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कर्मग्रन्थ भाग चार
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णौयकषायके क्षयोपशम से सर्वविरतिका। मति अज्ञान आदि क्षायोपशमिक-भाष अभय के अनादि-अनन्त और विज्ञान प्रादि-सान्त है । मतिज्ञान आदि भाव भव्यके सावि-साम्त और दान आदि लब्धियाँ तथा अजुदर्शन अनादि साम्स हैं ॥ ६५ ॥
अन्नायमसिद्धता, संजमलेसा कसाग्रगइवेया । मिच्छ्रं तुरिए भब्बा, भव्वत्तजियन्स परिणामे || ३६ || अज्ञानमसिद्धत्वाऽवमलश्याकमा गतिवेदाः ।
मिष्याणं तु भव्याऽभव्यस्वजीवत्वानि परिणामे ॥ ६६ ॥
अर्थ- महान, असित्य, असंयम, लेश्या, कषाय, गति, वेद और मिथ्यात्य, ये भेद चौथे (औवधिक) भावके हैं। मध्यत्व, अभव्यत्व और जीवत्व, ये पारिणामिक-भाव है ॥६६॥
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भावार्थ- श्रीदयिक भाव के इकील भेद है। जैसे :- महान, असि त्व असंयम, इ लेश्याएँ, चार कपाय, चार गतियाँ, तीन वेद और मिथ्यात्व | अज्ञान का मतलब ज्ञानका अभाव और मिथ्याज्ञान दोनोंसे है । हानका अभाव शामावरणीयकर्म के उदयका और मिउपादान मिथ्यात्वमोहनीय कर्मके उदयका फल है। इसलिये दोनों प्रकारका अज्ञान औधिक है। असिद्धत्व, संसारावस्थाको कहते हैं। यह, आठ
१ - निद्रा, सुख, दुःख, हास्य, शरीर आदि असंख्यात भाव जो भिन्न-भिन्न कर्मके उदय से होते हैं, वे सभी कौटिक है, स्थापि इस जगह श्रीमति आदि पूर्वाचार्योंके कथनका अनु सरण करके स्थूल दृष्टि औयिक भाव बताये है।
यहाँ
२ – मति शान, श्रुत-तान और विज्ञानको पिछली गाथामै खायोपशमिक भीर कि कहा है। क्षायोपशनिक इस अपेक्षा से कहा है कि ये उपयोग मतिज्ञानावरणीय आदि कर्म के क्षयोपशम-जन्य है और दकि इस अपेक्षा से कहा है कि इनकी भाका कारण मिध्यालमोहनीय कर्मका हृदय है।