एक
1
पाँच नयाँ ।
जघन्य ।
'अधन्य संख्यात' नामक संख्या
विशेष |
लिखा
बेश्याएँ ।
छोक-वाकाशके प्रदेश | 'लोभकषाय' । लोभ पापा जीव ।
Y
कर्मग्रम्य भाग भार
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१७,६५,७४,५५-4(वा)
बा, इव
अथवा और जैसे।
२४,२७,२८.२, १--
बनम् वर्गवास वनित वर्ज
८४.सागर
८०--पग्गिय ३४,५३,५५-यन १०,१५,३६,३८पण [५२-१४
८५--बणस्था १०,१०,१५,३९,४०-यण [५३-२, ..
वर्ग करो। बर्ग किया जा छोड़कर। वनस्पसिकाय । वनस्पतिकाय । शब्द।
बन
बनस्पति
म्यवहरति
अपि
८६-बहरा १५,१०,६९,७५,८४--वि
२९,४६,४९--विउम्बा(-1) ५,२५-२,२९,४६--विडम्ब(ब)दुग
कहा जाता है। ही और भो। 'वैक्रिय' नामक शरीर वथा योगविशेष । 'वैकिया और क्रियमित्र' नामक योग-विशेष
कर्मग्रन्य भाग चार
: क्रियतिक
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मा.
क्रियामिन
वक्रियमि' नामक योग-विशेष।
४,४-विधम्म(ब)मीस
[१२-१८ २४-विछविय ३,१५,१९,२५,३६--बिगड
कर्मग्रन्च भाग चार
पंक्रिय
'वैक्रिय' नामक योग विशेष। पो, सीन और पार इन्द्रियकाले
विमा
६,१८,५५,५८,६५--विणा २८,३०,३३,४०,1_n
विना
५१,५५,६०/-णुि
१४,४०--विम()म
३५--विराग
विमा विरविडिक
सिवाय । सिपाय। मिया अवधिमान | 'पैशांवरक्षि' और 'सर्मविरति'. मामक पाँचवे और छठ गुणस्थान । रहित पीस। कांगा। 'वेद' नामक मार्गणा-
विधा
६८-बीस
विशात १,१८-सुर १,११,२०,३१६ }--() [४९ १०] घेद
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________________
म
गा.
पा० १३,२२,३४,४४--वेबग (६६.१०]
५८--वैयवि
अयोपशमसम्यग्दृष्टि जीव । साबेद, पुरुरव और नपुंसकवेद।
देवत्रि
सम
समपचासव सनमासंल्पं
२१,४५,५८,६१-मंग
५२--सगवत्र ७९-सगासंख २४-सचेयर [९०.१४,
१७,९१.१६,१९] २२,३६-सठाव
साज। सचापन । सातबा असंख्याता सत्य और असस्य ।
सत्येतर
स्वस्थान
अपना-अपना गुणस्थान।
सप्तम्
साखा
५९-२,६०.२,५९)
मनवाला प्राणी।
८,९,१४,१७, १८,१९,२५,५१,
५०.४] ४५-२ ५,१५,४५--यभिग
कर्मप्रन्य भाग चार
पर्याप्त और अपर्याप्त सही।
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________________
गा०मा०
१३,४५-समियर [६५-१६] संजीवर ६४,६८--समियाइय सानिपातिक
कर्मग्रन्थ भाग बार
।
४०,६२,६९,८२-सम २१,२८,४२-समा()य
८२-समय
५८-समयपरिमाण ९,४५,६४,६५.२,५०सम्म [५९-२५]
१४ सम्मत्सतिग
सम सामायिक समय समयपरिमाण सभ्यग् सम्यक्त्वनिक
मानवाला और वे मन प्राणी।। 'मानिपातिक' नामक एक माक. विशेष। बराबर। 'सामायिक' नामक संयम-विशेष। कासका निर्बिभागी अंश । समयोंकी मिकदार । 'सम्यग्दर्शन। 'औपशामिक', 'शायिक' और 'क्षायोपशमिक' नामक सीन सम्म बस्व विशेष। शायिक' और 'मायोपामिक' । 'सयोगी' नामक रहवाँ गुणस्थान । सरसों। 'शखाका' नामक पस्य-विशेष ।
-
-
२५-सम्मदुग सम्यक्स्पतिक ४७,५८सयो(जो)गि सयागिन् ७४.७५,७७-सरिसव
सर्षप ७३,७१,७६-सल्लाग [२१२.१२] सलाका ७५--सहागपछ
मुळाकापल्य
---
-
--
-
-
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गा०
४५,५०,७१,
--सव्व
७३---मसिहमरिय सशिखत ११--सामार [५४.८] साकार ५२. सामाइय[५५२०] सामायिक ५--साय
सात १३,१८,२६,४३, सासा(सोग सासादन
शिखा- अपर तक भरा था। थाकारवाळे-विशेष उपयोग। 'सामायिक नामक संयम-विशेष । सातवेदनीय कर्म । 'सासापन' नामक दूसरा गुणस्थाना
सासावनभाव
४९-सासमभाव
६८,८५--सिब ११-२,१४,२१, }-मुब(य)[५६-६]
'सामान की अवस्था । मुरु जीव ।
सिद्ध
श्रुत
कमग्रन्थ नाम पार
१३,१४,२२, ११, --सुम [६४-१५]
९
.
शुक्ला सूत्रोक
'मला' नामक खेश्या-विशेष। सूत्रोंमें राहुला।
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________________
-
-
४१--सुपत्रमाण
भुटामान
-
'श्रुमाझान -नामक मिथ्याज्ञानविशेष। देवगति ।
कर्मग्रन्थ भाग चार
-
--
१०,१४,१८,२६,३०- सुरगाह [५१.१३] सुरगति २,५,१२,१८,२२, २९,३७,४१,५८, --सुहम[९.१८, सूक्ष्म ५९,६१,६२) ६०.२३]
८६-सुहमत्यविशार सूक्ष्मार्थविचार
-
'सूक्ष्म' नामक पनस्पतिकायके आँव-विशेष। 'सूक्ष्मार्थविधार' अपर-नामक यह मस्था
३,७,३७,४५,५३,
सेस
शेष
बाकी ।
पाडश
संख्य
६५,६९,७० सस ५२.५३,५४,५८-सोला-स) ४१,४२,४३-२,५४-संस। ३९,४१,६२,६३-संवगुण
१,१--संसिन ९,३४-मंजम [४९.१८] ५- संजालगति
संख्यगुण संख्येष
सोलड्। संख्यातगुना। संख्यातगुना। संख्या । 'संयम'। संचलन कोष, मान और मावा ।।।
संयम संज्वलनत्रिक
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________________ गा. भा० सं० ५,८,६०-संत [6.8] सला ६०-संतुदय संचारब ५१--संसइय [176.5] समयिक दि 'सजा'। 'सचा' और 'उदय'। 'सांशयिक' नामक मिथ्यारव. विष। भषति होता है। ८६--इंद 50,54- हेड ८०,८४-होइ भवति होता है। समान कर्मग्रन्थ भार पार