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कर्मग्रन्थ माग पार
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बसकी अवस्था-विशेषोसे है। जैसे:- फर्म की उपग्राम अवस्था उसका श्रीपथमिक-भाव, क्षयोपशम अवस्था क्षायोपशमिक-भाव, जयअवस्था क्षायिक-भाष, उदय-अवस्था मदविक-भाष और परिभ्रमनअवस्था पारिणामिक-भाष है।
उपश्रम-अवस्था मोहनीयकर्मके सिवाय अन्य कमकी नहीं होती? इसलिये औपशमिक-भाष मोहनीयकर्मका ही कहा गया है। कबोपशुम चार घातिकर्मका ही होता है: इस कारण क्षायोपशमिक-भाव शालिकका ही माना गया है। विशेषता इतनी है कि केवलवानाधरणीय और केवलदर्शनावरणीय, इन दो धातिकर्म-प्रकृतिओोंके विपाकोदयका निरोधन होनेके कारण इनका क्षयोपशम नहीं होता । ज्ञायिक, पारिणामिक और औदयिक, ये तीन भाष घाठो कर्मके है: क्योंकि क्षय, परिणमन और उदय, ये तीन अवस्थाएँ आठो कर्म की होती हैं। सारांश यह है कि मोहनीयकर्मके पाँचों भाव, मोहनीयके सिवाय सीन घातिकर्मके चार भाव और चार भघातिकर्म के तीन भाष हैं । अजीवद्रव्यके भाष ।
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, श्राकाशास्तिकाय, काल और पुछवास्तिकाय, ये पाँच श्रजीवद्रव्य हैं। पुनास्तिकायके सिवाय शेष चार अजीवद्रव्योंके पारिणामिक-भाव ही होता है। धर्मास्तिकाय, जीव- पुत्रलोकी गतिमें सहायक बननेरूप अपने कार्यमें अनादि कालसे परिक्षत हुआ करता है। अधर्मास्तिकाय, स्थितिमै सहा
१- परियामिक शब्दका 'स्वरूप परिणमन', यह यक ही अर्थ है, जो सब में लागू ता है। जैसे:- कर्मका भी प्रदेशों के साथ विशिष्ट सम्बन्ध होना या द्रव्य, तंत्र, छाल और भाव आदि भिन्न-भिन्न निर्मित पाकर भनेकरूपमें संकान्त (परिवर्तित होते रहना कर्मका पारियाद है। जीवका परिणमन श्रीवत्वरूपमें भव्वस्वरूप में या अभ्रभ्यत्वरूप में स्वतः बने रहना है। इसी स्तिका आदि द्रव्य समझ लेना चाहिये।