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The text discusses the concept of *karmagrantha* (karmic bondage) and its impact on the attainment of *samyaktv* (right faith, knowledge, and conduct) in Jainism.
It states that when a being is unable to attain *aupashamik samyaktv* (partial liberation), it is reborn in a state of *sasavan samyaktv* (with remaining karmic attachments) as an *ekendriya* (one-sensed being) or higher. During this period, they may experience a second *gunasthan* (stage of spiritual development) for a while. The first *gunasthan* is common to all *ekendriya* beings because they are *mithyatvi* (falsely believing) due to their lack of knowledge (*ajnana*).
The text explains that *ekendriya* beings who attain the second *gunasthan* are *karanaparapya* (deficient in their karmic actions) but not *labdhi-aparapya* (deficient in their knowledge). This is because all beings who are *mithyatvi* are *labdhi-aparapya*.
The text then discusses the *sejakaya* (earth-bodied) and *vayukaya* (air-bodied) beings, stating that they cannot attain *aupashamik samyaktv* and that only beings who have already attained *aupashamik samyaktv* can be reborn in these forms. This is why they are considered to be in the first *gunasthan*.
The text concludes by stating that *amya* (non-human) beings only have the first *gunasthan* because they are inherently incapable of attaining *samyaktv*. It also states that attaining the second and higher *gunasthan* is impossible without first attaining *samyaktv*.
The text then provides a list of the *gunasthan* for different types of *kṣaya* (passions):
* **Three *vev* and *tom* *kṣaya* (anger, pride, and deceit):** The first nine *gunasthan* are found in these passions.
* ***Lobha* (greed):** There are ten *gunasthan* in this passion.
* ***Mayat* (incontinence):** There are four *gunasthan* in this passion.
* **Three *ajnana* (ignorance of knowledge, scripture, and discrimination):** The first two or three *gunasthan* are considered to be in these types of ignorance.
* ***Ayakshadarshan* (clairvoyance) and *chakshu* (sight):** The text does not provide information about the *gunasthan* for these.
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कर्मग्रन्थ माग धार
बाव न किसी को औपशामिकसम्यारव प्राप्त होता है, तब वह जसे त्याग करता हुआ सासावनसम्यक्त्वसहित एकेन्द्रिय आदि में जन्म प्रहण करता है। उस समय अपर्याप्त-अवस्था में कुछ काल तक दूसरा गुणस्थान पाया जाता है । पहला गुणस्थान तो एकेन्द्रिय
आदि के लिये सामान्य है । क्योंकि वे सब अनाभोग (अज्ञान-) के कारण तत्त्व-थबा-हीन होने से मिथ्यात्वी होते हैं । जो अपर्याप्त एकेन्द्रिय आवि, दूसरे गुणस्थान के अधिकारी कह गये हैं, वे करणअपर्याप्त हैं, लब्धि-अपर्याप्त नहीं; क्योंकि लब्धि-अपर्याप्त तो सभी जोष, मिथ्यात्वी ही होते हैं ।
सेजःकाय और वायुकाय, ओ गनिस या लधिनस काहे नाते हैं, उनमें न तो औपशमिकसम्यक्रव प्राप्त होता है और म औपशमिकसम्यक्त्व को बमन करने वाला जीव ही उनमें जन्म ग्रहण करता है। इसीसे उनमें पहला हो गुणस्थान कहा गया है ।
___ अमयों में सिर्फ प्रथम गुणस्थान, इस कारण माना जाता है कि के स्वभाव से ही सम्यव-लाभ नहीं कर सकते और सम्यक्त्व प्राप्त किये बिना दूसरे आदि गुणस्थान असम्भब हैं ॥१६॥
वेयतिकसाय नव दस, लोभेचज अजय दुति अनाणतिगे । बारस अचक्खु चक्खुसु, पढमा अहखाइ चरम चउ ॥२०॥ वेदनिकषाये नव दश, लोमे चत्वार्ययते है भाग्यवानत्रि के । द्वादशाक्षुक्चेक्षुषोः, प्रथमानि यथाख्याते चरमाणि चत्वारि ।।२०||
अर्थ-तीन वेव तथा तोम कषाय (संज्वलन-क्रोष, मान और मापा-) में पहले नौ गुणस्थान पाये जाते हैं । लोभ में (संज्वलनलोभ-) में दस गुणस्थान होते हैं । मयत (अविरति-) में चार गुणस्थान हैं । तीन अज्ञान (मति-अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभङ्गान-) में पहले दो या तीन मुयसन माने जाते हैं । अयक्षदर्शन और चक्षु