Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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'सरे गए 1न में भी दोन म और तेन दशंग, ये ही मह उपयोग है । पर इष्टि, पश्चित अशुद्धा उभयरूप होने के नाण जान, अनान-मिश्रित होता है।
छठे से बारहवे तक सात गुणस्थानो में मिवात हा कारण अज्ञान-त्रिक नहीं है और तिकर्म का क्षय न होने के कारण क्षेत्रस्न - हिक नहीं है । इस तरह पनि छोड़कर शेष मात उपयोग उनमें समझने चाहिये।
सेरहमें और चौदहवें गणस्थान में घानिकर्म न होने से छमस्थअवस्था-मावो दम उपयोग नहीं होते. सिर्फ क्षेत्रलमान और केवलवर्शन, ये वो ही उपयोग होते है, 11४८t
सिद्धान्त के कुछ मन्तव्य ।
सासणभावे नाणं, विउवगाहारगे उरलमिस्सं। . नेगिविसु सासाणो, नेहा हिमयं सुयमयं पि ॥४६॥ सामादनभाने ज्ञान, वेविकाहारक औदारिकाभिश्रम् । नैकेन्द्रियेसु सासादनं, नेहाधिवृतं श्रुनमतमपि ।।४।।
अर्य--सासाबन अवस्था में सम्यग्ज्ञान, बैंक्रियशरीर तथा आहारक शरीर बनाने के समय मौवारिकमिश्र काययोग और एकेन्द्रिय जीदों में सासादन गुणस्थान का अभाव, ये तीन बातें यपि सिद्धान्त सम्मत हैं तथापि इस प्रन्थ में इनका अधिकार नहीं है 11४६५
भावार्थ-कुछ विषयों पर सिद्धान्त और फर्मग्रन्य का मत-भेट चला भाता है। इनमें से तीन विषय इस गाथा में प्रश्रकार ने दिखाये हैं:--