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कर्मग्रन्थ भाग चार
परिशिष्ट ""! पृष्ठ २०७, पंक्ति ३ के 'भावार्ष' शास परयह विचार एक जीवमें किंगी विवक्षित समय में पाये जानेवाले भावोंका है।
एक जीवमें भिन्न-भिन्न समयमें पाये जाने वाले भाव और अनेक जीव में एक समय में या मिन्न भिन्न समय में पाये जानेवाले भाव प्रसङ्ग-वश लिखे जाते हैं। पहले तीन गुणस्थानोमें औदायिक, क्षामोपशमिक और पारिणामिक, ये तीन भाव चौथेसे ग्यारहवें तक आठ गुणस्थानों में पात्रो भाव बारहखें गुणस्थानमें औपशमिकके सिवाय चार भाव और तेरहवे तथा चौदहवें गुणस्थानमें औपमिक-क्षायोपशामिकके सिवाय तीन भाव होते हैं।
अनेक जीवों की अपेक्षासे गुणस्थानोंमें भावों के उत्तर भेद--
सायोपमिक--पहले दो गुणस्थानोंमें तीन अजान ना आदि दो दर्शन, दान आदि पाँच लब्धियां, ये १० तीसरे में तीन ज्ञान, तीन दर्शन, मिश्रष्टि, पांच लब्धियां, ये १२; चौधे में तीसरे गुणस्थान बाले १२ किन्तु मिश्रमिटके म्यानमें सम्यक्त्व ; पान्य में पो गुणस्थानवाले बारह तथा देशविर ति, कूल १३, छठे. सातवे में उक्त तेरह में से देश-विरतिको घटाकर उनमें सर्वविरति और मन:पर्यवज्ञान मिलानेसे १४, आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थानमें उक्त चौदहमेंसे सम्यक्त्वके सिवाय शेष १३; ग्यारह बारहमें मुणस्थानमें उक्त तेरह में से बारिश्रको छोड़कर शेष १२ क्षयोपशामक भाव हैं। तेरहवें और चौदहवें में क्षायोपमिकभाव नहीं हैं।
औदयिक - पहले गुणस्थानमें अज्ञान आदि २१: दूसरे में मिथ्यात्वके सिवाय २०; तीसरे-चौमें अज्ञानको छोड़ १६, पांचवें में देवगति, नारकगति के सिवाय उक्त उभीस मेंसे शेष १७. छठेमें तिर्यञ्च गति और असंयम पटाकर १५; मातवे में कृष्ण आदि तीन लेश्याओंको छोड़कर उक्त पन्द्रहमेसे शेष १२; आठने नौवें में तेज: और. ५६-लेल्या सिवाय १०; दसवें में क्रोध मान, माया और तीन वेदके सिवाय उक्त दसमेंसे शेष ४; ग्यारहवे, बारहवें और तेरहवें गणस्थान में सवलनलोभको छोड शेष ३ और चौदहवें गुणस्थान में शुल्क नेश्याके सिवाय तीनमेसे मनुष्पगति और असिद्धत्व, ये दो औवायिकभाय है। ___क्षायिक-पहले तीन गुणस्थानों में शामियाभाव नहीं है। चौथेसे ग्यारहवें तक आस गुणस्थानों में सम्पत्य, बारहवें में सम्यक्त्व और चारित्र दो और तेरहवें चौदहवें दो गुणस्थानों में नो क्षायिकभाव हैं।
औपरामिक-पहले तीन और बारहवें आदि तीन, इन छह गुणस्थानों में औपशमिकभाव नहीं है । । चौथेसे आठवें तक पाँच गुणस्थानों में सम्यक्रम,