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कर्मग्रन्थ भाग पा.
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वृतीयाधिकारके परिशिष्ट।
परिशिष्ट "प"
पृष्ठ १७६, पक्ति १. के 'मूल बन्ध-हेतु पर
यह विषय पञ्चसंग्रह द्वा० ४ की १६ और २० बों गाथा में है, किन्तु उसके वर्णनमें महा की अपेक्षा कुछ भेद है। उसमें १६ प्रकृविवों के अन्धको मिथ्यात्व- हेतुक. पैतीस प्रकृतियों के बन्ध को अविरति, हेतुफा, अरसाठ प्रकृतियों के बन्धको कषाय-हतुक और सातवेदनीय के बचको योग-हेतुक कहा है। यह फैघन अन्वय-व्यातरंक, उभय-मूलक काय-कारण-भावको को लेकर किया गया है जैसे-मिथ्यात्व के सद्भाव में सोलहका बन्ध और उसके अमाव में सोलह के बन्धका अभाव होता है, इसलिय सोलह के बन्धका अन्वरव्यतिरेक मिथ्यात्वक साथ घट सकता है । इसी प्रकार पैतीसके बन्धका अविरतिक साथ, अरसठक बन्धका कषाय के साथ और सातवेदनीय के बन्ध का योग के साथ अन्यत्र-व्यतिरेक समझना चाहिये ।
परन्तु इस जगह केवल अन्वय मुलक कार्य-कारण-भावको लेकर बन्ध का वर्णन किया है, व्यतिरेक को विवक्षा नहीं की है। इसी से यहां का वर्णन पञ्चसग्रह के वर्णन से भिन्न मालूम पड़ता है। अन्वयः-जैसे, मिथ्यात्वक समय,अविरतिके समक, कषायके समय और योग के समय सातवेयनीय का बन्ध अवश्य होता है, इसी प्रकार मिथ्यात्व के समय सोलह का बन्ध, मिथ्यात्व के समय तथा अविरति के समय पैतीस का बन्न और मिथ्यात्व के समय, अविरति क समय तथा कषाय के समय दोष प्रकृतियों का बन्ध अवश्य होता है। इस अन्वयमाभ को थिय में रखकर श्रीदेवेन्द्रसूरि ने एक, सोलह, पतीस और अरसट के बन्छ को क्रमशः चतुहेतुक, एक-हेतुक, द्वि हेतुक और त्रि हेतुक कहा है . उक्त चारों बन्धों का व्यतिरेक तं पञ्चसंग्नह के वर्णनानुगार केवल एक एक हेतु के साथ पट सकता है। पश्यसंग्रह और यहां की वर्णन-शैली मे भेद है, तात्पर्य में नहीं ।