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कर्मग्रन्थ भाग चार
बनेरूप कार्य में; आकाशास्तिकाय, अवकाश देनेरूप कार्य में और काल, समय-यांवरूप स्व-कार्यमें यमादि कालसे परिणमन Pा करता है। पुन प्रत्यके शरिणामिक और औदायिक, ये दो भाव है। परमाणु-पुढलकर तो केवल पारिणामिक-भाव है; पर स्कस्वरूप पुनसके पारिवामिक और औदायिक, ये दो भाव हैं। स्कन्धोंमैं भी घणु कादि सादि स्कन्ध पारिणामिक-भाषघाले ही हैं, लेकिन प्रौदारिक आदि शरीररूष स्कन्ध पारिणामिक-श्रीवयिक दो भाष. वाले हैं। क्योंकि ये स्व-स्व-रूपमें परिणत होते रहने के कारण पारिणामिक-भाषवाले और औदारिक आदि शरीरनामफर्मके उदय-जम्य होने के कारण औदायिक-भाववाले हैं।
पुलद्रव्य के दो भाव कहे हुए हैं, सो कर्म-पुङ्गलसे भिन्न पुलके समझने चाहिये । कर्म-पुनसके तो औपशमिक आदि पाँचों भाष , मो ऊपर बतलाये गये हैं ॥
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(११)-गुणस्थानोंमें मूल भावं ।
( एक जीवकी अपेक्षासे ।) संमाइषउमु लिग चउ, भावा च पणुषसामगुवसंते । बउ खीणापुब्ध तिमि लेसगुपट्टापगेगजिए॥७०||
सम्पमादिचतुर्यु प्रयश्चस्वारी, भावाचत्वारः पञ्चोपशमनोपशान्ते । चत्वारः क्षीमाऽपूर्व प्रय:, शेषगुणस्थानक एकजीवे || .. ॥
अर्थ-पक जीघको सम्माधि आदि खार गुणवानोंमें सीम या चार भाव होते हैं। उपरामक (नौ और दसवें) और उपशान्त (ग्यार. इ) गुणस्थानमें चार या पाँच भाव होते हैं। कोएमोह तथा पूर्व
----- .. .- ... . ...--.. १-देखिये, परिशिष्ट 'क'