________________
२४६
कर्मग्रन्थ भाग चार
जग वर्शन में तथा जनेत र-वर्शन में कालका स्वरू किस-किस प्रकार का माना है ? तथा उसका प्रास्तविक स्वरूप कैसा मामना चाहिये ? इसका प्रमाण पूर्वक विचार । पृ.-१२७ ।
छह सेल्या का सम्बन्ध चार गुणस्थान तक मानना चाहिये या छह गुण स्पान तक? इस सम्बन्ध में जो पक्ष है, उनका माय तथा शुभ भाग लेश्या के अशुभ पलेया और अशुभ वन्य लेश्या के समय शुभ मावलेपया, इस प्रकार लेश्याओं की विषमता किन जीयो में होती है ? इत्यादि विचार । पू.---१७२- नोट ।
कमबन्ध के हेतुओं की भिन्न-भिन्न संख्या सभा उसके सम्बन्ध में कुछ विशेष ऊहापोह । पृ०-१७४, नोट ।
आमिग्रहिक, अनामिनहिक और आमिनिषेशिक-मिथ्यात्व का शास्त्रीय खुलासा । पृ०-१७६, मोट ।
तीर्थ करनामकर्म और सहारक-द्विक, इन तीन प्रकृतियों के बन्ध को कहो कषाय-हेतुक कहा है और कहीं तीर्थकरनामकर्म के अग्ष को सम्पपस्यहेतुक तथा आहारक-द्विकके बन्ध को संयम-हेतुक, सो किस अपेक्षा से ? इसका खुलासा पृ०-१८१, नोट ।
छह भाव और उनके भेजों का वर्णन अन्यत्र कहां-कहाँ मिन्नता है ? इसकी सूचमा । १०-१६६, नोट ।
मति आदि अज्ञानी को कहीं बायोपशमिक और कहीं औरयिक कहा है, सो किस अपेक्षा से ? इसका खुलासा । पृ०-१६६, नोट ।।
संख्या का विचार अन्यत्र कहाँ-कहाँ किस-किस प्रकार है ? इसका निवेश 1 पृ०-२०८, नोट ।
युगपर तथा भिन्न-भिन्न समय में एक या अनेक जीवाश्मित पाये जाने काले भाव और अनेक जीवो को अपेक्षा से गुणस्थानों में मावों के उत्तर मेव । पु-२३१ ।