Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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( १२ ) - संख्याका विचारं ।
(dwr marià 1] संख्याके भेद-प्रभेद |
कर्मच-मान भार
संविवेगमसंं, परिसजुसनियपयजुधं तिविहं । एवमपि तिहा, जहन्नमज्भुकासा सब्बे ॥ ७१ ॥
संयमेवमेकम संख्यं परिश्रयुक्तनिजपदयुतं विविधम् ।
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एथमनन्तमपि वा अधन्यमध्योत्कृष्टानि वर्षाणि ॥ ७१ ॥
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अर्थ-संक्यात एक है। असंख्यातके तीन भेद हैं: - (१) परीश, (२) युक्त और (३) निजपदयुक्त अर्थात् असंख्यातासंस्थात | इसी तरह अनन्तके भी तीन भेद है। इन सबके जयम्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये तीन-तीन भेद है ॥ ७१ ॥
भावार्थ -- शास्त्र संस्था तीन प्रकारकी एसओ (१) सध्या, (२) असंख्यात और (३) श्रमन्त । संख्यातका एक प्रकार, असंख्यातके तीन और अनन्तके तीन, इस तरह संख्याके कुल सात भेद हैं। प्रत्येक भेदके जयम्य, मध्यम और उत्कृष्ट-रूपसे तीन-तीन भेद करने
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१- संख्या-विषयक विचार, मनुयोग-द्वारके २३४ से लेकर २४१ ४ त और लोकप्रकारा- वर्ग १ १२२ से लेकर १२ लोक तक में है। अनुयोगद्वार सूत्रने सैद्धा शिक-मत है। उसकी ठीकामै मलभारी श्रीमद्रसूरिने कामे अधिक मत्रका भी उल्लेख किया है। लोकप्रकाशमै दोनों मत संग्रहीत है।
श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्
गतिविरचिता त्रिलोकसारको १३से लेबर ५१ की गाथाओं में संख्याका विचार है। उसमें पम्प स्थानमें 'कुण्ड' शब्द प्रयुक्त है; गन भी कुछ जुड़े से । उसका वन कार्य पम्बिक -मवसे मिलता है।
'संस्था' शब्द गौद्ध-साहित्य में है, जिसका अर्थ '१'के अपर एक सी बाली जितनी संख्या है। इसकेलिये देखिये, जिसका पाली अँगरेजी कोषका ५१ पुत्र