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कर्मग्रन्थ माग धार
तत्वार्थ अ ८ सू० १ में बन्ध के हेतु पाँच कहे हुए है, उसके अनुसार अ० ६ सू. १ को सर्वार्थ सिद्धि में उसर प्रकृतियों के और बन्ध हेतु के कार्य-कारपा-मात्र का विचार किया है। उसमें सोलह के बन्ध को मिथ्यात्व-हेतुक, उन्सालीस के बन्ध को अविति-हतुक, छह के बन्धको प्रमावहेतुक, अदावन के बन्ध को कषाय-हेतुक और एक के बन्ध को योग हेतुक बतलाया है । अविरति के अनन्तानुवन्धिकषाय-जन्य, अप्रत्यानावरण कषाय अन्य और प्रत्याख्यानाधरणकषाय-जन्य, ये तीन भेद किये है । प्रथम विरातको पच्चीस के प्रधान मोदा के. और तीसरी को हार के बन्धका का कारण दिवाकर कुल उत्तालीम के बन्ध को अबिरति हेतुक कहा है। पंचसंग्रह में जिन अरसद प्रकृतियों के बन्ध को कषाय हेतुक माना है उनमें से चार के बन्धको प्रत्याख्यातावरणकषाय-जन्य अविरति हेतुक और छह के बन्ध को प्रमाद-हेतुक सर्वार्थ सिद्धि में बतलाया है; इसलिये उसमें कषाय-हे.तुक बन्धवाली अट्टावन प्रकृतियाँ ही कही हुई हैं।