Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मग्रन्थ भाग चार नौवेसे ग्यारहवें तक तीन गुणस्थानों में मम्यक्त्व और चारित्र, ग्रे दी औप. शमिभाव है।
पारिणामिक-पहले गुणस्थान में जीवत्व आदि तीनों; दुसरसे बारहवें तक ग्यारह गुणस्थानों में जीवत्व. भव्यत्व, दो और तेरहवें-चौदहवें में जीवत्व ही पारिगामिभान है । भब्यत्त अनादि-सान्त है। क्योंकि सिद्धअवस्था में उसका अमात्र हो जाता हैं। घातिकर्मक्षय होने के बाद मिड-अवस्था प्राप्त होने में बहुत बिलम्ब नहीं लगता; इस अपेक्षासे तेरह-चौदहवं गुणास्थान में भव्यत्व पूर्वाचार्यान नहीं माना है।
गोम्मटसार-कर्मका? की २० से ७५ तक की गाथाओंमें स्थानगत तथा गद-गत सणवारा भावों का बहुत विस्तारपूर्वक वर्णन किया है ।
एक-जीनाथित भावीके उत्तर भेद:
क्षायोपशामक--पहले दो गुणस्थान में मति-श्रुत दो या विमङ्गसहित तीन अज्ञान, अन्नक्षु एक या चक्षु-अवक्षु दो दर्शन', दान आति पांच लब्धियां सीमरे में दो या तीन शान, दो या तीन दर्शन, मिश्रष्टि, पांच लब्धियों चौथे में दो या तीन ज्ञान, अपर्याप्त-अवस्था में अचक्ष एक या अवधि सहित दो दर्शन और पर्याप्त-अवस्था, दो तीन दर्शन, सम्यक्त्व, पाँच सबिधयाँ पाचवे में दो या तीन शान, दो या तीन दर्शन- सम्यनतव- देशविरतिः पांच ल'ब्धयों; छठे सातवे में दो तीन या मनःपर्यापपर्यन्त चार झान, दो या तीन दर्मग, सम्यक्त्व, चारिम, पांच लब्धियों; आठवें नौ और दसवें में सम्यक्त्वको छोड़ छठे और सात गुणस्थाननाले सब क्षायोपशमिक भाध । ग्यारहवें-बारहमें में चारित्रको छोड दसवें गुणस्थानवाले सब भाव । ___औदयिकः-गहले गुणस्थानमें अज्ञान, असिद्धत्व, असंयम, एक लेश्या एक कषाय, एक गति, एक वेद और मिथ्वाल ; दूसरे में मिथ्यात्यकी छोड पहने गुणस्थानवाले सब ओदयिक तीसरे, चौथे और पांच घे में अज्ञान को छोड़ दूसरेवाले,सब छठेसे लेकर नौवें तकम झसंयमके सिवाय पाषषाले सम्ब दसवें में वेदके सिवाय नौवाले मब; ग्यारहवें-बारहवेंमें कषाय के सिवाय दसवाले सब ; तेरहवें में असिद्धब, लेश्या और गति; चौदहवें में गति और असिस्त्र ।
सायिक चौथमे ग्यारहवं गुणस्थान तक में सम्यक्त्व; और चारित्र दो और सेरहवें चौदहवें में-नौ क्षायिकमाव।।
औपशमिक---ौयेसे आठवें तक सम्यक्त्वं नौवेसे ग्यारहवें तक सम्यक्त्व और चारित्र। ___पारिणामिका-पहले में तीनों; दूसरेसे बारहवें तक मैं जीवस्व और भव्यत्व दो; तेरहवें और चौदहमें में एक जीवत्व ।